Wednesday, November 30, 2016

जीवंत-बुत


...और मैंने उनके कन्धों पर रख
बंदूकें चलाईं.

वो कंध  इतने दृण थे की
दशकों से वहां पर लाइन में
जीवंत-बुतों की तरह खड़े थे,
कपट-राजनीति की तरफ मुंह किये.

इंतज़ार में कि
कोई आएगा, इन कन्धों पे रख
बारूद चलाएगा,
छिन्न-भिन्न करेगा अराजकता, अलोकतंत्र.

जनाक्रोश के लिए तैयार खड़े ये कंधे
महान कवियों के कंधे हैं.

तुम चाहो तो इन्हें
ढाल बना सकते हो,
कंधे से बन्दूक चला सकते हो
या इन जीवंत-बुतों की उँगलियाँ थाम
राह पा सकते हो.

Tuesday, November 22, 2016

दक्षिण चीन सागर पर क्यों है घमासान | अनीता वर्मा

वर्तमान वैश्विक आर्थिक परिप्रेक्ष्य में दक्षिण चीन सागर की अवस्थिति के कारण सामरिक, आर्थिक व खाद्य सुरक्षा आदि की दृष्टि से इसकामहत्त्व जाहिर है। उपर्युक्त कारणों से दक्षिण चीन सागर की अहमियत इसके तटीय देशों के बीच संघर्ष का सबब भी समय-समय पर बनती रही है। साथ ही दक्षिण चीन सागरके मद््देनजर इस क्षेत्र में महाशक्तियों का हस्तक्षेप भी होता रहा है। इस संदर्भ में दक्षिण चीन सागर में चीन द्वारा अवैध कृत्रिम द्वीपों का निर्माण व ओबामा द्वारा चीन को चेतावनी देना महाशक्तियों के हस्तक्षेप को ही प्रदर्शित करता है। उल्लेखनीय है कि 12 जुलाई 2016 को हेग स्थित संयुक्त राष्ट्र न्यायाधिकरण ने दक्षिण चीन सागर पर चीन के एकाधिकार के दावे को खारिज कर दिया। पांच सदस्यीय न्यायाधिकरण ने स्पष्ट किया कि चीन के पास ‘नाइन डैश लाइन’ के भीतर पड़ने वाले समुद्री इलाकों पर ऐतिहासिक अधिकार जताने का कोई कानूनी आधार नहीं है। ‘नाइन डैश लाइन’ द्वारा चीन ने दक्षिण चीन सागर के काफी हिस्से को अपने दायरे में लेने की घोषणा की थी, जिसमें कई छोटे-बड़े द्वीप भी शामिल हैं। ऐसी स्थिति में चीन की आक्रामकता ने न केवल विशिष्ट आर्थिक क्षेत्रों का अतिक्रमण किया बल्कि ताइवान, फिलीपींस, मलेशिया, विएतनाम जैसे तमाम तटीय देशों के लिए खतरा पैदा किया, जिनके द्वीप इन क्षेत्रों में हैं। अब हालत ऐसे हो गए कि समुद्र व आकाश में आवागमन के लिए चीन की इजाजत आवश्यक हो गई। चीन की मनमानियों से प्रभावित देशों ने विरोध किया और फिलीपींस ने अंतरराष्ट्रीय न्यायाधिकरण से हस्तक्षेप की मांग की।
इसी संदर्भ में न्यायाधिकरण ने यह भी स्पष्ट किया कि चीन द्वारा दक्षिण चीन सागर में द्वीप बना कर समुद्र संबंधी संयुक्त राष्ट्र के नियमों (यूनाइटेड नेशंस कन्वेशन ऑन द लॉ ऑफ सी) का उल्लंघन किया गया है। उल्लेखनीय है कि चीन द्वारा दक्षिण चीन सागर में कृत्रिम द्वीप बनाने से कोरल रीफ को खतरा है। अनुमान के अनुसार 162 वर्ग किलोमीटर कोरल रीफ नष्ट हो चुका है जो समुद्री पर्यावरण की दृष्टि से काफी गंभीर नुकसान है। चीन ने न्यायाधिकरण के फैसले को मानने से इनकार कर दिया है। यही नहीं, उसने यह भी कहा कि वह न्यायाधिकरण को शुरू से अवैध मानता है। 1970 के दशक से शुरू होकर 1980 के दशक के मध्य तक विवाद काफी फैल गया, क्योंकि दक्षिण चीन सागर के संघर्ष में तेल एक कारक के रूप में उभर कर आया। तेल मिलने की संभावना के कारण दक्षिण चीन सागर के द्वीपों को लेकर तटीय देशों के बीच संप्रभुता के दावे की होड़ मच गई। इसी संदर्भ में ‘स्प्रातली द्वीप’ विवाद देखा जा सकता है। 1982 में 200 नाटिकल (समुद्री) मील का विशेष आर्थिक क्षेत्र संयुक्त राष्ट्र के समुद्री कानून का एक भाग बना और इस कानून पर हस्ताक्षर भी इसी वर्ष किए गए।
विएतनाम, ताइवान, फिलीपींस, मलेशिया, ब्रूनेई जैसे तमाम तटीय देश ऊर्जा, मत्स्य, प्राकृतिक गैस, सुरक्षा आदि के लिए दक्षिण चीन सागर पर निर्भर हैं। ऐसे में दक्षिण चीन सागर में चीन द्वारा कृत्रिम द्वीप बनाया जाना चिंता का विषय है। इसी संदर्भ में 7 सितंबर 2016 को आसियान व पूर्वी एशिया शिखर सम्मेलन में फिलीपींस ने अपने दावे की पुष्टि के लिए कुछ तस्वीरें जारी कीं। इन तस्वीरों से स्पष्ट होता है कि चीनी जहाज ‘स्कारबोरो शोआल’ कृत्रिम द्वीप के निर्माण में जुड़े हैं। हालांकि फिलीपींस पहले भी इस तथ्य को उठाता रहा है, लेकिन चीन इनकार करता रहा है। इसलिए फिलीपींस ने चीन द्वारा कृत्रिम द्वीप बनाए जाने की तस्वीरें तब जारी कीं जब चौदहवें आसियान शिखर सम्मेलन व ग्यारहवें पूर्वी एशिया शिखर सम्मेलन में आसियान के सदस्यों के साथ-साथ अन्य साझेदार जैसे अमेरिका, जापान, आस्ट्रेलिया आदि के राष्ट्राध्यक्ष सम्मेलन में मौजूद थे।
दक्षिण चीन सागर की महत्ता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में यह वैश्विक व्यापार के लिए एक बहुत महत्त्वपूर्ण मार्ग है। साथ ही यह प्राकृतिक संपदा से संपन्न है। दक्षिण चीन सागर वह बिंदु है जो हिंद महासागर व प्रशांत महासागर को मलक्का जल संधि के माध्यम से जोड़ता है। भारत के संदर्भ में देखें तो भारत का पचपन फीसद व्यापार इसी मार्ग द्वारा होता है। तटीय देश विएतनाम ने एक सौ अट्ठाईस तेल ब्लॉक भारत को दिए हैं जो दक्षिण चीन सागर में हैं। साथ ही अमेरिका भी इस क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के लिए फिलीपींस के इलाके में नियमित सैन्य अभ्यास करता है जो ‘स्कारबोरो’ से लगभग दो सौ तीस किलोमीटर दूर है। भारत भी आसियान के सदस्य देशों के साथ सैन्य अभ्यास करता रहा है।
तेल की खोज की संभावना और समुद्र के नए कानून से महाद्वीपीय शैल्फ के क्षेत्रों पर दावे व समुद्री चट्टानों और द्वीप समूहों पर कब्जा करने की प्रवृत्ति को बल मिला। तेल की संभावना की खोज से प्रभावित होकर फिलीपींस ने कालायान (स्प्रातली के पूर्वोत्तर भाग) को अपना हिस्सा घोषित किया और 1974 में रीड के किनारे पांच द्वीपिकाओं पर कब्जा कर लिया। वर्ष 1995 में चीन ने फिलीपींस से ‘मिसचीफ भित्ती’ को छीन लिया। स्प्रातली के पश्चिमी क्षेत्र में दक्षिणी विएतनाम ने अमेरिकी कंपनियों से तेल दोहन के लिए समझौते किए और स्प्रातली को दक्षिण विएतनाम के प्रांत के प्रशासन के अंतर्गत लाने की खातिर कदम उठाए गए। वर्ष 1988 में चीन व विएतनाम के मध्य स्प्रातली द्वीप को लेकर संघर्ष हुए जिसमें साठ से ज्यादा विएतनामी नौसैनिक मारे गए। इसके अतिरिक्त मलेशिया ‘स्प्रातली द्वीप’ के दक्षिणी भाग पर दावा करता है। मलेशिया के मामले में चीन नाइन डैश लाइन को अस्वीकार करता है, जहां तेल का खनन कर रहा था।
दक्षिण चीन सागर में अपनी संप्रभुता के दावे के अतिरिक्त चीन ने वैधानिक व सैनिक रूप से भी अपनी स्थिति को आगे बढ़ाया। चीन ने दक्षिण चीन सागर के अपने बेड़े को आधुनिक बनाया है और पराकेल समूह के ‘वुडी द्वीप’ में अपना हवाई अड््डा बनाया है। दक्षिण चीन सागर में मत्स्य भंडार को लेकर भी एक भयावह घटना सन 2000 में देखी गई। चीन द्वारा गैर-कानूनी ढंग से मछली पकड़ने को रोकने के लिए फिलीपींस की गश्ती नावों ने चीनी पोतों पर हमला कर एक कप्तान को मार गिराया। इसी के फलस्वरूप मत्स्य विवाद भी सामने आया। दक्षिण चीन सागर को इस क्षेत्र की अधिकतर सरकारें मत्स्य उद्योग के पर्याप्त आधार के रूप में देख रही हैं। यहां मत्स्य भंडार समाप्त होने पर खाद्य व पर्यावरण सुरक्षा की गंभीर स्थिति उत्पन्न हो सकती है। दक्षिण चीन सागर में तटवर्ती देश मछली आखेट पर न केवल खाद्य सुरक्षा के लिए निर्भर हैं, बल्कि यह उनकी आय का भी महत्त्वपूर्ण स्रोत है।
इसी क्रम में दक्षिण चीन सागर के संदर्भ में अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा ने चीन को चेताया कि अंतरराष्ट्रीय न्यायाधिकरण का फैसला मानने को वह बाध्य है, जब फिलीपींस ने अपने दावे के समर्थन में ‘स्कारबोरो शोआल’ में कृत्रिम द्वीप बनाए जाने की तस्वीरें जारी कीं। भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी कहा कि दक्षिण चीन सागर में आवागमन के समुद्री लेन वैश्विक व्यापार के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण मार्ग हैं। वैश्विक समुद्री कानून के आधार पर भारत ने नौवहन स्वतंत्रता की वकालत की। प्रधानमंत्री ने कहा, चीन को अंतरराष्ट्रीय कानून का पालन करना चाहिए जिससे क्षेत्र में शांति, स्थिरता व समृद्धि बनी रहे। प्रधानमंत्री ने यह भी कहा कि भारत समुद्री संसाधनों के संरक्षण, पर्यावरण क्षरण के रोकथाम और समुद्र की आर्थिक संभावनाओं के दोहन के लिए अपने अनुभव साझा कर सकता है। भारत इसी साल (2016) ‘समुद्री सुरक्षा एवं सहयोग’ पर दूसरे ‘ईएस’ का आयोजन करेगा।
दक्षिण चीन सागर अपनी भौगोलिक अवस्थिति के कारण विश्व का महत्त्वपूर्ण व्यापार मार्ग है। इसके तटवर्ती देश प्राकृतिक तेल, गैस, मत्स्य, सुरक्षा आदि के लिए इस पर निर्भर हैं। ऐसे में यदि चीन अंतरराष्ट्रीय न्यायाधिकरण के फैसले की अवहेलना करता है तो इसके फलस्वरूप टकराव की नौबत आ सकती है, क्योंकि क्षेत्रीय शक्तियां अपने अधिकार जताना नहीं छोड़ेंगी, वे वर्चस्व स्थापित करने की होड़ में भी पड़ सकती हैं। दक्षिण चीन सागर पर वर्चस्व स्थापित करने की होड़ केवल चीन, विएतनाम, इंडोनेशिया, फिलीपींस, मलेशिया, ताइवान व ब्रुनेई के बीच नहीं रह गई है; अब अपने सामरिक व आर्थिक हितों की खातिर इसमें कई नए अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी भी शामिल होंगे और ऐसी स्थिति में अस्थिरता की स्थिति उत्पन्न होगी जो दीर्घकाल तक सामरिक, आर्थिक, व्यापारिक समीकरणों तथा खाद्य सुरक्षा व पर्यावरण को प्रभावित करेगी।
इसी क्रम में शांति, स्थिरता व समृद्धि बनाए रखने के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा ने चीन को चेताया कि अंतरराष्ट्रीय न्यायाधिकरण का फैसला बाध्यकारी है। भारत ने भी 1982 की संयुक्त राष्ट्र समुद्री कानून संधि के तहत दक्षिण चीन सागर में नौवहन की स्वतंत्रता का समर्थन किया क्योंकि यह कानून अबाधित रूप से व्यापार की स्वतंत्रता भी प्रदान करता है। वस्तुत: चीन पूर्व एशिया में राजनीतिक, आर्थिक व सामरिक रूप से काफी सशक्त है। लेकिन दक्षिण चीन सागर पर वर्चस्व स्थापित करने की उसकी आक्रामक नीति ने सारे तटीय देशों को एकजुट होने के लिए प्रेरित किया। नतीजतन, इन तटीय देशों ने सुरक्षा के मद््देनजर अपने यहां नौसैनिक अड्डे स्थापित कर लिए, साथ ही अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ियों (भारत, जापान, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन, फ्रांस) के एकजुट होने का मार्ग भी, उनके सामरिक व आर्थिक हितों के कारण, प्रशस्त कर दिया।

