Friday, November 10, 2017

इस्राइल अब एक सच्चाई है लेकिन हम फिलिस्तीन को भी कैसे भूल सकते हैं! | अपूर्वानंद

दो नवंबर एक और वर्षगांठ का दिन था. लेकिन अपने आप में डूबे और खुद से जूझ रहे भारतवासियों को उसकी सुध न रहना स्वाभाविक ही था. सौ साल पहले ब्रिटेन के विदेश सचिव आर्थर जेम्स बेल्फर ने लार्ड रोथ्सचाइल्ड को एक ख़त लिखा. इस खत ने अरब का और खासकर फिलिस्तीन का नक्शा बदल दिया. यह ख़त आज लाखों फिलिस्तीनियों की ज़लावतनी के लिए जवाबदेह है और कई और लाख फिलिस्तीनियों पर इस्राइल के द्वारा हो रह जुल्म के लिए भी जिम्मेवार है.
बेल्फर ने इस ख़त में लिखा कि हिज मेजेस्टी की सरकार फिलिस्तीन में यहूदियों के लिए एक राष्ट्रीय निवास के पक्ष में है और इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए हर मुमकिन कोशिश करेगी. हालांकि इसमें यह भी कहा गया कि ऐसा करते हुए इसका ख्याल रखा जाएगा कि फिलिस्तीन में रहने वाले गैर यहूदियों के नागरिक और धार्मिक अधिकारों को कोई नुकसान न पहुंचे और दूसरे मुल्कों में रह रहे यहूदियों के अधिकारों और राजनीतिक अवस्था पर कोई प्रतिकूल प्रभाव न पड़े.
यह ज़िओनवादियों (फिलिस्तीन में इस्राइल बनाने के लिए आंदोलन चलाने वाले) को ब्रिटेन का खुला समर्थन था. इस ख़त के चार दशक बाद फिलस्तीन पर ‘नकबा’ या कहर टूटा जिसने उन्हें अपने ही वतन में बेगाना बना दिया और वहां इस्राइल नामक राष्ट्र का निर्माण हुआ. उस समय से आज तक फिलिस्तीनी अपनी ही ज़मीन पर एक स्वायत्त राष्ट्र की तरह रहने के हक के लिए लड़े आ रहे हैं लेकिन इस्राइल लगातार उन्हें पश्चिमी तट से भी बेदखल करता जा रहा है.
यहूदियों और इस्राइल का मानना है कि बेल्फर के इस पत्र ने सिर्फ उनके उस अधिकार को स्वीकार किया जो इस भूमि पर हजारों वर्षों से उनका रहा है क्योंकि यह उनकी पवित्र भूमि है.
इस गुजरे दो नवंबर को इस्राइल के प्रधानमंत्री ब्रिटेन पहुंचे और इस ख़त की शताब्दी का जश्न मनाया गया. क्यों न हो, क्योंकि इस ख़त के बिना इस्राइल का वजूद शायद मुमकिन न होता. लेकिन दूसरी तरफ फिलिस्तीनियों ने मांग की है कि ब्रिटेन इस ख़त के चलते ही उन पर जो ज़ुल्म फिछले सत्तर बरस से होता आ रहा है, उसके गुनाह में शरीक ठहरता है. और इसके लिए उसे माफी मांगनी चाहिए.
ब्रिटेन में भी बेल्फर के इस ख़त के खिलाफ एक जनमत है. लेकिन ब्रिटेन में इस्राइल के राजदूत कहना है कि जो भी बेल्फर के इस ख़त की आलोचना करता है वह इन्तिहापसंद है, दूसरे शब्दों में दहशतगर्द है. उनका कहना है कि इस ख़त के विरोध का अर्थ है यहूदियों के राष्ट्रीय निवास का विरोध जिसका सीधा मतलब है इस्राइल के अस्तित्व को अमान्य करना. उन्होंने चेतावनी दी कि यही रुख इरान का और हेज्बुल्लाह का भी है.
ब्रिटेन में ही ब्रिटेन के नागरिकों के खिलाफ इस तरह की जुबान के इस्तेमाल पर ब्रिटिश सरकार ने खामोशी साध ली. पत्रकार रॉबर्ट फिस्क ने अपनी सरकार की खामोशी को शर्मनाक बताते हुए कहा कि इस्राइली राजदूत के मुताबिक़ जो भी बेल्फर के इस पत्र का आलोचक है, वह आतंकवादी, यहूदी-विरोधी या नाजी मान लिया जाना चाहिए और उसे हमास का समर्थक घोषित कर दिया जाना चाहिए.
