Thursday, April 2, 2015

नर हो न निराश करो मन को / मैथिलीशरण गुप्त

नर हो न निराश करो मन को
कुछ काम करो कुछ काम करो
जग में रहके निज नाम करो
यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो
समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो
कुछ तो उपयुक्त करो तन को
नर हो न निराश करो मन को ।
संभलो कि सुयोग न जाए चला
कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला
समझो जग को न निरा सपना
पथ आप प्रशस्त करो अपना
अखिलेश्वर है अवलम्बन को
नर हो न निराश करो मन को ।
जब प्राप्त तुम्हें सब तत्त्व यहाँ
फिर जा सकता वह सत्त्व कहाँ
तुम स्वत्त्व सुधा रस पान करो
उठके अमरत्व विधान करो
दवरूप रहो भव कानन को
नर हो न निराश करो मन को ।
निज गौरव का नित ज्ञान रहे
हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे
सब जाय अभी पर मान रहे
मरणोत्तर गुंजित गान रहे
कुछ हो न तजो निज साधन को
नर हो न निराश करो मन को ।

- मैथिलीशरण गुप्त (Maithili Sharan Gupt)

आलोचना : गद्य व काव्य


डॉ. गुलाबराय का कथन है – ?आलोचना का मुख्य उद्देश्य कवि की कृति का सभी दृष्टिकोणों से आस्वाद कर पाठकों को उस प्रकार के आस्वाद में सहायता देना तथा उसकी रुचि को परिमार्जित करना एवं साहित्य की गति निर्धारित करने में योग देना है।? इस तरह आलोचना साहित्य की व्याख्या करती है, उसके गुण-दोष बताती है, उसके निर्माण की दिशा निर्धारित करती है।
यह सर्वविदित है कि जहाँ रचनाकार का कर्म विराम लेता है वहीं से आलोचक का कर्म प्रारम्भ होता है। आधुनिक उत्तर संरचनावादी रचनाकार और आलोचक में बुनियादी भेद नहीं मानता। उसकी दृष्टि में दोनों ही भाषा का खेल खेलते हैं, दोनों रचना करते हैं। जहाँ रचयिता समाप्त करता है वहाँ से पाठक शुरू करता है। अतः आलोचना और साहित्य तत्वतः एक हैं परस्पर एक दूसरे से सम्बद्ध हैं। आलोचना मानव व्यक्तित्व से भी अंशतः प्रभावित होती है।
आलोचना से सामान्यतः छिद्रान्वेषण का अर्थ लिया जाता रहा है, किन्तु आलोचना का लक्ष्य वस्तुतः लेखक या उसकी कृति के दोषों को संकलित करना नहीं कृति का विवेचन करते हुए उसके विविध पक्षों का उद्घाटन कर उसके महत्त्व एवं अमहत्त्व को स्थापित करना है। अंग्रेजी में आलोचना के लिए ?क्रिटिसिज्म? शब्द प्रयुक्त हुआ है, उसका मूल अर्थ है – निर्णय। आलोचक वह है जो निर्णय दे। भारतीय वाङ्मय में ?आलोचना? केवल निर्णय की प्रवृत्ति का अर्थ बोध नहीं कराती, उसके अर्थ का क्षेत्र अधिक व्यापक है। आलोचना शब्द के मूल में ?लुच्? धातु है जिसका अर्थ है – देखना। आलोचना के लिए हमारे यहाँ पर्यायवाची शब्द समीक्षा है, वह भी इसी अर्थ की व्यंजना करता है। अतः साहित्य के क्षेत्र में आलोचना किसी साहित्यिक कृति का सम्यक एवं समग्र निरीक्षण है। यह निरीक्षण एक तो कृति के बाह्य रूप का विवेचन है, दूसरे लेखक की अन्तः प्रकृति की चेतन, अवचेतन प्रक्रियाओं का विश्लेषण है, तीसरे भावक के प्रभाव संवेदनों की अभिव्यक्ति है और अन्त में कृति की समग्र प्रतिक्रियाओं के अनुरूप वस्तु का मूल्य निर्धारण है।
आलोचना के विकास की आरम्भिक अवस्था में कृति का गुण-दोष विवेचन अथवा उसके अर्थ का भाष्य ही आलोचक का मुख्य कर्त्तव्य रहा है। ?काव्य मीमांसा? आलोचना अथवा समीक्षा के इसी ध्येय की ओर इंगित करती है – ?अन्तर्भाष्यं समीक्षा। अवान्तरार्थ विच्छेदश्च सा।? अर्थात् समीक्षा का लक्ष्य किसी कृति का अन्तर्भाष्य, उसके तत्त्वों का विवेचन और उसके सम्बन्ध अवान्तर से प्राप्त अर्थों का संकलन है। किन्तु जैसे-जैसे आलोचना विकसित होती जाती है वह कृति के आंतरिक और बाह्य पक्षों का अन्वीक्षण करती है। सूक्ति, भाष्य, व्याख्या, निर्णय आदि आलोचना के अंग स्वरूप हो जाते हैं।
आलोचना का मुख्य उद्देश्य है साहित्य के मर्म का उद्घाटन करना। इस उद्घाटन की क्रिया में आलोचक, लेखक और पाठक के बीच दुभाषिए का काम करता है। राजशेखर ने आलोचक के ध्येय को इस प्रकार व्यक्त किया है -
सा च कवेः श्रममभिप्रायं च भावयति। तथा खलु फलितः कवेव्यापारतरुः अन्यथा स्रोडवकेशी स्यात्।
(काव्य मीमांसा)
अर्थात् आलोचक कवि के श्रम अभिप्राय तथा भाव को व्यक्त करता है। उसके प्रयत्न से ही कवि व्यापार तरु फल देता है, अन्यथा वह फलित नहीं होता। इस प्रकार आलोचक की प्रतिभा साहित्य के बाह्यांगों के साथ-साथ उसके अंतरंग को भी प्रकाश में लाती है।
आलोचक के उत्तरदायित्व को अत्यन्त गम्भीर मानते हुए अर्नाल्ड ने उसके निस्संग प्रयत्न पर अधिक बल दिया है। यह निस्संग प्रयत्न एक ओर तो आलोचक को पूर्वाग्रह से मुक्त रखता है, दूसरी ओर सांसारिक क्षुद्रताओं से तटस्थ। आचार्य शुक्ल की शब्दावली में इस निस्संग प्रयत्न के द्वारा आलोचक लोक मंगल की सच्ची साधना कर सकता है। अतः आलोचकों के पक्ष में उसका पूर्वाग्रह रहित एवं संयमित होना अत्यावश्यक है। आचार्य शुक्ल आलोचना के लिए विस्तृत अध्ययन, सूक्ष्म अन्वीक्षण और मर्मग्राही प्रज्ञा को अपेक्षित मानते हैं। एक स्थान पर वे लिखते हैं – ?समालोचक के लिए विद्वता और प्रशस्त रुचि दोनों अपेक्षित हैं। न रुचि के स्थान पर विद्वता काम कर सकती है और न विद्वता के स्थान पर रुचि।?