जल परिवहन : जल मार्ग बनेंगे जीवन रेखा | जयंतीलाल भंडारी

यकीनन प्राकृतिक पथ कहे जाने वाले जलमार्ग कभी भारतीय परिवहन की जीवन रेखा हुआ करते थे.
लेकिन समय के साथ आए बदलाव और परिवहन के आधुनिक साधनों के चलते बीती सदी में भारत में जल परिवहन क्षेत्र उपेक्षित होता चला गया. लेकिन अब केंद्र सरकार आंतरिक जल परिवहन के विकास के लिए एक के बाद एक नए कदम उठाती दिख रही है. कुल घरेलू परिवहन में जल परिवहन का जो हिस्सा वर्तमान में महज 3.6 फीसद है, इसे वर्ष 2018 तक बढ़ाकर सात फीसद करने का लक्ष्य रखा गया है.
राष्ट्रीय जल मार्ग कानून के तहत 111 नए नदी मार्गों को राष्ट्रीय जल मार्गों के रूप में विकसित किए जाने की योजना है. यह सरकार की उस बड़ी योजना का हिस्सा है जिसके तहत जल मार्ग आगे चलकर  एक पूरक, कम लागत वाला और पर्यावरण के अनुकूल माल एवं यात्री परिवहन का माध्यम बन सकते हैं. साथ ही भारी दबाव से जूझ रहे सड़क और रेल परिवहन तंत्र को काफी राहत मिल सकती है.
सरकार ने राष्ट्रीय जल मार्गों को संविधान की सातवीं अनुसूची की केंद्रीय सूची में शामिल किया है. अनुसूची के तहत केंद्र सरकार अंतर्देशीय जलमार्गों में नौवहन और आवागमन संबंधी कानून बना सकती है. इससे राष्ट्रीय जल मार्गों पर राज्यों के बीच विवाद की गुंजाइश नहीं होगी. सरकार एक एकीकृत राष्ट्रीय जलमार्ग परिवहन ग्रिड की स्थापना की दिशा में भी बढ़ रही है. इसके तहत 4503 किमी जलमार्गों के विकास की योजना है.
इसी तरह राष्ट्रीय जलमार्ग क्रमांक एक के तहत मालवाहक जलपोतों को वाराणसी से कोलकाता ले जाने का परीक्षण चल रहा है.  हालांकि भारत के पास 14,500 किमी. जलमार्ग है. इस विशाल जल मार्ग पर सदानीरा नदियों, झीलों और बैकवाटर्स का उपहार भी मिला हुआ है, लेकिन हम इसका उपयोग नहीं कर सके. वस्तुत: भारत के अंतर्देशीय जलमार्गों में से करीब 5,200 किमी. नदियां और 485 किमी. नहरें ऐसी हैं, जिन पर यांत्रिक जलयान चल सकते हैं.
जमीनी हकीकत यह है कि केरल, असम, गोवा और प. बंगाल के कुछ हिस्सों तक ही जलमार्ग लोगों की जीवनरेखा बने रह सके हैं. घोषित राष्ट्रीय जल मार्गों में से केवल तीन ही सक्रिय हो सके हैं. पहले क्रम पर राष्ट्रीय जलमार्ग क्रमांक एक है. 1986 में स्वीकृत इस जलमार्ग के तहत गंगा-भागीरथी-हुगली नदी प्रणाली का 1,620 किमी. क्षेत्रफल शामिल है. दूसरे क्रम पर 1988 में स्वीकृत राष्ट्रीय जलमार्ग क्रमांक दो है. इसके तहत ब्रह्मपुत्र-सादिया से धुबरी तक का 891 किमी. क्षेत्र शामिल है. तीसरे क्रम पर राष्ट्रीय जलमार्ग क्रमांक तीन है. 1993 में स्वीकृत इस जल मार्ग पर केरल का 205 किमी. जलमार्ग है.
उल्लेखनीय है कि अंतर्देशीय जल परिवहन के विकास के लिए दुनिया के कई देशों में विशेष संगठन सक्रिय हैं. भारत ने भी अक्टूबर, 1986 में भारतीय अंतर्देशीय जलमार्ग प्राधिकरण की स्थापना की. लेकिन संगठन के तौर पर यह बहुत सफल नहीं रहा. कारण, इसके गठन के बाद से इसे बहुत कम धनराशि मिल सकी. निस्संदेह देश में जल परिवहन के तहत यात्री एवं माल ढुलाई संबंधी जरूरतों की पूर्ति के लिए बहुत संभावनाएं हैं. देश के अधिकांश बिजलीघर कोयले की कमी से घिरे रहते हैं. सड़क और रेल से समय पर कोयला नहीं पहुंच पाता. ऐसे में जलमार्गों द्वारा कोयला ढुलाई की नियमित व किफायती संभावनाएं हैं. हमारी कई बड़ी विकास परियोजनाएं जलमार्गों के नजदीक साकार होने जा रही हैं.
बहुत से नए कारखाने और पनबिजली इकाइयां इन इलाकों में खुल चुकी हैं. इनके निर्माण में भारी-भरकम मशीनरी की सड़क से ढुलाई आसान काम नहीं है. अनाज और उर्वरकों की ढुलाई भी जल परिवहन से संभव है. चूंकि विभिन्न राज्यों में बड़ी नदियों और उनकी कई सहायक नदियों के किनारे बहुत कुछ अनूठी सांस्कृतिक गतिविधियां तथा मेले और पर्व होते हैं. असम, प. बंगाल, केरल और गोवा स्थित काफी इलाकों में पर्यटकों की बड़ी संख्या में आवाजाही होती है. ऐसे में नदी क्षेत्रों के माध्यम से पर्यटकों की गतिशीलता बढ़ाई जा सकती है.
अंतर्देशीय जल परिवहन के विकास से बंदरगाहों और तटीय जहाजरानी क्षेत्रों को भी जोड़ा जा सकता है. इससे हमारी कई नदी प्रणालियों को लाभ होगा. अब देश में नदियों की प्रकृति और उनके गहरे उथले पानी, गाद को निरंतर बहाव के अलावा जगह-जगह बने पीपा पुलों तथा अन्य पुलों की समस्या पर भी ध्यान दिया जाना होगा. वाणिज्यिक नौवहन की व्यावहार्यता के लिए पर्याप्त दोतरफा जिंस और यात्री उपलब्धता पर भी ध्यान देना होगा. सरकार ने अगले पांच वर्ष में जलमार्गों के विकास के लिए 50 हजार करोड़ रुपये खर्च करने के संकेत दिए हैं, पर निजी क्षेत्र से अगले पांच वर्षो में जल परिवहन के लिए इसके पांच गुना निवेश की उम्मीद की गई है. इस क्षेत्र में पूंजी लगाने वालों को प्रोत्साहन देने के लिए नई रणनीति को लागू किए जाने की जरूरत है.
जल परिवहन क्षेत्र के विकास के लिए इस बात की वैधानिक व्यवस्था भी सुनिश्चित करनी होगी कि विभिन्न नदी तटीय इलाकों के कारखाने तथा अन्य उपक्रम अपने माल ढुलाई में एक खास हिस्सा जलमार्गों को दें. जल मार्ग उपयोग करने वालों को कुछ सब्सिडी भी दी जानी चाहिए. इससे अंतर्देशीय जल परिवहन और तटीय जहाजरानी, दोनों को बढ़ावा मिलेगा, सस्ते में परिवहन होगा और इन संगठनों का आधार मजबूत होगा. खासतौर से खतरनाक सामग्री और गैस, पेट्रोल या रसायनों का एक हिस्सा जल परिवहन को आवश्यक रूप से हस्तांतरित किया जाना चाहिए. हम आशा करें कि केंद्र सरकार जल परिवहन को लक्ष्य के अनुरूप रणनीतिक रूप से विकसित करेगी. ऐसा किए जाने से देश में परिवहन के क्षेत्र में एक क्रांति देखने को मिलेगी, जिससे आम आदमी और अर्थव्यवस्था, दोनों लाभान्वित होंगे.

Sunday, November 20, 2016

बजट में बदलाव की बारी | DP Singh

सरकार बजट में बड़े बदलाव की तैयारी में जुटी है। सबसे महत्त्वपूर्ण परिवर्तन इसके समय से जुड़ा है। केंद्र सरकार फरवरी के बजाय जनवरी में बजट पेश करना चाहती है, जिसके लिए संसद का सत्र करीब एक माह पूर्व बुलाने की तैयारी की जा रही है। दूसरा बदलाव रेल बजट का आम बजट में विलय है। इस संबंध में वित्तमंत्री अरुण जेटली बाकायदा घोषणा कर चुके हैं। तीसरा बड़ा बदलाव आगामी वित्तवर्ष (2017-18) से वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) लागू करना है। सरकार के अनुसार इन तीनों कदमों से वित्तीय अनुशासन बढ़ेगा, जिससे अर्थव्यवस्था में और प्राण फूंके जा सकेंगे।
अगले साल के शुरू में होने वाले उत्तर प्रदेश, पंजाब व गुजरात विधानसभा चुनावों की तिथि का पता चलने के बाद ही बजट की सही-सही तारीख घोषित की जाएगी। वैसे सरकार एक फरवरी को आम बजट और उससे एक दिन पहले आर्थिक समीक्षा रिपोर्ट पेश करना चाहती है। इस बारे में जल्दी ही संसदीय मामलों की कैबिनेट समिति में चर्चा होगी और फिर लोकसभा अध्यक्ष से विचार-विमर्श किया जाएगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी किसी भी सूरत में इकतीस मार्च तक बजट पारित करना चाहते हैं, ताकि नया वित्तवर्ष (एक अप्रैल) शुरू होते ही अमल शुरू हो जाए। आशा है इस बार केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय (सीएसओ) सन 2016-17 के सकल घरेलू उत्पाद से जुड़े अग्रिम अनुमानित आंकड़े सात जनवरी तक जारी कर देगा। नीति आयोग के सदस्य विवेक देबरॉय और किशोर देसाई की समिति ने आम बजट में रेल बजट के विलय की सिफारिश की थी।
वित्तवर्ष अप्रैल-मार्च के बजाय जनवरी-दिसंबर करने और बजट फरवरी की जगह जनवरी में रखने की मांग पिछले एक दशक से की जा रही है। कई राज्य सरकारें भी यह मांग कर चुकी हैं। ब्रिटिश राज में तय किया गया बजट कार्यकाल, उसे पेश करने का महीना और तारीख अब तक चली आ रही है। परंपरा के अनुसार केंद्रीय बजट फरवरी के अंतिम कार्य दिवस पर सुबह 11 बजे लोकसभा में पेश किया जाता है। वर्ष 2000 तक इसे पेश करने का समय शाम पांच बजे था, जो अंग्रेजों ने अपनी सुविधानुसार तय किया था, क्योंकि जब हिंदुस्तान में शाम के पांच बजते हैं तब ब्रिटेन में दोपहर होती है। बतौर वित्तमंत्री यशवंत सिन्हा ने 2001 में पहली बार सुबह 11 बजे लोकसभा में बजट रखा था। अब अगले साल से इसका माह बदलने की तैयारी हो रही है।
फिलहाल दुनिया में बजट दो तरीके से पारित होते हैं। पहली प्रक्रिया तय वित्तवर्ष से काफी पहले शुरू हो जाती है और इसके चालू होने तक समाप्त हो जाती है। करीब पचासी फीसद विकसित देशों ने यह विधि अपना रखी है। अमेरिका में वित्तवर्ष शुरू होने से करीब आठ महीने पहले बजट पेश कर दिया जाता है जबकि जर्मनी, डेनमार्क, नार्वे में चार तथा फ्रांस, जापान, स्पेन, दक्षिण कोरिया में तीन माह पूर्व बजट पेश करना जरूरी है। वहां के संविधान में बाकायदा इसका उल्लेख है। इन देशों की संसद में बजट पर लंबी चर्चा चलती है। चर्चा के दौरान सरकार को अपने हर खर्चे और कर-प्रस्ताव पर स्पष्टीकरण देना पड़ता है। इन मुल्कों के जीवंत लोकतंत्र का सबसे बड़ा प्रमाण यह बजट प्रक्रिया है। वैसे भी माना जाता है कि जहां संसद पर सरकार हावी होती है वहां किसी भी मुद््दे पर बहस के लिए कम वक्त दिया जाता है, और जहां संसद मजबूत होती है वहां जन-प्रतिनिधि सरकार के प्रत्येक प्रस्ताव की लंबी और कड़ी पड़ताल करते हैं।
दूसरी प्रक्रिया में वित्तवर्ष के दौरान ही बजट पारित किया जाता है। ब्रिटेन, कनाडा, भारत और न्यूजीलैंड इस श्रेणी में आते हैं। भले ही भारत में वित्तवर्ष शुरू होने से करीब एक महीना पहले, फरवरी माह में बजट लोकसभा में पेश कर दिया जाता है, पर पारित तो मई के मध्य तक ही होता है। नियमानुसार पेश करने के पचहत्तर दिनों के भीतर बजट पर संसद की मोहर लगना जरूरी है। सरकार अप्रैल से मई के बीच लेखानुदान के जरिये अपना खर्च चलाती है। यह रकम उसकी कुल व्यय-राशि का लगभग सत्रह फीसद होती है। बजट पास होते-होते वित्तवर्ष के दो महीने निकल जाते हैं। फिर विभिन्न मंत्रालय नई योजनाओं पर अमल की रूपरेखा बनाते हैं, जिनकी मंजूरी और पैसा आने में करीब तीन महीने और लग जाते हैं। इसके बाद ही कायदे से धन मिलना शुरू होता है। तब तक बरसात का मौसम शुरू हो जाता है, जिससे इन्फ्रास्ट्रक्चर योजनाओं पर खर्च दो-तीन महीने और टल जाता है। अनावश्यक देरी के कारण अधिकांश योजनागत व्यय वित्तवर्ष की अंतिम छमाही (अक्तूबर-मार्च) में हो पाते हैं, जिस कारण कई बार मंजूर राशि खर्च नहीं हो पाती है। इस कमजोरी का असर विकास और जन-कल्याण से जुड़े कार्यक्रमों पर पड़ता है।
भारत में बजट व्यवस्था पहली बार 7 अप्रैल, 1860 को अंग्रेजों ने लागू की थी। आजाद हिंदुस्तान का पहला बजट आरके षन्मुखम चेट्टी ने 26 नवंबर, 1947 को पेश किया। उसके बाद अस्सी से ज्यादा बजट आ चुके हैं, पर समय शाम पांच से बदल कर सुबह ग्यारह बजे करने के अलावा उसमें कोई अन्य उल्लेखनीय परिवर्तन नहीं हुआ है। संविधान का अनुच्छेद-112 बजट से जुड़ा है, जिसमें बजट शब्द की जगह इसे सरकार की अनुमानित वार्षिक आय और व्यय का लेखा-जोखा कहा गया है। बजट के समय और वर्ष के विषय में संविधान मौन है, इसलिए उन्हें बदलने के लिए सरकार को संसद की मंजूरी की आवश्यकता नहीं है। हां, जब से बदलाव की बात निकली है तब से कुछ पार्टियों ने सर्वदलीय बैठक बुलाने की मांग जरूर जड़ दी है। वैसे कांग्रेस सहित अनेक पार्टियां बजट जनवरी में पेश करने के सुझाव से सहमत हैं। सरकार ने साफ कर दिया है कि फिलहाल वित्तवर्ष बदलने का उसका कोई इरादा नहीं है। इसके लिए पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार शंकर आचार्य के नेतृत्व में एक समिति गठित की जा चुकी है, जिसकी रिपोर्ट इकतीस दिसंबर तक आने की उम्मीद है। सरकार उसके बाद ही कोई फैसला लेगी। उधर केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड (सीबीडीटी) भी जल्द बजट पारित करने के पक्ष में है। उसके अनुसार इससे वित्तवर्ष शुरू होते ही बजट के मुताबिक पैसा खर्च होगा और सरकार को लेखानुदान की जरूरत नहीं पड़ेगी।
दावा किया जा रहा है कि केंद्र का भावी बजट हमारे संघीय स्व
रूप का दर्पण होगा। राज्यों को खर्च के मामले में अधिक स्वायत्तता और स्वंत्रता मिलेगी। वैसे चौदहवें वित्त आयोग की सिफारिश के अनुसार केंद्र सरकार के करों में राज्यों की हिस्सेदारी दस फीसद बढ़ा दी गई है। आयोग की सिफारिशों पर वित्तवर्ष 2015-16 से अमल भी चालू हो गया, पर केंद्र की होशियारी से अधिकतर राज्यों को फायदे के बजाय नुकसान ही हुआ है।
केंद्र ने राज्यों की कर-हिस्सेदारी जरूर दस प्रतिशत बढ़ा दी, लेकिन बदले में केंद्र प्रायोजित योजनाओं (सीएसएस) के मद में कटौती कर दी। उसका तर्क है कि वित्त आयोग ने करों में राज्यों की हिस्सेदारी बढ़ाने की बात जरूर की, लेकिन राज्यों को केंद्र से मिलने वाली वित्तीय मदद में विशुद्ध इजाफे की सिफारिश नहीं की है। केंद्र सरकार ने इसी कमजोरी का लाभ उठाया। हालत यह बनी कि वित्तवर्ष 2015-16 में सात सूबों को केंद्र से एक साल पहले के मुकाबले कम रकम मिली। विशुद्ध प्राप्ति की प्रगति तो लगभग हर राज्य में थम-सी गई है। ऐसे में यदि वे अपने ग्रामीण विकास बजट में कटौती करते हैं, तो उन्हें अकेला दोषी कैसे ठहराया जा सकता है? यदि केंद्र ने सच्ची नीयत का परिचय नहीं दिया तब उसके लिए जीएसटी लागू करना भी आसान नहीं होगा।
आज भारत के जीडीपी के मुकाबले कुल कर-संग्रह का अनुपात सत्रह फीसद है। इसमें केंद्र सरकार की हिस्सेदारी लगभग दस प्रतिशत है। घरेलू बचत लगभग 7.6 फीसद है। ऊपर से घाटे को तयशुदा सीमा (3.5 प्रतिशत) में रखने का दबाव भी है। बात यहीं समाप्त नहीं हो जाती। सरकार की आय का करीब चालीस फीसद पैसा उधार पर ब्याज चुकाने में चला जाता है। ऊपर से कर-आय का करीब 5.8 लाख करोड़ रुपया मुकदमों के कारण फंसा पड़ा है, जिसे उगाहने के लिए वित्तमंत्री ने छूट दी है। कॉरपोरेट टैक्स घटा कर भी एक कमी की गई है। सरकार किसानों के कल्याण के बड़े-बड़े दावे जरूर करती है, पर दावों और हकीकत में भारी अंतर है।
अब बजट के समय ही नहीं, स्वभाव में भी परिवर्तन का प्रयास हो रहा है। भविष्य में योजनागत और गैर-योजनागत खर्च के स्थान पर ‘कैपिटल ऐंड रिवेन्यू एक्सपेंडिचर’ शीर्षक के तहत समस्त व्यय का बंटवारा होगा। आय के बजाय व्यय पर ज्यादा जोर रहेगा। जीएसटी लागू हो जाने से सेवा कर, उत्पाद कर और उप-कर (सेस) जैसे सभी करों का विलय हो जाएगा। इससे बजट में अप्रत्यक्ष कर का विवरण घट जाएगा, बजट सरल होगा और राज्यों को उनके हिस्से की रकम समय पर मिल जाएगी। बजट तैयार करने में कम से कम चार-पांच माह लग जाते हैं। यदि मोदी सरकार अगले वर्ष जनवरी माह में बजट पेश करना चाहती है, तो उसे इसकी तैयारी तुरंत शुरू करनी पड़ेगी। बजट सत्र फरवरी के बजाय जनवरी के तीसरे हफ्ते में बुलाने के लिए संसद को विश्वास में लेना पड़ेगा। साथ ही शीतकालीन सत्र की तारीख भी पहले सरकानी होगी। ये सारे निर्णय लंबे समय तक लटका कर रखने की गुंजाइश नहीं बची है।

