Friday, December 17, 2010

कुछ अधूरे पन्ने......

May 2004....
पापा का हॉस्पिटल भी अजीब है, उसने मौत  को ज़िन्दगी से आगे निकलते देखा  है. जैसे उसे नहीं पता मौत क्या होती है, ज़िन्दगी क्या. मैं खुश हूँ दसवीं का रिजल्ट आया है, पर उस ढाई साल के मासूम का क्या जिसे आग का मतलब भी पता नहीं था.'अब ये मेरे बस में नहीं है छतरपुर ले जाना पड़ेगा'. Basic Treatment के बाद पापा ने सिटी रेफेर करने को बोल दिया. 'डॉक्टर साब पैसे नहीं हैं'. पापा ने चुपचाप 500 का नोट निकाल कर दे दिया. वो दुखिमन दुआ देता हुआ चला गया. 'अब ये नहीं बचेगा 80% जल चुका है.' पापा ने मेरी तरफ मुड़ते कहा. पापा की कोरें भीगी हुई हैं.
ये ख़ुशी भी अजीब होती है, खुश रहने कहाँ देती है!

March 2008...
इंजीनियरिंग मैं 'Sad Stories' नहीं होती, लेकिन Panjaabi sir को देखता हूँ तो  ये बात भी झूठ लगने लगती है. वो गर्व से बोलते हैं, वो 'Jyoti Talkies Circle' है  वो मेरे बेटे ने डिजाईन किया है...फिर 80 साल की बूढी आँखें छत ताकने लगती हैं. इस उम्र में Daily Basis पे  Lectures लेना उनका शौक है मजबूरी, उनकी कांपती हड्डियां बता ही देती हैं. आज बस इतना ही, वो Basic Civil की किताब उठा दरबाजे की तरफ बढ जाते हैं. मैं चुपचाप उन्हें जाते देखता हूँ. कहते हैं बहुत सी चीजें छुपाये नहीं छुपती.

May 2008...
कॉलेज  के एक Senior  के पापा  बीमार  हैं, उसके दोस्त  इलाज़  के लिय पैसे जोड़ रहे  हैं......लड़का हॉस्पिटल में है......उसके दोस्तों  के चेहरों  में  मुझे खुदा  नज़र  आता  है. एक Classmate  ने  100 रूपये  दिए  हैं.......ये 50 रूपये  वापस  लो, 50 रूपये से ज्यादा मत दो, तुम्हारे घर  से भी  तो  सीमित पैसे आते हैं.... बाहर सिगरेट  के टपरे पर  आज  कुछ  कम भीड़ देख  अच्छा लगता  है.


Oct 2008...
अबे पी ना, पी के देख, सोमरस है....मैं मुस्कुरा कर मना करता हूँ. ....अब  पेपर  उठा  लिया  हाथ  में  उसने, अबे ये लोग पी  कर गाड़ी  क्यूँ  चलाते  हैं, मरेंगे  ही साले, वो पेपर पढ़ के बोलता है...... उसे भी 10km दूर अपने रूम जाना  है, रात में ही...... अबे अभी तो 3 ही हुए हैं, 5 तक तो मुझे होश रहता है..... मैं मुस्कुराता हूँ.

Jan 2009...
मैं इस जगह नया नया रहने या हूँ..चाय के टपरे पर चाय पी रहा हूँ. 'भैया एक रूपये देदो ना.' चिथड़ों में एक 7-8 साल का लड़का पैसे मांग रहा है. 'अबे जा यहाँ से.' चायबाला चिल्लाता है. मैं एक रुपया दे देता हूँ. 'कितनों को पैसे दोगे भैया, यहाँ बहुत आते है.'....एक तरफ काले, बदसूरत लड़के मायूस से पैसे मांग रहे हैं....वहां HPCL के ग्रौंद पे गेंद खेली जा रही है. 'इनमें और उनमे सिर्फ एक गेंद का फ़र्क है.' यश दार्शनिक अंदाज़ में दुखी हो कहता है. मैं बस हाँ में जबाब देता हूँ.

