जब आप महान को याद भी न कर सकें या उसका अवकाश ही आपके पास न रह जाए तो मान लेना चाहिए कि समय क्षुद्रता से आक्रांत हो चुका है. यही पिछले हफ्ते हुआ जब मुक्तिबोध की पुण्यतिथि गुजर गई और हम उन पर कायदे से बात भी न कर सके. लेकिन यह हफ्ता बेचैनी का था. मुक्तिबोध लेकिन शायद हमें माफ़ कर देंगे क्योंकि हमारा मन उनकी ही उज्जवल परंपरा की एक संवाहिका गौरी लंकेश की हत्या से क्षुब्ध, आलोड़ित था.
गौरी की हत्या के बाद अभिव्यक्ति की आजादी, विरोध के अधिकार के हनन के प्रश्न उठे. साथ ही हमने क्षुद्रता का नृत्य भी देखा, गाली-गलौज, गौरी और उनके मित्रों को लक्ष्य करके और जिस ढिठाई से उनकी हत्या का जो जश्न मनाया गया, उसने अनेक लोगों को स्तब्ध कर दिया.



यह था ‘खलई का हुलास.’ लेकिन खलता की पूरी विजय तब होती है जब समाज शुभ और सुंदर के साथ उदात्त का भी बोध खो बैठे. उदात्त के बिना मनुष्य का जीवित रहना असंभव है. खलता को स्वीकार कर लेना या उसका विरोध न कर पाना, यह मनुष्य को अपनी निगाह में छोटा बना देता है. उसकी भरपाई कुछ लोग उस खलता का औचित्य खोज कर, अपने मन को बहलाकर कर लेना चाहते हैं. लेकिन मन विद्रोह करता है. अपनी इस क्षुद्रता की सीमाबद्धता को तोड़ कर उदार के विस्तार में मिल जाना चाहता है.
गौरी लंकेश की ह्त्या के एक हफ्ते बाद ही बंगलुरु की सडकों पर जो जन क्षोभ का ज्वार उमड़ा, वह इस खोए हुए उदात्त को लेकर सामाजिक मन की तड़प की ही एक अभिव्यक्ति थी. कुछ समय पहले हिंसा के आगे जिस असहायता और बेबसी ने सबको छोटा बना दिया था, उसे जैसे एकबारगी ठोकर से उड़ा दिया गया.
महान या उदात्त क्षुद्रता के भीतर इतना हीनता बोध भर देता है, अनचाहे, कि वह हिंसा से भर उठती है. क्षुद्रता हर किसी को अपने सांचे में ढालना चाहती है और अपने स्तर पर खींच कर गिरा डालना चाहती है.
उदात्त का पतन समाज का नियम बन जाए तो फिर उसके पुनर्वास का संघर्ष भी कठिन हो जाता है. हालांकि वह उदात्त सबके भीतर है, कोई अपवाद नहीं है. लेकिन वह कुछ ऐसा है जो हमारी पहुंच में नहीं, कि हम उसके काबिल नहीं, ऐसा अकसर समाज के बहुलांश को समझा दिया जाता है. यह काम उन्हें काबू में करके किया जाता है जो उदात्त के उदाहरण हैं या हो सकते थे. यह आश्चर्य की बात न थी कि इंदिरा गांधी ने आपातकाल के दौरान कई लेखकों और कलाकारों को अपने घर चाय पर बुलाया. उनमें से अनेक गए भी जो हमारे आदर्श थे, जिन्हें देख कर हम महानता की कल्पना कर पाते थे. अज्ञेय ने इस पतन का हिस्सा होने से इनकार किया. भावी पीढ़ियां उनकी कृतज्ञ इस कारण भी हैं कि उन्होंने उदात्त के उदाहरण को भी जीवित रखा.
गोर्की जब तक लेनिन से सवाल करते रहे, उनका उदात्त स्वरूप सत्ता के लिए चुनौती बना रहा. लेनिन उन्हें सह न पाए तो सेहत सुधारने के बहाने इटली रवाना कर दिया. लेकिन गोर्की फिर लौटे अपने देश स्टालिन के दरबारी बन कर. और उनके साथी लेखकों और पाठकों का दिल बैठ गया. पास्तरनाक के उस दौर के संस्मरण में या बच्चों के लेखक चुकोव्स्की की डायरी में दर्दनाक ब्योरा मिलता है रूसी भाषा और साहित्य की प्रतिभाओं के आत्म हनन का.
कुछ वर्ष पहले जब हमने नंदीग्राम और सिंगूर की हत्याओं का समर्थन देखा अपने प्रिय बौद्धिकों के द्वारा तो तकलीफ इसकी हुई कि वे अपने सत्तासीन नेताओं का औचित्य साधन करते हुए अपनी बौद्धिकता की साख भी धूल में मिला रहे थे. बौद्धिकता सोचती है कि वह अपने बल पर किसी का औचित्य साबित कर देगी लेकिन इस क्रम में वह खुदकुशी कर बैठती है.
मुक्तिबोध की कविताओं में इस उदात्त को पालतू बनाने के अनेक चित्र हैं. ‘चुप रहो मुखे सब कहने दो’ कविता का आरंभ यों होता है:
‘गंदे थर साफ़ दीखते हैं
जिनमें डूबा
वह चांद थिरकता रहता है
धीरे-धीरे!!
