Tuesday, August 28, 2012

देखो.....प्रकृति हैं हम!


सुबह सी तुम
खिली-खिली......बिलकुल मासूम.
मोटे चश्मे से
नीली आँखे लिए
झांकती हो तो.....
लगता है,
दिन निकाल आया हो,
सूरज उग आया हो.

दोपहर सा मैं,

थोड़ा सा तीखा.....थोडा सा तेज.
झांक के देखता हूँ
रंग छितराती,
बूझ बुझाती,
पनीली आँखों में
कुछ बात लिए तुम.

शाम सी तुम

रात के इंतज़ार  में
यों किसी चोटी पर
अकेले ही
कर रहे हो इंतज़ार,
रात आने का!

रात सा मैं

आता हूँ,
तेरे साथ बैठने
उसी चोटी पर
अकेले.
अकेला मैं, अकेले तुम......साथ हम.

तुम्हारी आँखों में

झांक के देखता हूँ.
बीते पहर में
तुम्हारी आँखों में,
रात सा आलस है!
रात तो मैं हूँ......तुम तो 'मैं' हो गये!

इक भोर

फिर से तुम 'तुम' हो,
मैं  'मैं'
एक भोर, एक दोपहर,
एक शाम. एक रात.
देखो.....प्रकृति हैं हम!

गुजारिश है,

हमें कोई नाम ना देना.
दोस्ती सा पावन रिश्ता देखा नहीं हमने!