अंतरिक्ष बाज़ार में हमारा दमखम

अंतरिक्ष के क्षेत्र में एक बार फिर इतिहास रचते हुए इसरो ने पीएसएलवी सी-35 के ज़रिए दो अलग-अलग कक्षाओं में सफलतापूर्वक आठ उपग्रह स्थापित कर दिए। दो घंटे से अधिक के इस अभियान को पीएसएलवी का सबसे लंबा अभियान माना जा रहा है। यह पहली बार है जब पीएसएलवी ने अपने पेलोड दो अलग-अलग कक्षाओं में स्थापित किये। महासागर और मौसम के अध्ययन के लिए तैयार किये गये स्कैटसैट-1 और सात अन्य उपग्रहों को लेकर पीएसएलवी सी-35 ने सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र से उड़ान भरी थी।
स्कैटसैट-1 के अलावा सात उपग्रहों में अमेरिका और कनाडा के उपग्रह भी शामिल हैं। इसरो का 44.4 मीटर लंबा पीएसएलवी रॉकेट आईआईटी मुंबई का प्रथम और बेंगलुरू बीईएस विश्वविद्यालय एवं उसके संघ का पीआई सैट उपग्रह भी साथ लेकर गया था। प्रथम का उद्देश्य कुल इलेक्ट्रॉन संख्या का आकलन करना है जबकि पीआई सैट अभियान रिमोट सेंसिंग अनुप्रयोगों के लिए नैनो सैटेलाइट के डिजाइन एवं विकास के लिए है।
अभी ज्यादा दिन नहीं हुए जब जून में इसरो ने भारत के अंतरिक्ष इतिहास में पहली बार एक साथ 20 सैटेलाइट लॉन्च करके इतिहास रच दिया था। इसमें तीन स्वदेशी और 17 विदेशी सैटेलाइट शामिल थे। इसरो ने इससे पहले वर्ष 2008 में 10 उपग्रहों को पृथ्वी की विभिन्न कक्षाओं में एक साथ प्रक्षेपित किया था। हाल में ही स्वदेशी स्पेस शटल की सफ़ल लांचिंग के बाद दुनिया भर में भारतीय अंतरिक्ष एजेंसी इसरो की धूम मची है। इस सफलता ने 200 अरब डालर की अंतरिक्ष मार्केट में भी हलचल पैदा कर दी है क्योंकि बेहद कम लागत की वजह से अधिकांश देश अपने उपग्रहों का प्रक्षेपण करवाने के लिए भारत का रुख करेंगे। अब समय आ गया है जब इसरो व्यावसायिक सफ़लता के साथ-साथ अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा की तरह अंतरिक्ष अन्वेषण पर भी ज्यादा ध्यान दे। इस काम के लिए सरकार को इसरो का सालाना बजट भी बढ़ाना पड़ेगा जो नासा के मुकाबले काफ़ी कम है। भारी विदेशी उपग्रहों को अधिक संख्या में प्रक्षेपित करने के लिए अब हमें पीएसएलवी के साथ-साथ जीएसएलवी रॉकेट का भी उपयोग करना होगा।
शशांक द्विवेदी
शशांक द्विवेदी
अंतरिक्ष बाजार में भारत के लिए संभावनाएं बढ़ रही हैं। इसने अमेरिका सहित कई बड़े देशों का एकाधिकार तोड़ा है। असल में, इन देशों को हमेशा यह लगता रहा है कि भारत यदि अंतरिक्ष के क्षेत्र में इसी तरह से सफ़लता हासिल करता रहा तो उनका न सिर्फ उपग्रह प्रक्षेपण के क़ारोबार से एकाधिकार छिन जाएगा बल्कि मिसाइलों की दुनिया में भी भारत इतनी मजबूत स्थिति में पहुंच सकता है कि बड़ी ताकतों को चुनौती देने लगे। पिछले दिनों दुश्मन मिसाइल को हवा में ही नष्ट करने की क्षमता वाली इंटरसेप्टर मिसाइल का सफल प्रक्षेपण इस बात का सबूत है कि भारत बैलेस्टिक मिसाइल रक्षा तंत्र के विकास में भी बड़ी कामयाबी हासिल कर चुका है। दुश्मन के बैलेस्टिक मिसाइल को हवा में ही ध्वस्त करने के लिए भारत ने सुपरसोनिक इंटरसेप्टर मिसाइल बना कर दुनिया के विकसित देशों की नींद उड़ा दी है।
अब पूरी दुनिया में सैटेलाइट के माध्यम से टेलीविजन प्रसारण, मौसम की भविष्यवाणी और दूरसंचार का क्षेत्र बहुत तेजी से बढ़ रहा है और चूंकि ये सभी सुविधाएं उपग्रहों के माध्यम से संचालित होती हैं, इसलिए संचार उपग्रहों को अंतरिक्ष में स्थापित करने की मांग में बढ़ोतरी हो रही है। हालांकि इस क्षेत्र में चीन, रूस, जापान आदि देश प्रतिस्पर्धा में हैं, लेकिन यह बाजार इतनी तेजी से बढ़ रहा है कि यह मांग उनके सहारे पूरी नहीं की जा सकती। ऐसे में व्यावसायिक तौर पर भारत के लिए बहुत संभावनाएं हैं। कम लागत और सफलता की गारंटी इसरो की सबसे बड़ी ताकत है।
अब अमेरिका भी अपने सैटेलाइट लांचिंग के लिए भारत की मदद ले रहा है जो अंतरिक्ष बाजार में भारत की धमक का स्पष्ट संकेत है। अमेरिका 20वां देश है जो कमर्शियल लांच के लिए इसरो से जुड़ा है। भारत से पहले अमेरिका, रूस और जापान ने ही स्पेस ऑब्जर्वेटरी लांच किया है। वास्तव में नियमित रूप से विदेशी उपग्रहों का सफल प्रक्षेपण ‘भारत की अंतरिक्ष क्षमता की वैश्विक अभिपुष्टि’ है।
इसरो द्वारा 57 विदेशी उपग्रहों के प्रक्षेपण से देश के पास काफी विदेशी मुद्रा आई है। इसके साथ ही लगभग 200 अरब डालर के अंतरिक्ष बाजार में भारत एक महत्वपूर्ण देश बनकर उभरा है। चांद और मंगल अभियान सहित इसरो अपने 100 से ज्यादा अंतरिक्ष अभियान पूरे करके पहले ही इतिहास रच चुका है। पहले भारत 5 टन के सैटेलाइट लांचिंग के लिए विदेशी एजेंसियों को 500 करोड़ रुपये देता था, जबकि अब इसरो पीएसएलवी से सिर्फ 200 करोड़ में लांच कर देता है। 19 अप्रैल, 1975 में स्वदेश निर्मित उपग्रह ‘आर्यभट्ट’ के प्रक्षेपण के साथ अपने अंतरिक्ष सफर की शुरुआत करने वाले इसरो की यह सफलता भारत की अंतरिक्ष में बढ़ते वर्चस्व की तरफ इशारा करती है। इससे दूरसंवेदी उपग्रहों के निर्माण व संचालन में वाणिज्यिक रूप से भी फायदा पहुंच रहा है। अमेरिका की फ्यूट्रान कॉरपोरेशन की एक शोध रिपोर्ट भी बताती है कि अंतरिक्ष जगत के बड़े देशों के बीच का अंतर्राष्ट्रीय सहयोग रणनीतिक तौर पर भी सराहनीय है। इससे बड़े पैमाने पर लगने वाले संसाधनों का बंटवारा हो जाता है। खासतौर पर इसमें होने वाले भारी खर्च का भी।
भविष्य में अंतरिक्ष में प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी क्योंकि यह अरबों डालर की मार्केट है। भारत के पास कुछ बढ़त पहले से है, इसमें और प्रगति करके इसका बड़े पैमाने पर वाणिज्यिक उपयोग संभव है। कुछ साल पहले तक फ्रांस की एरियन स्पेस कंपनी की मदद से भारत अपने उपग्रह छोड़ता था, पर अब वह ग्राहक के बजाय साझीदार की भूमिका में पहुंच गया है। यदि इसी तरह भारत अंतरिक्ष क्षेत्र में सफलता प्राप्त करता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब हमारे यान अंतरिक्ष यात्रियों को चांद, मंगल या अन्य ग्रहों की सैर करा सकेंगे।
भारत अंतरिक्ष विज्ञान में नई सफलताएं हासिल कर विकास को अधिक गति दे सकता है। इसरो उपग्रह केंद्र, बेंगलुरु के निदेशक प्रोफेसर यशपाल के मुताबिक दुनिया का हमारी स्पेस टेक्नोलॉजी पर भरोसा बढ़ा है तभी अमेरिका सहित कई विकसित देश अपने सैटेलाइट की लांचिंग भारत से करा रहे हैं। इसरो के मून मिशन, मंगल अभियान के बाद स्वदेशी स्पेस शटल की कामयाबी इसरो के लिए संभावनाओं के नये दरवाजे खोल देगी, जिससे भारत को निश्चित रूप से बहुत फ़ायदा पहुंचेगा।

सफाई के लिए संकल्प की जरूरत | ममता सिंह

स्वच्छ भारत अभियान शहरों और गांवों की सफाई के लिए शुरू किया गया है। बेशक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वच्छ भारत अभियान को लेकर संजीदा हैं, पर राज्य सरकारें और प्रशासन तंत्र अब भी बेपरवाह बने हुए हैं। करीब दो साल का सफर स्वच्छ भारत अभियान पूरा कर चुका है। शुरुआती दौर में कई नामी-गिरामी लोगों और राजनेताओं ने जिस तरह गली-मुहल्लों में झाडू लेकर सफाई की, उससे एकबारगी ऐसा लगा कि यह अभियान अपने मकसद में पूरी तरह कामयाब होगा। पर विडंबना है कि देश के कई गली-मुहल्ले कूड़े करकट के ढेर से अंटे पड़े हैं। कई स्थानों पर सरकार की ओर से कूड़ेदान की व्यवस्था तक नहीं की गई है। मलेरिया, डेंगू और चिकनगुनिया जैसी बीमारियों के फैलने से यह बात शत-प्रतिशत सिद्ध होती है कि अब भी स्वच्छ भारत अभियान की रफ्तार काफी धीमी है। ऐसा भी नहीं कि स्वच्छ भारत अभियान पूरी तरह शिथिल पड़ गया है, लेकिन इसकी रफ्तार पर सवाल जरूर उठ रहे हैं। इस अभियान को और ज्यादा गति प्रदान करने की जरूरत है।
बीते दो साल के दौरान देश के कई हिस्सों में स्वच्छता अभियान को सफलता मिली है। सर्वेक्षण रैंकिंग में मैसूर को पहला स्थान मिला है। 9.3 लाख की जनसंख्या वाले मैसूर से 402 टन ठोस कचरा रोज निकलता है। जागरूकता की वजह से ही यहां के सभी पैंसठ वार्ड खुले में शौच से मुक्त घोषित किए जा चुके हैं। मैसूर की तरह ही दिल्ली और मुंबई जैसे बड़े शहरों को भी सबक लेना चाहिए चाहिए। दिल्ली में डेंगू और चिकनगुनिया फैला ही है, मुंबई में तो टीबी का प्रकोप भी बढ़ा है। उत्तराखंड के नब्बे शहरी निकायों में कुल 706 वार्ड हैं, जहां 195 वार्डों में शत-प्रतिशत घर-घर कूड़ा इकट्ठा किया जा रहा है, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में और ज्यादा इस दिशा में ध्यान केंद्रित करने की जरूरत है। बिहार, उत्तरप्रदेश, राजस्थान और गुजरात जैसे राज्यों को भी इस मिशन को सफल बनाने के लिए तत्काल प्रभाव से एक सशक्त खाका बनाने की आवश्यकता है। इन राज्यों में योजनाएं तो बनी हैं, लेकिन उन पर अमल अभी बाकी है। महज खाका बनाने से यह मिशन कामयाब नहीं हो पाएगा।
इस अभियान को सफल बनाने के लिए नौकरशाही को आंकड़ों में उलझाने वाले काम बंद कर देना चाहिए। सशक्त रणनीति के तहत काम करना चाहिए। यूपीए शासन के दौरान निर्मल भारत अभियान शुरू हुआ था। मोदी सरकार में निर्मल भारत अभियान का नाम बदल कर स्वच्छ भारत अभियान कर दिया। प्रधानमंत्री की अगुआई में इस अभियान को देश भर में शुरू किया गया। इसके तहत 2019 तक 9 करोड़ 8 लाख यानी प्रति मिनट छियालीस शौचालय बनाने का लक्ष्य तय किया गया। पर नौकरशाही द्वारा पेश किए गए आंकड़े बताते हैं कि 2014-15 के दौरान प्रति मिनट ग्यारह शौचालय ही बनाए गए हैं। इसका मतलब साफ है कि इसी रफ्तार से काम चलता रहा तो 2032 के पहले यह लक्ष्य हासिल नहीं हो पाएगा।
सरकारी रिपोर्ट के मुताबिक, निर्मल भारत अभियान के तहत 2001 से 2010 तक ढाई सौ अरब रुपए आबंटित किए गए, लेकिन सच्चाई यह है कि इस पर मात्र एक सौ पंद्रह अरब रुपए खर्च हो पाए हैं। सरकारी आंकड़ों में केवल इस बात पर जोर दिया जाता है कि कितने शौचालय बनाए गए हैं। निगरानी नहीं की जाती। नियंत्रक और महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट के मुताबिक, निर्मल भारत अभियान के तहत छत्तीसगढ़ में बनाए गए शौचालयों में से साठ फीसद, राजस्थान में पैंसठ फीसद और बिहार में अड़सठ फीसद बेकार पड़े हुए हैं। इनमें पानी पहुंचाने के इंतजाम नहीं हैं। स्वच्छता पर शोध करने वाली एक संस्था ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि बिहार, हरियाणा, मध्यप्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश में उनचास फीसद घरों में शौचालय होने के बावजूद कम से कम दो व्यक्ति खुले में शौच जरूर करते हैं।
स्वच्छ भारत अभियान को सफल बनाने के लिए एक लाख छियानबे हजार नौ करोड़ रुपए की मंजूरी मिली है। इस अभियान को 2019 में पूरा करने का लक्ष्य रखा गया है। इस महत्त्वपूर्ण अभियान में शहरी विकास मंत्रालय, ग्रामीण विकास मंत्रालय, पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय, राज्य सरकार, गैर-सरकारी संगठन, सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम और निगमों आदि को शामिल किया गया है। इस दौरान पूरे देश में बारह करोड़ शौचालय बनाए जाएंगे। दरअसल, इस अभियान द्वारा भारत को पांच साल में गंदगी मुक्त देश बनाने का लक्ष्य है। इसके अंतर्गत ग्रामीण व शहरी इलाकों में सामुदायिक और सार्वजनिक शौचालय बनाना और पानी की आपूर्ति करना, सड़कें, फुटपाथ, बस्तियां साफ रखना और अपशिष्ट जल को स्वच्छ करना भी शामिल है। शहरी विकास मंत्रालय ने स्वच्छ भारत अभियान के लिए बासठ हजार करोड़ रुपए आबंटित किए हैं। शहरी क्षेत्र में हर घर में शौचालय बनाने, सामुदायिक और सार्वजनिक शौचालय बनाने, ठोस कचरे का उचित प्रबंधन करने के साथ ही देश के चार हजार इकतालीस वैधानिक कस्बों के एक करोड़ चार लाख घरों को इस अभियान में शामिल करने का लक्ष्य है। ढाई लाख से ज्यादा सामुदायिक शौचालयों के निर्माण की योजना उन रिहायशी इलाकों में की गई है, जहां व्यक्तिगत घरेलू शौचालय की उपलब्धता मुश्किल है। इसी तरह बस अड्डे, रेलवे स्टेशन, बाजार आदि जगहों पर ढाई लाख से ज्यादा सार्वजनिक शौचालयों के निर्माण की योजना है।
ग्रामीण विकास मंत्रालय और पेयजल एवं स्वच्छता मंत्रालय के पास ग्रामीण इलाकों में स्वच्छ भारत अभियान की जिम्मेदारी है। देश में करीब ग्यारह करोड़ ग्यारह लाख शौचालयों के निर्माण के लिए एक लाख चौंतीस हजार करोड़ रुपए खर्च किए जा रहे हैं। इसके तहत ग्रामीण इलाकों में ग्रामीण विकास मंत्रालय हर गांव को 2019 तक हर साल बीस लाख रुपए देगा। सरकार ने हर परिवार में व्यक्तिगत शौचालय की लागत बारह हजार रुपए तय की है, ताकि सफाई, नहाने और कपड़े धोने के लिए पर्याप्त पानी की आपूर्ति की जा सके।
ऐसे शौचालय के लिए केंद्र सरकार की तरफ से मिलने वाली सहायता नौ हजार रुपए और इसमें राज्य सरकार का योगदान तीन हजार रुपए निर्धारित किया गया है। इस योजना के अंतर्गत जम्मू-कश्मीर, पूर्वोत्तर के राज्य और विशेष दर्जा प्राप्त राज्यों को मिलने वाली केंद्रीय सहायता राशि दस हजार आठ सौ रुपए होगी और राज्य सरकारों का योगदान बारह सौ रुपए होगा।  अगर पूरे देश में स्वच्छ भारत अभियान की स्थिति पर नजर डालें तो ज्यादातर क्षेत्रों में स्थिति बेहतर है। गुजरात में दिसंबर, 2015 तक 327,880 शौचालय बन चुके थे। मध्यप्रदेश और आंध्र प्रदेश में भी अभियान की स्थिति काफी बेहतर है। दिल्ली और उत्तराखंड में घरों के साथ शौचालय बनाने की तादाद बढ़ी है।
2014-15 के दौरान सभी प्रदेशों और केंद्र शासित प्रदेशों को करीब आठ सौ करोड़ रुपए जारी किए गए। इस दौरान करीब दो लाख व्यक्तिगत घरेलू शौचालयों के अलावा बारह सौ सार्वजनिक शौचालय बनाए गए।
पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय के तहत समय-समय पर स्वच्छ भारत मिशन-ग्रामीण कार्यक्रम की समीक्षा की जाती है। 2014-15 में अट्ठावन लाख चौवन हजार नौ सौ सत्तासी शौचालय बनाए, जो लक्ष्य से ज्यादा रहा। 2015-16 के दौरान अब तक 127.41 लाख शौचालय तैयार हो चुके हैं जो लक्ष्य से ज्यादा है। 2016-17 के लिए डेढ़ करोड़ व्यक्तिगत शौचालय बने, जिनमें 33 लाख 19 हजार 451 यानी 22.13 प्रतिशत एक अगस्त 2016 तक तैयार हो चुके हैं।  राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन के अध्ययन के मुताबिक, 2015-16 के नवंबर माह तक पूरे देश में एक करोड़ नौ लाख शौचालय बनाए गए। पर ग्रामीण क्षेत्रों में करीब 52.1 फीसद लोगों ने इसके इस्तेमाल के प्रति रुचि नहीं दिखाई। हालांकि शहरों में महज 7.5 फीसद लोग खुले में शौच के लिए जाते हैं। लेकिन यह आंकड़ा भी चिंताजनक है और न सिर्फ स्वच्छ भारत अभियान, बल्कि देश की प्रगति के लिए एक बड़ी चुनौती है।
इसी तरह स्वच्छ भारत मिशन की स्वच्छ स्टेटस रिपोर्ट-2016 के अनुसार, ग्रामीण क्षेत्रों में 1 अप्रैल, 2015 से 29 फरवरी, 2016 तक कुल अट्ठानबे लाख चौंसठ हजार शौचालय बनाए गए, जबकि शहरी क्षेत्रों में 1 मार्च तक दस लाख तिरसठ हजार शौचालयों का निर्माण हुआ।  स्वच्छ भारत अभियान के लिए विश्व बैंक ने एक अरब पचास हजार करोड़ डॉलर का ऋण मंजूर किया है। इसका मूल लक्ष्य, गरीबी रेखा से नीचे जीवन-यापन कर रहे सभी परिवारों को शौचालय की सुविधा देना, ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा और स्वच्छता कार्यक्रमों को बढ़ावा देना, गलियों और सड़कों की सफाई तथा घरेलू और पर्यावरण संबंधी सफाई व्यवस्था करना है।
केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अनुसार, शहरी भारत में हर साल 470 लाख टन ठोस कचरा उत्पन्न होता है। इसके अलावा पचहत्तर प्रतिशत से ज्यादा सीवेज का निपटारा नहीं हो पाता। ठोस कचरे की रिसाइकलिंग भी एक बड़ी समस्या है। भविष्य में बड़ी समस्या से बचने के लिए इन मुद्दों का निपटारा भी किया जाना जरूरी है। इस मिशन की सफलता परोक्ष रूप से भारत में व्यापार के निवेशकों का ध्यान आकर्षित करने, जीडीपी विकास दर बढ़ाने, दुनिया भर से पर्यटकों को आकर्षित करने, रोजगार के स्रोतों में विविधता लाने, स्वास्थ्य लागत को कम करने, मृत्युदर को कम करने, घातक बीमारियों की दर कम करने आदि में सहायक होगी। सफाई अभियान का मुख्य फोकस शौचालय निर्माण और गंदगी का निपटारा नहीं होना चाहिए, बल्कि औद्योगिक कचरा निस्तारण, मृदा और जल प्रदूषण रोकने के लिए भी ठोस उपाय किए जाने की जरूरत है।