Oct 2009...
फ़ोन बजा 'पचमढ़ी चलोगे आज रात?'...'किससे?'....'bike से जा रहे हैं, चलना हो तो चलो.'  मामी बैठी हुई हैं, 'विवेक, bike से मत जाना, मना कर दो.' मैं मना कर देता हूँ. सुबह फ़ोन बजा-'विवेक वो accident हो गया है, नर्मदा हॉस्पिटल पहुँचो.' मैं पहुँचता हूँ, सुबह 5.00 बजे निकले थे पचमढ़ी को, होशंगाबाद के पहले accident हो गया. यही एक गाड़ी थी जिसपे 2 लोग बैठे थे........अगर मैं गया होता तो इसी पे बैठता, सोचकर मैं सिहर उठता हूँ. ..........पहली बार किसी funeral में गया हूँ, एक्सिडेंट के बाद एक महीने ज़िन्दगी से लड़ते-लड़ते दोस्त नहीं रहा. बिहार से था...उसके पापा का चेहरा देखने की हिम्मत नहीं होती......लौट के आ बाथरूम में रो पड़ता हूँ. नहाते हुए आंसू भी धुल से जाते हैं..............एक महीने बाद सब नोर्मल है.

April 2010...
'मैं उसी से शादी करूंगी' वो मुस्कुरा के बोलती है......मैं Coaching के बाद Daily उसे स्टॉप तक छोड़ने जाता हूँ.  मेरे से 3 साल बड़ी है लेकिन मैंने आज तक उससे अच्छी लड़की नहीं देखी. उसे एक लड़के से प्यार, पंजाबी है लड़का, वो ब्रह्मिन....उसकी शादी तय हो रही है कहीं और, लड़का 1 Lakh per Month कमाता है, MNC में है. वो घर बालों को अपने प्यार के बारे में बता देती है. मैं उसे मुर्ख कहता हूँ.....लेकिन शायद वो अच्छी है, तो अच्छी है....उसके घर बालों ने अब उसका घर से निकलना बंद करवा दिया है. इश्क के पहरे क्यूँ हैं?

Aug 2010...
मेरे यहाँ जुलूस निकला है, मैं भगवान् की कांवर उठाये हुए हूँ. फ़ोन बजता है,फ़ोन पे Sumit है 'वो 'उसके' पिताजी नहीं रहे.' वो दुखी हो बोलता है. वो मेरे सबसे अच्छे दोस्त के बारे में बात कर रहा था.मैं निःशब्द हूँ. एक प्रश्न है, हम भगवान् क्यूँ पूजते हैं? अपनों की सलामती के लिए ही ना!
मैंने मंदिर जाना छोड़ दिया है.

Dec 2010...
कुछ नहीं. कुछ अधूरे पन्ने स्याह भी हैं.

Sunday, December 12, 2010

kUcHh मजेदार....