फिस्क ने याद दिलाया की इस पत्र में एक धोखाधड़ी है और वह यह कि यह यहूदियों के राष्ट्रीय निवास की तो बात करता है लेकिन उस वक्त 60000 यहूदियों के मुकाबले 700000 अरब लोगों के राष्ट्र के अधिकार की कोई चर्चा नहीं करता. वे ध्यान दिलाते हैं कि जहां यहूदी लफ्ज़ का इस्तेमाल है, वहीं न तो अरब और न मुसलमान शब्द का कोई उल्लेख इस पत्र में है. उन्हें सिर्फ ‘पहले से मौजूद समुदाय’ कहकर निपटा दिया गया है.
फिस्क पूछते हैं कि क्या यह बेईमानी न थी कि एक तरफ तो ब्रिटेन अपनी ज़मीन से दूर फिलस्तीन में यहूदियों के राष्ट्र की बात कर रहा था, दूसरी ओर खुद रूस और पूर्वी यूरोप से ब्रिटेन में यहूदियों के आने पर पाबंदी लगाने वाला क़ानून बना रहा था ! क्या बेल्फर यह चाहते थे कि ठन्डे और उदास ब्रिटेन की जगह यहूदी गर्म और उजले अरब प्रदेश का आनंद लें!
क्या यह भी सच नहीं कि हिटलर के कहर से बचकर भाग रहे यहूदियों को पनाह देने की उदारता ब्रिटेन ने न दिखाई, बल्कि उनसे पिंड छुड़ाने के लिए उन्हें फिलस्तीन का रास्ता दिखाया?
क्या यह भी सच नहीं कि पारंपरिक रूप से अरब मुसलमान और यहूदी फिलिस्तीन में शांति से रहते आए थे और अरब मुसलमानों ने उन्हें कभी बेदखल करने की कोशिश नहीं की थी. लेकिन यहूदियों ने अरब मुसलमानों की ज़मीन हड़प कर उन्हें खदेड़ने के लिए क्रूरता और हिंसा का लगातार सहारा लिया?
इस्राइल का यह ख्याल है कि फिलिस्तीनी उसके अस्त्तित्व को मिटा देना चाहते हैं और इसलिए आत्मरक्षा में उसे पहले से हमलावर कार्रवाई करने का पूरा अधिकार है. अमरीका के खुले समर्थन के चलते अब तक सीनाजोरी के साथ वह फिलिस्तीनियों की ज़मीन पर कब्जा करता जा रहा है. बावजूद अंतर्राष्ट्रीय जनमत के इसके खिलाफ होने के वह ढिठाई से गाजा पट्टी या पश्चिमी तट पर नई-नई यहूदी बस्तियां बसाता जा रहा है. गाजा पट्टी में रह रहे फिलस्तीनी दूसरे दर्जे के इंसानों की तरह किसी तरह अपनी ज़िंदगी बसर कर रहे हैं. लेकिन इस्राइल से दोस्ती करने को बेताब मुल्क अब उनकी चीख या कराह सुनना नहीं चाहते.
इस्राइल एक अंतर्राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त राष्ट्र है और उसे नक़्शे से मिटाना मुमकिन नहीं. लेकिन वह खुद एक दूसरे राष्ट्र का एक-एक चिह्न मिटाने की जो बेरहमी कर रहा है, क्या वह उसे कभी चैन से बैठने देगी? वह हमेशा ही एक जंग की हालत में रहने को मजबूर है और यह उसने खुद पर ओढ़ा है.
बेल्फर के ऐलान की शतवार्षिकी के मौके पर ब्रिटेन की प्रधानमंत्री ने कहा कि इस ऐलान पर हमें गर्व करना चाहिए. इसके जवाब में फिलिस्तीनी राजनेता हनान अशरावी ने ठीक ही लिखा कि यह ऐलान एक औपनिवेशिक अहंकार का नमूना है जो हजारों मील दूर की भूमि और उस पर रहे लोगों के भाग्य का फैसला करने का अधिकार खुद अपने पास रखता है. इस ऐलान ने यहूदियों के अलावा, जो उस वक्त सिर्फ 11फीसदी थे और जिनकी ज़मीन की मिलकियत 1947 तक सिर्फ सात फीसदी थी, वहां रह रहे मुसलमानों और ईसाईयों को गैर-यहूदी कहकर दूसरे दर्जे पर ढकेल दिया.
