Sunday, January 14, 2018

गांधी का यह अद्भुत भाषण बताता है कि टॉल्स्टॉय के प्रति उनकी श्रद्धा कितनी थी और क्यों थी

'मैं इतना तो कह ही सकता हूं कि तीन पुरुषों ने मेरे जीवन पर बहुत अधिक प्रभाव डाला है. उनमें पहला स्थान मैं राजचन्द्र कवि को देता हूं, दूसरा टॉल्सटॉय को और तीसरा रस्किन को. किन्तु यदि टॉल्सटॉय और रस्किन के बीच चुनाव की बात हो, और दोनों के जीवन के विषय में मैं और अधिक बातें जान लूं, तो नहीं जानता कि उस हालत में प्रथम स्थान किसे दूंगा.
टॉल्सटॉय के जीवन में मेरे लेखे दो बातें महत्वपूर्ण थीं. वे जैसा कहते थे वैसा ही करते थे. उनकी सादगी अद्भुत थी, बाह्य सादगी तो उनमें थी ही. वे अमीर वर्ग के व्यक्ति थे, इस जगत के सभी भोग उन्होंने भोगे थे. धन-दौलत के विषय में मनुष्य जितने की इच्छा रख सकता है, वह सब उन्हें मिला था. फिर भी उन्होंने भरी जवानी में अपना ध्येय बदल डाला. दुनिया के विविध रंग देखने और उनके स्वाद चखने पर भी, जब उन्हें प्रतीत हुआ कि इसमें कुछ नहीं है तो उनसे उन्होंने मुंह मोड़ लिया, और अंत तक अपने विचारों पर डटे रहे. इसी से मैंने एक जगह लिखा है कि टॉल्स्टॉय इस युग की सत्य की मूर्ति थे. उन्होंने सत्य को जैसा माना तद्नुसार चलने का उत्कट प्रयत्न किया; सत्य को छिपाने या कमजोर करने का प्रयत्न नहीं किया. लोगों को दुःख होगा या अच्छा लगेगा, शक्तिशाली सम्राट को पसन्द आएगा या नहीं, इसका विचार किए बिना ही उन्हें जो वस्तु जैसी दिखाई दी, उन्होंने कहा वैसा ही.
टॉल्सटॉय अपने युग के अहिंसा के बड़े भारी समर्थक थे. जहां तक मैं जानता हूं, अहिंसा के विषय में पश्चिम के लिए जितना टॉल्स्टॉय ने लिखा है उतना मार्मिक साहित्य दूसरे किसी ने नहीं लिखा. उससे भी आगे जाकर कहता हूं कि अहिंसा का जितना सूक्ष्म दर्शन और उसका पालन करने का जितना प्रयत्न टॉल्स्टॉय ने किया था उतना प्रयत्न करनेवाला आज हिन्दुस्तान में कोई नहीं है और न मैं ऐसी किसी आदमी को जानता हूं.यह स्थिति मेरे लिए दुःखदायक है; यह मुझे नहीं भाती. हिन्दुस्तान कर्मभूमि है. हिन्दुस्तान में ऋषि-मुनियों ने अहिंसा के क्षेत्र में बड़ी-बड़ी खोजें की हैं. परंतु पूर्वजों की उपार्जित पूंजी पर हमारा निर्वाह नहीं हो सकता. उसमें यदि वृद्धि न की जाए तो वह समाप्त हो जाती है.
वेदादि साहित्य या जैन साहित्य में से हम चाहें जितनी बड़ी-बड़ी बातें करते रहें या सिद्धांतों के विषय में चाहे जितने प्रमाण देकर दुनिया को आश्चर्यचकित करते रहें, फिर भी दुनिया हमें सच्चा नहीं मान सकती. इसलिए रानडे (समाज सुधारक और न्यायविद महादेव गोविंद रानडे ) ने हमारा धर्म यह बताया है कि हम अपनी इस पूंजी में वृद्धि करते जाएं. अन्य धर्मों के विचारकों ने जो लिखा हो, उससे उसकी तुलना करें, और ऐसा करते हुए यदि कोई नई चीज मिल जाए या उसपर नया प्रकाश पड़ता हो तो हम उसकी उपेक्षा न करें. किन्तु हमने ऐसा नहीं किया.हमारे धर्माध्यक्षों ने एक पक्ष का ही विचार किया है. उनके अध्ययन में, कहने और करने में समानता भी नहीं है.