ज़िन्दगी अजीब चीज है, कभी ना ख़त्म होने बाला ड्रामा......'तुम मुझे ये कैसे भूल सकते हो......तुमने मुझे रात को 3.00 बजे क्यूँ नही उठाया?' हे भगवान् जब तुम्हें पढना है तो अलार्म लगा के सोओ ना......दोस्त और उसकी 'उस' के साथ कबाब में हड्डी बना मैं उनकी बेतुकी बातें सुन यही सोच रहा था. पर ये बेतुकी भी कितनी अजीब होती है.....जब हमारे साथ होती है तो अच्छी लगती है....और ओरो को करते देखते है तो 'बेतुकी'.
                         खैर, बिल आया '100' रूपये.........कुल तीन कॉफ़ी का बिल. 'इतना तो एक मजदूर कमा पाता है, दिन भर काम करने के बाद और यही 100 रूपये उसके घर के आठ आदमियों का पेट भरते हैं वो भी दोनों वक़्त की'........हमारी इस बेवक्त-की-बेतुकी का साथ दोस्त ने भी दिया, भरपूर. लेकिन मैडम गुस्सा....और हमारे आशिक मियाँ अब मनाने में जुट गये....बेचारे दोस्त की फ़िक्र नही.......ये आशिकी है यारा....खैर ये हमें भी अच्छा लगता था कभी, सताना किसी को, रुलाना किसी को, मनाना किसी को....लेकिन वो आशिकी ना थी, मियाँ हम अब तक ना समझ पाए वो क्या था.
 खैर पोपुलेशन बढ रही है, लगता है आत्माएं आज कल जहन्नुम से निकल सीधा आकर आदमी बनने लगी हैं. भगवान् ने पुराना ८४ लाख योनियों का सिस्टम चेंज कर दिया है. लेकिन यहाँ भी कित्ता सुख है.......'चेतक ब्रिज' के फुटपाथ पे लत्तो में पड़े आदमी को हमने देखा और 10 डिग्री की कडाके की ठण्ड में इग्नोर करते हुए हम आगे बढ गये......सी सी करते हुए.
 इंसानियत मर गई है और यही हम कह रहे है, ब्लॉग पे.......और अभी अभी छोड़ आये हैं लत्तो में लिपटा वो इंसान! यहाँ सब मेरे जैसे ही हैं...... घर में बैठ भ्रष्टाचार बढ़ने की गपशप करने बाले. ...भले ऑफिस में टेबल के नीचे पैसे सरकाए हों.
   "बचपन में सुना था 'बेटा पढ़ लो, काम आयेगा.' ये धोनी क्यूँ नही अपने माँ-बाप की सुनता था???? " अच्छा SMS था ना..अभी अभी मोबाइल बजा है. बेचारी मिडिल-क्लास कुछ सोचना ज़रूर शुरू कर दी होगी.
मियाँ मोबाइल भी अजीब है, एक अनपढ़ भी ओपरेट कर लेता है और हम बेचारे आधी B.Tech. सिग्नल्स, सिस्टम्स, और Mobile Communication पढने में गुजार दिए.
आज अखबार में पढ़ा है, भ्रष्टाचारी में देश 17 पायदान और बढ़ गया......हो भी क्यूँ नहीं एसा.....बेचारे हम भी अपने पूर्वजों को देख-देख अपनी सरकारी नौकरी की आस लगाए बैठे हैं.
अजीब ज़िन्दगी है, एक साहब मिले, उन्हें इस बार पिताजी ने पैसे नहीं भेजे थे......उनका इंजीनियरिंग का साढ़े पांचवा साल है और अभी 6 महिना और बचे हैं....साबजी हमारे सीनियर थे तो हम अदब से मिले...... वो रोना शुरू हो गये...'पापा ने पैसे नहीं भेजे हैं ये तो हमारा हक है कम से कम हक के पैसे तो भेजते'. ये अजीब देश है, अपने कर्त्तव्य से पहले यहाँ हक सिखाया जाता है....और ज़िन्दगी भर हम उसे गुनगुनाते रहते हैं. फिर बेचारे उसी हक को पाने घूस देते हैं, और घूसखोरी  को लेकर रोते हैं. तंत्र वेतंत्र है, कहने को अनंत है.......फिलहाल, आज की बकबक ख़त्म.

Friday, December 10, 2010

a Story, my Story.

Place : Room 207 of my college.
Time: 230pm
Situation: External faculty taking viva.
Batch: Mera batch Bhai!
External: wts ur name?
me: sir 118..
External: name! name, name.
me: Oh! sorry sir Vivek.
External: Sorry Sir ya Vivek??
me: Vivek
External: kya pada?
me: Antenna.
External: I know, abe mei isi subject ka viva le raha hu.........isme se kya pada? ....... Achha define Slotted antenna.
me: Sir, ummmmmmmmmm.....................mmmmmmmm........mm. .......
.............. ................ .........       ..........
External: dont know!!!.....Beta Aish kar.


~
So, its the story of today's viva....... Lagi padi hai. Not a single unit prepared........even not a single topic. I dont know the first topic of first unit-slotted antenna.


Lag gai Bhai  lag gai, vaat lag gai. and Sone Pe Suhaga is what im doing.........just blogging, chatting, reading magazines, sleeping.
                        And offcource, my EQ (Emotional quotient) is more than  IQ........so, kaha kaha ke emotions aa-aa kar mujh pe Emotional Atyachaar karte hai, pata hi nhi chalta.

Saturday, December 4, 2010

wtf, i dnt wanna use my blog like a diary, but wt im doing is jst a shit! exams r on head (sir pe bansi baja rahe hai) nd im reading blogs, chatting and sleeping.......god will really punish me!

Monday, November 29, 2010

रंग- तुलिका भर के!

ख़ुशी

वो मिले मुझे
तो गिरेबाँ पकड़ मांग लूं गम,
अब ये ख़ुशी बर्दाश्त नहीं होती!