हिन्दी आलोचना का व्यवस्थित विकास भारतेन्दु युग में ही गद्य की अन्य विधाओं के साथ-साथ प्रारम्भ हो जाता है। आलोचना की विभिन्न पद्धतियों के विषय में भी गहन विश्लेषण आरम्भ हुआ। आलोचना पद्धतियों को व्यापक रूप से दो वर्गों में बाँटा जा सकता है -
(१) सैद्धान्तिक आलोचना
(२) व्यावहारिक आलोचना
सैद्धान्तिक आलोचना – सैद्धान्तिक आलोचना काव्य का शास्त्रीय पक्ष है। साहित्य का स्वरूप जब स्थिर हो जाता है तब उसके आधार पर आलोचक की प्रतिभा जिन सिद्धान्तों का निर्माण संकलन करती है वे कालांतर में साहित्य के नियामक बन जाते हैं। इन सिद्धान्तों की आधारशिला पर ही व्यावहारिक आलोचना का भव्य भवन खडा होता है।
व्यावहारिक आलोचना – व्यावहारिक आलोचना, आलोचना के सिद्धान्तों का प्रयोगात्मक पक्ष है। व्यावहारिक आलोचना काव्य अथवा साहित्य का प्रयोगात्मक अध्ययन करती है। व्यावहारिक आलोचना की तीन प्रमुख पद्धतियाँ हैं – प्रभावात्मक, निर्णयात्मक, व्याख्यात्मक।
इनमें व्याख्यात्मक आलोचना का विशेष महत्त्व है। यह वस्तुतः वैज्ञानिक आलोचना प्रणाली है। व्याख्यात्मक आलोचना कृति के मूल्यों को कृति में ही खोजती है। कृति की स्पिरिट, कला और विषय की यह वैज्ञानिक विवेचना करती है। आलोचक वैज्ञानिक की तरह आलोच्य वस्तु का विश्लेषण करता है और निस्संग भाव से उसका विवेचन करते चलता है।
व्याख्यात्मक आलोचना के कई उपभेद किये जा सकते हैं – इनमें चार प्रमुख हैं – मनोवैज्ञानिक, चरितमूलक, तुलनात्मक, ऐतिहासिक। ऐतिहासिक आलोचना के अन्तर्गत ही माक्र्सवादी और समाजशास्त्रीय आलोचना पद्धतियों को रखा जा सकता है।
साहित्य आरम्भ से ही पद्य रूप में अस्तित्व ग्रहण करता आया है। अतः प्रारम्भिक समीक्षा के मानदण्ड भी पद्य के आधार पर निर्धारित किए गए हैं। संस्कृत का काव्य शास्त्र साहित्य निर्माण एवं आलोचना दोनों के लिए ही प्रतिमान प्रदान करता है। धीरे-धीरे बदलते युग सन्दर्भ के साथ प्रतिमान भी बदलते गए।
गद्य का विकास आधुनिक युग में हुआ है। भारतेन्दु से हिन्दु गद्य के विकास की सुदीर्घ परम्परा परिलक्षित होती है। गद्य की प्रमुख विधाएँ उपन्यास, कहानी, निबन्ध, नाटक आदि हैं। इन विधाओं के विकास के साथ ही इनके मूल्यांकन की आवश्यकता महसूस की गई। प्रारम्भ में गद्य के समसामयिक समस्याओं को वर्णित किया गया था। गद्य का स्वरूप भी परिष्कृत नहीं था तब आलोचना कथ्य तक ही सीमित थी। भारतेन्दु युग में पत्र-पत्रिकाओं में पुस्तक समीक्षाओं के रूप में आलोचना का विकास हुआ। जैसे-जैसे कथ्य में जटिलता आती गई वैसे-वैसे आलोचना का स्वरूप भी विकसित होता गया है। छायावाद तक आते-आते अर्थात् प्रेमचन्द के समय में गद्य का स्वरूप काफी स्थिर हो चुका था। जब गद्य का स्वरूप स्थिर हो गया तो उसकी आलोचना के मानदण्ड भी निर्धारित कर दिए गए। आलोचक के लिए यह अनिवार्य हो जाता है कि वह गद्य के विभिन्न रूपों के मूल तत्त्वों को पहचाने इसके अनन्तर आलोचना कर्म में प्रवृत्त हो। आचार्य सीताराम चतुर्वेदी ने अपने ?हिन्दी साहित्य सर्वस्व? में उपन्यास, कहानी, निबन्ध आदि की समीक्षा के कतिपय मानदण्डों का उल्लेख किया है। उनके अनुसार उपन्यास की समीक्षा करते समय निम्नांकित प्रश्नों को ध्यान में रखकर निर्णय करना चाहिए -
१. उपन्यास की कथावस्तु कहाँ से ली गई है ?
२. यदि कथा वस्तु ऐतिहासिक या पौराणिक है तो लेखक ने उसमें क्या परिवर्तन करके क्या विशेष प्रभाव उत्पन्न करना चाहा है ?
३. इस परिवर्तन के निमित्त लेखक ने किन नवीन पात्रों या घटनाओं का समावेश किया है ?
४. इन पात्रों या घटनाओं में से कितनों की आवश्यकताएँ वास्तविक हैं और कहाँ तक उचित हैं ?
५. यदि कथा काल्पनिक है तो वह कहाँ तक सम्भव, विश्वसनीय, स्वाभाविक और संगत है और उपन्यासकार जो प्रभाव उत्पन्न करना चाहता है, उसमें उसे कहाँ तक सफलता मिली है ?
६. लेखक अपना उद्दिष्ट प्रभाव उत्पन्न करने में कहाँ तक सफल हुआ है ?
७. इस सफलता के लिए उसने किस भाषा शैली का आश्रय लिया है और वह भाषा शैली कथा की प्रकृति तथा पाठकों की योग्यता के कहाँ तक अनुकूल है ?
८. संवादों की भाषा शैली पात्रों की प्रकृति तथा परिस्थिति के कहाँ तक अनुकूल, स्वाभाविक तथा उचित मात्रा में है ?
९. लेखक ने पाठक का मन उलझाए रखने के लिए किस कौशल का प्रयोग किया है -
(क) प्रारम्भ उचित ढंग से किया है या नहीं ?
(ख)घटनाओं का गुंफन अधिक जटिल तो नहीं हो गया और मार्मिक स्थलों पर उचित ध्यान दिया गया है या नहीं?
(ग) कथा का चरमोत्कर्ष दिखाने में शीघ्रता या विलम्ब तो नहीं हुआ और यह चरमोत्कर्ष दिखाने में अनुचित, अनावश्यक, अस्वाभाविक तथा असंगत घटनाओं का समावेश तो नहीं किया गया ?
(घ) उपन्यास का अन्त किस प्रकार किया गया ? वह कथा की प्रकृति, घटना-प्रवाह और पात्रों के चरित्र और मर्यादा के अनुकूल, संगत, आवश्यक, अपरिहार्य और स्वाभाविक है या नहीं ? अनावश्यक रूप से उपन्यास को दुखान्त या सुखान्त तो नहीं बना दिया गया ?
