Wednesday, September 6, 2017

आज राज्य क्यों ऐसा सोचता है कि गरीबों और अशिक्षितों को निजता के अधिकार की जरूरत ही नहीं है? | अपूर्वानंद

निजता प्रत्येक व्यक्ति का मौलिक अधिकार है. राज्य उस पर दावा नहीं कर सकता. वह उसे यह नहीं बता सकता कि वह क्या खाए, क्या पहने, क्या पढ़े, कैसे रहे. वह उसकी ज़िंदगी में बेरोकटोक तांकझांक नहीं कर सकता, न उससे यह मांग कर सकता है कि वह खुद से जुड़ी हर जानकारी राज्य के हवाले कर दे. कुल मिलाकर व्यक्ति खुदमुख्तार है.
व्यक्ति अपना विचार बना सकता है और उसे व्यक्त भी कर सकता है. उसे ऐसा करने से रोका नहीं जा सकता.
व्यक्ति के जीने का अधिकार तो मौलिक है लेकिन वह अर्थपूर्ण तभी है जब वह इज्जत के साथ जी सके. अगर मैं हमेशा दूसरे की निगरानी में रहने को मजबूर हूं तो जाहिर है मैं ससम्मान जीवन नहीं जी रहा.
24 अगस्त, 2017 को आज़ाद भारत के न्यायिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण दिन की तरह याद किया जाएगा. इसलिए कि भारत की सबसे बड़ी अदालत ने एकमत से भारत के नागरिकों के सबसे पवित्र अधिकार को राज्य के लिए भी उतना ही महत्वपूर्ण बना दिया.


