Tuesday, June 10, 2014

हम मुसाफिर ऐसे...




थका हूँ, गिरा हूँ
लेकिन आशान्वित तो पड़ा हूँ.
उठूंगा, लड़ूंगा, चलूँगा,
उम्मीद है,
उम्मीद से अधिक दौडूंगा.

ठहरा नहीं, रुक नहीं,
धीमा, मगर चल रहा हूँ.
जो सोचा,
कर रहा हूँ.

मैं बस चलना चाहता हूँ
नए-नए रास्तों से,
जिसका पता सफर में निकलने से पहले
मालूम ना हो.

'हमको तो बस तलाश नए रास्तों की है,
हम हैं मुसाफिर ऐसे जो मंज़िल से आये हैं.'*



*जावेद अख्तर साहब से उधार ली गईं दो लाइनें, जिनके बिना शायद ये कविता अधूरी लगती.

Pic : लोनावला का कहीं, कोई रास्ता.