(ङ) किस पुरुष में कथा कही गई है ? वर्णन, पत्र, भाषण, समाचार, संवाद, वार्तालाप, आत्मकथा, सूचना आदि।
(च) रूप की नवीनता उत्पन्न करने से उपन्यास के कथा प्रवाह में क्या दीप्ति या दोष आ गए ?
१०. उपन्यास में वर्णन कहाँ तक उचित परिमाण में, आवश्यक और स्वाभाविक हैं ?
११. जो बातें (पात्रों का स्वभाव आदि) व्यंजना से बतानी चाहिए थीं, उन्हें अपनी ओर से तो नहीं बता दिया गया? पात्रों का चित्रण उनकी मर्यादा और प्रकृति से भिन्न, अस्वाभाविक, असंगत या अतिरंजित तो नहीं हो गया ?
१२. उपन्यासकार ने किस विशेष वाद या सम्प्रदाय या नीति या सिद्धान्त से प्रेरित होकर लिखा है और उनकी सिद्धि में वह कहाँ तक सफल हो पाया है ?
१३. उपन्यासकार ने अपने व्यक्तिगत जीवन या अनुभव की जो अभिव्यक्ति उपन्यास में की है, वह कितनी प्रत्यक्ष है और कितनी व्यंग्य ? वह कहाँ तक उचित है या अनुचित ?
१४. उस उपन्यास का साधारण मन पर क्या प्रभाव पड सकता है और वह पाठक की वृत्ति-प्रवृत्ति, स्वभाव, चेष्टा आदि को कहाँ तक अपने पक्षों में ला सकता है? सामाजिक तथा नैतिक दृष्टि से वह प्रभाव कहाँ तक वांछनीय है ?
१५. उपन्यास में क्या मौलिकता है और उसमें सुन्दर अद्भुत तथा असाधारण सन्निवेश कहाँ तक और किस प्रकार किया गया है ?
१६. अलौकिक तत्त्वों का प्रयोग कहाँ तक उचित और बुद्धि संगत हुआ है ?
१७. उपन्यास की कथावस्तु, घटना, गुम्फन, भाषाशैली, चरित्र चित्रण और परिणाम आदि में जो दोष हों उनका सुधार आप कैसे करते हैं ?
यद्यपि उपन्यास और कहानी में विशेष अन्तर नहीं है। उपन्यास के प्रतिमान कहानी के प्रतिमान मान सकते हैं पर कहानी का आकार छोटा होने के कारण उसके कतिपय निम्न प्रतिमानों का विवेचन अपेक्षित है -
१. कथाकार का क्या उद्देश्य है ? कथाकार कोई विशेष प्रभाव उत्पन्न करना चाहता है या केवल मनोविनोद ?
२. कथाकार ने एक ही घटना ली है या नहीं ?
३. वह कथा अपने में पूर्ण-आदि-मध्य और अन्त सहित है या नहीं और वह एक ही प्रभाव उत्पन्न करती है या नहीं*?
४. अनावश्यक वर्णन या विस्तार तो नहीं है ?
उपर्युक्त समीक्षा-मानदण्ड सामान्य कथा साहित्य पर ही लागू होते हैं।
युगीन परिस्थितियाँ नए आयाम और नए सन्दर्भ देती है, फलतः आलोचना के पुराने मानदण्ड निरर्थक प्रतीत होने लगते हैं। अतः कथ्य के अनुरूप नए मानदण्डों की तलाश आवश्यक है। पद्धति विशेष पर आधारित कथा साहित्य का विवेचन पद्धति विशेष के मानदण्ड पर ही किया जा सकता है और इसी के परिणाम मनोविश्लेषणवादी, प्रगतिवादी अर्थात् माक्र्सवादी समीक्षा पद्धतियों का विकास हुआ परन्तु ये समीक्षा की एकांगी दृष्टियाँ हैं जो कृति विशेष पर ही लागू होती हैं और कृति का वास्तविक पक्ष अनुद्घाटित ही रह जाता है।
प्रेमचन्दोत्तर कथा साहित्य, स्वातन्त्र्योत्तर कथा साहित्य के कथ्य में जटिलता आने लगी। व्यक्ति के आन्तरिक और बाह्य द्वन्द्व ने कथा में अपना स्थान निर्धारित किया और इसके साथ ही पुराने कथा तत्त्व भी धूमिल पडने लगे और आलोचना के प्रतिमान भी। कथ्य के अनुरूप आलोचना का स्वरूप भी स्थूल से सूक्ष्मतर होने लगा। अब आलोचना कथा तत्त्वों या गुण-दोष विवेचन तक सीमित नहीं रही बल्कि उसका उद्देश्य रचना के मूल उद्देश्य के साथ रचना-प्रक्रिया, रचनाकार के मानसिक परिवेश की परीक्षा करना रहा है। शिल्प की अपेक्षा आज कथ्य महत्त्वपूर्ण हो चुका है।
हिन्दी में आधुनिक कथा समीक्षा के इतिहास में मोहन राकेश, निर्मल वर्मा, नामवर सिंह, राजेन्द्र यादव, भीष्म साहनी, मार्कण्डेय, इन्द्रनाथ मदान, कृष्णा सोबती आदि के नाम भी उभरकर आए। पुराने कथा प्रतिमानों की अपर्याप्तता घोषित करते हुए निर्मल वर्मा ने लिखा – उपन्यास की अर्थवत्ता यथार्थ में नहीं, उसे समेटने की प्रक्रिया में, उसके संघटन की अन्दरूनी चालाक शक्ति में निहित है।? इस प्रकार कथा साहित्य के नये प्रतिमानों की खोज का सिलसिला जारी है। डॉ. नामवरसिंह ने कहानी समीक्षा की पुरानी दृष्टि – जिसमें कथानक, चरित्र, वातावरण, प्रभाव वस्तु आदि अवयवों की अलग-अलग अभ्यस्तता रहती थी – का खुलकर विरोध किया और रचनाधर्मी कहानी की संश्लिष्टता को समझने-समझाने का सवाल उठाया गया है। नामवरसिंह के अनुसार कहानी की आलोचना के लिए उसका पाठ बुनियादी महत्त्व रखता है। बिना उसके कहानी के मूल आशय को जानना कठिन है। साथ ही इसके समीपी सम्फ के बिना कहानी का मूल आशय जानना असम्भव है (कहानीः नई कहानी, पृ. १४५) उन्होंने आगे लिखा है – किसी अच्छी का निर्माण करने के लिए एक बनाये मानदण्ड से आरम्भ करने की अपेक्षा पढने की प्रक्रिया से शुरू करना अधिक उपयोगी हो सकता है। (पृ. १६५-१६६) इसलिए आज कहानी की आलोचना में भी मुख्य प्रश्न पद्धति का है, प्रतिमान का नहीं। (पृ.१९९) ऐसी पाठ प्रक्रिया जिसमें पाठक कहानी को अपने भीतर फिर से रचते हुए समग्रता से उसका प्रभाव ग्रहण करता है कहानी की आलोचना का आधार हो सकती है। कहानी ः नयी कहानी में कहानी के संबंध में लिखते हुए नामवर सिंह ने कहा – ?मुख्य कथा घटना विन्यास इस प्रकार का हो कि ?फिर क्या हुआ का कुतूहल न तो मर्यादा से अधिक प्रबल होने पाए और भूमिका इतनी लम्बी न हो कि मन अतीतवासी हो रहे। …..आज की कहानी का शिल्प की दृष्टि से सफल होना काफी नहीं है बल्कि वर्तमान वास्तविकता के सम्मुख उसकी वास्तविकता भी परखी जानी चाहिए। कहानीकार की सार्थकता इस बात में है कि वह अपने युग के मुख्य सामाजिक अन्तर्विरोध के सन्दर्भ में अपनी कहानियों की सामग्री चुनता है।? (उपर्युक्त पृ. ३७)