इतिहास के पन्नों में शिमोन पेरेज | एस. निहाल सिंह

पिछले दिनों 93 साल की उम्र में शिमोन पेरेज की मृत्यु हो गई। वह इस्राइल के उन गिने-चुने कद्दावर नेताओं में से एक थे जिन्हें इस राष्ट्र की स्थापना का श्रेय दिया जाता है। जहां ये लोग एक तरफ आदर्शवाद का पर्याय बने थे वहीं दूसरी ओर अमेरिका की जासूसी करने के साथ-साथ उसकी शक्ति को भुनाने की सनक रखने के अलावा फिलीस्तीनियों को हाशिए पर ढकेलने के लिए ताकत का इस्तेमाल कर रहे थे।
अपनी इस नीति का कड़ाई से पालन करने वाले लोगों में शिमोन पेरेज का व्यक्तित्व अपेक्षाकृत नरम माना जाता था। 90 के दशक में कई अरब देशों की आधिकारिक यात्रा पर आए शिमोन का मैंने इंटरव्यू लिया था। वे मृदुभाषी थे और अंदर की जानकारी अपने तक ही सीमित रखते थे। शिमोन देश के केबिनेट मंत्री होने के अलावा प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति भी बने।
फिलीस्तीनियों की बड़ी त्रासदी यह रही कि वे कूटनीतिक मंच पर कभी नहीं जीत पाए क्योंकि मध्यस्थ की भूमिका निभाने वाला संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा कारणों और अमेरिका में हावी यहूदी लॉबी के प्रभाव के चलते पूरी तरह से इस्राइल के हक में पक्षपाती रहा है। अनेक इस्राइल-फिलीस्तीन संधियां समय-समय पर हुईं लेकिन उनमें से ज्यादातर इस्राइल से छुटकारा पाने के लिए चलाए गए ‘इंतेफादा’ नामक आंदोलन की तरह दफन होकर रह गयीं क्योंकि इस्राइल का उद्देश्य तो अपने ध्येय की खातिर समय प्राप्त करने का था। ओसलो में फिलीस्तीनी नेता यासर अराफात के साथ जो समझौता इस्राइल ने किया, उसकी वाहवाही के चलते 1994 में तत्कालीन प्रधानमंत्री यित्ज़ाक राबिन के साथ-साथ राष्ट्रपति शिमोन पेरेज और यासर अराफात को भी शांति के लिए नोबेल पुरस्कार संयुक्त रूप से दिया गया था।

एक दृश्य याद आ रहा है जब वाशिंगटन के व्हाइट हाउस के लॉन में अरब समस्या का हल निकालने के लिए इकट्ठा हुए अनेक नेताओं के लिए यह अवसर महज फोटो खिंचवाने का था। इसके बाद मिस्र ने यह कहकर हाथ खड़े कर दिए थे कि वह और ज्यादा अरब देशों का नेतृत्व नहीं कर सकता। यह संकेत था कि वह इसकी एवज में इस्राइल के कब्जे में आया अपना इलाका वापिस चाहता है। लेकिन इस समझौते का सबसे चौंकाने वाला पहलू यित्ज़ाक राबिन का स्टैंड था क्योंकि अग्रणी पंक्ति के नेताओं में वही एकमात्र ऐसे इस्राइली नेता थे जो फिलीस्तिनियों को उनका बनता कुछ हिस्सा देने को तैयार थे। चूंकि अधिसंख्य यहूदियों के लिए यह विचार नितांत नागवार था और वे उनके लिए एक खतरा बन गए थे, इसलिए उनमें से एक ने आगे चलकर राबिन का कत्ल कर दिया था।
इसके बाद की कहानी बदस्तूर इस जानी-पहचानी लीक पर ही चलती रही थी : फिलीस्तीनियों के कब्जाए हुए इलाके पर और ज्यादा गैरकानूनी यहूदी बस्तियां बनाना परंतु ‘द्वि-राष्ट्र उपाय’ की तोता-रटंत लगाने वाला इस्राइली नेतृत्व दरअसल कुछ भी न देने पर दृढ़ था। हाल के वर्षों में अमेरिकी विदेश मंत्री जॉन कैरी ने इस्राइली और फिलीस्तीनियों को पास लाने का काफी प्रयास किया लेकिन वे भी बेबस हो गए थे। तब जाकर उन्हें खुद को और ओबामा प्रशासन को एहसास हुआ था कि अमेरिकी सत्ता तंत्र पर किस कदर यहूदी लॉबी हावी है।
पहली बार मैं यासर अराफात से ट्यूनिस शहर में मिला था जब जॉडर्न से निष्कासित किए जाने के बाद फिलीस्तीन स्वतंत्रता संगठन ने वहां अपना मुख्यालय स्थानांतरित किया था। वे एक प्रभावशाली व्यक्तित्व वाले नेता थे जो अपने ध्येय के लिए बहुत सक्रिय थे। वे विश्व को बताना चाहते थे कि उनका आंदोलन जायज है और अंतत: सफल होगा। वे ज्यादातर अपनी भाषणशैली पर निर्भर थे। कालांतर साफ होता गया था कि उनकी वाक्पटुता की धार विरोधी की शक्ति के सामने कहीं नहीं टिकती। शिमोन पेरेज के कार्यकाल में फिलीस्तीनियों का ज्यादा-से-ज्यादा इलाका वहां यहूदी बस्तियां बसाने की खातिर हड़पा जाने लगा, यहां तक कि पहले-पहल इसके विरोध में चले लोगों के प्रदर्शन बाद में ठंडे पड़ने लगे। ‘द्वि-राष्ट्र उपाय’ महज एक कौतूहल का विषय बन कर गया।
इस्राइली नेतृत्व में केवल राबिन ही थे जिन्हें यह एहसास हो गया था कि फिलीस्तीनियों को उनका हक और जमीन देना ही देश में लंबे समय तक शांति बनाए रखने का उपाय है। इस्राइल की अपनी यात्रा के दौरान जिन लोगों से मैं मिला तो यह पाया कि वे इस सिद्धांत से सहमत थे लेकिन उनकी आवाज कमजोर थी और उनकी गिनती उन अधिसंख्यकों के मुकाबले बहुत कम थी जो यह चाहते हैं कि सब कुछ इस्राइल को मिले और फिलीस्तीनी जाएं भाड़ में। लगता है राष्ट्रपति ओबामा ने भी अरब समस्या का हल निकालने में हार मान ली है। सुश्री हिलेरी क्लिंटन जिनके बारे में कयास है कि वे आगामी राष्ट्रपति चुनाव जीत लेंगी, प्रतीत होता है कि वे भी शांति स्थापना की बजाय यहूदियों के प्रति ज्यादा सहानुभूति रखती हैं। इसलिए फिलीस्तीनियों के पास और कोई चारा नहीं है सिवाय इसके कि वे अपना अंतहीन संघर्ष जारी रखें।
बेशक एक समय में मिस्र और अरब देशों की राजनीति में ‘नासिर युग’ हुआ करता था। उन्होंने ब्रिटेन और फ्रांस की धाक को धता बताते हुए स्वेज नहर का अधिकार जीत लिया था लेकिन उसके बाद अरब राजनीति के प्रभुत्व में ज्यादातर ह्रास ही हुआ है। इस्राइल को युद्ध के जरिए नाथने के तमाम प्रयासों का अंत उलटे अरब देशों की बेइज्जती भरी हार और इलाके की हानि में ही हुआ है। स्थितियां जस-की-तस इसलिए भी बन जाती हैं क्योंकि इस्राइल का मुख्य संरक्षक अमेरिका चाहता है कि यहां शांति की शर्तें इस्राइली हितों के अनुसार हों।
इन परिस्थितियों के बनने में पेरेज की भूमिका काफी ज्यादा रही है। उन्होंने गैर-वैधानिक यहूदी बस्तियां बनाने के काम की देखरेख की थी। वे उन सभी मुख्य निर्णय प्रक्रियाओं का हिस्सा थे जो फिलीस्तीनियों की जमीन और हकों को छीनने की खातिर चलाई गई थीं। फिर भी पेरेज इस्राइली औपनिवेशवाद का एक नरम चेहरा बने रहे। अब इस्राइल इससे आगे कहां जा सकता है? आज की तारीख में यह उच्च तकनीक से अभिनव उत्पाद बनाने वाले उद्योगों का एक आधुनिक देश है जो परिष्कृत हथियारों का मुख्य निर्यातक भी है। लेकिन अपनी जमीन लगातार हड़पे जाने और दोयम दर्जे का व्यवहार किए जाने को देखकर खून का घूंट पीकर रह जाने वाले फिलीस्तीनियों का आक्रोश बढ़ता जा रहा है।
यह भी सच है कि आज जो गड‍्डमड‍्ड परिस्थितियां हम मध्य-पूर्व एशिया में देख रहे हैं वह बाहरी ताकतों द्वारा ईजाद की गयी हैं। जिनमें सबसे उल्लेखनीय है 1916 में ब्रिटेन और फ्रांस के बीच हुआ साईकस-पीकोट समझौता, जिसके जरिए ओट्टोमन साम्राज्य की परिसंपत्तियों का बंटवारा इन दोनों मुल्कों ने अपनी सहूलियत के हिसाब से आपस में कर लिया था। हम आज औपनिवेशवादी काल पर सिर्फ अफसोस जता सकते हैं लेकिन मुख्य बिंदु यह है कि नासिर के बाद एक भी ऐसा करिश्माई अरब नेता उभर नहीं पाया जो आगे बढ़कर इनका नेतृत्व संभाल सके।
आज की तारीख में अरब जगत में कई किस्म और आकार के तानाशाह राज कर रहे हैं। अफगानिस्तान और इराक में मुंह की खाने के बाद ओबामा प्रशासन अब हवाई बमबारी करने के अलावा मध्य-पूर्व में सीधी सैन्य दखलअंदाजी करने से बच रहा है। सीरिया में पिछले पांच सालों से जो गृहयुद्ध चल रहा है, वह इसलिए है कि ईरान और रूस अपने हितों की खातिर अल्पसंख्यक समुदाय अलवाती से संबंध रखने वाले बशर-अल-असद की सरकार का सहयोग और मदद कर रहे हैं।
परिस्थितियों से निपटने में संयुक्त राष्ट्र फिर से नाकामयाब सिद्ध हुआ है। जितनी चौड़ी दरार पूर्व और पश्चिम के बीच होगी, उतनी ही क्षीण संभावना सुरक्षा परिषद से जारी होने वाली प्रभावशाली हिदायतों की होगी।