निजता को व्यक्ति का अधिकार घोषित करने के उच्चतम न्यायालय के फैसले का जश्न ठीक ही मनाया जा रहा है. लेकिन उस उल्लास में हम भूल रहे हैं कि यह सब कुछ इसलिए है कि अब राज्य वह बन चुका है जो अपने नागरिकों को अपना मातहत मानता है और उनकी जिंदगियों पर कब्जा करने पर आमादा है. अभी तो उच्चतम न्यायालय ने उसकी इस सोच पर चोट कर दी है लेकिन यह मानना एक तरह की खुशफहमी होगी कि हर बार वह हमारी ढाल बन ही पाएगा.
उन तर्कों को देखें जो सरकार ने वैयक्तिक निजता को अधिकार माने जाने के खिलाफ दिए थे तो राज्य की मानसिकता का पता चलता है. उसने कहा कि निजता का तर्क आभिजात्यवादी है. यह तर्क अजीब है लेकिन ध्यान देने योग्य है. इन दिनों आभिजात्य होने को एक गाली की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है. प्रत्येक परिष्कृत विचार या आचरण को अभिजात या आभिजात्यवादी कहकर उसे तिरष्कृत कर दिया जाता है. या, अगर किसी विचार पर हमला करना हो तो पहले उसे अभिजात कह दिया जाता है.
सरकार ने अदालती फैसले के बाद यह कहना शुरू किया है कि यह दरअसल उसके ख्याल की ही तस्दीक है और अदालत में उसके वकील ने जो कुछ भी कहा था वह बस, कचहरी की बहस में हुई नोंकझोंक या बाता-बाती का हिस्सा है.
अदालत में सरकार के विचार या उसके रुख को उसका वकील ही सामने रखता है और अपनी दलील उसके निर्देश से पेश करता है. यह कहना कि वह तो यों ही बहस में मीर बनने को कह दिया गया था और उसे गंभीरता से नहीं लिया जाना चाहिए, इसलिए चिंता का विषय है कि इसके मायने यह भी निकलते हैं कि हमारा सामना एक गैरजिम्मेदार सरकार से है.
अखबारों और कई लोगों ने ठीक ही पिछले तीन सालों में सरकार की दलीलों का रिकॉर्ड सामने रखकर सरकार के क़ानून मंत्री के इस दावे को मिथ्या बताया है कि सरकार तो शुरू से ही निजता को नागरिकों का मौलिक अधिकार मान रही थी. ठीक ही पूछा गया है कि अगर ऐसा था तो फिर छह लोगों को अदालत की गुहार ही क्यों लगानी पड़ी? यह मुक़दमा ही क्यों हुआ?
सरकारी वकील ने कहा कि भारत के नागरिक यह दावा नहीं कर सकते कि उनके शरीर पर उनका अधिकार पूर्ण है. मैं अपने शरीर, या उसके अंगों की जानकारी किसे दूं न दूं, यह मेरा निर्णय होगा. लेकिन सरकार का कहना यह था कि वह मेरे शरीर के बारे में निर्णय कर सकती है.
सरकारी तर्क यह था कि निजता वस्तुतः एक आभिजात्यवादी विचार है जो भारत के लिए अजनबी है. चूंकि भारत में रहने वाले अधिकतर गरीब हैं, इसलिए यह उन पर या उनके संदर्भ में लागू नहीं होता. यह तर्क अजीबोगरीब तो है ही, बहुत खतरनाक भी है. यह निजता या स्वतंत्रता के अधिकार के साथ-साथ एक तरह से समानता के अधिकार के साथ भी राज्य का खिलवाड़ है
यह याद रखने की ज़रूरत है कि किसी वक्त भारतीयों की गरीबी, उनकी अशिक्षा को कारण बताया गया था अंगरेज़ हुक्मरानों के द्वारा यह कहने के लिए कि वे आज़ादी जैसी चीज़ को बरतने के काबिल नहीं हैं. अशिक्षित व्यक्ति जनतंत्र जैसे विचार को भी नहीं समझ सकता. अब बताया जा रहा है कि गरीब लोगों के लिए निजता का कोई मतलब नहीं है.
मेरी गरीबी को मेरी संप्रभुता का हरण करने का तर्क कैसे बनाया जा सकता है! मेरी गरीबी कोई मेरा अस्तित्वगत गुण या अवगुण नहीं, वह नितांत ही सामाजिक है. जिसके लिए मैं जिम्मेदार नहीं, उसे मेरे खिलाफ इस्तेमाल नहीं किया जा सकता.
गरीबी को एक तर्क की तरह इस्तेमाल किया जाता है अनेक प्रसंगों में व्यक्ति के जीवन में राजकीय हस्तक्षेप को जायज़ ठहराने के लिए. वह यह तय कर सकता है कि वह कितने बच्चे पैदा करे, यह कि वह कितनी कैलोरी ऊर्जा ले, यह कि किस तरह के घर में वह रहे. जब सरकार यह कहने लगती है कि स्कूल के दोपहर के खाने में बच्चे अंडे न खाएं, वह तय करेगी कि प्रोटीन का ज़रिया क्या होगा, तो वह उनकी निजता में ही दखल दे रही होती है.
समृद्ध या अमीर लोगों की तो कामनाएं होती हैं, गरीबों को वह अधिकार नहीं. यही बहस कार्ल मार्क्स आर्थिक और दार्शनिक पांडुलिपियों में कर रहे हैं कि मैं अपने श्रम का कैसे इस्तेमाल करूं और उसकी कीमत भी कितनी तय करूं, अगर यह मेरे बस में नहीं तो यह माना जाना चाहिए कि मुझसे मेरा आपा ही छीन लिया गया है.
निजता किसी दूसरे अधिकार के तहत नहीं है, वह अपने आप में वह संपूर्ण है, यह इस फैसले ने साफ़ किया. सरकार यह दलील दे रही थी कि अभी संविधान में इसे मौलिक अधिकार नहीं मना गया है. अदालत ने साफ़ कहा कि व्यक्ति राज्य की सृष्टि नहीं है और अगर कोई बात संविधान में अभी वर्णित नहीं है तो इसका अर्थ यह नहीं कि उसे लेकर दावा ही नहीं किया जा सकता.
निजता का यह अधिकार अब हमारा बुनियादी हक है. लेकिन यह कोई अदालत का प्रसाद भी नहीं है. ध्यान रहे कि अदालत को इस निर्णय के लिए प्रेरित करने के लिए छह लोग सरकार के खिलाफ अदालत में गए. उनके नाम जानना और उन्हें शुक्रिया अदा करना हर भारतीय का फ़र्ज़ है.
न्यायमूर्ति पुत्तुस्वामी के अलावा कल्याणी मेनन सेन, शांता सिन्हा, सुरेश वोमबातकेरे, डॉक्टर अनुपम सराफ, निखिल दे और बेजवाड़ा विल्सन ने उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया और कहा कि निजता को एक हिंदुस्तानी से छीना नहीं जा सकता. इनमें से अधिकतर वे हैं जो गरीबों के साथ काम करते हैं. विल्सन तो उस तबके के लिए काम करते हैं जो भारत की गंदगी साफ़ करता रहा है. पिछले एक महीने में दिल्ली जैसे शहर में गटर साफ़ करते हुए इनमें से छह की मौत हो चुकी है.
याद रहे ये उन लोगों में हैं जिन्हें तिरस्कारपूर्वक मानवाधिकार कार्यकर्ता या झोलावाला गिरोह कहा जाता है. इन्हें और इनके संगठनों को अक्सर सबसे ज़्यादा सरकारी हमले का सामना करना पड़ता है. इनके चरित्र हनन का अभियान अक्सर चलाया जाता है.
यह भूलना मुश्किल है कि भारत के प्रधानमंत्री ने हमारे न्यायाधीशों को ही लज्जित करने की कोशिश की थी यह कहकर कि वे कभी-कभी फाइव स्टार एक्टिविस्टों के चक्कर में आ जाते हैं. इस मामले में कम से कम अदालत ने इन्हीं फाइव स्टार एक्टिविस्टों की दलीलों पर मुहर लगाई है.