Sunday, January 27, 2013

रंग


           
                         
                                 इंसान को पहना दो कपड़े, कभी भगवा कि जिससे बन जाये वो हिन्दू, तो कभी पहना दो हरे कि दिखने लगे मुस्लमान. दे दो कोई सा भी नाम, कभी कह दो उसे राम तो कभी कह दो अल्लाह.....और दे दो इन नामों की दुहाई....कभी दो चार 'अशोक सिंघल' हो जाते हैं यहाँ पैदा, तो कभी कुछ 'अकबरुद्दीन ओवैसी'...जो सरे बाज़ार दे देते हैं दुहाई, और मचा देते हैं शोर....विघटन कर देते हैं समाज का और इंसान, इंसान न हो, हो जाता है किसी एक मजहब का. मजहब, सुना था बचपन में, कि भाई-चारा फैलाता है.....अब लगता है, कत्लेआम करने का सबसे 'इजी' तरीका है ये.


                           सियासत ने कर दिए भाग, अब आतंक के भी हो गये दो-दो रंग, भगवा और हरा....और इस मुल्क के 'गृह मंत्री' चिल्लाने लगे नाम.....भूल गये कि, अगर मुल्क में आतंक है तो उससे निपटना है, सियासी ज़ामा पहना मतलब नहीं साधने हैं.....मुल्क के Z+ सुरक्षा में बैठे लोग नहीं मरेंगे.....मरेंगे हम....आम आदमी. 'पुअर मेंगो पीपल'.

Saturday, January 26, 2013

नक्सली

                 

                       
                              एक गाँव जहां से न तो गुजरतें हैं ज़िन्दगी के काफिले, न आपकी चकाचौंध, न ही तरक्की, न ही बिजली के खम्भे....या हैं भी तो बस खम्भे, बिजली नहीं....जहां तक नहीं पहुँचते 'क', ख' 'ग'....और न ही पढ़ाने बाले.....जहां के स्कूल उजड़े हैं और जहां के लोग भूखे-नंगे. एक अदब से पेट पर हाथ फेर अम्मा बोलती है 'बेटा पेट भरा है मेरा, आज तू खाले पेट भर.' तो चीख निकलती है आत्मा से. इसी गाँव के बारे में दो शब्द लिख दूं मैं तो आप क्या कहेंगे मुझे? नक्सली?? चलिए मैं नक्सली सही ....हमें नक्सली बनाने के बाद, अगर आपकी खुद्दारी जाग जाये तो 'मैन स्ट्रीम' में पंहुचा दो इन्हें ....फिर किसी भी पैमाने से सजायाफ्ता ठहरा दो हमें, हम तैयार हैं. 

Friday, January 25, 2013

इक नुक्कड़ : सफ़दर हाशमी




डर गयी सरकार कि, कोई जा रहा है भूखों नंगों के बीच, उन्हें समझाने हक की बात कर रहा है नुक्कड़ ( street play )....कहीं बहक न जाये लोग, मांग न ले अपना हक...कहीं भूखे-नंगों को भी न हो जाये एहसास हक का....तो भेज दिए कुछ लाठी लिए तामीलदार, और हुक्मरानों के तामीलदार गुलामों ने सरे बाज़ार कर दिया क़त्ल 'सफ़दर हाशमी' का. गिर पड़ी एक लाश, और गिर पड़ा एक जूनून. हुक्मरान खुश, मूक तमाशा देखते सरकार बहादुर खुश.....क्यूंकि जो आवाज़ उठी थी गिरा दी गयी....एक पेड़ जो सींचने चला था कई लोग, उखाड़ दिया गया!
              मैं नहीं हूँ सैफ़्रोन, न ही हरा और न ही लाल....फिर भी सफ़दर हाशमी पर पड़ा हर डंडा मुझे उन सभी के सीने पे पड़ता लगता है, जो चाहते हैं कुछ बदलना, चाहते है मुल्क की सलामियत और जो चाहते हैं, कि समाज में हो सके समरसता. आ सके लोग एक ही दर्जे तक. सफ़दर हाशमी का क़त्ल, सफ़दर का नहीं, इरादों का क़त्ल था. कोशिशों का क़त्ल था. ये हार थी हुक्मरानों की.....
            सत्ता को शायद नहीं पता, कि इरादे मरते नहीं हैं हैं और ना ही राहनुमा भी. कोई न कोई फिर कहेगा 'हल्ला बोल'.

