Tuesday, August 16, 2022

भोपालनामा 9

 भोपाल... तुम्हें भुलाने की जितनी भी कोशिशें करता हूं तुम शक्लें बदल-बदल उतने पास आते जाते हो.

तुम्हें पहले अपनी आंखों से देखा, फिर 1984 गैस हादसे में बुझ चुकी सफ़ीना बी आंखों से फिर देखा, फिर कई अन्य आंखों में तुम दिखे. मसलन ट्रेन में वारंगल की एक स्वीट आंटी की आंखों में रचे बसे थे. आज फिर एक दफे दो खूबसूरत आंखों में तुम दिखे तो वो आंखें अपनी सी लगने लगीं.
तुम जिन आंखों में बसे होते हो उन्हें खूबसूरत बना देते हो, साथ में उनमें रचे बसे ख्वाबों को भी.
भोपाल तुमसे खूबसूरत कभी मैसूर लगा था लेकिन एक बार फिर तुम्हारी गोद में बैठा तो तुम्हारा होकर रह गया.
काश! तुम सिर्फ शहर ना होते तो तुम्हें अभी आगोश में भर लेता.
टूटे भोजताल की सूखी ज़मीं पे बसे तुम इतने हरे हो कि होशंग शाह के इरादे, कार्बाइड का दंश और मानवीय उन्माद तुम्हारा कुछ बिगाड़ नहीं सके.
मैं तुमसे इश्क़ में हमेशा रहूंगा.
मैं भटकता रहूं शहर-दर-शहर पर आख़िर गोद में तुम्हारी घर पाता हूं.