Tuesday, March 13, 2018

जैन-बैल-खेल


कभी लगा वो लोग खुशकिस्मत हैं 
जो खुद की देह में ही अजनबी हो गए
उनसे जो खुद के घर में अजनबी हुए हैं.

फिर कभी उल्टा लगा.
मतलब खुद के घर में अजनबी होना अच्छा है
खुद की देह में अजनबी होने के.

फिर दोनों ही ख्याल अजीब लगने लगे
जैसे बचपन में 'त्रिशला-नन्दन महावीर' भजन निरर्थक था.
वैसे वो आज भी निरर्थक ही है.

मेरे पिता ने मुझसे बेहतर जैन बनने को कहा
मेरे हर बार बेहतर जैन बनकर पहुंचा
उन्हें हर बार और भी कमतर जैन महसूस हुआ.

उनका धर्म मंदिर ले जाता था
और मैं ज्यूँ ज्यूँ धर्म के करीब आता गया
 मंदिर से दूर होता गया
और अपने में धर्म के पास.

न उन्हें कभी समझ आया
न मुझे शायद धर्म.

खैर, मुद्दे की बात ये है कि
मैंने उनसे ये ज़िन्दगी नहीं मांगी थी
उन्होंने दी वो भी रिश्ते-नाते, परिवार समाज, धर्म
और बने-बंधे कायदों के साथ.
मैं जुते हुए बैल कि तरह पैदा हुआ था
जिसे सीढ़ी धुरी में चलना था
और डंडे से रास्ता दिखाया जाना था.

मैंने इससे इंकार कर दिया.

मैंने एक प्रेमिका चुनी
एक सपना चुना
एक गीत लिखा
दो सौ रूपये की आज़ादी वाली किताब खरीदी 
और जूतों में पंख लगा उड़ गया.

प्रेमका ने दिल तोडा
सपना बिखर गया
गीत को किसी ने न गुनगुनाया
किताब का लेखक कर्मों से लिखे जैसा न था
और जूते घिस गए.

...और मुझे लगने लगा मेरे पिता सही थे.
जुते हुए बैल सा जीना ही सही है.

लेकिन देह और घर दोनों जगह ही अजनबी इंसान 
ऐसे ज़िंदा कैसे रहता.
इसलिए मैंने मरना चुना.
किन्तु आत्महत्या अपराध था
और मेरा सुसाइड-नोट पोएटिक था.
मेडिकल साइंस ने भी तरक्की कर ली थी. बचा लिया गया.

इसलिए मैंने दौड़ना शुरू किया
और खेत से बाहर आने तक दौड़ता रहा.
ये क्रांति थी
अबतक किसी ने दौड़ा न था.
और जो दौड़े थे बांधे गए थे.

मैं किरणों संग भाग रहा हूँ
सबेरे से 
और अँधेरे के पार भागूंगा
अगली उम्मीद तक.

तुम रस्सियां बंटना शुरू कर दो.
बाँधने लम्बी लगेगी.
आकाशगंगा के पार तक.