लिखते-लिखते सुफियानापन आ गया है!!


धूप

धुल-धुल के चमका दिया रौशनी ने,
पड़ोस से एक सितार और मांग ला.
गुनगुनाती सुबह मैं तुझे
इश्कियाना गीत की ज़रुरत है!

अवसाद

मुंडेरें बची होती तो
कह पाता कभी,
'मैं पंछी हूँ मुंडेरों का'.

चमकती इमारतों के बीच,
टूटी झुग्गी सा लगता हूँ मैं,
जैसे कोई सारे रंग चुरा ले गया हो!


आदमियत

गणेशजी पूज लिए सोते वक़्त,
अब भरोसा नहीं रहा आदमियत पे,
क्या पाता कौन बारूद
सांस खींच ले नींद में ही!

इश्क

तेरे इनकार को कैसे मैं मान लूं!
आँखें तो इरादे और कह रही हैं,
जैसे नींद के आगोश में भी,
सपने मेरे देखे हों.
चांदनी से बनाई हो,
मेरी उजली तस्वीर.
....और आखिर में
पन्ने के पन्ने काले कर दिए हों,
मजबूरी की स्याह से!


फिर भी मंजूर है मुझे तेरे हर फैसले!
......क्यूंकि तेरे इरादे तो सही हैं.

Sunday, November 21, 2010

आदतें...


 1.
दूर जाना चाहूँ तो,
आफतों की तरह
इठलाती आती है तू!
जैसे मुझपर सिर्फ तेरा हक है!

मुस्कुराता हूँ मैं,
आफतें भी अच्छी लगती हैं फिर!

 2.
भूलना चाहूँ तो,
धुंए की तरह
छा जाती है तू!

तेरी यादों के धुंध से,
भर जाता हूँ मैं!

 3.
रुलाना चाहूँ तो,
खिलखिलाती है तू!
जैसे रातरानी झड़ रही हो चाँदनी मैं!

बचपन की बिसरी सी,
परीकथाएँ सच लगने लगती है फिर!

 4.
छूना जो चाहूं तो,
छुईमुई की तरह
शर्माती है तू!

अचंभित मैं!
बस देखता रह जाता हूँ तुझे.

 5.
पाना चाहूँ तो,
बादल की तरह
भिखर जाती है तू!

बूंदों से सरोबार,
पुलकित हो उठता हूँ मैं!

 6.
हँसाना चाहूँ तो,
ढले सूरजमुखी की तरह
मुरझाती है तू!

मैं घबराता हूँ तो,
मेरी हालत पे खिलखिलाती है.
ज्यों सूरज फिर उग आया हो!

 7.
सरबती पलों में कभी,
लहरों की तरह बह जाती है तू!

तट पर ठिठुरता मैं,
बस राह तकता रह जाता हूँ !!

                                 ~V!Vs**

Thursday, October 14, 2010

मौत

सुबह बार-बार आती है!!!
तारे टूटे और बिखर गये,
बर्फ पिघली और मिट गई.
शबनम सोख ली किरणों ने,
बूंदे गिरी और बह गई.


खुश हैं,
बिखराव है,
किन्तु अंतिम सत्य के रूप में.
यहाँ तो मौत भी
सुबह की तरह बार-बार आती है.
                        ~V!Vs***

तो जानते मैं क्या सोचता हूँ

मेरी आँखों से कुछ रंग जो चुराते,
तो जानते मैं क्या सोचता हूँ.


किनारे से आगे कभी सोचा ही नहीं,
लहरों संग बह,
आसमां छूने का एहसास जगाते,
तो जानते मैं क्या सोचता हूँ.


क्या पता क्यूँ,
दरख्तों से झाँका
और लौट गये तुम.
जरा दो पल बिताते
तो जानते मैं क्या सोचता हूँ.


किसी ने कुछ कहा,
तुमने बिन जाने ही सच मान लिया.
ये आवरण हटाते,
तो जानते मैं क्या सोचता हूँ.


कह दिया दोस्त,
मुश्किलों में मैं हूँ तुम्हारा.
जरा दोस्ती निभाते,
तो जानते मैं क्या सोचता हूँ.


                  ~V!Vs***      

Thursday, September 16, 2010

आज !