हवा में जहर के घूंट | Rita Singh

यह बेहद चिंताजनक है कि वायु प्रदूषण से भारत में हर साल छह लाख और दुनिया भर में साठ लाख लोगों की जान जा रही है। यह खुलासा विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अपनी हालिया रिपोर्ट में किया है। रिपोर्ट बताती है कि दक्षिण पूर्व एशिया क्षेत्र में वायु प्रदूषण की वजह से हर साल आठ लाख जानें जा रही हैं जिनमें पचहत्तर फीसद से ज्यादा मौतें भारत में हो रही हैं। रिपोर्ट के मुताबिक दक्षिण पूर्व एशिया क्षेत्र से हवा के जो नमूने मिले हैं उस आधार पर कहा जा सकता है कि यह क्षेत्र आपातकालीन स्थिति में है। हर दस में से नौ लोग ऐसी हवा में सांस ले रहे हैं जो उनकी सेहत को नुकसान पहुंचा रही है। 2012 के आंकड़ों के मुताबिक भारत में 2 लाख 49 हजार 388 लोगों की मौत हृदय रोग, 1 लाख 95 हजार एक मौतें दिल के दौरे, 1 लाख 10 हजार पांच सौ मौतें फेफड़ों की बीमारी और 26 हजार 334 मौतें फेफड़ों के कैंसर से हुर्इं।
गौरतलब है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने आठ अंतरराष्ट्रीय संस्थानों के साथ मिल कर दुनिया भर के तीन हजार शहरों व कस्बों की हवा का विश्लेषण किया है। इसमें बाहरी और अंदरूनी वायु प्रदूषण के तहत पीएम 2.5 और पीएम 10 प्रदूषकों के स्तर को मापा गया। कई शहरों में प्रदूषक तत्त्व विश्व स्वास्थ संगठन के तय मापदंड 10 माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर से अधिक पाए गए। रिपोर्ट में कहा गया है कि 92 फीसद वैश्विक जनसंख्या सर्वाधिक वायु प्रदूषित इलाकों में रह रही है। रिपोर्ट के मुताबिक 10.21 लाख यानी सर्वाधिक मौतें चीन में हुई हैं। भारत की बात करें तो देश की राजधानी दिल्ली सर्वाधिक प्रदूषित शहर है जिसका पीएम-10 का स्तर अधिक है। यहां इसका स्तर तकरीबन 2.35 माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर है।
भारत में वायु प्रदूषण किस तरह जानलेवा साबित हो रहा है यह पिछले साल यूनिवर्सिटी आॅफ शिकागो, हार्वर्ड और येल के अर्थशास्त्रियों की उस रिपोर्ट से उद््घाटित होता है जिसमें कहा गया कि भारत दुनिया के उन देशों में शुमार है जहां सबसे अधिक वायु प्रदूषण है और जिसकी वजह से यहां के लोगों को समय से तीन साल पहले काल का ग्रास बनना पड़ रहा है। रिपोर्ट के मुताबिक अगर भारत अपने वायु मानकों को पूरा करने के लिए इस आंकड़े को उलट देता है तो इससे 66 करोड़ लोगों के जीवन के 3.2 वर्ष बढ़ जाएंगे। इसी रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि भारत की आधी आबादी यानी 66 करोड़ लोग उन क्षेत्रों में रहते हैं जहां सूक्ष्म कण पदार्थ (पार्टिकुलेट मैटर)-प्रदूषण भारत के सुरक्षित मानकों से ऊपर हैं।
रिपोर्ट में कहा गया है कि अगर भारत वायु प्रदूषण पर शीघ्र नियंत्रण नहीं लगाता है तो 2025 तक अकेले राजधानी दिल्ली में ही वायु प्रदूषण से हर वर्ष 26,600 लोगों की मौत होगी। यूनिवर्सिटी आॅफ कैरोलीना के विद्वान जैसन वेस्ट के अध्ययन के मुताबिक वायु प्रदूषण से सबसे अधिक मौतें दक्षिण और पूर्व एशिया में होती हैं। आंकड़े बताते हैं कि हर साल मानव निर्मित वायु प्रदूषण से 4 लाख 70 हजार और औद्योगिक इकाइयों से उत्पन प्रदूषण से 21 लाख लोग दम तोड़ते हैं। पिछले साल दुनिया की जानी-मानी पत्रिका ‘नेचर’ ने भी खुलासा किया कि अगर शीघ्र ही वायु की गुणवत्ता में सुधार नहीं हुआ तो 2050 तक प्रत्येक वर्ष 66 लाख लोगों की जानें जा सकती हैं।
गौरतलब है कि यह रिपोर्ट जर्मनी के मैक्स प्लेंक इंस्टीट्यूट आॅफ केमेस्ट्री के प्रोफेसर जोहान लेलिवेल्ड और उनके शोध दल ने तैयार की थी, जिसमें प्रदूषण फैलने के दो प्रमुख कारण गिनाए गए। एक पीएम 2.5-एस विषाक्त कण, और दूसरा, वाहनों से निकलने वाली गैस नाइट्रोजन आक्साइड। रिपोर्ट में आशंका जाहिर की गई कि भारत और चीन में वायु प्रदूषण की समस्या विशेष तौर पर गहरा सकती है, क्योंकि इन देशों में खाना पकाने के लिए कच्चे र्इंधन का इस्तेमाल होता है जो कि प्रदूषण का बड़ा स्रोत है। विशेषज्ञों की मानें तो इससे निपटने की तत्काल वैश्विक रणनीति तैयार नहीं की गई तो विश्व की बड़ी जनसंख्या वायु प्रदूषण की चपेट में होगी। अच्छी बात है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने वायु-प्रदूषण से होने वाले स्वास्थ्य-जोखिम के बारे में जागरूकता बढ़ाने की अपील की है। लेकिन विडंबना है कि इस पर अमल नहीं हो रहा है।  भारत की बात करें तो चार साल पहले ‘क्लीन एयर एक्शन प्लान’ के जरिए वायु प्रदूषण से निपटने का संकल्प व्यक्त किया गया। लेकिन उस पर कोई काम नहीं हो रहा। नतीजतन, उपग्रहों से लिए गए आंकड़ों के आधार पर तैयार रिपोर्ट के मुताबिक विश्व के 189 शहरों में सर्वाधिक प्रदूषण-स्तर भारतीय शहरों में है। मसलन, भारत का सिलिकॉन वैली कहा जाने वाला बंगलुरु विश्व के शहरों में वायु प्रदूषण स्तर में वृद्धि के मामले में अमेरिका के पोर्टलैंड शहर के बाद दूसरे स्थान पर है। यहां वर्ष 2002 से 2010 के बीच वायु प्रदूषण के स्तर में चौंतीस फीसद की वृद्धि पाई गई। कुछ ऐसे ही बदतर हालात देश के अन्य बड़े शहरों के भी हैं।
देश के शहरों के वायुमंडल में गैसों का अनुपात बिगड़ता जा रहा है और उसे लेकर किसी तरह की सतर्कता नहीं बरती जा रही। आंकड़ों पर गौर करें तो हाल के वर्षों में वायुमंडल में आॅक्सीजन की मात्रा घटी है और दूषित गैसों की मात्रा बढ़ी है। कार्बन डाइ आॅक्साइड की मात्रा में तकरीबन पच्चीस फीसद की वृद्धि हुई है। इसका मुख्य कारण बड़े कल-कारखानों और उद्योग-धंधों में कोयले व खनिज तेल का उपयोग है। गौरतलब है कि इनके जलने से सल्फर डाइ आॅक्साइड निकलती है जो मानव जीवन के लिए बेहद खतरनाक है। शहरों का बढ़ता दायरा, कारखानों से निकलने वाला धुआं, वाहनों की बढ़ती तादाद, तमाम ऐसे कारण हैं जिनसे प्रदूषण बढ़ रहा है। वाहनों के धुएं के साथ सीसा, कार्बन मोनोआॅक्साइड तथा नाइट्रोजन आॅक्साइड के कण निकलते हैं। ये दूषित कण मानव-शरीर में कई तरह की बीमारियां पैदा करते हैं। मसलन, सल्फर डाइ आॅक्साइड से फेफड़े के रोग, कैडमियम जैसे घातक पदार्थों से हृदय रोग, और कार्बन मोनोआॅक्साइड से कैंसर और श्वास संबंधी रोग होते हैं। कारखानों और विद्युत गृह की चिमनियों तथा स्वचालित मोटरगाड़ियों में विभिन्न र्इंधनों के पूर्ण और अपूर्ण दहन भी प्रदूषण को बढ़ावा देते हैं। 1984 में भोपाल स्थित यूनियन कारबाइड कारखाने से विषैली मिक गैस के रिसाव से हजारों लोग मौत के मुंह में समा गए और हजारों लोग अपंगता का दंश झेल रहे हैं। इसी प्रकार 1986 में अविभाजित सोवियत संघ के चेरनोबिल परमाणु रिएक्टर में रिसाव होने से रेडियोएक्टिव प्रदूषण हुआ और लाखों लोग प्रभावित हुए। वायु प्रदूषण से न केवल मानव समाज को बल्कि प्रकृति को भी भारी नुकसान पहुंच रहा है।
प्रदूषित वायुमंडल से, जब भी वर्षा होती है, प्रदूषक तत्त्व वर्षाजल के साथ मिलकर नदियों, तालाबों, जलाशयों और मृदा को प्रदूषित कर देते हैं। अम्लीय वर्षा का जलीय तंत्र समष्टि पर प्रतिकूल प्रभाव डाल रहा है। नार्वे, स्वीडन, कनाडा और संयुक्त राज्य अमेरिका की महान झीलें अम्लीय वर्षा से प्रभावित हैं। अम्लीय वर्षा वनों को भी बड़े पैमाने पर नष्ट कर रही है। यूरोप महाद्वीप में अम्लीय वर्षा के कारण साठ लाख हेक्टेयर वन नष्ट हो चुके हैं। ओजोन गैस की परत पृथ्वी के लिए रक्षाकवच का कार्य करती है- वायुमंडल की दूषित गैसों के कारण ओजोन को काफी नुकसान पहुंचा है। ध्रुवों पर इस परत में एक बड़ा छिद्र हो गया है जिससे सूर्य की खतरनाक पराबैंगनी किरणें भूपृष्ठ पर पहुंच कर ताप में वृद्धि कर रही हैं। इससे न केवल कैंसर जैसे असाध्य रोगों में वृद्धि हो रही है बल्कि पेड़ों से कार्बनिक यौगिकों के उत्सर्जन में बढ़ोतरी हुई है। इससे ओजोन व अन्य तत्त्वों के बनने की प्रक्रिया प्रभावित हो रही है।
नए शोध बताते हैं कि वायु प्रदूषित क्षेत्रों में रहने वाली गर्भवती महिलाओं से जन्म लेने वाले शिशुओं का वजन सामान्य शिशुओं की तुलना में कम होता है। यह खुलासा ‘एनवायरमेंटल हेल्थ प्रॉस्पेक्टिव’ द्वारा नौ देशों में तीस लाख से ज्यादा नवजात शिशुओं पर किए गए अध्ययन से हुआ है। शोध के मुताबिक जन्म के समय कम वजन के शिशुओं को आगे चल कर स्वास्थ्य संबंधी विभिन्न समस्याओं का सामना करना पड़ता है। यानी इनमें मधुमेह और हृदय रोग का खतरा बढ़ जाता है।
वायु प्रदूषण का दुष्प्रभाव ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विरासतों पर भी पड़ रहा है। पिछले साल देश के उनतालीस शहरों के 138 विरासतीय स्मारकों पर वायु प्रदूषण के घातक दुष्प्रभाव का अध्ययन किया गया। पाया गया कि शिमला, हसन, मंगलौर, मैसूर, कोट्टायम और मदुरै जैसे विरासती शहरों में पार्टिकुलेट मैटर पॉल्यूशन राष्ट्रीय मानक (60 माइक्रोग्राम क्यूबिक मीटर) से भी अधिक है। कुछ स्मारकों के निकट तो यह चार गुना से भी अधिक पाया गया। सर्वाधिक प्रदूषण-स्तर दिल्ली के लालकिला के आसपास पाया गया। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि शहरों के स्मारकों के आसपास रासायनिक और धूल प्रदूषण की जानकारी के बाद भी बचाव पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। ऐसा नहीं है कि वायु प्रदूषण के इन दुष्प्रभावों से निपटने और रोकथाम के लिए कानून नहीं है। लेकिन सच्चाई यह है कि उस कानून का पालन नहीं हो रहा है। उचित होगा कि सरकार वायु प्रदूषण की रोकथाम के लिए प्रभावकारी राष्ट्रीय योजना या नीति बनाए और उस पर कड़ाई से अमल करे।

Saturday, November 19, 2016

AI- Artificial Intelligence | अजित बालकृष्णन

तकनीक की दुनिया एक और बड़े बदलाव की ओर अग्रसर है। जैसा कि ऐसे मौकों पर होता है, पूरा माहौल नए बदलाव के एकदम खिलाफ है। बीबीसी ने ब्रिटेन के सर्वोत्तम वैज्ञानिकों में से एक प्रोफेसर स्टीफन हॉकिंस के हवाले से कहा है कि यह नया बदलाव मानव जाति के अंत की गाथा लिख सकता है। अन्य लोगों का रुख इससे उलट है और उनका दावा है कि नया बदलाव कामकाज की नीरसता खत्म करेगा, शिक्षा की पहुंच बढ़ाएगा, बुजुर्गों के जीवन को बेहतर करेगा और स्वास्थ्य सुविधाओं को सस्ता करेगा। यह नई तकनीक है कृत्रिम बौद्घिकता।
 
शायद कृत्रिम बौद्घिकता शब्द सुनकर आपको लगेगा कि यह भी शायद कोई भारी भरकम लगने वाला शब्द होगा जिसे सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र के लोगों ने अपना काम निकालने के लिए तैयार किया होगा ताकि उनके काम को अहमियत मिले। वास्तव में तकनीकी कारोबार से जुड़े संगठन अपनी प्रेस विज्ञप्तियों में वर्ड प्रोसेसिंग, ई-मेल, सोशल नेटवर्किंग जैसे शब्दों का प्रयोग करते हैं और इस बीच वादा किया जाता है कि दुनिया जल्दी ही एक बेहतर, व्यावहारिक और कम गंदी जगह होगी जहां काम को अधिक सक्षम ढंग से पूरा किया जा सकेगा। इस बीच श्रम और श्रमिकों के समर्थन का दम भरने वाले बौद्धिक कहते रहेंगे कि ऐसा करने से समाज में रोजगार की भयंकर कमी एक साथ देखने को मिलेगी। इसका व्यापक और बुरा प्रभाव पड़ेगा। वर्ष बीतते जाते हैं और पता चलता है कि नए आविष्कार ने हमारे आसपास की दुनिया में कुछ बदलाव अवश्य किए हैं। 
 
मिसाल के तौर पर टाइपराइटर की जगह अब लैपटॉप ने ले ली। हालांकि टाइप तो यहां भी करना पड़ता है। ई-मेल भी टाइप करके भेजना होता है लेकिन उसके सामने वाले पक्ष तक पहुंचने की गति सामान्य पत्र की तुलना में बहुत तेज है। गपशप का सिलसिला अब केवल करीबी पड़ोसियों के साथ ही नहीं बल्कि ऐसे लोगों के साथ भी चल सकता है जिनका हम नाम भर जानते हों और जो दुनिया के दूसरे छोर पर रहते हों। इसके अलावा तो सबकुछ पहले जैसा ही है। हमें इन तकनीक की बदौलत कोई ऐसा बड़ा बदलाव होता नहीं दिखता जिसका दम इनके समर्थक भरते हैं। 
 
ऐसे में कृत्रिम बुद्घिमता को लेकर कही जाने वाली चामत्कारिक बातों को भी शंका की दृष्टिï से देखा गया। ऐसा इसलिए क्योंकि सन 1950 के दशक से ही इसे और इसके संभावित असर को लेकर तमाम तरह के दावे किए जाते रहे हैं। सवाल उठता है कि अगर ऐसा है तो फिर न्यूयॉर्क टाइम्स और द टेलीग्राफ जैसे बड़े समाचार पत्र इसमें अपना स्वर क्यों मिला रहे हैं? न्यूयॉर्क टाइम्स ने हाल ही में लिखा कि कृत्रिम बुद्घिमता पर नियंत्रण की होड़ शुरू हो चुकी है। उसने विशेषज्ञों के हवाले से कहा कि जो भी इस होड़ का विजेता होगा वह सूचना प्रौद्योगिकी के अगले चरण पर राज करेगा। 
 
लंदन के समाचार पत्र द टेलीग्राफ ने एक अन्य विशेषज्ञ के हवाले से कहा कि पांच साल में अधिकांश कंपनियों के पास निहायत सस्ती और ताकतवर मशीनों की सेना होगी जो क्लाउड से संचालित होगी। इनकी मदद से तमाम ऐसे कामों को पूरा किया जा सकेगा जिनको करने के लिए आज लोगों की जरूरत होती है। यानी इनकी वजह से लाखों रोजगार खत्म होंगे। आखिर कृत्रिम बौद्घिकता है क्या बला? हो सकता है आप भी किसी न किसी तरह कृत्रिम बुद्घिमता का प्रयोग कर रहे हों। जब आप किसी न्यूज वेबसाइट पर खबर पढ़ लेते हैं और उसके बाद ऐसे किसी लिंक पर क्लिक करते हैं जिस पर लिखा होता है कि यहां इससे मिलीजुली सामग्री पढ़ी जा सकती है तो आप एक नए लेख तक पहुंच जाते हैं। यह कृत्रिम बुद्घिमता का ही नमूना है। उस समाचार वेबसाइट पर पर्दे के पीछे एक कंप्यूटर प्रोग्रामर ऐसा कोड लिखकर रखता है जो उस साइट के सभी समाचार आलेखों का विश्लेषण करके उनको श्रेणीबद्घ करके रखता है। मिसाल के तौर पर हम बॉलीवुड फिल्म समीक्षा और भारत पाकिस्तान संबंध, जैसे विषय ले सकते हैं। जो पाठक फिल्म समीक्षा में रुचि दिखाते हैं उनको वैसे ही आलेख प्रस्तुत किए जाते हैं। कार चलाना ऐसा काम है जिसमें हाथ, पैर, आंख और कान का समन्वय जरूरी है ताकि तमाम यातायात के बीच कार चलाई जा सक। अमेरिका जैसे देश में यह क्षेत्र इन दिनों कृत्रिम बुद्घिमता के लिहाज से अहम बना हुआ है।
 
अमेरिका में बड़ी आबादी 70 से अधिक उम्र की है और लोग अकेले रहते हैं। उनको अपनी गाड़ी खुद चलानी होती है। ऐसे में कार का स्वचालन उनके लिए फायदेमंद हो सकता है। वाहनचालक रहित कार की अवधारणा कृत्रिम बुद्घिमता से जुड़ी है। कार को स्वचालित बनाने के लिए दशकों पुरानी रडार और जीपीएस जैसी तकनीक का प्रयोग किया जाता है जो पता लगाती है कि कार के आसपास क्या है।  इनकी मदद से मार्ग की बाधाओं, संकेतकों को समझा जाता है और सॉफ्टवेयर की मदद से इस सूचना के जरिए रास्ते तलाश किए जाते हैं। 
लेकिन ऐसे कदमों में जोखिम जुड़ा है। चालक रहित कार जो जटिल और भीड़भाड़ भरी राहों से निकलने की जुगत कर सके वह आतंकवादियों के लिए एक खतरनाक हथियार हो सकती है। वे इन वाहनों का उपयोग बम विस्फोट में कर सकते हैं। चालक रहित टैंक बन गए तो जंग की तस्वीर बदल जाएगी। दूरदराज इलाकों में चालक रहित विमान यानी ड्रोन के हमलों की खबरें हम सुनते ही हैं। जोखिम यह भी है ऐसे काम मशीन से होने लगे तो इन्हें करने वाले लोगों का क्या होगा? 
 
