Saturday, April 27, 2013

दरकार खुद बदलने की है




                 देश को लोग कितना बांटना चाहते हैं इसका जवाब तो उनके पास भी नहीं है, जब तक उनका उल्लू सीधा होता रहेगा तब तक लोग बांटते रहेंगे. कल 'आज तक' ने कहा की देश की कुल 78 लोकसभा सीटों पर बीजेपी को उम्मीदवार के बारे में सोचना पड़ेगा क्यूंकि यहाँ 20% से ज्यादा मुस्लिम वोट हैं.....शायद एसे सर्वे ३० साल पहले तक नहीं होते होंगे, कोई भी अखबार नहीं कराता होगा (प्राइवेट न्यूज़ चैनल तो थे नहीं उस वक़्त.) मतलब कायदे से ये देश अघोषित ही सही मुस्लिम-इंडिया और हिन्दू-इंडिया में बांटा जा चुका है.

                एक और बयान आया है, अप्रत्याशित और थोडा सा अजीब. मुलायम सिंह यादव ने कहा है की 'मंगल पाण्डेय' ब्राह्मण थे. ये ब्राह्मण वोटों की ओर उनका एक और कदम है, लेकिन मंगल पाण्डेय ने मरने से पहले जाति नहीं सोची होगी, न ही अशफाक उल्ला खां ने अपना धर्म और न ही किसी और क्रन्तिकारी ने...लेकिन आजादी के 66 साल बाद सबकी जाति चुन चुन कर निकली जा रही है. जैसे उनका सरोकार देश के लिए जान देने से ज्यादा जाति से था. पहले ही राजनीति देश को धर्म के नाम पे बाँट चुकी है और जाती के नाम बाँटने की कोशिशे पिछले 20 सालों से जोर-शोर पर हैं और आश्चर्य नहीं कि शायद कोशिशें कामयाब हो जाएँ, अगर हम सम्हले नहीं तो.

              हमारा सम्हलना इतना आसान नहीं है, क्यूंकि मैं जहां जॉब करता हूँ वहां ''सो काल्ड'' देश के बेहद पढ़े लिखे युवा इंजीनियर्स काम करते हैं.... लेकिन सच तो ये है, उनकी सोच भी धर्म, जाति और 'क्षेत्र'  से आगे नहीं जाती....और जब देश का पढ़ा-लिखा युवा एसा हो सकता है तो देश की अनपढ़ या अर्ध-पढ़ी-लिखी जनता के ख्यालों का अंदाजा हम लगा सकते हैं.... और लोगों की सोच अगर एसी है भी नहीं तो मनिपुलेट करना आसान होगा.... क्यूंकि पढ़े-लिखे लोगों की सोच में भूसा भरा जा सकता है तो अनपढ़ों में तो और भी जल्दी.

             दरकार हमें खुद बदलने की है, पढ़े-लिखे युवाओं को खुद की सोच बदलने की है और बाकि की आबादी की भी, दरकार राजनीति से दूर भागने की नहीं राजनीति में प्रवेश कर राजनीति बदलने की है और जैसा की इतिहास कहता है क्रांति हमेशा चेतनशील युवा मध्यम वर्ग लाता है तो हमें चेतने की ज़रूरत है.

-- VIVEK VK JAIN

(Note:  लेखक एक MNC में इंजिनियर है. प्रस्तुत विचार लेखक के व्यक्तिगत लेकिन परिवेश से प्रेरित हैं. )

Tuesday, April 23, 2013

भाई





मैं कहता हूँ
बूढ़े बरगद पे साया है कोई.
लेकिन जुदा हैं उसके ख्याल.
हमारे ख्याल,
जैसे एक ग़ज़ल के दो मिसरे
जुड़े हों ग़ज़ल से
पर कहते हों अलग-अलग सी बात.

अहसास होता है
वो भी बालिग हुआ है,
समझने लगा है कि साये नहीं होते.

बड़े भाई होने की धौंस अब नहीं चलेगी. :-)


Sunday, April 21, 2013

ईश्वर, तुम्हें अपने किये पर शर्म तो आती होगी.