बेल्फर के पत्र या ऐलान का विरोध भारत को भी करना ही चाहिए क्योंकि हम उसी ब्रिटिश औपनिवेशिक अहंकार का शिकार रहे हैं, जो फिलिस्तीनियों की विपदा का कारण है. लेकिन आज हम फिलिस्तीन की आज़ादी की चाहत को भूल गए, उसे देखना नहीं चाहते और हथियारबंद इस्राइल के साथ मुस्कराते हुए तस्वीर खिंचाने को बेताब हैं!

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की कबीर साधना - डॉ. शशि पाण्डे

(हजारीप्रसाद द्विवेदी की 'कबीर' मैंने पड़ी थी और उसको आधार बना मैं एक लेख लिख रहा था किन्तु बाद में अहसास हुआ कि शायद 'अनुनाद' पर छपे इस निबंध में वो सबकुछ है जो मैं कहना चाहता था.)

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी को कबीरदास के जटिल व्यक्ति के सच को खोज निकालने का दुरूह और दुष्कर कार्य करने का श्रेय प्राप्त है।
द्विवेदी जी द्वारा सच्चे अर्थों में कबीर की आत्म खोज निकालना किसी आविष्कार से कम नहीं। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ कबीर’ (1971) के रूप में उनके पुनर्जन्म की बात कही है। इस ग्रन्थ के माध्यम से आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने कबीर के बारे में जितना कुछ लिखा है वह कबीर प्रेमियों के लिए महत्वपूर्ण है। कबीर को खोजने व समझने के लिए कबीर बनने की आवश्यकता थीजो मानव-मानव के बीच के कृतिम भेद को मिटा कर जात-पात की दीवारों को तोड़ता तथा बाह्माडम्बर के जाल को तोड़कर इस नश्वर शरीर से ईश्वर के अमृत-रस का पान कर सकताजो आत्म को परमात्मा का दर्शन करानरक को मोक्ष में बदल सकता था।
कबीर के मान के समाने बड़े से बड़ा ज्ञानी भी नतमस्तक है। यही कारण है कि जहाँ एक ओर कबीर समाज में भी लोकप्रिय बने रहंे,वहीं दूसरी ओर सहज बौध्य और सर्वग्राह्म भी बने रहे। कबीर के इस बहुआयामी व्यक्तित्व और उनकी आत्मिक शक्ति के रहस्यों को आचार्य द्विवेदी ने खोज निकाला है।
कबीर की वाणी वह लता है जिससे योग के क्षेत्र में भक्ति का बीज अंकुरित हुआ। कबीर ने कभी अपने ज्ञान को अपने गुरू को और अपनी साधना को कभी सन्देह की नजरों ने नहीं देखा अपने प्रति उनका विश्वास कभी भी डिगा नहीं। वे वीर साधक थेऔर वीरता अखण्ड आत्म विश्वास को अजेय करके ही पनपती है कबीर के लिए साधना एक विकट संग्राम स्थल थी। जहाँ कोई बिरला शूर ही टिक सकता है।1
कबीर निगुर्ण निराकार ब्रह्म को मानते थे इसलिए वे पण्डित या शेख पर आक्रमण करने पर कभी पीछे नहीं रहे। कबीर उस समाज मंे पाले गये जो न तो हिन्दुओं द्वारा समादृर्त था न मुसलमानों द्वारा पूर्णरूप से स्वीकृत कबीर सभी धर्मों को एक समान मानते थे। कबीर की व्यक्तित्व की एक विशेषता यह भी थी वह मस्त मौला स्वभाव के फक्कड़आदत से अवफड भक्त के सामनेभेदधारी के आगे प्रचण्ड,दिल के साफदिमाग के दुरूस्त भीतर से कोमलबाहर से कठोर जन्म से अस्पृश्यकर्म से बन्दनीय थे जो कुछ कहते अनुभव के आधार पर कहते थे।2