जन-साधारण को यह अच्छा लगेगा या नहीं, जिस समाज में वे स्वयं काम करते थे, उस समाज को भला लगेगा या नहीं, इस बात का विचार न करते हुए टॉल्स्टॉय की तरह खरी-खरी सुना देनेवाले हमारे यहां नहीं मिलते. हमारे इस अहिंसा-प्रधान देश की ऐसी दयनीय दशा है. हमारी अहिंसा निंदा के ही योग्य है. खटमल, मच्छर, पिस्सू, पक्षी और पशुओं की किसी न किसी तरह रक्षा करने में ही मानो हमारी अहिंसा की इति हो जाती है. यदि वे प्राणी कष्ट में तड़पते हों तो भी हमें उसकी चिन्ता नहीं होती. परंतु दुःखी प्राणी को यदि कोई प्राणमुक्त करना चाहे अथवा हमें उसमें शरीक होना पड़े तो हम उसे घोर पाप मानते हैं. मैं लिख चुका हूं कि यह अहिंसा नहीं है.
टॉल्स्टॉय का स्मरण कराते हुए मैं फिर कहता हूं कि अहिंसा का यह अर्थ नहीं है. अहिंसा के मानी हैं प्रेम का समुद्र; अहिंसा के मानी हैं वैरभाव का सर्वथा त्याग. अहिंसा में दीनता, भीरुता नहीं होती, डर-डरकर भागना भी नहीं होता. अहिंसा में तो दृढ़ता, वीरता, अडिगता होनी चाहिए.यह अहिंसा हिन्दुस्तान के समाज में दिखाई नहीं देती. उनके लिए टॉल्सटॉय का जीवन प्रेरक है. उन्होंने जिस चीज पर विश्वास किया. उसका पालन करने का जबरदस्त प्रयत्न किया, और उससे कभी पीछे नहीं हटे.
इस जगत में ऐसा पुरुष कौन है जो जीते जी अपने सिद्धांतों पर पूरी तरह अमल कर सका हो? मेरी मान्यता है कि देहधारी के लिए संपूर्ण अहिंसा का पालन असंभव है. जब तक शरीर है तब तक कुछ-न-कुछ अहंभाव तो रहता ही है. इसलिए शरीर के साथ हिंसा भी रहती ही है. टॉल्स्टॉय ने स्वयं कहा है कि जो अपने को आदर्श तक पहुंचा हुआ समझता है उसे नष्टप्राय ही समझना चाहिए. बस यहीं से उसकी अधोगति शुरू हो जाती है. ज्यों-ज्यों हम उस आदर्श के नजदीक पहुंचते हैं, आदर्श दूर भागता जाता है. जैसे-जैसे हम उसकी खोज में अग्रसर होते हैं यह मालूम होता है कि अभी तो एक मंजिल और बाकी है. कोई भी एक छलांग में कई मंजिलें तय नहीं कर सकता. ऐसा मानने में न हीनता है, न निराशा; नम्रता अवश्य है. इसी से हमारे ऋषियों ने कहा है कि मोक्ष तो शून्यता है.
जिस क्षण इस बात को टॉल्स्टॉय ने साफ देख लिया, उसे अपने दिमाग में बैठा लिया और उसकी ओर दो डग आगे बढ़े, उसी वक्त उन्हें वह हरी छड़ी मिल गई. (गांधीजी से पूर्व इस सभा में किसी वक्ता ने कहा था कि टॉल्स्टॉय के भाई ने उन्हें अनेक सद्गुणों वाली हरी छड़ी खोजने को कहा था जिसे वे आजीवन खोजते ही रहे) उस छड़ी का वह वर्णन नहीं कर सकते थे. सिर्फ इतना ही कह सकते थे कि वह उन्हें मिली. फिर भी अगर उन्होंने सचमुच यह कहा होता कि मिल गई तो उनका जीवन वहीं समाप्त हो जाता.