अमेरिका में सन 2030 तक कृत्रिम बुद्घिमता के समाज पर पडऩे वाले असर के आकलन के लिए शीर्ष विद्वानों और औद्योगिक जगत के लोगों का एक पैनल तैयार किया गया। इसने हाल ही में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की है। आईआईटी बंबई के प्रोफेसर शिवराम कल्याणकृष्णन भी इसके सदस्य हैं। भारत में यह पूछना अहम हो सकता है कि इन तकनीक को लेकर देश के जन नीति प्रतिष्ठïानों का रुख क्या है? पहले कदम के रूप में जन सेवाओं की आपूर्ति के कुछ क्षेत्रों को चिह्निïत करना अहम हो सकता है जो कृत्रिम बुद्घिमता से लाभान्वित होने वाले हों। यह भी सुनिश्चित किया जा सकता है कि उत्पाद विकास आदि के लिए धन आसानी से मुहैया कराया जा सके। शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा और राष्ट्रीय सुरक्षा ऐसे क्षेत्र हो सकते हैं। 
 
शिक्षा में प्राथमिक शिक्षकों का काम आसान बनाने, औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान और पॉलिटेक्रीक आदि में इनका प्रयोग किया जा सकता है। वहीं प्राथमिक स्वास्थ्य में बीमारियों का शीघ्र पता लगाने और उपचार करने में इनका इस्तेमाल हो सकता है। वहीं राष्ट्रीय सुरक्षा में आतंकियों के खिलाफ शीघ्र चेतावनी जारी करने के काम में भी यह नई तकनीक मददगार साबित हो सकती है। 

राजनीतिः जीडीपी बनाम भूख सूचकांक | DP Singh

ताजा विश्व भूख सूचकांक या ग्लोबल हंगर इंडेक्स (जीएचआइ) के अनुसार भारत की स्थिति अपने पड़ोसी मुल्क नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका और चीन से बदतर है। यह सूचकांक हर साल अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान संस्थान (आइएफपीआरआइ) जारी करता है, जिससे दुनिया के विभिन्न देशों में भूख और कुपोषण की स्थिति का अंदाजा लगता है। आज केवल इक्कीस देशों में हालात हमसे बुरे हैं। विकासशील देशों की बात जाने दें, हमारे देश के हालात तो अफ्रीका के घोर गरीब राष्ट्र नाइजर, चाड, सिएरा लिओन से भी गए-गुजरे हैं। पूरी दुनिया में भूख के मोर्चे पर पिछले पंद्रह बरसों के दौरान उनतीस फीसद सुधार आया है, लेकिन हंगर इंडेक्स में भारत और नीचे खिसक गया है। सन 2008 में वह तिरासीवें नंबर पर था, वर्ष 2016 आते-आते 97वें स्थान पर आ गया। तब जीएचआइ में कुल 96 देश थे, जबकि अब उनकी संख्या बढ़ कर 118 हो गई है। भूख मापने के लिए इस बार चार मापदंड अपनाए गए हैं। पहला है, देश की कुल जनसंख्या में कुपोषित आबादी की तादाद। दूसरा है, पांच साल तक के ‘वेस्टेड चाइल्ड’ यानी ऐसे बच्चे जिनकी लंबाई के अनुपात में उनका वजन कम है। इससे कुपोषण का पता चलता है। तीसरा है, पांच साल तक के ‘स्टनटेड चाइल्ड’ यानी ऐसे बच्चे जिनकी आयु की तुलना में कद कम है। चौथा और अंतिम मापदंड है, शिशु मृत्यु दर। पहली बार भूख मापने के लिए ‘वेस्टेड चाइल्ड’ और ‘स्टनटेड चाइल्ड’ का पैमाना अपनाया गया है। अनुमान है कि आजादी के सत्तर साल बाद भी भारत की पंद्रह प्रतिशत आबादी कुपोषण का शिकार है। इसका अर्थ यह है कि देश के करीब बीस करोड़ लोगों को भरपेट भोजन नहीं मिलता है, और जो मिलता है उसमें पोषक तत्त्वों का अभाव होता है। संतुलित भोजन के अभाव में आज पंद्रह फीसद बच्चे‘वेस्टेड चाइल्ड’ और उनतालीस प्रतिशत ‘स्टनटेड चाइल्ड’ की श्रेणी में आते हैं। इसी आयु वर्ग में उनकी मृत्यु दर 4.8 फीसद है।
मजे की बात है कि बच्चों के संतुलित पोषण के लिए दुनिया के दो सबसे बड़े कार्यक्रम भारत में चल रहे हैं। पहला है, छह साल तक के बच्चों के लिए समेकित बाल विकास योजना (आइसीडीएस), तथा दूसरा है, चौदह वर्ष तक के स्कूली बच्चों के लिए मिड-डे मील योजना। इसके बावजूद यदि भूख सूचकांक में भारत की स्थिति नहीं सुधरी तो निश्चय ही उक्त योजनाओं के क्रियान्वयन में गड़बड़ी है। वैसे हंगर इंडेक्स में देश की दुर्दशा के मुख्य कारण गरीबी, बेरोजगारी, पेयजल की किल्लत, स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी तथा साफ-सफाई का अभाव है।
आर्थिक विकास के तमाम दावों के बावजूद आज भी देश की बाईस प्रतिशत आबादी कंगाल (गरीबी रेखा से नीचे) है। एक वक्त था जब यह समझा जाता था कि तेज आर्थिक विकास के भरोसे गरीबी और भुखमरी को समाप्त किया जा सकता है, लेकिन फिलवक्त जीडीपी को किसी देश की खुशहाली का पैमाना नहीं माना जाता। भारत को बाजार आधारित खुली अर्थव्यवस्था अपनाए चौथाई सदी बीत चुकी है। इस दौरान देश का जीडीपी अच्छा-खासा रहा है। आज भारत को दुनिया का सातवां सबसे अमीर देश गिना जाता है। हमारी प्रतिव्यक्ति औसत वार्षिक आय बढ़ कर 88,533 रुपए हो चुकी है, लेकिन अमीर और गरीब आदमी की आमदनी का अंतर भी पहले से कहीं अधिक है।
राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (एनएसएस) की रिपोर्ट इस तथ्य की तसदीक करती है। रिपोर्ट से पता चलता है कि गरीब और अमीर के बीच की खाई और चौड़ी होती जा रही है। आम आदमी ने पिछले दो दशक के उदारीकरण राज की भारी कीमत चुकाई है। सर्वे में शहरों के सबसे संपन्न दस फीसद लोगों की औसत संपत्ति 14.6 करोड़ रुपए आंकी गई, जबकि सबसे गरीब दस प्रतिशत की महज 291 रुपए। यानी शहरी अमीरों के पास गरीबों के मुकाबले पांच लाख गुना ज्यादा धन-दौलत है। गांवों में कुबेर और कंगाल आबादी की संपत्ति का अंतर थोड़ा कम है, फिर भी यह एक और तेईस हजार के आसमानी अंतर पर है।
गांवों में सबसे अमीर दस प्रतिशत लोगों की औसत संपत्ति 5.7 करोड़ रुपए तथा सबसे गरीब दस फीसद की 2507 रुपए है। रिपोर्ट के अनुसार आज गांवों की एक तिहाई तथा शहरों की एक चौथाई आबादी कर्ज के बोझ तले दबी है। जहां सन 2002 में गांवों के सत्ताईस फीसद लोगों ने ऋण ले रखा था, वहीं 2012 में इकतीस प्रतिशत लोगों पर कर्ज चढ़ा था। इन दस वर्षों में ऋण की रकम भी बढ़ कर लगभग दो गुनी हो गई।
क्रेडिट सुइस ग्लोबल वेल्थ रिपोर्ट के अनुसार आज हिंदुस्तान के दस प्रतिशत अमीरों के पास देश की चौहत्तर प्रतिशत संपत्ति है। मतलब यह कि बचे नब्बे प्रतिशत लोगों के पास महज छब्बीस प्रतिशत धन-दौलत है। तेज आर्थिक विकास के कारण पिछले पंद्रह वर्षों में देश की संपत्ति में 15.33 लाख करोड़ रुपए का इजाफा हुआ, पर इस वृद्धि का 61 प्रतिशत (नौ लाख करोड़ रुपए) हिस्सा केवल एक फीसद अमीर तबके ने कब्जा लिया। ध्यान से देखने पर पता चलता है कि पिछले डेढ़ दशक में देश में जितनी दौलत बढ़ी उसका 81 प्रतिशत (12.41 लाख करोड़ रुपए) हिस्सा संपन्न दस फीसद वर्ग की झोली में चला गया, जबकि नब्बे प्रतिशत आम जनता को केवल 19 प्रतिशत (2.91 लाख करोड़ रुपए) संपत्ति मिली।
रोजगार के मोर्चे पर भी हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं। लेबर ब्यूरो सर्वेक्षण की ताजा रिपोर्ट के अनुसार आज भारत रोजगार-रहित विकास के कुचक्र में फंस गया है। वर्ष 2015-16 में बेरोजगारी दर पांच प्रतिशत आंकी गई, जो पांच वर्ष में सर्वाधिक थी। इससे पूर्व वर्ष 2013-14 में यह 4.9 फीसद, 2012-13 में 4.7 तथा 2011-12 में 3.8 फीसद थी। हां, 2009-10 में यह आंकड़ा जरूर 9.3 प्रतिशत था। रिपोर्ट के अनुसार पिछले वित्तवर्ष में शहरों में बेरोजगारी की स्थिति और बिगड़ी है। जहां 2013-14 में यह 4.7 फीसद थी, 2015-16 में बढ़ कर 5.1 फीसद हो गई। सबसे अधिक मार महिलाओं पर पड़ रही है, उनकी नौकरियां लगातार कम हो रही हैं। सन 2013-14 में बेरोजगार औरतों की संख्या 7.7 प्रतिशत थी, जो दो साल बाद बढ़ कर 8.7 प्रतिशत हो गई।
तेज औद्योगीकरण और आर्थिक सुधार के दावों के बावजूद सच यह है कि पिछले पच्चीस सालों के दौरान अच्छी और सुरक्षित नौकरियां लगातार घटी हैं। 1980 की औद्योगिक जनगणना में प्रत्येक गैर-कृषि इकाई में 3.01 कर्मचारी थे, जो 2013 आते-आते घट कर 2.39 रह गए। उदारीकरण से पूर्व 1991 में 37.11 फीसद उद्योग ऐसे थे जहां दस या अधिक कर्मचारी थे। 2013 में यह संख्या दस प्रतिशत गिर कर 21.15 रह गई। इसका अर्थ यह हुआ कि देश के अधिकांश उद्योग अब गैर-संगठित क्षेत्र में हैं। यह तथ्य किसी भी अच्छी अर्थव्यवस्था के सद्गुण के तौर पर नहीं गिना जाएगा। इस सिलसिले में श्रम ब्यूरो की रिपोर्ट का जिक्र जरूरी है। रिपोर्ट से सर्वाधिक काम देने वाले आठ सेक्टर- कपड़ा, हैंडलूम-पॉवरलूम, चमड़ा, आॅटो, रत्न-आभूषण, परिवहन, आइटी-बीपीओ, और धातु के मौजूदा हालात का जिक्र है, जहां नई नौकरी न बराबर है।
रिपोर्ट के अनुसार इन आठ सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण सेक्टरों में जुलाई-सितंबर, 2015 की तिमाही में केवल 1.34 लाख नई नौकरी आई। मतलब यह कि प्रतिमाह पैंतालीस हजार से भी कम लोगों को काम मिला, जबकि आंकड़े गवाह हैं कि हिंदुस्तान के रोजगार बाजार में हर महीने दस लाख नए नौजवान उतर आते हैं। इसका अर्थ यह भी है कि हर माह लाखों बेरोजगारों की नई फौज खड़ी हो रही है, जो एक साल में एक करोड़ की दिल दहला देने वाली संख्या पार कर जाती है। ऐसे में अच्छे और टिकाऊ रोजगार की बात करना मुंगेरीलाल के हसीन सपने देखने जैसा है। कुल मिलाकर रोजगार मोर्चे पर हालत बहुत बुरी है। स्थिति एक अनार, सौ बीमार जैसी है। तभी सरकारी विभाग में चपरासी के चंद पदों के लिए लाखों आवेदन आते हैं, और अर्जी देने वालों में हजारों इंजीनियरिंग, एमबीए, एमए, पीएचडी डिग्रीधारी होते हैं।
पिछले तीन साल से खाद्य सुरक्षा कानून लागू है, फिर भी हंगर इंडेक्स में हम फिसड्डी हैं। मनमोहन सिंह सरकार ने अपने पहले कार्यकाल के दौरान ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना लागू की थी, जिसका उद््देश्य भी भूख और गरीबी से लड़ना है। लगता है जन-कल्याण से जुड़े ये दोनों कार्यक्रम अपेक्षित परिणाम देने में विफल रहे हैं।
एक बात और है जो चौंकाती है। अर्थव्यवस्था के आंकड़े देख कर अनुमान लगाना कठिन है कि देश किस दिशा में जा रहा है। आज सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) सात फीसद से ऊपर है, जिससे लगता है कि अर्थव्यवस्था मजबूत है। दूसरी ओर औद्योगिक उत्पादन सूचकांक (आइआइपी) है जो लगातार दो माह से कमजोर चल रहा है। इसी प्रकार थोक मूल्य सूचकांक (डब्ल्यूपीआइ) और उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआइ) का अंतर है। पहले को देख कर लगता है कि महंगाई कम हो रही है, जबकि दूसरा संकेत देता है कि बढ़ रही है। सितंबर 2015 में तो इन दोनों में करीब नौ फीसद का अंतर था। तब थोक सूचकांक -4.4 था, जबकि उपभोक्ता सूचकांक +4.4 था। इतना ज्यादा अंतर देख आम आदमी को कैसे पता चलेगा कि महंगाई बढ़ रही है या घट रही है। हां, जब कोई अंतरराष्ट्रीय एजेंसी कहती है कि देश में करोड़ों लोग भूखे हैं तब सरकार के पास चुप्पी साधने के अलावा कोई चारा नहीं होता।

राजनीतिक हितों से ऊपर उठकर सोचें | अनूप भटनागर


यह कैसी विडम्बना है कि भारत जैसे धर्म निरपेक्ष देश के संविधान में मृतप्राय अनुच्छेद 44 के संदर्भ में विधि आयोग द्वारा नागरिक संहिता के बारे में समाज के विभिन्न वर्गों से सुझाव मांगे जाने के साथ ही देश की राजनीति में उबाल आ गया है। कांग्रेस और जनता दल (यू) जैसे सरीखे कई राजनीतिक दल इसके औचित्य पर सवाल उठाने में संकोच नहीं कर रहे हैं। दूसरी ओर मुस्लिम समुदाय का प्रतिनिधित्व करने वाले आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड सहित कुछ संगठनों ने इस विषय पर आसमान सिर पर उठा लिया है। समान नागरिक संहिता के सवाल पर कांग्रेस और कुछ अन्य राजनीतिक दलों की प्रतिक्रिया ने 1985 में बहुचर्चित शाहबानो प्रकरण में उच्चतम न्यायालय के फैसले को बदलने की तत्कालीन केन्द्र सरकार की कवायद की याद ताजा कर दी है।
संभवत: पहली बार उच्चतम न्यायालय ने इस विषय पर कोई सुझाव दिया था। अप्रैल 1985 में तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश वाई. वी. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ ने तलाक और गुजारा भत्ता जैसे मुद्दों के परिप्रेक्ष्य में देश में समान नागरिक संहिता बनाने का सुझाव दिया था। संविधान पीठ की राय थी कि समान नागरिक संहिता देश में राष्ट्रीय एकता को बढावा देने में मददगार होगी।
इस फैसले के तुरंत बाद तत्कालीन सत्तारूढ़ दल ने आरिफ मोहम्मद खां सरीखे पढ़े-लिखे नेताओं का पहले भरपूर उपयोग किया और बाद में मुस्लिम समाज के कुछ वर्गों और संगठनों के दबाव में इस फैसले को बदलते हुए एक नया कानून ही बना दिया। समान नागरिक संहिता के बारे में विधि आयोग द्वारा मांगे गये सुझावों का विरोध करते हुए मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और कुछ अन्य संगठनों ने इसका बहिष्कार करने का निश्चय किया है जबकि मुस्लिम महिला संगठनों का तर्क है कि हमें इस प्रक्रिया से तैयार होने वाले दस्तावेज का प्रारूप देखने के बाद ही कोई प्रतिक्रिया देनी चाहिए। संविधान का अनुच्छेद 44 कहता है कि शासन भारत के समस्त राज्य क्षेत्र में नागरिकों के लिये एक समान सिविल संहिता प्राप्त कराने का प्रयास करेगा।
शाहबानो प्रकरण के बाद भी देश की शीर्ष अदालत ने इस बारे में सुझाव दिये क्योंकि वह महसूस कर रही थी कि समान नागरिक संहिता के अभाव में हिन्दू विवाह कानून के तहत विवाहित पुरुषों द्वारा पहली पत्नी को तलाक दिये बगैर ही धर्म परिवर्तन करके दूसरी शादी करने की घटनायें बढ़ रही थीं।
न्यायालय ने धर्म का दुरुपयोग रोकने के इरादे से धर्म परिवर्तन कानून बनाने की संभावना तलाशने और ऐसे कानून में यह प्रावधान करने का सुझाव दिया था कि यदि कोई व्यक्ति धर्म परिवर्तन करता है तो वह अपनी पहली पत्नी को विधिवत तलाक दिये बगैर दूसरी शादी नहीं कर सकेगा और यह प्रावधान प्रत्येक नागरिक पर लागू होना चाहिए। ऐसे अनेक मामलों और महिलाओं के साथ हो रहे भेदभाव को ध्यान में रखते हुए ही विधि आयोग ने समान नागरिक संहिता के बारे में 16 बिन्दुओं पर सुझाव आमंत्रित करने का निश्चय किया।
आयोग जानना चाहता है कि क्या समान नागरिक संहिता के दायरे में विवाह, विवाह विच्छेद, दत्तक ग्रहण, भरण पोषण, उत्तराधिकार और विरासत जैसे विषयों को भी लाया जाना चाहिए। आयोग यह भी जानना चाहता है कि क्या बहुविवाह और बहुपति प्रथा पर पाबंदी लगायी जानी चाहिए या उसे विनियत करना चाहिए? आयोग ने विभिन्न संप्रदायों के पर्सनल कानूनों को संविधान में प्रदत्त मौलिक अधिकारों के अनुरूप बनाने के लिये उन्हें संहिताबद्ध करने के बारे में भी नागरिकों की राय मांगी है।
आयोग ने मैत्री करार जैसी रूढ़िवादी प्रथाओं पर पाबंदी लगाने या इसमें संशोधन करने, ईसाई समुदाय में विवाह विच्छेद को अंतिम रूप देने के लिये दो साल की प्रतीक्षा के प्रावधान और विवाहों का पंजीकरण अनिवार्य बनाने और अंतर-धार्मिक तथा अंतर-जातीय विवाह करने वाले दंपतियों को सुरक्षा प्रदान करने के उपायों पर भी सुझाव मांगे हैं।
पारसी विवाह एवं तलाक कानून, 1936 की धारा 32-बी के तहत परस्पर सहमति से तलाक लेने के लिये पति-पत्नी को कम से कम एक साल अलग रहना होता है। ईसाई समुदाय से संबंधित तलाक कानून, 1869 की धारा 10-क (1) के तहत कम से कम दो साल अलग रहने का प्रावधान है। इस मामले में यह तथ्य भी महत्वपूर्ण है कि विशेष विवाह कानून के तहत शादी करने वाले जोड़े यदि विवाह विच्छेद करना चाहते हैं तो उन्हें इसी कानून के प्रावधानों के अनुरूप आवेदन करना होगा।
उच्चतम न्यायालय की नजर में भले ही समान नागरिक संहिता देश की एकता को बढ़ावा देने वाली हो लेकिन इस बारे में विधि आयोग की पहल ने राजनीतिक दलों को दो खेमों में बांट दिया है। कुछ दल इसका विरोध कर रहे हैं तो दूसरी ओर भाजपा और शिव सेना इसके पक्ष में हैं।