               हर बार जब तुम्हें नहलाया जाता है, घुटन तो होती होगी तुम्हें...डालते हैं सर के ऊपर से लगातार पानी तो कभी दूध....सांस न लेते बनती होगी.कभी कभी तो ये खेल एक से ज्यादा बार दुहराया जाता है, कमाने पुण्य. कभी तो लगता होगा तुम्हें, कि बस बहुत हुआ अब....कभी तो मन करता होगा की निकल आओ मूर्ति से चल दो इन स्वार्थियों से कहीं दूर....ये लोग जो तुम्हारी पूजा करते हैं, मांगते रहते हैं पूजा के हर अंश में तुमसे कुछ न कुछ....जैसे उन्हें तुमने धरती पर भिखारी बना कर ही भेजा है.....कभी-कभी तो तुम्हें लगता होगा कि इन्हें नहीं भरोसा तुमपर, शायद इसीलिए पूजा कर-कर बार बार याद दिलाते हैं, की दे दो तुम सुख, शांति, मोक्ष!

            मोक्ष! मतलब उन्हें नहीं चाहिए जीवन-मृत्यु, क्यूंकि जीवन दुःख है उनके लिए.... इससे परे होना चाहते हैं लोग! हद हैं इनकी इच्छाएं....हद है इनकी सोच! जीवन से भय, मृत्यु से भय....और अब पुनर्जन्म से भय! ईश्वर तुमनें कितने भयभीत इंसान पैदा किये हैं! जिन्हें बिना भय के जीना नहीं आता. डर लगता है एसे डरपोक लोग कहीं गलत मार्ग पर न चले जाएँ! कुछ चले भी गये हैं, जिन्हें डर ने इतना डरा दिया की उनका डर 'आतंक' कर के दूर हुआ! 

          तुमने सिर्फ इन्सान को या तो असह्याय बनाया है....या अपना आसक्त.....और कहीं कहीं तो जेहादी भी! ईश्वर, तुम्हें अपने किये पर शर्म तो आती होगी.

Sunday, April 14, 2013

..... बात एक सुदीप्ता की नहीं है.




             सुदीप्ता गुप्ता की हत्या मुझे एक बहुत पुराना जुमला याद दिला रही है- गाँधी के रामराज्य के सपने, गाँधी के साथ ही ख़त्म हो गये थे. ....एक लड़की जो कोलकाता की गन्दी सी गली में निचले मध्यम वर्ग में जन्मी और स्टूडेंट पॉलिटिक्स से सीड़ियाँ चढ़ती हुई प्रदेश की मुख्यमंत्री बनी (ममता बनर्जी). वही लड़की (अब औरत) अब  स्टूडेंट पॉलिटिक्स से इतना डरी हुई है कि 21  साल के एक लड़के की हत्या पुलिस कस्टडी में की जाती है....जो न तो कोई क्रिमनल है और देखा जाये तो राजनीतिक बंदी भी नहीं है. उसकी हत्या पुलिस कस्टडी में!!! लीगली पुलिस हाथ भी नहीं उठा सकती थी....और पुलिस की कोई व्यक्तिगत दुश्मनी तो है नहीं ( सॉरी 'है' नहीं 'थी', अब वो मर चुका है!) कि वो उसे मौत के घाट उतारे.....अब बचता सिर्फ एक ही रीज़न है....वो क्या है आप समझ सकते हैं.
 
             शायद ममता बनर्जी ने खुद भी नहीं सोचा होगा की इतनी बड़ी तादाद में लोग इकट्ठा होंगे.....शायद खुद भी नहीं सोचा होगा की एक 21  साल के लड़के की हत्या करना (हाँ, शायद जिससे वो डरती थी!) एक आन्दोलन का रूप ले लेगा.

              सच तो ये है, यहाँ बात सिर्फ सुदीप्ता की नहीं हैं, बात देश के युवाओ की है जो देश की जनसँख्या का आधे से भी बड़ा (60 %) हिस्सा हैं.

                 देश के सिर्फ 30% छात्र ही कॉलेज पहुँच पाते हैं.....जहां हर उर्जावान को गरीबी, शिक्षको और बुद्धिजीवियों की कमी, संसाधनों की कमी से लड़ते हुए सपने पूरे करने हैं....जहां हर एक के मन में हमारे देश को बदलने का जज्बा है और कई सारे सवाल भी....गरीबी, कुपोषण, समाज और राजनीति से उठते सवाल......भविष्य को ले कर उठाते सवाल और आने बाले कल की बेरोजगारी की वजहों को लेकर सवाल.