वक़्त से निकल कुछ लम्हे
यादों में खोये हुए 
कहते कुछ बातें प्यारी-
जैसे सपने जागे-जागे,
जैसे अरमान गूंजे-गूंजे 
जैसी खुशियाँ बिखरी-बिखरी 
जैसे जीवन संवरा-संवरा.
जैसे डाली डोली डोली,
फूलों पे मंडरे भँवरा.

उन्नीदी सी रात ये
जैसे गाती गीत मल्हार,
जैसे चाँद प्रेयसी बन,
छू जाता, करता प्यार.
आँखों में, हंसी में आज
एक अजीब नयापन है.
बूंदे हैं बिखरी-बिखरी,
मौसम में अपनापन है.

इतारये इस दिल ने,
एक घरोंदा पाया है.
छोटे से घरोंदे का,
हर तिनका अपना पाया है.

आज कुछ सजीव लम्हे,
बरसों बाद जिए हैं फिर.
खुशियाँ बटोरकर सारी,
लम्बी प्यास कर लूँ तर!

                           ~V!Vs ***

Wednesday, August 25, 2010

उन्मुक्त क्षणिकाएं : palaayan

नींद 
नींद में सिर्फ ख्वाव नहीं,
उदासी भी है,
कुछ अधूरे सपने और तन्हाई भी है.
तो कुछ पाने की उन्मुक्तता,
कुछ सुकून और चैन भी है.


तन्हाई 
तन्हाई
बस टैरेस पर अकेला होना नहीं,
भीड़ में खोना भी है.
भरी सड़क अकेला होना भी है.
सफ़ेद लबादे में लिपटी लाश तन्हा नहीं,
तन्हा तुम हो,
क्यूंकि तमाशे में भी अकेले हो.


सड़क/शहर 
सड़क का रास्ता,
सिर्फ शहर को नहीं जाता है.
उम्मीद को भी जाता है,
नए अवसर की ओर भी जाता है.
रेल की पटरी किनारे
झुग्गियां बनेगी ज़रूर,
चंद रोटियां तो नसीब होगीं.
भले सुकून मिले ना मिले,
गाँव से शहर थोड़ा अच्छा है......!!!


गाँव का रास्ता तो लम्बा है....
गाँव में,
सुकून है तो क्या,
माँ है तो क्या,
गाँव का रास्ता तो लम्बा है.....
फिर गाँव से शहर लौटना भी है मुश्किल!


तुम्हारी आस में...
कहते हैं,
लौट आते हैं लोग
शाम ढले,
सुबह के भूले भी.
तुम्हारी आस में तो रात गुजर गई.


....
* टैरेस-terrace
लबादा- चादर, कफ़न(here)
                                                    ~V!Vs***

Wednesday, August 18, 2010

मेरे तो कई ख्वाव अधूरे हैं...... जैसे तुम!!

सावन
सावन क्या है?
बूँदें बरसें तो
लहराते पेड़, उमड़ती खुशियाँ.
ना बरसें तो
ठूंठ और शोक की कविता.

कविता
कविता क्या है?
बस वो शब्द नहीं,
जो कह दिए गये.
कविता है,
शब्दों से निकले कुछ मौन अर्थ भी.
...और कुछ अनकहे शब्द भी.

अनकहे शब्द
अनकहे शब्द,
अभिव्यक्त से अधिक कठोर हैं.
एक मौन में कथनों से ज्यादा शोर है!

शोर 
शोर क्या है?
किसी सत्य पर हा-हाकार
या मौन सत्य की चीत्कार?
सड़कों पर चक्केजाम, नारेबाजी शोर है
तो अस्मिता लुटने के बाद की चुप्पी क्या है?

सत्य/ख्वाव 
सत्य क्या है?
सपनों का धरातल पर उतरना
या कुछ ख्वावों का कभी पूरा ना होना?
ख्वाब सभी को प्यारे हैं,
पूरे कितने ख्वाब तुम्हारे हैं....?
मेरे तो कई अधूरे हैं......
जैसे तुम!!

                                                  
                                                          ~V!Vs ***

Saturday, August 14, 2010




बुढ़ापा

ऐसा भी कोई घर आपने देखा है?