समानान्तर कहानी, सचेतन कहानी, अकहानी जनवादी कहानी पर इधर प्रखर समीक्षा दृष्टि विकसित हुई है और कहानी को उनकी समग्र अन्तर्योजना अन्विति प्रभाव में पहचानने की कोशिश की गई है। कथा साहित्य में स्त्री विमर्श, दलित विमर्श जैसी अवधारणाओं ने भी कथा मूल्यांकन के दृष्टिकोण में पर्याप्त विकास किया है। इधर क्षण-क्षण बदलते परिवेश और कथा वस्तु ने यह सिद्ध कर दिया है कि प्रत्येक रचना अपने प्रतिमान स्वयं निर्धारित करती है, किसी बने बनाए फार्मूले से कृति की परख अपूर्ण होने की पूर्ण सम्भावना है। हर आलोचक की एक विशेष दृष्टि होती है और वह अपनी विशेष दृष्टि से मूल्यांकन करता है, अतः आवश्यकता इस बात की है कि मूल्यांकन पूर्ण होना चाहिए उसे वाद विशेष के दायरे में आबद्ध कर उसके स्वरूप को संकुचित नहीं करना चाहिए।
उपन्यास समीक्षा की किसी सुनिश्चित पद्धति का विकास हिन्दी में नहीं हो सका। इस क्षेत्र में प्रयास किए जा रहे हैं। नेमिचन्द्र जैन की ?अधूरे साक्षात्कार? उपन्यास समीक्षा को नई दृष्टि देने वाली पुस्तक है।
अतः गद्य की समीक्षा के लिए किसी भी प्रकार की अतिवादिता से बचते हुए मौलिक एवं गहन दृष्टि का होना आवश्यक है। आचार्य शुक्ल द्वारा प्रतिपादित विश्लेषण, विवेचन और निगमन पद्धति का अनुसरण करते हुए तटस्थ भाव से आलोचना की जानी चाहिए। सतही आलोचना प्रवृत्ति से बचना चाहिए। रचना का मूल्यांकन उसकी समग्रता में किया जाना चाहिए। आलोचना की महानता रचना को महान बनाती है। सच्ची आलोचना तो उस विद्युत तरंग की तरह है जो निमिष मात्र में साहित्यिक कृति को प्रकाश से उद्भासित कर देती है। आलोचना कर्म की इस गंभीरता को देखते हुए आलोचक को व्यापक दृष्टिकोण अपनाते हुए, रचना की समझ को विकसित करते हुए मूल्यांकन कर्म में अग्रसर होना चाहिए। आलोचना का महत्त्व सर्जक एवं भोक्ता दोनों ही दृष्टियों से है। इसलिए आलोचना कर्म सर्जन से भी अति महत्त्वपूर्ण है। घ्
संदर्भ ः
१. हिन्दी साहित्य का इतिहास – डॉ. नगेन्द्र
२. हिन्दी आलोचना का विकास – नन्दकिशोर नवल
३. हिन्दी साहित्य सर्वस्व – आचार्य सीताराम चतुर्वेदी
४. आलोचना*और*आलोचक – मोहनलाल, सरेशचन्द्र गुप्त


काव्य-आलोचना की अवधारणा, औचित्य, यथार्थ और प्रक्रिया तथा इसके प्रतिमानों को लेकर यहाँ प्रस्तुत विचार लेखक के अनुभवपरक निष्कर्षों तथा व्यावहारिक ज्ञान पर आधारित हैं तथा जहाँ तक सम्भव हो सका है, विविध ग्रंथों तथा विद्वानों के उद्धरणों से बचने का प्रयास किया गया है। इसका अर्थ यह भी नहीं कि अपने समय का अधिकृतियों के प्रति अवमानना का भाव है, बल्कि यहाँ प्रयास इस बात का किया गया है कि विषय को जटिल तथा बोझिल होने से बचाया जाये। यह भी आग्रह है कि लेख में प्रस्तुत विचारों को संकेत रूप में ग्रहण किया जाये।
जिस तरह से विभिन्न रचनाकारों के रचनात्मक आधार, प्रेरणा तथा अभिप्रेत कभी भी समान नहीं हो सकते, ठीक उसी प्रकार आलोचना की कोई एक निश्चित तथा सर्वमान्य अवधारणा भी स्थापित नहीं की जा सकती क्योंकि रचना की भाँति ही आलोचना भी लेखक की बौद्धिक-तात्त्विक चिंता और विचार-प्रक्रिया का परिणाम होती है। आलोचना रचना के प्रति उत्तरदायी सामाजिक और सांस्कृतिक कर्म है। कविता जीवन के अनुभवों को रचनाकार के संवेदनशील दृष्टिकोण से प्रस्तुत करती है, जिसमें सर्जक की यथार्थपरक कल्पना तथा कल्पनापरक यथार्थ का समावेश होता है। कविता जीवन का भाव पक्ष है, संश्लिष्ट पक्ष और संवेदनात्मक पक्ष है जिसे कवि अपने अनुभवों की आँच में तपा कर कलाकृति के तौर पर पाठक के समक्ष प्रस्तुत करता है। आलोचना इसका विश्लेषण करती है।
आलोचना को उसकी उपयोगिता या सार्थकता के परिप्रेक्ष्य में ही समझा जाना मुनासिब लगता है क्योंकि आलोचना का महत्त्व रचना से कम नहीं हुआ करता। आलोचक को सबसे पहले तो एक गंभीर तथा धैर्यवान पाठक होना चाहिए और इस स्तर पर आलोचना के मूल्य तथा महत्त्व को सरसरी तौर पर न आँक कर तर्कसम्मत ढंग से रेखांकित करना चाहिए।