द्विवेदी जी ने कबीर में शायक सर्जक का रूप भी देखा होगा अन्यथा उनकी उलटवासियों में वे जीवन दर्शन क्यों ढूॅढतें। वस्तुतः हिन्दी साहित्य के इतिहास में सूर और तुलसी के बाद कबीर साहित्य को उच्च स्थान पर प्रतिष्ठित करने का श्रेय द्विवेदी जी को जाता है। वे अपने बहुचर्चित ग्रन्थ कबीर’ में लिखते हैं- ‘‘कबीरदास का रास्ता उल्टा था। उन्हें सौभाग्य वश सुयोग भी अच्छा मिला थाजितने प्रकार के संस्कार पड़ने के रास्ते हैंवे प्रायः सभी उनके लिए बंद थे। वे मुसलमान होकर भी असल में मुसलमान नहीं थेहिन्दू होकर भी हिन्दू नहीं थे। वे साधु होकर भी साधु नहीं थे। वे वैष्णव होकर भी वैष्णव नहीं थे। योगी होकर भी योगी नहीं थे। वे भगवान की आरे से सबसे न्यारे बनाकर भेजे गये थे।’’ कबीर पर ईश्वर की अति अनुकम्पा रही जिसका उपयोग उन्होंने बखूबी निभाया।3
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का मानना था ‘‘कबीरदास मुसलमान वंश में पैदा होकर भी सत्संग के बल पर हिन्दू शास्त्रीय मातों को इतना जान सके थे। यह सिद्धान्त वस्तुतः किसी दृढ़-प्रमाण पर आधारित नहीं है’’ यह कहना अनुचित है कि कबीरदास सत्संगी नहीं थे,किन्तु हिन्दू धर्म- सम्बन्धी उनका ज्ञान केवल सत्संग के बल पर प्राप्त नहीं किया गया था। परमात्मा-विश्वास-निर्गुण-निराकार की भावनासमाधि-सहजावस्था आदि का सम्पूर्ण ज्ञान उन्हें अपने कुल-परम्परागुरू-परम्परा से प्राप्त थे। कबीर की साखियों का सीधा अर्थ कबीर के आत्म विचार को पहचान दिया है। जब कबीरदास निर्गुण भगवान का स्मरण करते हैं तो उनका उद्देश्य यह होता है कि भगवान के गुणमय शरीर की जो कल्पना की गयी है वह कबीर का मात्र नहीं है।4
कुल-परम्परा से द्विवेदी जी का आशय है कि नीरू और नीमा नामक जुलाहा दम्पत्ति ने कबीर का पालन-पोषण कियावे नाथपंथी योगियों के शिष्य थे। द्विवेदी जी का मानना था कि कबीर मुसलमान होने के बाद न तो जुलाहा जाति अपने पूर्व संस्कार से एक दम मुक्त हो सकी थी और न उसकी सामाजिक मर्यादा बहुत ऊँची हो सकी थी।
द्विवेदी जी के शब्दों में ‘‘कबीर मुसलमान नाम मात्र के ही थे। इस नाथ-भावापन्न साद्योधर्मान्तरित जुलाहा जाति में पालित होने के कारण कबीरदास में नाथपंथी विश्वास सहज रूप में विद्यमान था। उनका मन योगियों के संस्कार से सुसंस्कृत था। उन्हें यौगिक सिद्धान्तों का ज्ञान अपनी धाय-माता से प्राप्त हुआ। कुल-गुरू-परम्परा के सम्बन्ध में द्विवेदी जी का मानना है कि कुल गुरू-परम्परा ईसवी सन् की पहली शताब्दी के अंतिम वर्षों में शुरू होती हैजब सहजमत में बौद्धगान व दोहे लिखे जाते थे। कबीरदास ने बाह्माचारमूलक धर्म की जो आलोचना की है उसकी भी एक सुदीर्ध परम्परा थी। इसी परम्परा को उन्होंने अपने विचार में स्थिर किया।’’5
द्विवेदी जी की दृष्टि में भक्ति ने कबीर को इतना महिमाशाली बना दिया कि वे जन-जन के कण्ठहार बन गए। ऐसी भक्ति-जो न योगियों के पास थी और न सहजयानी सिद्धों के पासन कर्मकाण्डी पण्डितों के पास थी और काजियों के पास। राम और उनकी भक्ति ये कबीर के गुरू रामानन्द की देन है। इन्हीं दो वस्तुओं ने कबीर को योगियों से अलग कर दिया। इन्हीं को पाकर कबीर सबसे अलग सबसे ऊपर हैंऔर सबसे आगे भी।