जहाँ 
अतीत के ख्वावों में डूबा 
बाप हो,
सदा से ममतामयी
माँ हो,
बहू का प्यार हो,
बेटे द्वारा सत्कार हो.

आज सब बूढ़े क्यों वृद्धाश्रम में ठूँसे गये हैं?
यों जाने कितने पेड़ यूँ ही सूख गये हैं.

                  
                                               ~V!Vs ***

Monday, August 2, 2010

Ishq

(Few words are enough to describe feelings, LOVE or ink from whole world is unable to describe; both things are true.
I hope these few three liners are capable to show feelings, thats why im writing. I hope you will like these 'TRIVENIs')

.......

जबसे तनहा तड़पा हूँ याद में,
लड़की, लड़की कह चिड़ाने लगे हैं लोग.

लगता है मेरे जिस्म से भी अब तेरी खुशबू आती है.

.......

तूने साथ छोड़ा मेरा, कोई गिला नहीं,
मैं खुश हूँ कलम तो साथ है मेरे.

शुक्र है नज्में ख़ूनी नहीं होती.

.......


तेरे दिए ज़ख्म इतने बुरे भी नहीं,
चलो अच्छा है दूर से पहचान लेंगे लोग.

सुना है लाल रंग बड़ी दूर से दिखता है.

........

टपकती छट ने सारा बिस्तर भिगो दिया,
फिर भी ये मौसम सुहाना लगता है.

मेरे आँसू कोई नहीं पहचान पाता बारिश में!

........

पहाड़ दूर से देखा, बहुत सुन्दर था,
पास गये, पैरों में फफोले पड़ गये.

तू दूर है तो अच्छा है!!

.......

यूँ ना गम के आँसू बहाव आशिक,
कलम में डुबा कुछ  उकेर दो इनसे.

सुना है दर्द में नज्में खूबसूरत बनती हैं.

                                               ~V!Vs **

Friday, July 30, 2010


जीत! 
हज़ारों मरे 
लाखों घायल,
कई लापता
क्या किया हासिल?

जीत!!

अगर यह जीत है
तो हार क्या थी?
झुके-झके कन्धों से चलते
मानव की
असली हार यही है.
बस फ़र्क इतना है,
हम शर्मसार नहीं हैं.

Saturday, July 17, 2010

घर 



बड़ी टीस से चुभते हैं ये नींव के पत्थर,
न मोटी दीवारें फांद सका है कोई और.


तुमने दिल में पक्का घर क्यों बनाया था?

Monday, July 12, 2010

my first 'Triveni'

ये शहर


दिल नहीं, जज्बात भी खोए से लगते हैं,
 आंसू भी पत्थर और बुत बने हैं लोग.

कंक्रीट का जंगल सा लगता है ये शहर.

Tuesday, July 6, 2010

सावन

चलो इस सावन में सभी भीग लो.
अच्छा है वह अल्लाह-राम का नाम ले
नहीं बरसता.
गिरने से पहले बूँदें
हमारी जात नहीं पूंछती.
होली के रंग जैसे
उसके छींटे सिर्फ चंद लोगों पे नहीं पड़ते.
ना ही वह रंग-भेद करता है.


चलो अच्छा है,
पानी तो हमें एक कर देता है.


तुम्हारे शरीर से बह बूंदें,
दुसरे को छूती हैं
तो जात नहीं पूंछती.


चलो अच्छा है,
हम सावन में तो साथ भीग सकते हैं.
बिना जात-पात के,
बिना रंग-भेद के,
बिना अमीरी के,
गरीबी के.


चलो इस सावन में सभी भीग लो,
क्या पता अगला जात पूंछ कर आये.
क्या पता,
सरकारें उसे भी सरहद की तरह बाँट दें.


जात-पात समझने लगे सावन,
उससे पहले ही
इस बार भीग लो.
अगली बारिश शायद तुम्हारी जात बालों को ना हुई तो!!!

Sunday, June 20, 2010

Happy Father's Day.......:))

मैं और मेरे पिता  


पिता की आँखें,
वो दीर्घ में देखती आँखें.
आँखों में पलता सपना-
की पाऊं में सफलता.
उन्होंने जो किया संघर्ष,
वो न करना पड़े मुझे!
लड़ना न पड़े मुझे.

मैं-नालायक
संघर्ष नीयति मान करता हूँ.
अपना सपना पाल
खुद के लिए लड़ता हूँ.