मुक्तव्यापार समझौते का मुखर विरोध

अंतर प्रशांत साझेदारी समझौता (ट्रांस पेसिफिक पार्टनरशिप एग्रीमेंट या टी पी पी ए) पर इसी वर्ष फरवरी में 12 देशों ने हस्ताक्षर किए थे। इस समझौते पर पहुंचने में पांच वर्ष का समय लगा था। साथ ही यह उम्मीद थी कि प्रत्येक देश द्वारा स्वीकृति प्रदान किए जाने के दो वर्ष के भीतर यह लागू हो जाएगा। परंतु अब इस विवादास्पद समझौते पर संकट के बादल छा गए हैं। त्रासदी यह है कि अमेरिका जिसने इस समझौते की प्रक्रिया प्रारंभ की थी वही इसे समाप्त करने पर तुला हुआ है। अमेरिकी राष्ट्रपति  चुनाव में टी पी पी ए सर्वाधिक प्रमुखता वाला मुद्दा बन गया है। वैसे डोनाल्ड ट्रम्प के चुनाव अभियान का केंद्र बिंदु टी पी पी ए का विरोध ही है। पूर्व उम्मीदवार बर्नी सेंडर्स, जो कि टी पी पी ए विरोध के अगुआ हैं, का कहना है, ‘‘हमें टी पी पी पर पुन: बातचीत नहीं करना चाहिए। इस उन्मुक्त, मुक्त व्यापार समझौते (एफ टी ए) को नष्ट कर देना चाहिए क्योंकि इससे हमारे यहां के पांच लाख रोजगार नष्ट हो जाएंगे। हिलेरी क्ंिलटन भी अपने विदेशमंत्री पद के दौरान के अभिमत के विपरीत जाकर अब टी पी पी ए के खिलाफ  हो गई हैं। परंतु उनके इस हृदय परिवर्तन को लेकर संदेह किया जा रहा है कि राष्ट्रपति बनते ही वह अपना रुख पुन: बदल लेंगी। परंतु क्ंिलटन का कहना है,’’ मैं टी पी पी ए खिलाफ  हूं। इसका अर्थ है चुनाव के पहले भी और बाद में भी।’’
इस बात की पूरी संभावना है कि दोनों उम्मीदवार इस प्रचलित धारणा को लेकर चिंतित हो रहे हैं, जिसके अनुसार मुक्त व्यापार समझौतों से लाखों रोजगार समाप्त होते हैं, मजदूरी में ठहराव आता है और अमेरिका समाज में लाभों  का अनुचित वितरण होता है। राष्ट्रपति पद के इन दो उम्मीदवारों के अलावा दो अन्य खिलाड़ी और भी हैं जो कि टी पी पी ए की निर्यात के बारे में तय करेंगे। यह हैं राष्ट्रपति बराक ओबामा और अमेरिकी कांग्रेस। ओबामा टी पी पी ए के मुख्य पैरोकार रहे हैं। उन्होंने अत्यन्त उत्कटता से यह कहते हुए इसके पक्ष में तर्क दिए हैं कि इससे आर्थिक लाभ होंगे,पर्यावरण एवं श्रम मानकों में सुधार होगा और एशियाई भौगोलिक राजनीति में अमेरिका चीन से आगे निकल जाएगा। लेकिन अभी तक उन्हें सफलता नहीं मिली है। यह आवश्यक है कि अपना कार्यकाल खत्म होने से पहले ओबामा से 8 नवंबर से होने वाले कांग्रेस की सुस्ती भरी कांग्रेस में और जनवरी 2017 के मध्य तक इसे अवश्य ही पारित करवा लें। वैसे अभी तक यह अस्पष्ट है कि इस मरे-मराए से टी पी पी विधेयक को अगर सदन के पटल पर रखा जाता है तो इसे पारित करवाने जितना सहयोग उन्हें मिल भी पाएगा कि नहीं। पिछले वर्ष इससे संबंधित एक फास्टट्रेक व्यापार अधिकारिता विधेयक बहुत कम बहुमत से पारित हो पाया था। अब जबकि यह ठोस टी पी पी ए सदन के सामने आने वाला है तो कई सदस्यों के मत में परिवर्तन आ रहा है। ऐसे कुछ सांसद जिन्होंने फास्टट्रेक विधेयक के पक्ष में मत दिया था उन्होंने संकेत दिया है कि वे टी पी पी ए के पक्ष में मतदान नहीं करेंगे।
अधिकांश ड्रेमोक्रेट सांसदों ने संकेत दिया है कि वे टी पी पी ए के खिलाफ  हैं इसमें क्ंिलटन के साथ उपराष्ट्रपति चुनाव लड़ रहे सीनेटर टिम कैनी भी शामिल है, जिन्होंने फास्ट ट्रेक के पक्ष में मत दिया था। कार्यकारी समिति के सदस्य सेन्डी लेविन का कहना है, अब यह स्पष्ट होता जा रहा है कि सदन में इस वर्ष टी पी पी ए को मत नहीं मिलेंगे। यदि प्रस्तावित ढीले-ढाले सत्र में इसे प्रस्तुत कर भी दिया जाता है तो यह गिर जाएगा। सदन के रिपब्लिकन नेताओं ने भी अपना विरोध जताया है। सीनेट में बहुमत के नेता मिच मॅक्कोमेल का कहना है राष्ट्रपति पद के अभियान ने एक ऐसा राजनीतिक वातावरण बना दिया है कि इस सत्र में टी पी पी को पारित कराना वस्तुत: असंभव हो गया है। सदन के स्पीकर और रिपब्लिकन नेता पॉल डी रियान, जिन्होंने फास्ट ट्रेक विधेयक तैयार करने में मदद की थी, का कहना है कि इस बात का कोई कारण नजर नहीं आता कि इस सुस्ती भरे सत्र में टी पी पी को मतदान के लिए प्रस्तुत किया जाए, क्योंकि हमारे पास इसे पारित जितने लिए मत नहीं हैं। इस बीच सदन में छ: रिपब्लिकन सीनेटरों ने अगस्त के प्रारंभ में ओबामा को पत्र लिखकर अनुरोध किया है कि इस सत्र में वह  टी पी पी विधेयक लाने का प्रयास न करें।
हालांकि ओबामा के लिए तस्वीर धुंधली नजर आ रही है, परंतु उन्हें कमतर नहीं समझना चाहिए। उन्होंने कहा है कि चुनाव सम्पन्न हो जाने के बाद वह कांग्रेस को टी पी पी के पक्ष में मतदान करने के लिए मनवा लेंगे। उन्होंने यह भी कहा कि बहुत से लोग सोचते थे कि वे सदन से फास्ट ट्रेक विधेयक पारित नहीं करवा पाएंगे, परंतु वे गलत साबित हुए। कांग्रेस को अपने पक्ष में लेने के लिए ओबामा को दक्षिण व वाम दोनों पक्षों को भरोसा में लेना पड़ेगा जो कि टी पी पी ए में कुछ विशिष्ट मुद्दों जैसे जैविक औषधियों पर एकाधिकार तथा आई एस डी एस (निवेशक-राष्ट्र विवाद निपटारा) को शामिल करवाना चाहते हैं। उन्हें संतुष्ट करने के लिए ओबामा को उन्हें भरोसा दिलवाना होगा जो वह चाहते हैं उसे किसी न किसी तरह से प्राप्त किया जा सकता है, भले ही वह टी पी पी ए का वैधानिक हिस्सा न भी हो। वह इसे द्विपक्षीय समझौतों के माध्यम से पाने का प्रयास करेंगे या इस बात पर जोर देंगे कि कुछ देश टी पी पी ए के प्रावधानों से इतर जाकर कर कुछ अतिरिक्त करें। वैसे भी टी पी पी ए के दायित्वों को पूरा कर पाने के लिए अमेरिका का प्रमाणन एक जरुरी शर्त है। कांग्रेस को खुश करने के लिए ओबामा टी पी पी ए की कुछ विशिष्ट धाराओं पर सैद्धान्तिक रूप से पुन: बातचीत भी कर सकते है। लेकिन अन्य टी पी पी देशों को यह विकल्प अस्वीकार्य हो सकता है।
इसी वर्ष जून में मलेशिया ने टी पी पी ए की किसी भी धारणा पर पुन: समझौते से इंकार कर दिया था। तत्कालीन अंतर्राष्ट्रीय व्यापार एवं उद्योग मंत्रालय की महासचिव डॉ. रेबेका फातिमा स्टामारिया का कहना है-  अमेरिकी राष्ट्रपति पद के उम्मीदवारों ने भले ही इस तरह के संकेत दिए हों लेकिन टी पी पी ए पर पुन: वार्ता का प्रश्न ही नहीं उठता। सिंगापुर के प्रधानमंत्री ली ह्सिन लूंग ने अपनी हालिया वाशिंगटन यात्रा के दौरान टी पी पी ए के किसी भी हिस्से पर पुनर्विचार की संभावना को सिरे से नकारते हुए कहा कि भले ही कुछ सांसद ऐसा चाहते हों यह संभव नहीं है। जनवरी में कनाडा के व्यापार मंत्री क्रिस्टिया फ्रीलेंड ने कहा था  टी पी पी पर पुर्नवार्ता संभव नहीं है। जापान ने भी पुर्नवार्ता की संभावना को नकार दिया है। 12 देशों ने इसी वर्ष फरवरी में समझौते पर हस्तक्षर कर दिए हैं और इसे लागू करने के लिए दो वर्षों का समय दिया है। सैद्धांतिक तौर पर देखें तो यदि इस वर्ष टी पी पी लागू नहीं हो पाता है तो अमेरिकी राष्ट्रपति अगले वर्ष इसे संसद से पारित करवा सकते हैं। लेकिन ऐसा हो पाने की संभावना अत्यन्त क्षीण है। अतएव टी पी पी ए को इसी अलसाए सत्र में ही पारित करवाना होगा। अन्यथा यह हमेशा के लिए चर्चा से बाहर हो जाएगा। गौरतलब है कि नाटकीय ढंग से मुक्त व्यापार समझौतों के खिलाफ कम से कम उस अमेरिका में जनमत बना है। जिसने व्यापार मुक्त व्यापार समझौतों की शुरुआत की थी।        
(लेखक जेनेवा स्थित साउथ सेन्टर के कार्यकारी निदेशक हैं।) | http://www.deshbandhu.co.in/article/6188/10/330#.WC_dwvl97IW

फिर आंदोलन की राह पर असम | दिनकर कुमार

केंद्र सरकार ने हिंदू बांग्लादेशियों को भारत की नागरिकता देने का जो फैसला किया है, उसके विरोध में असम के छात्र और नागरिक संगठन सड़क पर उतर कर विरोध जता रहे हैं और इस फैसले को वापस लेने की मांग कर रहे हैं। पिछले साल आठ सितंबर को मोदी सरकार ने एक अध्यादेश जारी कर अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश से भारत आने वाले हिंदुओं, सिखों, ईसाइयों, जैनियों, पारसियों और बौद्धों को भारतीय नागरिकता देने का फैसला किया। इसके लिए पासपोर्ट अधिनियम-1920, विदेशी अधिनियम-1946 और विदेशी आर्डर-1948 को संशोधित करने की बात कही गई। इस अध्यादेश के जरिए बताया गया कि जो धार्मिक अल्पसंख्यक पासपोर्ट या अन्य यात्रा दस्तावेज के बगैर भारत आते हैं या जिनके पासपोर्ट और यात्रा दस्तावेज की मियाद खत्म हो चुकी है, उनको भारतीय नागरिक के रूप में स्वीकार किया जाएगा। यह अध्यादेश जहां संविधान के अनुच्छेद 14,15,19,21 और 29 का उल्लंघन बताया जा रहा है वहीं 1985 के असम समझौते का भी। इस अध्यादेश को चुनौती देते हुए असम सम्मिलित महा संघ, अखिल असम आहोम सभा, असम आंदोलनर शहीद निर्जाजित परियाल व असम के आठ गणमान्य व्यक्तियों ने उच्चतम न्यायालय में चार जनहित याचिकाएं दायर कीं। इस मामले को विचार करने के लिए संवैधानिक पीठ के पास भेजा गया।
असम समझौते में प्रावधान किया गया था कि 25 मार्च 1971 के बाद असम में आए किसी भी धर्म के विदेशी को रहने का अधिकार नहीं होगा। असम के जन संगठन इसी बात पर खफा हैं कि असम समझौते के प्रावधान से परिचित होने के बावजूद मोदी सरकार ने लोकसभा में नागरिकता (संशोधन) विधेयक, 2016 पेश कर दिया। इस विधेयक को कानून का दर्जा देकर मोदी सरकार बांग्लादेशी हिंदुओं को असम में बसाना चाहती है। असम के लोग आशंकित हैं कि ऐसा होने पर वे अपने ही राज्य में अल्पसंख्यक बन कर जीने के लिए मजबूर हो जाएंगे। उनकी भाषा-संस्कृति खतरे में पड़ जाएगी। एक अनुमान के मुताबिक ऐसे हिंदू बांग्लादेशियों की तादाद बीस लाख है। वर्ष 1971 से पहले आकर असम में बसे बांग्लादेशी हिंदुओं की तादाद के साथ जब बीस लाख की तादाद और जुड़ जाएगी तो भाषाई तौर पर बांग्लाभाषी हिंदू असम में बहुसंख्यक बन जाएंगे।
असम के मूल को भय सता रहा है कि जिस तरह त्रिपुरा के मूल निवासी अपने ही राज्य में अल्पसंख्यक बन कर जीने के लिए विवश हो गए, उसी तरह वे भी अपने ही राज्य में अल्पसंख्यक बन सकते हैं। फिर असमिया भाषा का सरकारी भाषा होने और शिक्षा का माध्यम होने का दर्जा खत्म हो सकता है और राज्य की जनजातियों की भाषा-संस्कृति नष्ट हो सकती है। भाजपा ने विधानसभा चुनाव से पहले राज्य के लोगों से वादा किया था कि अगर वह सत्ता में आएगी तो असम समझौते की धारा 6 के तहत किए गए प्रावधान को लागू करेगी और असम के लोगों के संवैधानिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करेगी। असम के लोगों को लग रहा है कि सत्ता में आने के बाद भारतीय जनता पार्टी अब उनके साथ विश्वासघात करने पर उतारू हो गई है ।
असम के मूल निवासियों के हितों को नजरअंदाज करते हुए केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने नागरिकता कानून में संशोधन संबंधी अध्यादेश को कानूनी मान्यता दिलवाने के लिए विधेयक लोकसभा में पेश कर दिया। जैसे ही यह विधेयक संसद में पारित हो जाएगा- पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश से आने वाले सभी गैर-मुस्लिम अल्पसंख्यकों को भारत की नागरिकता मिल जाएगी। भले ही इस कानून का कोई विपरीत प्रभाव देश के दूसरे राज्यों पर नहीं पड़ेगा, लेकिन इस कानून की वजह से असम की जनसंख्या का ताना-बाना बिखर कर रह जाएगा। अब तक असम की भारतीय जनता पार्टी की अगुआई वाली राज्य सरकार ने इस विधेयक का विरोध करने की जगह समर्थन करने का ही संकेत दिया है। इस तरह राज्य की सरकार पर अपने ही लोगों की आशाओं -आकांक्षाओं के खिलाफ रुख अपनाने का आरोप लग रहा है।
संसद में कुछ विपक्षी सांसदों ने जब इस विधेयक का कड़ा विरोध किया तो सरकार ने इस विधेयक को संयुक्त संसदीय समिति के पास विचार करने के लिए भेज दिया। इस समिति के अध्यक्ष डॉ सत्यपाल सिंह हैं। समिति में बीस सांसद लोकसभा के और दस सांसद राज्यसभा के हैं। समिति में असम के भाजपा के दो और कांग्रेस के एक सांसद को जगह दी गई है। असम के दोनों भाजपा सांसदों ने विधेयक का समर्थन किया है, जबकि राज्य से कांग्रस के अकेले सांसद ने कहा है कि संयुक्त संसदीय समिति को असम में अलग से एक बैठक आयोजित कर विभिन्न जन संगठनों, राजनीतिक दलों,बुद्धिजीवियों, पत्रकारों और गण्यमान्य व्यक्तियों की राय लेनी चाहिए, जो लगातार इस विधेयक का विरोध कर रहे हैं।
असम के लोगों का तर्क है कि पहले से ही राज्य में सत्तर लाख बांग्लादेशी बसे हुए हैं और नए सिरे से असम बांग्लादेशियों का बोझ उठाने की स्थिति में नहीं है। उनका कहना है कि अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को हिंदू बांग्लादेशियों से इतना ही ज्यादा लगाव है तो उनको अपने गृहराज्य गुजरात में बसाने की व्यवस्था करें। असम पर नाहक यह बोझ क्यों डालना चाहते हैं!मीडिया रिपोर्टों से पता चलता है कि इस विधेयक को पारित करवाने में मोदी सरकार को कानूनी अड़चनों का सामना करना पड़ रहा है। इसे पारित करने का अर्थ असम समझौते का उल्लंघन करना होगा। इसके अलावा उच्चतम न्यायालय के कई फैसलों की मूल भावना का भी उल्लंघन होगा। बीते तीन अक्तूबर को संयुक्त संसदीय समिति की बैठक हुई, जिसमें दो संवैधानिक मामलों के जानकारों- टी के विश्वनाथन और सुभाष कश्यप- की राय ली गई। जानकारों ने समिति के सामने तीन बिंदु रखे। एक, इससे असम समझौते का उल्लंघन होगा। दो, विधेयक को ढीले-ढाले अंदाज में तैयार किया गया है और अगर यह पारित होता है तो इसे असम समझौते में संशोधन समझा जाएगा। तीन, अगर यह विधेयक पारित होता है तो इससे उच्चतम न्यायालय के विभिन्न फैसलों का उल्लंघन होगा, जिनमें कहा जा चुका है कि संविधान के अनुच्छेद 14 और अनुच्छेद 25 के अनुसार धर्म के आधार पर किसी व्यक्ति को नागरिकता नहीं दी जा सकती। इस तरह विधेयक को अगर पारित किया गया तो यह चुनौती दिए जाने पर न्यायिक समीक्षा में नहीं टिक पाएगा और हो सकता है उच्चतम न्यायालय इसे निरस्त कर दे।
बीते तेरह अक्तूबर को संयुक्त संसदीय समिति की तीसरे स्तर की सुनवाई दिल्ली में हुई। इसमें देश के सत्ताईस संगठनों को अपना पक्ष रखने के लिए आमंत्रित किया गया। इनमें असम से भी पांच संगठनों को बुलाया गया, जो मूल असमिया लोगों का प्रतिनिधित्व करने वाले संगठन नहीं हैं, बल्कि हिंदू बांग्लादेशियों के प्रतिनिधि संगठन हैं। स्वाभाविक रूप से इन संगठनों ने हिंदू बांग्लादेशियों को भारत की नागरिकता देने का ही समर्थन किया। माना जा रहा है कि अखिल असम छात्र संघ, कृषक मुक्ति संग्राम समिति, असम जातीयतावादी युवक छात्र परिषद आदि संगठनों को सुनवाई में न बुला कर समिति ने महज खानापूर्ति करने की कोशिश की है और असम के मूल निवासियों की शिकायत को समझने में तनिक रुचि नहीं ली है। संसद का शीतकालीन सत्र कब शुरू होगा इसकी घोषणा हो चुकी है। शीतकालीन सत्र शुरू होने से पहले संयुक्त संसदीय समिति अपनी रिपोर्ट पेश करेगी और उसी सत्र में सरकार इस विधेयक को पारित कराने की कोशिश करेगी।
असम के जन संगठनों का आरोप है कि बीस लाख हिंदू बांग्लादेशियों को असम में बसा कर भारतीय जनता पार्टी अपना वोट बैंक और पुख्ता करना चाहती है। विडंबना यह है कि यह उस पार्टी का रुख है जो हमेशा वोट बैंक की राजनीति को कोसती आई है और इसका दोष दूसरे राजनीतिक दलों पर मढ़ती रही है। भारतीय जनता पार्टी इन बांग्लादेशियों को बराक घाटी और निचले असम के कुछ खास विधानसभा क्षेत्रों में बसाने की योजना बना चुकी है। भाजपा को उम्मीद है कि भारत की नागरिकता मिल जाने पर हिंदू बांग्लादेशी उसका अहसान मानेंगे और चुनाव में उसे ही वोट देंगे। असम की बराक घाटी और धुबुरी जिले में हिंदू बांग्लादेशियों की तादाद सबसे ज्यादा है। भाजपा उनको अलग-अलग जिलों में बसाने की तैयारी कर चुकी है। ऐसा करते हुए इस बात का विशेष रूप से ध्यान रखा जाएगा कि प्रत्येक जिले में मतदाता के रूप में हिंदू बांग्लादेशी किस तरह निर्णायक भूमिका निभा सकते हैं।
बराक घाटी के तीन जिले कछार, हैलाकांदी और करीमगंज के पंद्रह विधानसभा क्षेत्रों में से बारह विधानसभा क्षेत्रों में हिंदू बंगाली बहुसंख्यक हैं। फिर, ऐसे कई विधानसभा क्षेत्र हैं जहां पहले से ही हिंदू बंगाली मौजूद हैं। अगर उन क्षेत्रों में नए सिरे से हिंदू बांग्लादेशियों को बसा दिया जाएगा तो वे चुनाव में आसानी से निर्णायक भूमिका निभा पाएंगे। असम के जन संगठनों का आरोप है कि अब तक मुसलिम बांग्लादेशियों का इस्तेमाल कांग्रेस वोट बैंक के तौर पर करती रही थी; अब सत्ता में आने के बाद भारतीय जनता पार्टी भी कांग्रेस का अनुसरण करते हुए हिंदू बांग्लादेशियों का इस्तेमाल वोट बैंक के तौर पर करना चाहती है। स्वाभाविक रूप से आम लोगों में इस बात को लेकर आक्रोश बढ़ता जा रहा है और इसका इजहार भी हो रहा है।