'मुल्क कि बर्बर सत्ता,
ऑंखें घुमा के देख लो,
 इक सफ़दर मरा था जहां,
बीसियों सफ़दर खड़े हैं.'


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सैफ़्रोन, हरा, लाल- क्रमश: हिन्दू, मुस्लिम, कम्युनिज्म प्रतीक.



Thursday, January 24, 2013

तसकीर


तसकीर का क्या है.

ये तो तब भी नहीं होती,
जब तुम पास होते हो....
और तब भी नहीं,
जब दूरियां बेहद हों!



तसकीर-Satisfaction

Sunday, January 20, 2013

...On Kobad Ghandy


                         

                       लोगों ने छोड़ दिए रूरल मैनेजमेंट कॉलेज....उन्हें नहीं जाना गाँव वापिस, जहां की जमीन से वो निकले थे, धूल में खेले थे. उन्हें नहीं लौटना वहीं पर. उन्हें नहीं करनी समाज सेवा...उन्हें चाहिए है पैसा, ढेर सारा पैसा, जिससे गुजर कर सके वो एक शहजादे की तरह....रह सकें बंगलों में, वातानुकूलित घर, गाड़ी और ऑफिस में....नहीं चाहते वो कि कीचड़ और धूल उन्हें छू भी पाए....लेकिन कब तक भागोगे धूल से? एक न एक दिन मिलना ही है उसमें.
                         कोबाद घांदी, अक्सर सड़कों पे तन्हा जब में निकलता हूँ, तुम्हें याद करता हूँ. मुझे पता है मैं नहीं बन पाउँगा तुम्हारे जैसा, सिर्फ कुछ ही लोग पैदा होते हैं तुम्हारे जैसे....लेकिन कोशिशें जारी हैं...जब जीत जाऊंगा खुद से तो निकल पडूंगा तुम्हारी राह....राह जो धूल तक जाती है. मिट्टी में मिलने से पहले में मिट्टी तपाना चाहता हूँ....जिससे वो सोना बन सके.


Pic- A protest in New Zealand against Operation Green Hunt and the detention of Kobad Ghandy.

Friday, January 18, 2013

अमृता मत बनना 'शोना'....


             
               
                   देखो मैं इमरोज़ तो नहीं, कि अमृता (प्रीतम) के कहने अपनी पीठ पर गुदवा लूँगा साहिर (लुधियानवी) का नाम, जताने इश्क की रूहानियत....न कि साहिर हूँ, एक सारी  ज़िन्दगी रह लूँगा अकेला, तन्हा, इश्क की याद में, जो कभी न हुआ मेरा! जानता हूँ, तुम भी अमृता नहीं, की ताउम्र लिखते रहो, कहते रहो, उस इश्क के बारे में जो तुम्हारा न हो सका, लेकिन गुज़ार दो सारी उम्र किसी और के साथ एक घर में रहते हुए.....लेकिन जोड़ लो उपनाम (प्रीतम) अपने पहले पति का, और ता उम्रभर जानी जाओ उसी नाम से.
                  मुझे पता है, हम-तुम इनमें से कुछ भी नहीं, लेकिन फिर भी यहाँ दुहरा रहा हूँ साठ  साल पुरानी एक प्रेम कहानी, जिसमे इमरोज़ का इश्क रूहानियत है, साहिर का इश्क तनहा, और अमृता कभी कभी बेवसा लगती है मुझे, तो कभी कभी मतलबी, जो छोड़ आई अपना पहला पति दूसरे के खातिर, और हो भी न पाई दूजे की भी.... शायद, कहीं न कहीं महसूस होता है मुझे, कि मैं हूँ थोडा सा साहिर,  जो ताउम्र तुम्हारी याद में बिताएगा, तन्हा-तन्हा.....या शायद वो रूहानी आशिक इमरोज़ हूँ, जिसे इश्क सिर्फ पाना नहीं, जैसा है वैसे अपनाना भी था....या कि वो प्रीतम, जिसे इश्क न था किसी से, लेकिन समाज ने बना दिए कुछ कायदे और उसे चुकानी पड़ी उसकी कीमत....देखो मैं भी तो चुकाऊंगा कीमत समाज के बनाये बेहुदा उसूलों की.
                 लेकिन तुम क्या हो? अमृता?? नहीं, नहीं अमृता मत बनना 'शोना'....उम्र भर बेवसी में ज़िन्दगी तुमसे काटी न जाएगी!! ....और न ही मैं चाहता हूँ, कि तुम ठुकरा आओ किसी और को सिर्फ मेरे लिए.