अब,
हमारे सपने टकरा गये.
उनका सपना दीर्घ, मेरा सपना शुन्य,
उनकी नज़र में यह बूँद!!
मैं जीते या वो, नहीं पता.
पर मैं सफलता पा गया,
पा के इठला गया.

मैं सोचता हूँ,
वो देखते-मैं कितना खुश हूँ,
अपना सपना साकार कर,
पा सफलता अपने आधार पर.

वो सोचते हैं,
काश! बेटा देखे,
वो खुश हैं, उसकी लगन से,
उसने पाया, जो चाहा मन से.

लेकिन,
मैं दुखी हूँ, उनका सपना न साकार कर,
वो दुखी हैं, सपने थोपने के आधार पर.

हम,
खुश हैं,भीतर से,
दुखी, बाहर से.

मैं, पिता और ये अटूट बंधन,
हँसता, इठलाता ये जीवन.

Tuesday, June 8, 2010

क्यों.... क्यों गये हो इतने दूर?

कानों में,
आज भी गूंजती है
तुम्हारी आवाज़.
फेफड़ों को छलनी कर जाती है,
हवा संग बह
तुम्हारी खुशबू.

इतनी दूर क्यों गये मुझसे,
कि जेहन में भी
धुंधला गये हो तुम.

आज भी,
सांझ ढले लगता है
जैसे तुम,
जला जाओगे बत्तियां.
कर जाओगे रोशन
हमारा घर,
सपनों का घर.

आज,
हर सपना, हर महल
खंडहर सा लगता है,
तुम्हारे बिना.
खुद में जकड़ा सा,
दर्द में बुझा-बुझा 
महसूस करता हूँ.
मैं नहीं करता रोशन
अपना घर,
इतनी हिम्मत ही नही होती मेरी.

तन्हाई में
रोता हूँ मैं,
चंद नवेली साँसों के लिए.
तब लगता है
वैसे ही,
पीछे से आ
तुम थाम लोगे मेरे कंधे.
फिर हाथों में हाथ ले 
दिखा दोगे मुझे राह,
बना दोगे सड़कें,
या खुद ही बन जाओगे मंजिल.

क्यों....
क्यों गये हो इतने दूर?
कि पथरा गईं हैं मेरी आँखें,
तुम्हारी बाट जोहते-जोहते.

वो सड़क,
जहाँ हर सुबह 
हम उन्मुक्त घुमा करते थे,
वर्षों से वैसे पड़ी है.
अब तो पत्तों ने भी,
झड़-झड़ कर
उसपर मोटी परत बना ली है.
कूड़े का,
लम्बा ढेर लगती है दूर से.

क्यों,
क्यों चले गये इतने दूर?
कि वापसी की
हर राह तुम्हें बिसर गई?

तुम्हें लौटता ना देख,
भूलना चाहता हूँ मैं.
पर उन्मुक्त आस बन,
फिर-फिर आ जाते हो,
मेरे पास.
इतने दूर गये हो तुम,
कि शायद ना आ सको लौटकर.
फिर भी मेरा दिल
यह मानने तैयार नहीं.

तुम जिंदा रहोगे,
हमेशा मेरे मन में,
जेहन में.

Friday, May 28, 2010

बुढ़ापा







तब.....
मैं उसे,
कभी बेटू, कभी छोटू,
कभी चिल्ड, कभी शैतान,
कभी प्यारे, कभी दुलारे,
कह के बुलाता था,
और वो दौड़ा चला आता था.

अब....
वो मुझे,
कभी बुड्ढ़े, कभी ओल्डी,
कभी बापू, कभी दद्दू,
कभी निकम्मे,कभी पागल,
बुलाता है,
और मैं दौड़ा चला आता हूँ
,

Saturday, March 27, 2010

......................उलझन

हाँ ना की उलझन में ये तन्हाई उलझ गई.
ख्याल जो संजोये थे, पुलाव बन गये.
धुप में जो थे, सब छाँव बन गये.
दूर से देखा तो एक शहर की आस थी,
पास पहुंचे, सब गाँव बन गये.