द्विवेदी जी की दृष्टि में ज्ञान और भक्ति दोनों साथ-साथ चल सकते है और ईश्वरी ज्ञान अर्थात् ईश्वर के बारे में जानने की इच्छा मानव की भक्ति है। कबीर की ज्ञान-भक्ति-भावना पर लोगों ने तरह-तरह के सवाल खड़े किए हैं। लोगों को उत्तर देते हुए कबीर स्वंय लिखते हैं- सतगुरू भक्ति ले आए है।’6
कबीरदास ने आजीवन सम्प्रदायवादब्राहमाचार और बाहरी भेदभाव पर कठोरतम आघात किया था।
माला तिलक निन्दा करे ते परगट जमइत
कहे कबीर विचारिक तेउ राक्षस भूत
द्वादश तिलक बनार्वइअंग-अंग अस्थान
कहे कबीर विराजही उज्जवल हंस समान
कबीर मसूर में गुरू महिमा सउडात।7
          उत्तर भारत में भक्ति मार्ग को रामनन्द ले आये थे और सौभाग्य से उन्हें कबीर जैसा शिष्य मिल गया था। कबीर के अनुयायियों में ये दोहा प्रचालित है-
‘‘भक्ति द्रविड़ ऊपजी लाये रामानन्द
प्रगट किया कबीर सत्प दीप नवखण्ड’’
          द्विवेदी जी का मानना है कि कबीरदास की वाणी वह लता है जो योग के क्षेत्र में भक्ति का बीज पड़ने से अंकुरित हुई थी। द्विवेदी जी ने उनके स्वभाव का बड़ा ही सटीक विवेचन इस प्रकार किया है। ‘‘वे स्वभाव से फक्कड़ थेअच्छा हो या बुराखरा हो या खोटा जिससे एक बार चिपट गयेउससे जिन्दगी पर चिपटे रहे। वे सत्य के जिज्ञासु थे और कोई मोह ममता उन्हें अपने मार्ग से विचलित नहीं कर सकती थी। वे सिर से पेर तक मस्तमौला थे। मस्तजो पुराने कृत्यों का हिसाब नहीं रखतावर्तमान कर्मों को सर्वस्त नहीं समझता और भविष्य में सब कुछ झाड़-फटकार कर निकल जाता है।8
हम घर जारा आपनालिया मुराडा हाथ
अब घर जारो तातु का जाचले हमारा साक
          कबीर की यह घर-फूॅक मस्तीफक्कड़ाना लापरवाही और निर्मम अक्खड़ता उनके अखण्ड आत्म-विश्वास का परिणाम थी। उन्होंने कभी अपने ज्ञान कोअपने गुरू को और अपनी साधना को संदेह की नजरों से नहीं देखा। अपने प्रति उना विश्वास कहीं भी डिगा नहीं वे वीर साधक थे और वीरता अखण्ड आत्मविश्वास का आश्रय करके ही पनपती है।9
          द्विवेदी जी कबीर को अपने युग का सबसे बड़ा क्रान्तिकारी मानते है। वे लिखते हैं- ‘‘सहज सत्य का सहज ढंग से वर्णन करने में कबीरदास अपना प्रतिद्वन्द्वी नहीं जानते। वे मनुष्य बुद्धि को व्याहत करने वाली सभी वस्तुओं को अस्वीकार करने का अपास साहस लेकर उत्पन्न हुए। पण्डितशेखमुनिपीरऔलियाकुरानरोजा-नमाजएकादशीमन्दिर और मस्जिद उन दिनों मनुष्य चित्त को अभिभूत कर बैठे थे। परन्तु वे कबीरदास का मार्ग न रोक सकेंइसलिए कबीर अपने युग के सबसे क्रान्तिदर्शी थे।’’
          आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कबीर की भाषा का सही मूल्यांकन किया है। ‘‘भाषा कबीर का अच्छा अधिकार था। वे वाणी के डिक्टेटर थे। जिस बात को उन्होंने जिस रूप में प्रकट करना चाहा उसे उसी रूप में भाषा से कहलवा लिया। भाषा कुछ कबीर के सामने लाचार-सी नजर आती है उसमें मानें हिम्मत ही नहीं थी कि इस लापरवाह फक्कड़ की किसी फरमाइश को नहीं कर सकें। जैसी ताकत कबीर की भाषा में थीवैसी बहुत कम लेखकों में है। ‘‘कबीर की छनद योजनाउक्ति वैचित्र्य और अलंकार निधान पूर्ण रूप से स्वाभाविक अल्पसाधिक है।10