Pic: Amrita-Imroz, 2004

Sunday, January 13, 2013

कपड़े पहिन लेने से बन्दर इन्सान थोड़ी न बन जाता है!


             कि उठा ली गयी बंदूकें, सत्ता के खिलाफ लड़ने के लिए...क्यूंकि सत्ता को फ़िक्र नहीं भूखों-नंगों की, सत्ता ने दिया है उन्हें एक नाम 'शेडूल ट्राइब्स', जिनके पास थे जंगल....फिर धीरे धीरे किया उनका विकास....जिसमें वो रहे तो भूखे और  नंगे ही लेकिन जंगल में न रहे...क्यूंकि रहने को बचने न दिए गये जंगल. फिर हुआ एक शोर, हाथों में थम गयी बंदूकें, लड़ गये लोग....दबाने आवाजें आ गयी सरकार....जंग जारी है, देखते हैं जीतता कौन है. भूखे-नंगे लोग या चमकती सरकार....या इन दोनों के बीच पिस रही आम अवाम, जिसे पीस जाती है कभी सरकार तो कभी लाल सलाम!!
                      तमाशा नहीं है ये कोई, फिर भी चल रहा है 45 बरस से.....और चलने दे रही है सरकार.



             कुछ बा-अक्ल बंदरों ने कर ली तरक्की, पहिन लिए कपड़े, बना लिए घर, फिर समाज और फिर मुल्क....बाँट ली ज़र-जमीन और फिर सकेरने बना दी सरहदें....बंदरों ने सरहदें बचाने रख दिए पहरेदार! अब कुछ बन्दर करते हैं सियासी हरकतें, समेटने ज़र-जमीन  और सरहदों पे मरते हैं पहरेदार.
          लोग कहते हैं बंदरों ने कर ली तरक्की....लेकिन चन्द कपड़े पहिन लेने से बन्दर इन्सान थोड़ी न बन जाता है!



            'तुम्हें पता है, एक रात में नहीं बदलता सब कुछ, न ही उगते हैं पेड़ पर पैसे'.....तुम्हारी बात मान कर लिया इंतज़ार, कुल 65 साल करवटें बदल-बदल निकाल दी रातें, कि कहीं न कहीं से बदलेगा कुछ और लगा दिया जिस्म, खरोच दी रूह, क्यूंकि पैसा पेड़ पे नहीं उगता. पूरे 65 साल बाद भी मेरा वजूद वहीँ हैं....अब मत कहो. 'थोडा इंतज़ार और करो.'  हड्डियों से खड्ग बना उखाड़ फेंकूंगा एक दिन.


खामखाँ ख्याल


               सुना है, सिर्फ पानी पे ग्यारह दिन रह सकता है आदमी जिंदा, लेकिन बिन सोये छ: दिन भी नहीं....खुदा, या तो तू दुनिया की हालत देख कई रात नहीं सोया होगा....तो अब तक तो मर गया है....या कर कोशिशें पूरी, बदतर हालात नहीं सुधरेंगे सोचकर, सो रहा है चैन की नींद!