टॉल्स्टॉय के जीवन में जो अंतर्विरोध दिखता है वह टॉल्स्टॉय का कलंक या कमजोरी नहीं, बल्कि देखनेवालों की त्रुटि है. एमर्सन ने कहा है कि अविरोध का भूत तो छोटे आदमियों को दबोचता है. अगर हम यह दिखलाना चाहें कि हमारे जीवन में कभी विरोध आनेवाला ही नहीं है तो यों समझिए कि हम मरे हुए ही हैं. अविरोध साधने में अगर कल के कार्य को याद रखकर उसके साथ आज के कार्य का मेल बिठाना पड़े, तो उस कृत्रिम मेल में असत्याचरण की संभावना हो सकती है. सीधा मार्ग यही है कि जिस वक्त जो सत्य प्रतीत हो उसपर आचरण करना चाहिए. यदि हमारी उत्तरोत्तर उन्नति हो रही हो और हमारे कार्यों में दूसरों को अंतर्विरोध दिखे तो इससे हमें क्या? सच तो यह है कि यह अंतर्विरोध नहीं उन्नति है. इसी तरह टॉल्स्टॉय के जीवन में जो अंतर्विरोध दिखता है वह अंतर्विरोध नहीं; हमारे मन का भ्रम है.
एक दूसरे अद्भुत विषय पर लिखकर और उसे अपने जीवन में उतारकर टॉल्स्टॉय ने उसकी ओर हमारा ध्यान दिलाया है. वह है ब्रेड लेबर (खुद शरीर श्रम करके अपना गुजारा करना). यह उनकी अपनी खोज नहीं थी. किसी दूसरे लेखक ने यह बात रूस के सर्वसंग्रह (रशियन मिसलेनी) में लिखी थी. इस लेखक को टॉल्स्टॉय ने जगत के सामने ला रखा और उसकी बात को भी प्रकाश में लाया. जगत में जो असमानता दिखाई पड़ती है, एक तरफ दौलत और दूसरी तरफ कंगाली नजर आती है, उसका कारण यह है कि हम अपने जीवन का कानून भूल गए हैं. यह कानून ब्रेड-लेबर है. गीता के तीसरे अध्याय के आधार पर मैं इसे यज्ञ कहता हूं. गीता ने कहा है कि जो बिना यज्ञ किए खाता है वह चोर है, पापी है. वही चीज टॉल्स्टॉय ने बतलाई है.
ब्रेड-लेबर का उल्टा-सीधा भावार्थ करके हमें उसे उड़ा नहीं देना चाहिए. उसका सीधा अर्थ यह है कि जो शारीरिक श्रम नहीं करता उसे खाने का अधिकार नहीं है.यदि हममें से प्रत्येक व्यक्ति अपने भोजन के लिए आवश्यक मेहनत कर डाले, तो जो गरीबी दुनिया में दिखती है वह दूर हो जाए. एक आलसी दो व्यक्तियों को भूखों मारता है, क्योंकि उसका काम दूसरे को करना पड़ता है. टॉल्स्टॉय ने कहा है कि लोग परोपकार करने निकलते हैं, उसके लिए पैसे खर्च करते हैं और उसके बदले में खिताब आदि लेते हैं; यदि वे ये सब न करके केवल इतना ही करें कि दूसरों के कंधों ने नीचे उतर जाएं तो यही काफी है. यह सच बात है. यह नम्रतापूर्ण वचन है. करने जाएं परोपकार और अपना ऐशो-आराम लेशमात्र भी न छोड़ें, तो यह वैसी ही हुआ जैसे अखा भगत ने कहा है- निहाई की चोरी, सुई का दान. क्या ऐसे में स्वर्ग से विमान आ सकता है?
ऐसा नहीं है कि टॉल्सटॉय ने जो कहा वह दूसरों ने न कहा हो, लेकिन उनकी भाषा में चमत्कार था और इसका कारण यह है कि उन्होंने जो कहा उसका पालन किया. गद्दी-तकियों पर बैठने वाले टॉल्स्टॉय मजदूरी में जुट गए. आठ घंटे खेती का या मजदूरी का दूसरा काम उन्होंने किया. शरीर-श्रम को अपनाने के बाद से उनका साहित्य और भी अधिक शोभित हुआ. उन्होंने अपनी पुस्तकों में से जिसे सर्वोत्तम कहा है वह है- कला क्या है?. यह किताब उन्होंने मजदूरी में से बचे समय में लिखी थी. मजदूरी से उनका शरीर क्षीण नहीं हुआ. उन्होंने स्वयं यह माना था कि इससे उनकी बुद्धि और अधिक तेजस्वी हुई और उनके ग्रंथों को पढ़नेवाले भी कह सकते हैं कि यह बात सच है.’
Source: Satyagrah website