कवि के सर्जनात्मक व्यापार की सूक्ष्मता, संवेदना और व्यापकता के विश्लेषण और व्याख्या का जो महत्त्व होता है, वह सिर्फ आलोचना के जरिये ही सम्भव हो सकता है। आलोचना कवि-कर्म को जाँचने-परखने-विश्लेषित करने का महत्त्वपूर्ण कार्य करती है, रचना की खामियों-खूबियों को उजागर करती है, कवि की कमियाँ बताती है, रचना का स्थान निर्धारित करती है तथा उसका मूल्यांकन करती है। तटस्थ, गंभीर तथा निरपेक्ष आलोचना सचेत करने का दायित्व भी निभाती है। इस प्रकार की आलोचना से ही रचना-परिवेश की सेहत सुधारने में सहायता मिल सकती है। आलोचना-कर्म रचना से कम जम्मेदार कर्म नहीं है। आलोचना साहित्य का अभिन्न सिद्धान्त अवश्य है लेकिन वह साहित्य की कोई उपशाखा न होकर उसकी पूरक हुआ करती है। दरअसल आलोचना का मूल भी रचना की भाँति ही सौन्दर्यशास्त्र में अवस्थित होता है। जीवन, रचना और आलोचना दोनों का ही आधार होता है। यदि कविता कवि की दृष्टि से जीवन का नवसर्जन है, तो आलोचना जीवन के उस नवसृजन का पुनर्सृजन है क्योंकि वह रचना में मौजूद अर्थ को प्रकट करती है। आलोचना पाठक और कविता को परस्पर जोडने वाले पुल का काम करती है।
आलोचना में आलोचक की निजी पसंद-नापसंद का ना तो अधिक महत्त्व होता है और ना ही होना चाहिए। यह कविता की ओर से पाठक को सम्बोधित होने वाला कर्म है। कविता में मौजूद और प्रकट होने वाला जीवन और रचनात्मक दृष्टि के प्रति गंभीर नजरिया ही वस्तुतः आलोचना-कर्म की गहराई और सार्थकता को निश्चित करता है। कुल मिलाकर आलोचना रचना के नवीन अर्थों तथा सम्भावनाओं को उद्घाटित करने वाला कर्म और किसी भी आलोचक के लिए उसका आलोचना-कर्म ही वास्तव में आलोचना का धर्म है। आलोचना किसी भी रचना का उपसंहार नहीं होती, बल्कि वह रचना के अर्थ-प्रवाह का सातत्य है। यही आलोचना-कर्म की धुरी है।
आलोचक के दायित्व के बारे में कहा जा सकता है कि कृति से गुजरते समय आलोचक महज एक आलोचक ही न होकर रचना का पाठक और प्रशंसक, विरेचक और कृति विषयक मंतव्य देने वाला सजग व्यक्ति भी होता है। इस लिहाज से, उसका दायित्व एकल न होकर बहुआयामी होता है। एक सुलझा हुआ आलोचक इस बात से भलीभाँति परिचित होता है कि मानवीय गतिविधियाँ और मानव स्वभाव ही रचना तथा आलोचना के मूल बिन्दु होते हैं। आलोचक को उस चेतना से, उस संवेदनात्मक ज्ञान और अनुभूति से सम्पृक्त होना ही चाहिए, जिसने रचनाकार की चेतना का संस्पर्श किया है। उसके लिये जीवन, मानव स्वभाव तथा संस्कृति की अनेकानेक परम्पराओं की एक समग्र-समन्वित परम्परा से परिचित होना भी आवश्यक होता है। इस रूप में वह कहीं न कहीं जीवनानुभूतियों, कार्य व्यापार तथा मनुष्य स्वभाव के इतिहासकार की भूमिका का निर्वाह भी कर रहा होता है।
किसी रचना में यथार्थ और मानव स्वभाव का तथा परम्परा का कौनसा, कितना पक्ष अभिव्यक्त हुआ है और कैसे, यह संकेत करना आलोचक का काम है। जिस वक्त आलोचक रचना के उक्त बिन्दुओं पर केन्द्रित होता है, ठीक उसी वक्त उसकी भूमिका आलोचक की न रहकर रचनाकार की हो जाती है। दरअसल, रचना में रचनाकार के भटकाव को रेखांकित करते समय आलोचक की भूमिका रचनाकार के सहयात्री की बन जाती है। एक अनुभवसम्पन्न, सिद्धहस्त आलोचक यह बता सकता है कि रचना का कथ्य भाषा तथा जीवन से किस हद तक मेल खाता है। इस रूप में आलोचक की भूमिका निःसन्देह अन्वेषक की भी हो जाती है।
कवि को रचना में जीवन के प्रभावों की, जबकि आलोचक को रचना में सन्निहित प्रभावों की पुनर्संरचना करनी होती है। आलोचक का प्रथम कार्य रचना की गुणवत्ता की पडताल करना ही होता है। वह वस्तुतः पाठक की ओर से कर्मप्रवृत्त होता है तथा अपनी रचना की ओर से कवि को जवाब देने को तैयार करता है। वह रचनात्मक जीवन मूल्यों को अपने समग्र परिवेश में विवेचित कर रचना विशेष की सार्थकता, गंभीरता के बारे में तर्कसम्मत निष्कर्ष निकालता है और यह उल्लेख भी करता है कि सामाजिक-सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में उस रचना का क्या मूल्य है। तदनंतर रचना के शिल्पगत सौष्ठव, भाषा-कौशल, अर्थव्यापकता और समग्र रचनात्मक परिवेश में रचना-विशेष की मूल्यवत्ता के बारे में स्पष्ट, पूर्वाग्रहरहित निष्कर्ष भी देना पडता है। अतएव रचना को सम्प्रेषण, भाषा, संवेदन, अर्थ और संरचना के स्तर पर पूर्णता प्रदान करना ही आलोचक का दायित्व है। इस लिहाज से देखें तो आलोचक को भी एक ही साथ अनेकायामी भूमिका का निर्वाह करना पडता है।
आलोचना की तकनीक तथा प्रतिमानों को अलग कर नहीं देखा जा सकता। इस स्तर पर रेखांकित किया जाना चाहिये कि आलोचना के अन्तर्गत कवि की आशापरक खूबियों, उसकी शैलीपरक विशेषताओं तथा रचनाकार की अनुभूतियों, संवेदनों और अनुभवों के रचना में रूपान्तरित होने की प्रक्रिया का खुलासा करने का प्रयास मौजूद होना चाहिये। आलोचना को इतना सक्षम होना चाहिये कि वह कवि के अनुभवों की प्रमाणिकता और विश्वसनीयता को समीचीन परिप्रेक्ष्य में विश्लेषित कर सके। कविता के ?पाठ? ;ज्मगजद्ध के अर्थ को उजागर करने की दृष्टि से कथ्य और शिल्प का समान महत्त्व हुआ करता है। कथ्य चूँकि कविता का प्राण तत्त्व होता है तो आलोचना उसी कथ्य को तथ्य के तौर पर उद्घाटित करती है। कथ्य और शिल्प का अभिन्न समन्वय ही किसी रचना की आकृति को निश्चित करता है।
