Saturday, December 10, 2016

हादसों के सफर में

एक बार फिर देश ने एक भीषण रेल दुर्घटना देखी है। उत्तर प्रदेश में कानपुर के पास इंदौर से पटना जा रही इंदौर-पटना एक्सप्रेस पटरी से उतर गई। यह इतनी भीषण दुर्घटना थी कि अभी तक इसमें एक सौ बयालीस लोग मरे हैं। यह दुर्घटना ऐसे समय हुई है जब हरियाणा के सूरजकुंड में रेलवे द्वारा आयोजित एक शिविर में खुद प्रधानमंत्री ‘शून्य दुर्घटना’ के लक्ष्य पर जोर दे रहे थे। ‘शून्य दुघर्टना नीति’ के बावजूद एक रेल दुर्घटना में सौ से ज्यादा लोग मरते हैं तो यह भारतीय रेल की कार्यशैली पर सवालिया निशान है। वर्ष 2000 से पहले भी देश में कई भीषण रेल दुर्घटनाएं हुई थीं। लेकिन उस समय तकनीक का अभाव कह कर रेलवे बच जाता था। आज तमाम तकनीकी विकास के बाद, रेलवे इतनी भीषण दुर्घटना की जिम्मेवारी से बच नहीं सकता।  दिलचस्प बात है कि यात्रा के हिसाब से जो ट्रेनें सुरक्षित हैं उनमें आम लोग सफर नहीं करते। राजधानी और शताब्दी जैसी ट्रेनों में एलएचबी कोच लगे हैं। लेकिन इनका किराया इतना महंगा है कि आम आदमी इनमें सवारी करने सोच नहीं सकता है। हाल ही में रेल मंत्रालय द्वारा राजधानी और शताब्दी एक्सप्रेस की सर्ज प्राइजिंस घोषणा ने इन ट्रेनों में सफर करना और भी महंगा बना दिया है। ये पूरी तरह से कुलीन वर्ग ट्रेनें हो गई हैं, जिनमें सफर करना मध्यवर्ग को भी पुसा नहीं सकता। रेलवे ने दावा किया था कि रेल दुर्घटना की स्थिति में कम से कम नुकसान के लिए राजधानी एक्सप्रेस की तरह सारी रेलगाड़ियों में एलएचबी (लिंक हाफ्फमैन बूश) कोच लगाए जाएंगे।
फिलहाल ज्यादातर रेल गाड़ियों में आईसीएफ (इंटीग्रल कोच फैक्ट्री) कोच लगे हुए हैं। रेलवे ने आईसीएफ की जगह एलएचबी कोच लगाने तो शुरू कर दिए हैं, लेकिन इसकी गति काफी धीमी है। हालांकि रेलवे ने इसके लिए एक समय सीमा तय की है। रेलवे के अनुसार 2020 तक सारी रेलगाड़ियों में एलएचबी डिब्बे होंगे। एलएचबी कोच भारत में बनाए जा रहे हैं और इनमें लगाए जाने वाला स्प्रिंग भी अब विदेशों से मंगाए जाने के बजाय भारत में ही बनाए जा रहे हैं। लेकिन एक दूसरी सच्चाई भी है, जो रेलवे के दावों की पोल खोलती है। भारत में फिलहाल एलएचबी कोचों की संख्या सिर्फ पांच से छह हजार के करीब है। जबकि आईसीएफ कोच की संख्या पचास हजार से ऊपर है। इसलिए इसे इतना जल्दी बदलना आसान नहीं होगा, जितना रेलवे दावा कर रहा है। पुरानी तकनीक से बने आईसीएफ कोच अगर पटरियों से नीचे उतरते हैं तो इसमें मरने वालों की संख्या काफी ज्यादा होती है। क्योंकि पटरियों से उतरने के बाद ये कोच काफी दूर गिरते हैं और एक कोच के दूसरे कोच के ऊपर गिरने की आशंका काफी रहती है।
