Wednesday, April 11, 2018

[The Blue Canvas] ८

मेरा लिखा सबकुछ यूं ही छितर जाता है. कई पंक्तियां लिख के दे दी किसी को  तो वापस ना लीं. कई कविताएं पिछले पन्नों में कॉपी के साथ रद्दी में चली गईं. फेसबुक/ब्लॉग पर आधे से कम आता है और फेसबुक पर तो बस वो 'ओनली मी' नहीं होता जो लगता है कि समझ पाएंगे लोग थोड़ा सा... फिर भी तुम पे लिखा सबकुछ जाने क्यूं समेटने की कोशिश कर रहा हूं... शायद कल के लिए यादों के सहारे ढूंढ रहा हूं...

---
वो साथ के बहुत दूर चल के ले कर जाने को कहती है लेकिन हकीकत में साथ आना नहीं चाहती.
उसकी कविताएं मेरे बारे में बहुत कुछ बोलती हैं लेकिन जब वो मुंह से वही बोलती है तो इतनी दृढ़ नहीं दिखती. जैसे आंखे बोलते बोलते कुछ और सोचने लगी हों और दिल और कुछ रहा हो.

---
मेरे पास वजहें नहीं है प्यार की... शायद कल बस तुम कम अच्छी लगना लग जाओ तो भी वजहें ना हों. लेकिन तुम्हारे पास हैं... कई वजहें इनकार की... कई इकरार की... कई ख़फ़ा करने की... कई बस ना मुस्कुराने की... मैं बस इन्हीं वजहों से डरता हूं... जो सामने आ के खड़ी हो जाती हैं...

---
ये बहुत अजीब सा इत्तेफ़ाक़ है कि मेरे सबसे बुरे दिनों में वो लड़की खड़ी रही जिसको मैंने सिर्फ कुछ ही दिन जाना था... और वो लड़कियां सबसे पहले दफा हुईं जिन्हें मैंने चाहा...

अक्सर जब तुम लोगों के लिए उनके हर दौर में खड़े होते हो डिसएपॉइंट होने के पूरे चांस होते हैं क्यूंकि ये सब कर पाना सबके बस की बात नहीं होती.

---
ये अजीब दौर है... जहां लोगों से लॉयाल्टी की उम्मीद करना ही बेमानी है... लोग दिल में कुछ अरमान छुपाए, सांसों में कुछ लिए, होंठो पे मुस्कान लिए कुछ ओर जीने की कोशिश कर रहे हैं.

---
इस दौर की अजीब सी बेमानी ये भी है कि लोग उन लोगों के साथ अच्छे से पेश आते है जो उनके साथ बत्तमीज़ होते हैं... मतलब अगर मैं फ़िक्र करना छोड़ दूं तो लोग अधिक फ़िक्र करेंगे... और अगर बत्तमीजी से पेश आऊं तो लोग अधिक नरम हो के पेश होंगे!

---
वो बोलती है कि ये वाली कविता बहुत अच्छी है और वो वाली जो तुमने मुझे लिखी इतनी अच्छी नहीं है... मैं हंस देता हूं... मुझे ताज्जुब है कि उसे आज भी मेरा लिखा सिर्फ कविता ही लगता है.


यही अंत है...

जल्दी से कुछ लिख लें। जल्दी से कुछ कह दें। जल्दी से किसी को देख लें। जल्दी से कहीं छुप जाएं। जल्दी से कहीं भाग जाएं। जल्दी से कहीं चढ़ जाएं। जल्दी से कहीं उतर जाएं। जल्दी-जल्दी-जल्दी।
यहां से जाना, वहां से आना, वहां बैठना, कहीं और जाकर ठहर जाना, फूल देखना, पत्ती चुनना, हवा रोकना, पानी भरना। सब जल्दी-जल्दी-जल्दी-जल्दी।
ये खा लो, वो पहन लो, उससे मिल लो, वहां बात कर लो, वहां बोल दो, वहां चुप रहो, यहां से दूर रहो, वहां के पास रहो, उससे बोलो, उससे न बोलो, बैठे रहो, खड़े रहो, लेटे रहो। रहो-रहो-रहो। जल्दी में रहो।
धीमे-धीमे आती है बेचैनी। धीमे-धीमे चढ़ता है पारा। धीमे-धीमे उतरता है पानी। धीमे-धीमे चलती हैं आंखें। धीमे-धीमे आती है आवाज। धीमे-धीमे निकलती है बात। धीमे-धीमे पकता है सपना उधार का।
धीमी सी एक बात है- रह कर करेंगे क्या? कर के भी करेंगे क्या? करना क्यों है? क्यों ही क्यों है? जीवन ने मेरे से कभी न पूछा, मैं पूछने वाला कौन हूं?
चुप की बारात है, रोज घोड़े लेकर घेरती है। लकड़ी की मेज है, रोज सामने खड़ी रहती है। खूंटी पर टंगी शर्ट है, हवा चलने पर हिलती है। फिर मन का क्या करूं बुच्चन? सड़ रहे मन का क्या करूं बुच्चन?
एक बच्चा है, जो दूर है। एक दूर है, जो अभी बच्चा है। रुका हुआ पानी है। रुकी हुई कहानी है। लात मार-मारकर जिसे बढ़ाते हैं और पाते हैं कि वो तो हमसे भी पीछे चली गई है।
एक देह है, जो हद के पार कहीं दिखती है। एक आंख है, जिसके हाथ नहीं हैं। एक कमरा है, दीवारों से भरा हुआ। एक रसोई है, जिसमें न आटा है न आलू।
मन चंट है, फिर भी दीवार नहीं तोड़ पाता। पांव में चक्कर है जो पैताने पर मसल देता हूं। दांतों से आज मैं धुंआ पीसता हूं बुच्चन। यही अंत है। है न?


-Rahul (Source: Bazaar)