                इन सवालों के जवाब न तो पहले थे और शायद अब तो और भी नहीं होंगे, क्यूंकि डर है उठती आवाज़ इसी तरह (सुदीप्ता गुप्ता की तरह) गिरा दी जाएगी.

              देश के युवाओं की उर्जा का सही दोहन कर देश उन्नत भी हो सकता है और विकसित भी लेकिन आज के मौजूदा राजनैतिक हालात (और ये सिर्फ एक प्रदेश या एक पार्टी तक सीमित नहीं हैं.) फ्रस्टरेटेड  युवाओं की फौज कड़ी करने में लगा है जो की देश और समाज के लिए घातक है. हमारा तंत्र हमें तरक्की नहीं पतन की और ले कर जा रहा है.....और इनमे वो लोग शामिल हैं जिनके रिज्यूमे 13 -13  पन्नों के हैं, वो लोग भी शामिल हैं जो होवार्ड, कैम्ब्रिज जैसे उच्च संस्थानों से शिक्षित हैं और वो छोटी सोच के लोग भी शामिल हैं जो चाहते हैं की देश की आवादी एक रूपये गेंहू दो रूपये के चावल खा के हमें वोट देती रहे...... या की चाहती है की बस ६००० रूपये साल के गारंटी रुपयों में अपना खर्च निकले और हमें वोट दे. (शायद एसे घटिया लोग 'स्किल्ड लेबर' के फेवर में नहीं या या शायद स्किल डेवलपमेंट के पक्ष में भी नहीं!)

                 यहाँ बात एक सुदीप्ता की नहीं है, यहाँ बात हजारों सुदीप्ताओं के कल की है, यहाँ बात 60 % युवाओं की है, यहाँ बात लोगों के जज्बे को क़त्ल करने को की गयी कोशिशों की है.....और बात बुद्धिमानों के द्वारा बुद्धि के दुरूपयोग की है (या यों कहें तो बुद्धि का उपयोग जनता के खिलाफ करने की है.)

शायद आज का युवा वो भैंसे बन के रह जायेगा (या गया है) जिसे लाठी के बल पे कुछ गधे हांक रहे हैं!

Friday, April 12, 2013

मैं आज भी सिगरेट नहीं पीता.




मैं सिगरेट नहीं पीता आज भी,
शायद तेरी यादें
अभी इतनी कमजोर नही पड़ी,
कि कुछ और पीना शुरू कर दूँ!

अभी तो वो
झील किनारे रखी बेंत
अक्सर मखौल उड़ाने आ जाती है.
कहती है-
'एक बार फिर नहीं आये.
इस दफा अकेले ही आ जाते!'

वो नमीं का चाँद
अक्सर बड़बडाता है,
'एकछत के नीचे
चुने सपने कहाँ हैं तुम्हारे?'

मैं आज भी सिगरेट नहीं पीता.
 ...क्यूंकि यादें अभी बची हैं.
कुछ और दिन काट सकता हूँ
इन्हीं के भरोसे!

                      ~V!Vs

Thursday, April 4, 2013

कभी कभी.....




             कभी कभी बन के बूँदेंसुनाई देती होगी तुम्हें आवाज़ मेरी खनकते बर्तनों मेंआहटें दरवाजे पे ज़िक्र करती होगीं मेरा या लफ्ज़ नज़्म के रूप में पढ़ते होगे किसी मैगज़ीन में कभी तो ख्याल मेरे आते ही होंगेपलटती होगीं मोबाइल कई दफा, 'व्हाट्स एपमें कभी कोई शायद मैसेज छोडूं मैं..... जिक्र तुम्हें अक्सर आता ही होगा मेरा...... दुहराते ज़िन्दगी अपनी!

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आदमी बनना-
इश्क करना-
जीते जी मरना.

सच कहता हूँ खुदा,
इत्ता आसान भी नहीं!
तू भी एक बार बन देख ले.

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ये नादां दिल,
ख्याली पुलाव तेरे!

उफ़चुभते बहुत हैं,
जब भी मिलते हैंहकीक़त से.

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दफ़्न,हर नज़्म
करता रहा मैं.

हर सुबह तू,लिखती रही नज़्म.

ज़िन्दगी,तू बड़ी अजीब चीज़ है.

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तुम मेरे जिस्म में
रख अपने अल्स...

भूल गये हो सब.
ज़रा आओदुहराओ!

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sketch: by K. Mediani