Friday, April 15, 2011

....तुम्हारी दी कलाई घड़ी!

याद है,
लम्हे बाँधने के लिए,
तुमने कुछ दिया था!

मैं,
लम्हे बांधते-बांधते थक गया,
लेकिन ये युग
अनवरत अग्रसर है!

मैं नहीं चाहता,
बहने दूं इन पलों को.
.......बस थामना चाहता हूँ,
तुम नहीं
 तो तुम्हारी यादें.

लेकिन,
सिर्फ और सिर्फ 
मुझे तुमसे बाधें रख सकती है,
नहीं थाम सकती लम्हें.
सोचता हूँ,
उतार के फेंक दूं
तुम्हारी दी कलाई घड़ी!

तुमसे दूर जाने का ये प्रयास भी
कर के देख लूं!
....उम्र भर सीने में चुभें लम्हे,
उससे तो कहीं यही अच्छा है!!!