Friday, July 30, 2010


जीत! 
हज़ारों मरे 
लाखों घायल,
कई लापता
क्या किया हासिल?

जीत!!

अगर यह जीत है
तो हार क्या थी?
झुके-झके कन्धों से चलते
मानव की
असली हार यही है.
बस फ़र्क इतना है,
हम शर्मसार नहीं हैं.

Saturday, July 17, 2010

घर 



बड़ी टीस से चुभते हैं ये नींव के पत्थर,
न मोटी दीवारें फांद सका है कोई और.


तुमने दिल में पक्का घर क्यों बनाया था?

Monday, July 12, 2010

my first 'Triveni'

ये शहर


दिल नहीं, जज्बात भी खोए से लगते हैं,
 आंसू भी पत्थर और बुत बने हैं लोग.

कंक्रीट का जंगल सा लगता है ये शहर.

Tuesday, July 6, 2010

सावन

चलो इस सावन में सभी भीग लो.
अच्छा है वह अल्लाह-राम का नाम ले
नहीं बरसता.
गिरने से पहले बूँदें
हमारी जात नहीं पूंछती.
होली के रंग जैसे
उसके छींटे सिर्फ चंद लोगों पे नहीं पड़ते.
ना ही वह रंग-भेद करता है.


चलो अच्छा है,
पानी तो हमें एक कर देता है.


तुम्हारे शरीर से बह बूंदें,
दुसरे को छूती हैं
तो जात नहीं पूंछती.


चलो अच्छा है,
हम सावन में तो साथ भीग सकते हैं.
बिना जात-पात के,
बिना रंग-भेद के,
बिना अमीरी के,
गरीबी के.


चलो इस सावन में सभी भीग लो,
क्या पता अगला जात पूंछ कर आये.
क्या पता,
सरकारें उसे भी सरहद की तरह बाँट दें.


जात-पात समझने लगे सावन,
उससे पहले ही
इस बार भीग लो.
अगली बारिश शायद तुम्हारी जात बालों को ना हुई तो!!!