Thursday, February 15, 2018

[The Blue Canvas] २

एक बड़े दौर से गुजरते हम अपने को खोते से जा रहे हैं. जैसे माँ-बाप के पास एक बड़ी समस्या है... वो चाहते तो हैं कि उनकी संतान उनसे बेहतर करे- बेहतर इंसान हो, बेहतर रोज़गार हो, बेहतर ज़िन्दगी हो. लेकिन वो चलाना उन्हें अपनी सोच से चाहते हैं. अपने अनुभवों को उनपे थोपने में कोई कसर नहीं छोड़ते, अपने विचार थोपना अधिकार समझते हैं और उन्हें लगता है कि उम्र में बड़ा होना और बाप होना उन्हें तमाम अधिकार दे देता है.
वो इस बात से शायद कभी बाहर ही नहीं आना चाहते कि जो परम्पराएं उनने निभाई है जरूरी नहीं है वो सही हों और जिस सामाजिक माहौल में वो रहे हैं उसे बदलने का वक़्त आ गया है. समझो, उन्नीसवीं सदी में जैसा था- सती, बाल विवाह, स्त्री अशिक्षा, अब वैसा नहीं है. आज जैसा है कल वैसा नहीं रहने वाला. लेकिन इस बदलाव के लिए शायद वो अपने आप को तैयार नहीं करना चाहते या शायद तैयार नहीं है.
---
गौरव सौलंकी जब कहता है कि इश्क़, मोहब्बत, उदासी, सामाजिक समस्याएं के साथ सेक्सुअलिटी भी ज़िन्दगी का अहम हिस्सा है उनके बारे में बात होनी चाहिए. मैं सोचता हूँ कि क्या उसने कभी बातें अपने माँ बाप से कर पाई होंगी. यादों में खगांलता हूँ तो शायद ही मेरे माँ-बाप ने इनपे मेरे से बातें की हैं. जैसे मोहब्बत कोई सजा हो यहां और उदास होना जैसे किसी के हिस्से में न आया हो. सेक्स और सेक्सुअलिटी... छोड़ ही दो वो... हम कृष्णा-राधा को पूजने वाले लोग हैं जनाब जो आशिक़ों कि हत्याएं करते हैं और फिर सेक्स का तो 'स' भी हमारे मुंह से निकलना गुनाह है.
--
मैं सोचता हूँ कि मेरी टीन ऐज में प्रवेश कर रही अपनी बहन से बात करूँ.. उसे 'गुड टच, बेड टच' के बारे में बताऊँ, दुनिया के मजहबी भेंगेपन के बारे में बताऊँ, मैरिटल रेप, घरेलु हिंसा और हरासमेंट के बारे में वो जाने... लेकिन चुप हो जाता हूँ कि उसके पिता को ये सब अच्छा नहीं लगेगा. शायद हम समाज के रूप में सच अपने बच्चों तक पहुँचाने लायक अभी तक विकसित नहीं हुए हैं.
---
पार्लियामेंट में बहसें होती हैं कि आज़ादी नेहरू ने दिलाई या पटेल ने. मैं सोचता हूँ कि क्या हम आज़ाद हैं? माँ बाप बच्चों को अपनी जागीर समझ रखते हैं. समाज उन्माद में हत्याएं कर रहा है. कल ही दिलीप सरोज को सड़क पर पीट पीट कर मार डाला गया... और एक उम्मीद भी है जो माँ बाप बच्चों से पाल के रखे हुए हैं कि वो इस तरह जियें, ऐसे न जियें... और उनकी सेक्सुअलिटी... खैर इसके बारे में तो बात ही न कि जाये. ये उम्मीदें किस तरह से अंदर से लोगों को खा रही हैं इसका भान किसी को भी नहीं है.
---
बचपन में डायनामिक बच्चे क्यों अक्सर बड़े होते होते थकने लगते हैं. हमने बड़ों कि ऐसी कैसी दुनिया बानी हुई है कि जहां उनके लिए जगहें बहुत कम हैं. क्यों ऐसा होता है कि बड़े होकर लोग गुमनामी के अँधेरे में चले जाते हैं. हमें सोचना होगा कि हमने अपनी दुनिया में कहानी गलतियां की हैं. ... और क्यों हमने घोड़ों, मछलियों, कबूतरों और हाथियों को एक ही रेस में दौड़ाया है.
---
हम आज भी उस दौर में रह रहे हैं जहाँ लड़की से नहीं पूछा जाता कि उसे किससे शादी करनी है, कैसे लड़के से करनी है और चुपचाप लड़के ढूंढ लिए जाते हैं. पढ़ी लिखी लड़की से भी नहीं. जैसे लड़कियां गायें हों जो घर के खूंटे से बंधी है और उन्हें दूसरे खूंटे से बांध दिया जाना है... और हाँ माँ-बाप एज़ यूजुअल उनके मालिक हैं, जागीरदार हैं.
---
माँ-बाप बच्चों के जागीरदार नहीं हैं... और न ही प्रेमी अपनी प्रेमिकाओं के. समय यह समझने का है. किसी को समझ आ रहा है?? सुनाई दे रहा है???