रचना में मौजूद राजनैतिक विचारधारा का आलोचक के लिये कितना महत्त्व हो सकता है ? इसका उत्तर यों दिया जा सकता है – जितना भोजन में नमक का। विचारधारा की प्रचुरता से रचना की आँच कम पडती है और वह उसकी सीमा बन जाया करती है। किसी विचारधारा विशेष का वाद्ययंत्र बन जाना जिस तरह से रचना के लिये हानिकारक हैं, ठीक उसी तरह आलोचक के लिये भी यह श्लाघनीय नहीं माना जा सकता। असल में आलोचक की जम्मेदारी तो रचना के प्रति ही होनी चाहिये। विचारधाराओं का ज्ञान आलोचकीय दृष्टिकोण को पैना बना सकता है लेकिन आलोचक को किसी विचारधारा का बंधक नहीं बनना चाहिये। दृष्टि की व्यापकता, विचारों का खुलापन, जीवन के प्रति संवेदनशील दृष्टिकोण तथा परिवेश और परम्परा से जुडाव आलोचक के मंतव्य को ठोस-विश्वसनीय बनाने के लिहाज से कारगर होते हैं।
भारतीय साहित्य-आलोचना के प्रतिमानों के अन्तर्गत इस बात पर जोर दिया जाना चाहिये कि काव्य कृति की भाषा, शैली, बिम्ब, प्रतीक, देशकाल तथा रचना में विद्यमान प्राकृतिक प्रभावशीलता को भारतीय काव्य सिद्धान्त के प्रकाश में ही विश्लेषित किया जाना चाहिये। ऐसा करते समय समकालीन यथार्थ की जटिलता को रेखांकित करना भी आवश्यक बन जाता है। संस्कृत के काव्य सिद्धान्त या पाश्चात्य काव्य सिद्धांत पर निर्भर रह कर ही आधुनिक काव्य कृति का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता बल्कि इसके लिये हमारे पास केन्द्रवर्ती भारतीय परम्परा से निःसृत काव्य दृष्टि और समकालीन युग बोध का होना आवश्यक है। कविता में मौजूद लय को अलग से रेखांकित किया जाना इसलिए जरूरी है क्योंकि वह कविता के प्रवाह और संरचना का अभिन्न अंग होता है। आलोचक को यह भी नहीं भूलना चाहिये कि रचना का ?लोकल कलर? ही वस्तुतः उस कृति की ?यूनिवर्सल अपील? को; उसकी गहनता को; उसकी गंभीरता को; उसकी अर्थवत्ता को तथा अंततः सांस्कृतिक-परम्परा में रचना के स्थान को निर्धारित करता है। प्रतिमान-विकास के सन्दर्भ में कहना जरूरी लगता है कि भारतीय जनमानस तथा यहाँ की जडों व यहाँ के जीवन परिवेश से निःसृत सिद्धान्तों के आधार पर ही समकालीन आलोचना का स्वरूप निश्चित होना चाहिये। अमेरीकी या अंग्रेजी आलोचना सिद्धान्तों के माध्यम से भारतीय समाज, संस्कृति और साहित्य की आलोचना नहीं की जा सकती।
रचना की भाँति आलोचना भी अंततः एक शोधयात्रा और सतत संवाद का सिलसिला ही होती है। अपनी यात्रा के दूसरे व्यक्ति के नजरिये से किये मूल्यांकन को ही आलोचना का पर्याय माना जाना चाहिये। यह मूल्यांकन एक ऐसा व्यक्ति करता है जो रचनाकार की कृति से अपना आत्मीय रिश्ता बनाने का प्रयास करता है। इसलिये रचनाकार-कवि को भी आलोचना के समीप आत्मीय भाव से ही जाना चाहिये। आत्मीयता के आधार पर ही आलोचना रचनाकार के लिये भविष्य में सहायक सिद्ध हो सकती है।
आलोचना की विभिन्न धाराओं तथा आलोचना सिद्धान्त और प्रतिमानों की बहस में उलझे बिना इतना तो निःसन्देह कहा ही जा सकता है कि अंततः रचना का पाठ, आलोचक की जीवन दृष्टि तथा कवि की सर्जनात्मक दृष्टि का द्वंद्व तथा समन्वय एवं कृति की ओर से प्रस्तुत स्वयं को परखने के प्रतिमान ही काव्य-मूल्यांकन के लिये कारगर औजारों के निर्माण में मददगार हो सकते हैं। सर्जनात्मक आलोचना की संभावना इसी से बनती है।
आलोचना प्रत्यक्ष रूप से समय की रचनात्मक प्रवृत्तियों को रेखांकित करती है और इसके विकास को दर्शाती है। आलोचना का यह दायित्व किसी भी लिहाज से कमतर नहीं है। एल.पी. स्मिथ ने आलोचना की महत्ता को बेहतर ढंग से प्रकट करते हुए लिखा है कि – ?साहित्य के महान् तात्पर्य सादृश्य दर्शकों (शेक्सपीयर के नाटकों के संदर्भ में) के प्रति मेरे मन में इतना अधिक उपकार का भाव है कि आलोचकों की निन्दा करने के काम में मैं शायद ही शामिल हुआ करता हूँ। आलोचकों ने मुझे कान दिये हैं, आँखें दी हैं। उनसे मैंने सीखा है। दरअसल उन्होंने हमें सिखाया है कि जीवन सौन्दर्य का बेहतरीन ढंग से रसास्वादन किस तरह से किया जा सकता है, उसकी प्रशंसा कैसे की जा सकती है और उसे कहाँ-कैसे पाया जा सकता है और जब हम प्रतिष्ठित-समर्थ लेखकों की अनेक पुस्तकें पढने से चूक जाते हैं तो कितनी महत्त्वपूर्ण और सौन्दर्यपरक सम्पदा से वंचित रह जाते हैं।


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हिन्दी की राष्ट्रीय सांस्कृतिक काव्यधारा

भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम को लेकर देश में व्याप्त उथल-पुथल को हिन्दी कवियों ने अपनी कविता का विषय बनाकर साहित्य के क्षेत्र में दोहरे दायित्व का निर्वहन किया। स्वदेश व स्वधर्म की रक्षा के लिए कवि व साहित्यकार एक ओर तो राष्ट्रीय भावों को काव्य के विषय के रूप में प्रतिष्ठित कर रहे थे वही दूसरी ओर राष्ट्रीय चेतना को भी हवा दे रहे थे। कवि व साहित्यकार अपनी उर्वर प्रज्ञा भूमि के कारण युगीन समस्याओं के प्रति अधिक सावधान व संवेदनशील रहता है। भारतीय स्वतन्त्रता आंदोलन के आरम्भ से लेकर स्वतन्त्रता प्राप्ति तक भिन्न-भिन्न चरणों में राष्ट्रीय भावनाओ से ओत-प्रोत कविताओं की कोख में स्वातन्त्र्य चेतना का विकास होता रहा। ‘विप्लव गान’ शीर्षक कविता में कवि की क्रान्तिकामना मूर्तिमान हो उठी है।
”कवि कुछ ऐसी तान सुनाओ, जिससे उथल-पुथल मच जाये
एक  हिलोर  इधर  से आये,  एक  हिलोर  उधर को जाये
नाश ! नाश! हाँ महानाश! ! ! की प्रलयंकारी आंख खुल जाये।
-नवीन
भारतेन्दु युग का साहित्य अंग्रेजी शासन के विरूद्ध हिन्दुस्तान की संगठित राष्ट्रभावना का प्रथम आह्वाहन था। यही से राष्ट्रीयता का जयनाद शुरू हुआ। जिसके फलस्वरूप द्विवेदी युग ने अपने प्रौढ़तम स्वरूप के साथ नवीन आयामों और दिशाओं की ओर प्रस्थान किया। भारतेन्दु की ‘भारत दुर्दशा’ प्रेमघन की आनन्द अरूणोदय, देश दशा, राधाकृष्ण दास की भारत बारहमासा के साथ राजनीतिक चेतना की धार तेज हुई। द्विवेदी युग में कविवर ‘शंकर’ ने शंकर सरोज, शंकर सर्वस्व, गर्भरण्डारहस्य के अर्न्तगत बलिदान गान में ‘प्राणों का बलिदान देष की वेदी पर करना होगा’ के द्वारा स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए क्रान्ति एवं आत्मोत्सर्ग की प्रेरणा दी। ‘बज्रनाद से व्योम जगा दे देव और कुछ लाग लगा दे’ के ओजस्वी हुंकार द्वारा भारत भारतीकार मैथिलीषरण गुप्त ने स्वदेश-संगीत व सर्वश्रेष्ठ सशक्त रचना भारत-भारती में ऋषिभूमि भारतवर्ष के अतीत के गौरवगान के साथ में वर्तमान पर क्षोभ प्रकट किया है। छायावादी कवियों ने राष्ट्रीयता के रागात्मक स्वरूप को ही प्रमुखता दी और उसी की परिधि में अतीत के सुन्दर और प्रेरक देशप्रेम सम्बन्धी मधुरगीतों व कविताओं की सृष्टि की । निराला की ‘वर दे वीणा वादिनी’, ‘भारती जय विजय करे’, ‘जागो फिर एकबार’, ‘शिवाजी का पत्र’, प्रसाद की ‘अरूण यह मधुमय देश हमारा’ चन्द्रगुप्त नाटक में आया ‘हिमाद्रि तुंगश्रृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती’ आदि कविताओं में कवियों ने हृदय के स्तर पर अपनी प्रशस्त राष्ट्रीयता की अभिव्यक्ति की है।
स्वतंत्रता आन्दोलन से प्रभावित हिन्दी कवियों की श्रृखला में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, राधाचरण गोस्वामी, बद्रीनारायण चौधरी प्रेमघन, राधाकृष्ण दास, मैथिलीशरण गुप्त, श्रीधर पाठक, माधव प्रसाद शुक्ल, रामनरेश त्रिपाठी, नाथूराम शर्मा शंकर, गया प्रसाद शुक्ल स्नेही (त्रिशूल), माखनलाल चतुर्वेदी, बालकृष्ण शर्मा नवीन, रामधारी सिंह दिनकर, सुभद्रा कुमारी चौहान, सियाराम शरण गुप्त, सोहन लाल द्विवेदी, श्याम नारायण पाण्डेय, अज्ञेय इत्यादि कवियों ने परम्परागत राष्ट्रीय सांस्कृतिक भित्ति पर ओजपूर्ण स्वरों मे राष्ट्रीयता का संधान किया।
हिन्दी की राष्ट्रीय काव्यधारा के समस्त कवियों ने अपने काव्य में देशप्रेम व स्वतन्त्रता की उत्कट भावना की अभिव्यक्ति दी है। राष्ट्रीय काव्यधारा के प्रणेता के रूप में माखन लाल चतुर्वेदी की हिमकिरीटनी, हिमतरंगिनी, माता, युगचरण, समर्पण आदि के काव्यकृतियों के माध्यम से उनकी राष्ट्रीय भावछाया से अवगत हुआ जा सकता है। चतुर्वेदी जी ने भारत को पूर्ण स्वतन्त्र कर जनतन्त्रात्मक पद्धति की स्थापना का आहवाहन किया। गुप्त जी के बाद स्वातन्त्र्य श्रृखला की अगली कड़ी के रूप में माखन लाल चतुर्वेदी का अविस्मृत नाम न केवल राष्ट्रीय गौरव की याद दिलाता है अपितु संघर्ष की प्रबल प्रेरणा भी देता है। जेल की हथकड़ी आभूषण बन उनके जीवन को अलंकृत करती है।
‘क्या? देख न सकती जंजीरो का गहना
हथकड़ियां क्यों? यह ब्रिटिश राज का गहना’
(कैदी और कोकिला)
पिस्तौल, गीता, आनन्दमठ की जिन्दगी ने इनके भीतर प्रचण्ड विद्रोह को जन्म दे वैष्णवी प्रकृति विद्रोह और स्वाधीनता के प्रति समर्पण भाव ने इनके जीवन को एक राष्ट्रीय सांचे में ढाल दिया। 1912 में उनकी जीवन यात्रा ने बेड़ियों की दुर्गम राह पकड़ ली।
‘उनके हृदय में चाह है अपने हृदय में आह है
कुछ भी करें तो शेष बस यह बेड़ियों की राह है।’
1921 में कर्मवीर के सफल सम्पादक चतुर्वेदी जी को जब देशद्रोह के आरोप में जेल हुई तब कानपुर से निकलने वाले गणेश शंकर विद्यार्थी के पत्र ‘प्रताप’ और महात्मा गाँधी के ‘यंग इण्डिया’ ने उसका कड़ा विरोध किया। ‘मुझे तोड़ लेना वन माली देना तुम उस पथ पर फेंक मातृभूमि पर शीष चढ़ाने जिस पर जाते वीर अनेक ”पुष्प की अभिलाषा” शीर्षक कविता की यह चिरजीवी पंक्तियाँ उस भारतीय आत्मा की पहचान कराती है जिन्होनें स्वतन्त्रता के दुर्गम पथ में यातनाओं से कभी हार नही मानी।
” जो कष्टों से घबराऊँ तो मुझमें कायर में भेद कहाँ
बदले में रक्त बहाऊँ तो मुझमें डायर में भेंद कहाँ!”