तकनीक में काफी विकास के बाद भी भारतीय रेल आईसीएफ कोच से छुटकारा नहीं पा सका है। मंत्री और अधिकारी संवेदना व्यक्त कर सुधार की बात भूल जाते हैं। ऊपर से झूठे दावे किए जाते हैं। रेल मंत्रालय इस सच्चाई को छिपा जाता है कि भारत में रेल कोच फैक्ट्रियों की कोच बनाने की क्षमता फिलहाल इतनी नहीं है कि वे अगले तीन साल में पचास हजार आईसीएफ कोच को एलएचबी कोच से बदल दें। वर्ष 1990 के बाद भारत में कई बार भीषण रेल दुर्घटनाएं हुर्इं। रेल दुर्घटनाओं की जांच के लिए समितियां बनीं। उनकी रिपोर्ट भी आई। जांच के दौरान रेलवे बोर्ड के अधिकारियों कोकोशिश रही कि समितियां रेलवे की खामियों को उजागर न करें। आज रेल मंत्रालय का मुख्य उद््देश्य रेलवे का निजीकरण रह गया है, रेलवे की महत्त्वपूर्ण संपत्तियों को निजी क्षेत्र के हवाले कर उनके मुनाफे का बंदोबस्त करना। पिछले सौ सालों में जिस आधारभूत संरचना का विकास भारतीय रेल में हुआ है, उसके रखरखाव में भी रेल मंत्रालय विफल साबित हो रहा है। सिर्फ स्टेशनों को सुंदर बनाने की बात हो रही है। ट्विटर पर संदेश के माध्यम से खाना पहुंचा रेल मंत्रालय अपना महिमामंडन कर रहा है। लेकिन रेल कोचों के अंदर की गंदगी, उनके रखरखाव की हालत कितनी खराब हो गई है, न तो इस पर रेलवे का ध्यान है न कमजोर हो रही रेल पटरियों को मजबूत करने पर।
पिछले एक साल से रेल मंत्रालय हाई स्पीड ट्रेन चलाने की बात कर रहा है। दिल्ली और आगरा के बीच हाई स्पीड ट्रेन चलाई गई। दिल्ली-मुंबई के बीच हाईस्पीड ट्रेन का ट्रायल किया गया। लेकिन खुद रेलवे के इंजीनियर बताते हैं कि रेल पटरियां काफी कमजोर हैं, पुरानी हो चुकी हैं और दुर्घटना की आशंका हमेशा बनी रहती है। इन पटरियों पर डेढ़ सौ किलोमीटर प्रतिघंटे की गति से भी रेलगाड़ी चलाना खतरे से खाली नहीं है। कानपुर के पास जो इंदौर-पटना एक्सप्रेस दुर्घटनाग्रस्त हुई, उसकी गति एक सौ दस किलोमीटर प्रतिघंटा थी। रेलवे के अधिकारी खुद स्वीकार करते हैं कि जिस पटरी पर रेलगाड़ी आ रही थी वह इतनी तेज गति के लायक नहीं थी।1980 के बाद कई भीषण रेल दुर्घटनाओं के मद््देनजर रेलवे ने सुधार को लेकर कुछ ठोस कदम उठाने का भरोसा दिलाया था। वर्ष 1981 में बिहार में तूफान के कारण ट्रेन नदी में जा गिरी थी, जिससे आठ सौ लोगों की मौत हो गई थी। इसके बाद एक और भीषण रेल दुर्घटना उत्तर प्रदेश के फिरोजाबाद के पास हुई जिसमें पुरुषोत्तम एक्सप्रेस का टकराव कालिंदी एक्सप्रेस से हो गया था। इसमें ढाई लोगों की मौत हुई थी। जबकि 26 नवंबर 1998 को लुधियाना के पास खन्ना में फ्रंटियर मेल और सियालदह एक्सप्रेस की टक्कर में 108 लोगों की मौत हुई थी। खन्ना रेल दुर्घटना के बाद रेलवे ने एक जांच आयोग गठित किया। हाईकोर्ट के सेवानिवृत्त जज न्यायमूर्ति जीसी गर्ग की अध्यक्षता वाले जांच आयोग ने 2004 में रेलवे को अपनी रिपोर्ट दे दी।
रिपोर्ट में रेलवे के सुरक्षा के दावों पर सवाल उठाए गए थे। आयोग ने कई सिफारिशें भी की थीं। आयोग ने अपनी रिपोर्ट में रेलवे को निर्देश दिया था कि पटरियों की जांच हर महीने पर की जाए। साथ ही इस जांच को अल्ट्रासोनिक फ्लॉ डिटेक्टर (यूएसएफडी) की तकनीक से करने के लिए कहा गया था। ये सिफारिशें कागजों में बेशक लागू हो गर्इं, लेकिन जमीन पर? खन्ना जांच आयोग ने ठंड के मौसम में पटरियों पर गश्त बढ़ाने के निर्देश दिए थे। साथ ही कहा था कि गश्त के जिम्मेवार गैंगमैनों की निगरानी की जाए क्योंकि ठंड के मौसम में पटरियों में परिवर्तन होता है। इसलिए यह जरूरी है कि गैंगमैन ईमानदारी से ड्यूटी करें। लेकिन रेलवे के ये आदेश भी कागजों में रहे। यही नहीं, आयोग ने पटरियों की गुणवत्ता पर बराबर निगरानी रखने के लिए भी कहा था। कानपुर के पास हुई रेल दुर्घटना की जांच फिलहाल जारी है। लेकिन आरंभिक जांच में पटरियों की खामियों की तरफ भी इशारा है।