          द्विवेदी जी ने कबीर में शायद अपने सजृन का रूप देखा होगा अन्यथा उनकी उलटवासियों में वे जीवन दर्शन को क्यों ढूंढते द्विवेदी जी अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ कबीर’ में लिखते है। कबीर का रास्ता उल्टा था उन्हें सौभाग्यवश सयोग भी अच्छा मिला था। जितने प्रकार के संस्कार पड़ने के रास्ते हैवे प्रायः उनके लिए बंद थे। वे मुसलमान होकर भी असल में मुसलमान नहीं थे। हिन्दू होकर भी हिन्दू नहीं थे। वे साधु होकर भी साधु अग्रहस्थ नहीं थेवे वैष्णव होकर भी वैष्णव नहीं थे। योगी होकर भी योगी नहीं थे। वे भगवान की ओर से सबसे न्यारे बनाकर भेजे गये थे। सच्चे अर्थों में कबीर एक मानव थे।11
          द्विवेदी जी ने निर्गुण भक्तिधारा में कबीर की वाणी समाज को नई दिशा देती हैजाति व्यवस्था पर प्रहार करते हुए संत कबीर ने कहा-
जात पात पूछे नहीं कोई
हारे को भजे सो हारे का होई
कर्मकाडों के विरूद्ध संतों के निर्भीक स्वर उपजे कबीर की दृष्टि यहाँ समविष्टनिष्ठ की अपेक्षा व्यक्तिनिष्ठ अधिक दिखाई पड़ती हैं वह संसार को खाता-पीता तथा सुखी देखकर ईष्र्या नहीं करता वह सत्य दुःख में रात-रात भर जागता हैरोता है। वह कार्ल माक्र्स की तरह किसी रक्त रंजित क्रान्ति की बात नहीं करता और न श्रम को मृत पूॅजी मानता है वह भारतीय समतवादी दर्शन के परिप्रेक्ष्य में संतोष धन को गले लगाकर बोल उठता हैं।
गोधन गण धन वाणि धन और रतन धन खान
जब आवै संतोष धन सब धन धूरि समान
          कबीर प्रगतिशील वाणी न किसी पूँजीपति को ललकारती है और न किसी के आगे गिड़गिडाती है व जन सामान्य को लालच से बचने के लिए प्रेरित करती है।
          द्विवेदी जी का आलोचना ग्रन्थ ‘‘कबीर’’ स्पष्ट करता है कि कबीर मानव के द्वारा बनाये गये भेदों के बीच भी मानवीय रूप ही स्थापित करना चाहते थे। उन्होंने अपने संवादों में मानवीय एकता का बीज बोया हैजो पल्लवित पुष्पित होकर विश्व को मानवता की भावना से ओत-प्रोत करने में समर्थ है।
          द्विवेदी जी ने जिस तन्मयताऔर अध्यवसाय के स्वरूप कबीर के सम्पूर्ण व्यक्तित्व प्रस्तुतीकरण किया हैवह एक प्रकार की कबीर साधना है।


(डॉ. शशि पाण्डे)
हिन्दी विभाग
डी0एस0बी0 परिसर
नैनीताल
सन्दर्भ सूची
1.       हजारी प्रसाद द्विवेदी ग्रन्थावली- 04, संपादक- मुकन्द द्विवेदीराजकमल प्रकाशनपृ0- 391
2.       वहीपृ0- 325-328
3.       वहीपृ0- 287
4.       वहीपृ0- 202
5.       वहीपृ0- 206
6.       वहीपृ0- 210-211
7.       वहीपृ0- 319
8.       कबीर मंसूर में गुरू महिमा से उद्धत (पृ0- 1363), द्विवेदी ग्रन्थावलीपृ0- 211
9.       वहीपृ0- 321
10.     वहीपृ0- 366
11.     हजारी प्रसाद द्विवेदी और उनका रचना संसारडॉ. श्याम सिंह शशि के आलेख पृ0- 1
12.     वहीपृ0- 3