अनुभूति की तीव्रता की सच्चाई, सत्य, अहिंसा जैसे प्रेरक मूल्यों के प्रति कवि की आस्था, दृढ़ संकल्प, अदम्य उत्साह और उत्कट् अभिलाषा को लेकर चलने वाला यह भारत माँ का सच्चा सपूत साहित्यशास्त्र और कर्मयंत्र से दासता की बेड़ियों को काट डालने का दृढ़व्रत धारण करके जेल के सींखचों के भीतर तीर्थराज का आनन्द उठाते है।
”हो जाने दे गर्क नशे में, मत पड़ने दे फर्क नशे में, के उत्साह व आवेश के साथ स्वतन्त्रता संग्राम श्रृंखला की अगली कड़ी के रूप में आबद्ध एक श्लाघ्य नाम बालकृष्ण शर्मा नवीन का है वह स्वतन्त्रता आन्दोलन के मात्र व्याख्यता ही नहीं अपितु भुक्तभोगी भी रहे। 1920 में गाँधी जी के आह्वाहन पर वह कालेज छोड़कर आन्दोलन में कूद पड़े। फलत: दासता की श्रृंखलाओं के विरोध संघर्ष में इन्हे 10 बार जेल जाना पड़ा। जेल यात्राओं का इतना लम्बा सिलसिला शायद ही किसी कवि के जीवन से जुड़ा हो। उन दिनों जेल ही कवि का घर हुआ करता था।
‘हम संक्रान्ति काल के प्राणी बदा नही सुख भोग
घर उजाड़ कर जेल बसाने का हमको है रोग’
नवीन

अपनी प्रथम काव्य संग्रह ‘कुंकुम’ की जाने पर प्राणार्पण, आत्मोत्सर्ग तथा प्रलयंकर कविता संग्रह में क्रान्ति गीतों की ओजस्विता व प्रखरता है।
‘यहाँ बनी हथकड़िया राखी, साखी है संसार
यहाँ कई बहनों के भैया, बैठे है मनमार।’
राष्ट्रीय काव्यधारा को विकसित करने वाली सुभद्रा कुमारी चौहान का ‘त्रिधारा’ और ‘मुकुल’ की ‘राखी’ ‘झासी की रानी’ ‘वीरों का कैसा हो बसंत’ आदि कविताओं में तीखे भावों की पूर्ण भावना मुखरित है। उन्होने असहयोग आन्दोलन में सक्रिय भूमिका निभायी। आंदोलन के दौरान उन्हें कई बार जेल जाना पड़ा। ‘जलियावाला बाग में बसंत’ कविता में इस नृशंस हत्याकाण्ड पर कवयित्री के करूण क्रन्दन से उसकी मूक वेदना मूर्तिमान हो उठी है।
”आओ प्रिय ऋतुराज, किन्तु धीरे से आना
यह है शोक स्थान, यहाँ मत शोर मचाना
कोमल बालक मरे यहाँ गोली खा-खा कर
कलियाँ उनके लिए चढ़ाना थोड़ी सी लाकर।”
दिनकर की हुँकार, रेणुका, विपथगा में कवि ने साम्राज्यवादी सभ्यता और ब्रिटिश राज्य के प्रति अपनी प्रखर ध्वंसात्मक दृष्टि का परिचय देते हुए क्रान्ति के स्वरों का आह्वाहन किया है। पराधीनता के प्रति प्रबल विद्रोह के साथ इसमें पौरूष अपनी भीषणता और भंयकरता के साथ गरजा है। कुरूक्षेत्र महाकाब्य पूर्णरूपेण राष्ट्रीय है।
‘उठो- उठो कुरीतियों की राह तुम रोक दो
बढो-बढो कि आग में गुलामियों को झोंक दो ‘।
दिनकर
स्वतन्त्रता की प्रथम शर्त कुर्बानी व समर्पण को काव्य का विषय बना क्रान्ति व ध्वंस के स्वर से मुखरित दिनकर की कवितायें नौंजवानों के शरीर में उत्साह भर उष्ण रक्त का संचार करती है ।
जिसके द्वारों पर खड़ा क्रान्त, सीमापति! तूने की पुकार
पददलित उसे करना पीछे, पहले ले मेरा सीस उतार।
सोहनलाल द्विवेदी की भैरवी राणाप्रताप के प्रति, आजादी के फूलों पर जय-जय, तैयार रहो, बढ़े चलो बढ़े चलो, विप्लव गीत कवितायें, पूजा गीत संग्रह की मातृपूजा, युग की पुकार, देश के जागरण गान कवितायें तथा वासवदत्ता, कुणाल, युगधारा काब्य संग्रहों में स्वतन्त्रता के आह्वान व देशप्रेम साधना के बीच आशा और निराशा के जो स्वर फूटे है उन सबके तल में प्रेम की अविरल का स्रोत बहाता कवि वन्दनी माँ को नहीं भूल सका है ।
‘कब तक क्रूर प्रहार सहोगे ?
कब तक अत्याचार सहोगे ?
कब तक हाहाकार सहोगे ?
उठो राष्ट्र के हे अभिमानी
सावधान मेरे सेनानी।’
सियाराम शरण गुप्त की बापू कविता में गाँधीवाद के प्रति अटूट आस्था व अहिंसा, सत्य, करूणा, विश्व-बधुत्व, शान्ति आदि मूल्यों का गहरा प्रभाव है। राजस्थानी छटा लिये श्यामनारायण पाण्डेय की कविताओं में कहीं उद्बोधन और क्रान्ति का स्वर तथा कहीं सत्य, अहिंसा जैसे अचूक अस्त्रों का सफल संधान हुआ है। इनकी ‘हल्दीघाटी’ व ‘जौहर’ काव्यों में हिन्दू राष्ट्रीयता का जयघोष है । देशप्रेम के पुण्य क्षेत्र पर प्राण न्यौछावर के लिए प्रेरित करने वाले रामनरेश त्रिपाठी की कविता कौमुदी, मानसी, पथिक, स्वप्न आदि काव्य संग्रह देश के उद्धार के लिए आत्मोत्सर्ग की भावना उत्पन्न करते है । देश की स्वतन्त्रता को लक्ष्य करके श्री गया प्रसाद शुक्ल सनेही ने कर्मयोग कविता में भारतवासियों को जागृत कर साम्राज्यवादी नीति को आमूल से नष्ट करने का तीव्र आह्वाहन किया । श्रीधर पाठक ने भारतगीत में साम्राज्यवादियों के चंगुल में फंसे भारत की मुक्ति का प्रयास किया। प्रयोगवादी कवि अज्ञेय भी अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़कर आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाते हुए कई बार जेल गये। जगन्नाथ प्रसाद मिलिन्द की कवितायें भी इस दिशा मे सक्रिय हैं।
इस प्रकार हम देखते है कि स्वतन्त्रता आंदोलन के उत्तरोत्तर विकास के साथ हिन्दी कविता और कवियों के राष्ट्रीय रिश्ते मजबूत हुए। राजनीतिक घटनाक्रम में कवियों के तेवर बदलते रहे और कविता की धार भी तेज होती गई। आंदोलन के प्रारम्भ से लेकर स्वतन्त्रता प्राप्ति तक हिन्दी काव्य संघर्षो से जूझता रहा। स्वाधीनता के पश्चात राष्ट्रीय कविता के इतिहास का एक नया युग प्रारम्भ हुआ। नये निर्माण के स्वर और भविष्य के प्रति मंगलमय कल्पना उनके काव्य का विषय बन गया। फिर भी स्वतन्त्रता यज्ञ में उनके इस अवदान और बलिदान को विस्मृत नही किया जा सकता । भारत का ऐतिहासिक क्षितिज उनकी कीर्ति किरण से सदा आलोकित रहेगा और उनकी कविताए राष्ट्रीय आस्मिता की धरोहर बनकर नयी पीढ़ी को अपने गौरव गीत के ओजस्वी स्वर सुनाती रहेगीं।

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