             ट्रैफिक जाम में कांदिवली से ट्रेन पकड़ने जब मैं उस दिन गुजरा महानगर की संकरी गलियों से पैदल, जहां संकरी सड़क पे नंगे बच्चे खेल रहे थे कोई सा खेल, जहां घर के नाम पे पड़े थे चार पत्थर, लिपटे थे पोलिथिन की 'छत' से, तंग गली से गुजर न पा रही थी छोटी साइकिल....तो फिर चौड़ी सड़क पर कार में घूमना बेमानी लगता रहा कई दिन! मैं नहीं कहता खुदा, तूने 'सोशल डिसकिर्पेंसी' क्यूँ  बनाई, लेकिन इतनी ज्यादा भी क्यों?


            बचपन में एरोप्लेन देख बजाते थे तालियाँ, भागते थे भीतर से बाहर तक, देखने एरोप्लेन....अब उसमें बैठना भी नहीं लगता अचम्भा. ऐसा नहीं है, सारे गाँव के हालात सुधर गये हैं, उन्हें भी नहीं लगता अचम्भा. हालात मेरे सुधरे हैं, अभी 5000 लोगो के सुधारना बाकी हैं. दिल्ली के कानों में कहो कोई, कि तरक्की करना अभी बाकी है.



             तुम्हें कभी समझ नहीं आयेगा की रात रात भर जागना क्या होता है....वो भी बिना किसी वजह के. 'इश्क में लिप्त तुम्हें कहीं दिखता तो होगा मेरा मासूम सा चेहरा...जो बिना कुछ कहे-सुने ही चुपचाप निकल जाता होगा आँखों के सामने से....और एक पल पलक झपकाना भूल जाते होगे तुम'.....यही, यही सोचना होती है, मेरे रात भर जागने की वजह...लोग कहते हैं, ये भी कोई वजह है!?!


          क्यों कर इंसान सरे बाज़ार चिल्लाता  है मज़हबी बकवास, और क्यूँ कर लोग तालियाँ पीट पीटकर उसकी करते हैं तरफदारी....क्यों कर सरे आम लोग हो जाते है उद्वेलित, फिर क्यों कर हो जाते हैं दंगे.....कल शाम दंगे के बाद एक लाश से पूछा था मैंने....'मुझे क्या पता, मरने के बाद इंसान का मज़हब नहीं होता.' .....ये बड़ा अजीब सा जबाब दिया उसने!


           कुछ लोग कर लेते हैं बेअक्ल बातें, कुछ अनपढ़ उन्हें ठहरा देते हैं संत...फिर वो देश को समझ लेते हैं अपनी जागीर.....और सरे आम खोलते हैं जुबां....जिसका कोई सरोकार नहीं.
                       कब तक तुम मोक्ष पाने की आशा में 'आशाराम' बनाते रहोगे? लगता है 'जागो, ग्राहक जागो' की तरह, एक इश्तिहार 'जागो, अवाम जागो' का भी देना पड़ेगा.  
                      क्या तुम जागोगे अवाम? 

Wednesday, January 2, 2013

'चल रंग भर दूं!' Happy New Year :)




वक़्त के तागे
काट दे माज़े से.
कुछ चुरा ले रंग
देख बिखरे पड़े हैं,
जैसे किसी ने अँधेरी रात में हज़ार तारे बिखेरे हों
अँधेरा मिटाने!

देख ये लम्हा भी फिसल गया
रूखा रूखा सा.
चल ज़रा मुस्कुरा दे.
मातम को जुराबों संग
पहन लेते हैं...
घिसता रहेगा, चलते रहेंगे हम.

चल तेरी आँखों से
गम की फसल काट
भर देते हैं कुछ खुशियाँ.
फिर तू ताकना,
दुनिया रंगीन दिखेगी.

देख तुझे समझाते समझाते
लिख दी
ये ऊट-पटांग सी नज़्म!
अब तो मुस्कुरा दे....
चल, ये नज़्म भी तुझे  दी!


*
तागे- धागे

Pic: New year, New Rays @Mahabaleshwar