ख्याल किया तेरा, तो ख्याली उलझ गयी.
जबाबों के भंवर में एक सवाली उलझ गयी.
चंद लफ्ज सुनने हम बिता बैठे जीवन.
दिल में जज्बात लिए खामोश रहे तुम.
खामोश ये ख़ामोशी कहर बन गयी.
अरमान की उमड़ती लहर बन गयी.

ढूढ़ते रहे हम तेरा निशां कहाँ है,
उंघती आँखों में पाया तुझको.
पलकों पे बैठी मेरे गीत गुनगुना रही थी.
दर्द में सिमटी जिरह गा रही थी,
मजबूरी पे अपनी मुस्कुरा रही थी.
तेरी मजबूरी मुझको गुनाह बन गई.
बे-मंजिल सी राह बन गई.

हाँ-ना की उलझन में तन्हाई उलझ गई.
पलकों के बीच अटकी रुलाई उलझ गई.

Thursday, March 4, 2010

Hello friends, I am not occupied till 8th March....college have GT till this. So I am free, just reading, writing, painting,blogging, playing and enjoying............Read and left your valuable comments on my these frequent poems. Thanking u.


 U knw, wt i made?? even i dnt.......but its a good way to show whole nature with decodesigns by just three color ball pens. :)

Monday, March 1, 2010

अँधेरे की ओर छितराती शाम


उन्नीदे होते हम,
अँधेरे की ओर छितराती ये शाम,
अदभुत! अतुल्य!! सुन्दर!!!

ढलता, पिघलता सूरज
जैसे अस्तित्व भांप रहा हो.
विराग, विहग खगकुल,
राग अपने गा छितरा गया.
समूचा गगन उसमे समा गया.
बचे सूरज की रौशनी समेटते
देहरी पे जलते दिए,
लौटती पन्हारिनें,
बदरंगे बादल,
खुशनुमा मौसम........
 फिर हमारे बीच से निकलती रेल,
जैसे सम्पूर्ण सौंदर्य मंडरा गया हो.

 प्रकृति रंग रंगे हम,
खग विहग गान,
अँधेरे की ओर छितराती शाम,
अदभुत! अतुल्य!! सुन्दर!!!

Sunday, January 31, 2010

विदर्भ के किसान का फोटो!


बेटियां भेंट करते,
विदर्भ के किसान का फोटो!
देश का सच कहने काफी है.
बीस रूपये सैकड़ा से,
लिया गया ब्याज.
चुकाते-चुकाते मर गये आप!
खेती भी बेंची, घर भी बेंच डाला,
साहूकार ने सबकुछ पचा डाला.
अब बचीं जवान बेटियां,
वो भी भेंट करो,
क़र्ज़ चुक जायेगा!
हवश से मिटता क़र्ज़,
देश करता तरक्की!
विकास की बात कहाँ तक सच्ची?

फोटो

पत्थर फोडती औरतों का
फोटो कितना दयनीय है.
दर्द से झुकती कमर,
बदन पसीने से तर,
हाथों में पड़ते फफोले,
पत्थरों पे नहीं,
सीधे आत्मा पर पड़ते हथोड़े!
क्या यह हमें ललकार नहीं रहा?


खेत पर,
पत्थरों के बीच लेटे
दुध्मुहें बच्चे का फोटो.
कितनी कराह है इसमें!
खेत जोतते माँ-बाप,
लत्तों से ढंका,
भूखा-दुधमुंहा,
तीव्र किरणों से,
अपने को समेटता है.
क्या फायदा,
सर ढंकने झोपड़ी कहाँ है,
बनाने पैसे कहाँ है!


बेटियां भेंट करते,
विदर्भ के किसान का फोटो!
देश का सच कहने काफी है.
बीस रूपये सैकड़ा से,
लिया गया ब्याज.
चुकाते-चुकाते मर गये आप!
खेती भी बेंची, घर भी बेंच डाला,
साहूकार ने सबकुछ पचा डाला.
अब बचीं जवान बेटियां,
वो भी भेंट करो,
क़र्ज़ चुक जायेगा!
हवश से मिटता क़र्ज़,
देश करता तरक्की!
विकास की बात कहाँ तक सच्ची?


ये फोटो कितने अजीब हैं,
संसद का फोटो कितना मोटा,
पेपर के मुख्य पृष्ट पर आता है.
दर्दील देश का असली सच,
यूँ ही गम हो जाता है.