क्या हो पुलिस सुधार की दिशा | विकास नारायण राय

दिल्ली हाइकोर्ट ने केंद्र सरकार को दिल्लीवासियों की सुरक्षा को लेकर चेताया है। दिल्ली पुलिस के लिए गृह मंत्रालय की स्वीकृति के बावजूद चौदह हजार अतिरिक्त भर्तियां नहीं हो सकीं और चार सौ पचास करोड़ रुपए के सीसीटीवी कैमरे लगाने के लिए धनराशि मुहैया नहीं कराई गई। हाइकोर्ट के सामने लंबित दिल्ली पुलिस, राज्य सरकार और केंद्र सरकार के शपथपत्रों के आलोक में पुलिस की क्षमता-वृद्धि और आधुनिकीकरण की इन जरूरतों का देर-सबेर पूरा किया जाना अनुमानित होगा ही। इस बीच महाराष्ट्र एटीएस के सामुदायिक रुझान का एक बिरला उदाहरण भी सामने आया- उन्होंने आइएस के प्रचार के प्रभाव में सीरिया जाने पर उतारू कई नौजवानों की काउंसलिंग कर उनकी घर वापसी कराई है। इसके बरक्स आतंकी मामलों में मुसलिम युवकों के झूठे चालान और असीमानंद की जमानत में मिलीभगत जैसे आरोप भी जांच एजेंसियों पर लगते रहे हैं, जिनका लाभ युवकों को बरगलाने वाले उठाते हैं। पुलिसिया कायदे जहां छोटे-मोटे अपराधी को शातिर बना देने की कुव्वत रखते हैं, व्यवस्था की अंधी चपेट की मार में आने वालों को असामाजिक रास्तों पर जाने का उकसावा तक सिद्ध होते रहे हैं। हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय में दलित छात्र रोहित का आत्महत्या-प्रकरण छात्रों के दो संगठनों में तनाव से उपजा। इसकी जड़ में इनमें से एक संगठन (अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद) की दिल्ली विश्वविद्यालय में वह ताकत है जिसके चलते वहां ‘मुजफ्फरनगर बाकी है’ नामक सांप्रदायिकता-विरोधी फिल्म का प्रदर्शन नहीं हो सका था। एक लोकतांत्रिक डीएनए वाली पुलिस ने संविधान-प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के इस सरासर अपमान को शिद्दत से लिया होता, न कि इस पर लीपापोती हुई होती। तब शायद हैदराबाद परिसर के उबलने की नौबत भी न आती। भारतीय लोकतंत्र में पुलिस की इस परिचालन-विसंगति को कैसे समझें, जो किताबों में लिखे कानून को गली-कूचों में ठोस न्याय की शक्ल नहीं लेने दे रही? एफआइआइटी और यूजीसी परिसरों में लाठीचार्ज का तांडव करने वाली एजेंसी मालदा में मूकदर्शक बनी रह जाती है! पेशेवर-अकादमिक तबकों से निकले विरोधी स्वरों पर दमन की गर्मी, जबकि घोर असामाजिक तत्त्वों की सांप्रदायिक आड़ में बलवे और आगजनी की खुली नुमाइश पर भी ठंड! गोया कि राजधानी के थानों से लेकर सुदूर माओवादी मैदान तक एक जैसे समीकरण का बोलबाला है- भारत का संविधान लोकतांत्रिक है; उसे देशवासियों के दैनिक जीवन में लागू करने वाले न्याय-व्यवस्था के उपकरण नहीं! दरअसल, पुलिस के सामाजिक उत्पाद, ‘कानून का शासन’ की आधारभूत लोकतांत्रिक व्यवस्था को कमजोर ही करते आए हैं। पुलिस को प्राय: अपराध-अपराधी, यातायात, बंदोबस्त या सुरक्षा और आतंक जैसे संदर्भों में देखने के आदी समाज में उसकी क्षमता को आंकड़ों में देखने-परखने का चलन है- उसके पेशेवर प्रतिफलों का सामाजिक उत्पाद के रूप में आकलन नहीं होता। इस घातक चूक से जुड़ा परिणाम है पुलिस की क्षमता-वृद्धि और आधुनिकीकरण की दौड़ में उसके लोकतंत्रीकरण के महत्त्वपूर्ण आयामों का पीछे छूट जाना। न तो पुलिसकर्मी, न पुलिस की पद्धतियां और न ही पुलिस के काम के सामाजिक उत्पाद- लोकतंत्र के मान्य पैमाने इनमें से किसी की भी अनिवार्य कसौटी नहीं बनाए जाते! पुलिस की आए दिन की कार्यप्रणाली में अवैधानिक विरोधाभास वैसे ही नहीं समाए हुए हैं- उसकी लोक-छवि का मानो एक लगभग अपरिवर्तनीय-सा (अ)समाजशास्त्र बन गया है- एफआइआइटी और यूजीसी जैसी सक्रियता मालदा की निष्क्रियता की भरपाई कर देती है! हरियाणा के राम रहीम एक धार्मिक दर्जा देकर उनके अनुयायियों की ‘धार्मिक’ भावनाओं को ठेस पहुंचाने के अपराध में टीवी कॉमेडियन कीकू शारदा को एक नहीं दो-दो बार आनन-फानन में गिरफ्तार कर लिया जाता है! जबकि हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय में आत्महत्या करने पर विवश किए गए शोध छात्र को आतंकी और देशद्रोही बताने वाले केंद्रीय मंत्री और तदनुसार उसे छात्रावास से निष्कासित करने वाले कुलपति के विरुद्ध मुकदमा भी देशव्यापी आक्रोश के बाद ही दर्ज हो सका। इस मामले में किसी की गिरफ्तारी या सजा की तो दूर-दूर तक कोई बात ही नहीं- ऊपर से दिल्ली में पुलिस ने विरोध जताते छात्रों पर कड़कती ठंड में पानी की बौछार की और डंडे फटकारे। जाहिर है, ‘कानून का शासन’, पुलिस के सामाजिक उत्पाद के दायरे में एक तकनीकी अवधारणा भर रहा है, न कि लोकतांत्रिक शर्त। क्या हम सड़क पर खाकी वर्दी और सुरक्षात्मक कवच में लाठी भांजती पुलिस पर लदे हुए कानून के गुरुतर भार को समझते हैं? कमांडर ने किसी एक अचानक क्षण में नागरिकों के समूह पर लाठीचार्ज का फैसला लिया- तो यह उनके लिए लाठी कौशल का ही नहीं, लोकतंत्र की समझ का भी संवेदी इम्तहान बन जाना चाहिए। इसकी पालना में जब सिपाही लाठी चलाता है तो ज्यादातर उसके पास उत्तेजित अवस्था में संतुलित व्यवहार के लिए बमुश्किल चंद सेकेंड ही होते हैं। लाठी किस पर पड़नी है, कहां पड़नी है- पैर पर, हाथ पर, पीठ पर या कभी जब जान पर ही बन आए तो आत्मरक्षा में सिर पर? बड़े से बड़े मानवतावादी के लिए भी यह लोकतांत्रिक अनुकूलन की गहनतम परीक्षा का क्षण होगा। पर पुलिसकर्मी के लिए यह अपरिचित संवेदनाओं का क्षेत्र सिद्ध होता है क्योंकि उसका सारा अभ्यास लाठी भांजने के तकनीकी कौशल पर केंद्रित रहा है। यही नहीं, इन पुलिसकर्मियों में से अधिकतर या शायद सभी पूर्व ड्यूटी की थकान उतरे बगैर, और बिना वस्तुस्थिति की समुचित जानकारी के, मौके पर भेजे गए होते हैं, क्योंकि अकस्मात आई घड़ी में न इतनी बेशी नफरी ही उपलब्ध होती है और न उतना समय किसी के पास होता है, और जहां समय और नफरी दोनों हों भी, वहां भी पुलिस की कार्यपद्धति में सामयिक अनुकूलन का असर ही हावी मिलेगा, न कि संवैधानिक अनुकूलन का। दरअसल, पुलिस के प्रशिक्षण, संगठन और कार्य-संस्कृति में बस कौशलतंत्र की दक्षता रची-बसी होती है, जबकि लोकतंत्र का समीकरण सिरे से नदारद मिलेगा। पुलिसकर्मी को एक लोकाचारी कानूनदां के रूप में नहीं, अधिकारी व्यवस्था के उत्तरदायी एजेंट के रूप में देखा जाता है! उदाहरण के लिए, एफआइआइटी (पुणे) और यूजीसी (दिल्ली) पर धरना दे रहे छात्रों पर काबू पाने के लिए हुए पुलिस के लाठीचार्ज पर लौटें। दोनों ही जगहों पर केंद्र सरकार के निर्णयों के प्रति छात्रों के दीर्घकालिक विरोध के स्वर लोकतांत्रिक रहे हैं। एफआइआइटी में एक स्वर से छात्र एक ‘अपात्र’ को संस्था का अध्यक्ष नियुक्त किए जाने पर आंदोलनरत हुए, जबकि यूजीसी के विरुद्ध देश भर से शोधरत छात्र इसलिए लामबंद हुए क्योंकि मानव संसाधन विकास मंत्रालय के आदेश ने उन्हें अरसे से चले आ रहे वजीफों से वंचित कर दिया था। दोनों दृष्टांतों में पुलिस की लाठी कारगर भूमिका में रही, जबकि लोकतांत्रिक रणनीति नदारद मिली। लाठीचार्ज के इन प्रदर्शनों से ठीक उलट मामला है मालदा का, जहां अराजक तत्त्वों से भरी विशाल सांप्रदायिक भीड़ को घंटों बेखौफ हिंसक उपद्रव करने दिया गया, यहां तक कि इस दौरान पुलिस थाना तक उनका निशाना बना। उन्हें काबू करने में पुलिस निष्क्रिय बनी रही। उसके सैन्यीकरण और आधुनिकीकरण का इस्तेमाल नहीं हुआ। दरअसल, ऐसी स्थितियां भी पुलिस की पेशेवर प्रणाली में लोकतांत्रिक तत्परता के अभाव का ही नतीजा हैं। शासनतंत्र की नीतिगत बेरुखी के चलते मालदा प्रकरण का विश्लेषण भी राजनीतिक दोषारोपण के दायरे में रहा और इसमें निहित सामाजिक संदेश की अनदेखी हुई। एक रोडरोलर को स्कूटर की तरह नहीं चलाया जा सकता। भारत के संविधान का गठन बेशक लोकतंत्र के पक्ष में रोडरोलर सरीखा हो, पर उसे व्यावहारिक जीवन में खींचने वाले कानूनी इंजनों और पुलिसिया पहियों में स्कूटर का दम-खम भी नहीं। यह पेशेवर कौशल का ही नहीं, लोकतांत्रिक क्षमता का प्रश्न भी है। न्याय-व्यवस्था के कौशल-संपन्न उपकरणों में लोकतांत्रिक क्षमता भरने का! ऐसी क्षमता के अभाव में इन उपकरणों के हश्र की एक झलक अमेरिकी समाज के विकसित प्रयोगों में देखी जा सकती है जहां पुलिस की नागरिकों पर होने वाली हिंसा में वृद्धि एक अनवरत राष्ट्रीय बहस का रूप ले चुकी है। यह माना जा रहा है कि पुलिस को नई तरह से प्रशिक्षित किए जाने की जरूरत है। अलाबामा में फरवरी 2015 में अट्ठावन वर्षीय निहत्थे भारतीय नागरिक सुरेश भाई पटेल का मामला अमेरिका और भारत दोनों देशों में चर्चित रहा था। उनको अपने बेटे के अपार्टमेंट के पास टहलते हुए अमेरिकी पुलिसकर्मी पार्कर ने जमीन पर गिरा कर बेबस कर दिया, जिससे वे आंशिक रूप से लकवे का शिकार हो गए। अंग्रेजी न समझने वाले पटेल पर किसी अपराध का शक नहीं था और पुलिसकर्मी को बस इतना लगना काफी था कि वे उसके आदेश का पालन नहीं कर रहे हैं। अब अदालत ने भी पार्कर के कृत्य को अपराध न मानते हुए उसे बरी कर दिया है। कई पुलिसकर्मियों ने इस मुकदमे में गवाही दी कि इस तरह पटेल को जमीन पर गिराना राज्य की नीति के अंतर्गत पुलिसकर्मी के प्रशिक्षण के अनुरूप था। पुलिस के आदेशों की अवमानना में हिंसा के मामलों में जो कानूनी स्थिति अमेरिका में है,कमोबेश वही भारत में भी। इन कृत्यों को जान-बूझ कर किया गया अपराध सिद्ध करना लगभग असंभव हो जाता है, चाहे पीड़ित कितना भी शांतिपूर्ण या बेदाग क्यों न हो। लेकिन इससे समाज में अपनी ही पुलिस और न्याय-व्यवस्था के प्रति अविश्वास और आक्रोश पैदा होता है। इसी तरह दंगे-फसाद में पुलिस की निष्क्रियता समाज में असुरक्षा और खौफ की आवृत्ति का निमंत्रण जैसा है। न्याय के नजरिए से दोनों तरह का सामाजिक उत्पाद पूर्णतया अमान्य होना चाहिए। इसके लिए पुलिस-प्रशिक्षण और व्यवहार में हिंसा के अनिवार्य इस्तेमाल को संविधान की अवमानना से नत्थी करने की जरूरत है। - See more at: http://www.jansatta.com/politics/way-of-police-reforms-delhi-high-court-centre-govt/64117/#sthash.eBIOI2sG.dpuf