एक चाँद हर वक़्त उगा रहता था, पूरी की पूरी चांदनी लिए, खिलने की आदत सी हो गयी थी उसे....दिन में भी आसमां के किसी कोने में नज़र आ ही जाता था......और अब, खुद को धोखा देने की आदत सी हो गयी है....चाँद दिखता तो नहीं है फिर भी एक फरेब अपने से कर होने का एहसास ज़रूर जगा लेता हूँ. मैं नहीं पूछुंगा चाँद तुम क्यूँ गये....हक है तुम्हारा जाना....लेकिन तुम्हारा आना? ये सवाल आखिर तक सताएगा मुझे.
उम्र के इस बसंती पड़ाव में इस तरह शोकगीत लिखना अच्छा तो नहीं है....लोग अक्सर हँस कर निकल जाते हैं.....गति से भागते लोग और ठहरा सा मैं....अजीब तो है कुछ...लेकिन ठहराव बाजिव है....वादा था तुमसे की इंतज़ार करूँगा ज़िन्दगी के इस कोने में बैठा......आज तुम्हारी आने की 'हाँ' को टटोलता हूँ तो निरुत्तर पता हूँ....फिर भी बैठा अकेले वादा निभा रहा हूँ.
क्या तुम्हें पता है 'तीन सेकंड में एक' की गति से चलती मुफ्त की सांस को मैं तुमपर खर्च कर रहा हूँ. जिंदगी का मोल नहीं पहचानते शायद मेरे जैसे लोग...कभी-कभी सोचता हूँ अगर जीने के भी पैसे लगते तो? ....क्या फिर खर्चता अपनी सांसें तुमपर?....पता नहीं मुझे...जवाब तो नहीं है क्यूंकि खुदा अब भी तन्हाई, ज़िन्दगी और साँस मुफ्त में बाँट रहा है!
कभी-कभी दाईं हथेली में दर्द बहुत होता है....तुम्हारे छूने का असर है या तुम्हारी तड़प का...इस मूक से पूछ भी नहीं सकता. देखो, क्या तुम्हारी बाईं कलाई का हाल भी वही है क्या? कलाई थाम ज़िन्दगी के सपने क्यूँ देखे थे?
देखो, तुमने चाहा था, मैंने चाहा था, तो हम साथ थे...अब जबरन हाथ पकड़ खींचते नहीं ले जाऊंगा तुम्हें उस मकां तक जिसे हमने साथ मिल घर बनाने का वादा किया था....मैं अपने सपनों में वो मकां खंडहर होने दे सकता हूँ तुमसे जबरदस्ती नहीं!
यह आखिरी बार है जब मैं तुमपर लिख रहा हूँ....मेरी बातों में ये रहा तुम्हारा आखिरी जिक्र...
सोचता हूँ 'शोना'
बुझा दू चाँद भी.
डरता हूँ,
कहीं ये मेरा जिक्र न कर दे तुमसे!