आखिर यह क्यों, ऐसा क्यों है?
उज्ज्वल मन गहरे डूब रहे क्यों गटरों में?’
‘डबरे में सूरज’ के प्रसिद्ध बिंब के विरुद्ध मुक्तिबोध का यह बिंब है, गंदे पानी के थर में थिरकते हुए चांद का बिंब. यह दुःख भरा आश्चर्य कि उज्ज्वल मन गटर में डूबे गए.
दूसरा भीषण बिंब एक विशाल पर्वत का है जो कभी भी भूकंप नहीं कर सकता. वह एक भूतपूर्व ज्वालामुखी है जिसने अपनी विस्फोटक क्षमता को ही नष्ट कर डाला है. भ्रम भर रह गया है विशालता का क्योंकि वह खोखली है.
महानता के आत्म हनन का दृश्य लोमहर्षक है:
‘हैं बंधे खड़े,
ये महत्, बृहत्,
जिनके मुंह से प्रज्ज्वलित गैस-सी सांस-आग
वे इस जमीन में गड़े खड़े;
मशहूर करिश्मों वाले गहरे स्याह तिलस्मी तेज़ बैल
तगड़े तगड़े
अपने अपने खूंटों से सारे बंधे खड़े’
ये सब महान संभावनाओं से युक्त थे, प्रतिभा के स्वामी, लेकिन खुद को इन्होंने जिस खूंटे से बांध लिया है, वह स्वर्ण धातु का है,/ रत्नाभ दीप्ति का है,/ आत्मैक ज्योति का है,/ स्वार्थैक प्रीति का है.’, इसीलिए उन्होंने जो कुछ भी किया वह धूल बन गया. इस दुखदायी परिवर्तन को देखिए,
‘देदीप्यमान रेडियम मनोहर भावों का
क्रमशः काले जड़ सीसे में
परिवर्तित होता गया
कि वह प्रतिकूल बन गया
वे बड़े-बड़े पर्वत अंधियारे कुएं बन गये
जो कल कपिला गाय आज तेंदुए बन गए.
हाय हाय, यह श्याम कथानक है
आदमी बदल जाने की यह प्रक्रिया भयानक है.’
यह नाश अपना आदमी खुद ही करता है. जीने के नाम पर:
‘जीने के लिए, स्वयं से पृथक भिन्न होकर
तुमने किसी जिन्न की छोटी खटिया पर
अपने को उसकी बराबरी में करने
सही-सही लेटने
निज के ये ज़्यादा लंबे पैर
काट डाले
अपने ही ज्यादा लम्बे हाथ
छांट डाले.’
लेकिन यह सब होता है तो इसलिए कि कोई एक है ‘जिसके दासों के अनुदासों के उपदासों ने ही/ अपने दासों को उपदासों को अनुदासों को भी/ देश-देश में इस स्वदेश में, आसमान में भी/ मानव-मस्तक की राहों में छाहों के ज़रिये/ मनानुशासन, जीवन शोषण, समय-निरोधन के/ सब कार्यों में लगा दिया है सभी अनुचरों को.’
यह समझना आवश्यक है क्योंकि प्रायः इस शक्ति पर ध्यान केन्द्रित करने की जगह हम पदच्युत प्रतिभाओं पर ही निशाना साधने में ऊर्जा खर्च कर डालते हैं. और वह शक्ति मुस्कराती रहती है.
मनानुशासन, जीवन शोषण और समय-निरोधन, ध्यान देने योग्य शब्द हैं. यह जिनके माध्यम से किया जाता है वे बौद्धिक हैं लेकिन हैं ‘औचित्य-प्रदर्शक घोर दार्शनिक.’ ये खुद को निष्पक्ष विश्लेषक कहते हैं जो न्याय के पक्ष में खड़ा होना और अन्याय का विरोध करना, दोनों को ही बौद्धिकों के कामों में नहीं गिनते. उसे एक्टिविस्ट कहा जाता है कुछ मज़ाक उड़ाते हुए जो इसे शर्त बताता है.
मुक्तिबोध ऐसे विश्लेषकों से कहते हैं,
‘तुम खूब करो विश्लेषण जग का जीवन का
और डूब मरो
निःसंग बढी अंधियारे में चलती है
उसको चलने दो
और ऊब मरो .
तुम करो आत्म साक्षात्कार यह संभव है
पर, निज चरित्र-साक्षात्कार ही दुर्लभ है
चिंतन की शक्ति और चित्रण का शिल्प लिए
तुम खूब मरो.’
चिंतन की शक्ति हो या चित्रण का शिल्प, अगर वह न्याय बोध से खाली है तो व्यर्थ है. उसमें उदात्त की संभावना तो है लकिन वह चरितार्थ होगी इस न्याय बोध से संवलित होकर ही.
गौरी लंकेश इस न्याय बोध की मशाल थीं इसलिए बुझा दी गईं. लकिन फिर वह पूरे देश में और उसी बंगलुरु की सडकों पर हजार-हजार मशालों में जल उठीं. यह उदात्त पर साधारण का दावा है और आसानी से वह उसे छोड़ने वाला नहीं.