आज भारतीय रेलवे दुनिया के बड़े रेल नेटवर्कों में से एक है, जिसके पास एक लाख पंद्रह हजार किलोमीटर रेल लाइन का नेटवर्क है। रोजाना ढाई करोड़ मुसाफिर इसकी सेवा लेते हैं, लेकिन सुरक्षा-व्यवस्था भगवान भरोसे है। भ्रष्टाचार का आलम यह है कि भर्ती से लेकर तबादलों तक में पैसे लिए जाते हैं। हालांकि रेलवे की कमाई में कोई कमी नहीं आई है, भले रेल मत्रांलय लगातार घाटे की दुहाई दे। तमाम विपरीत परिस्थितियों में भी दो लाख करोड़ का राजस्व प्राप्त करने वाले रेलवे में यात्री की सुरक्षा के नाम पर सिर्फ घोषणाएं होती हैं। यात्रियों से सुरक्षा के नाम पर टिकटों में पैसे वसूले जाते हैं, लेकिन उनकी सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं है।
http://www.jansatta.com/politics/jansatta-article-about-kanpur-train-accident/190174/

बेबाक बोलः न्याय की गति- इंसाफ हो…!

वैसे तो लोकतंत्र में आम तौर पर न्यायिक व्यवस्था को सवालों से परे रखा जाता है। लेकिन जब सरकार और न्यायपालिका के टकराव से लोकतंत्र लखड़खड़ाने लगे तो सवाल पूछना लाजमी होता है। लोकतंत्र के हाशिए से भी बाहर किए गए इंसान को भी इसी तीसरे खंभे से उम्मीद होती है। अदालतों में जजों के पद खाली हैं और न्याय के मंदिर के बाहर इंसाफ पाने वाले लोगों की कभी न खत्म होती सी कतार खड़ी है। भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद, लोगों की कमी से जूझती, जनता के बुनियादी अधिकारों के लिए सरकार से टकराती 
या कभी-कभी सरकार के सामने समर्पण करती सी दिखती न्यायपालिका लोकतंत्र की अट्टालिका को कब तक संभाल पाएगी? न्यायिक नैतिकता के साथ किसी तरह का समझौता नहीं हो यही मांग करता इस बार का बेबाक बोल।
दरअसल, यह मुद्दा उठा पंजाब व हरियाणा हाई कोर्ट से। हालांकि उससे पहले भी इस पर सुगबुगाहट होती रहती थी, लेकिन 2013 में पंजाब व हरियाणा हाई कोर्ट की कॉलिजियम ने जब आठ वरिष्ठ वकीलों को न्यायाधीश बनाने का प्रस्ताव भेजा तो वहां के वकीलों ने बगावत का सुर बुलंद कर दिया। यह माना जा रहा था कि जिन वरिष्ठ अधिवक्ताओं के नाम भेजे गए थे, वे न्यायाधीशों के नजदीकी या रिश्तेदार थे। आवाज जो बुलंद हुई, उसका भावार्थ यही था कि इस तरह एक ‘न्यायिक विरासत’ खड़ी की जा रही है, ‘परिवारवाद’ का विस्तार न्यायपालिका में किया जा रहा है। यह भी माना गया कि इससे न्यायिक प्रक्रिया की शुचिता, निष्पक्षता और सच्चाई पर सीधा असर पड़ता है और इसके साथ-साथ आपसी संघर्ष की स्थिति भी खड़ी होती है। यह सब महसूस करते हुए हाई कोर्ट के एक हजार वकीलों ने राष्टÑपति को एक ज्ञापन भेज कर अपना विरोध दर्ज कराया।
लोकतंत्र में आम तौर पर न्यायिक व्यवस्था को सवालों से परे रखा जाता है। लेकिन जब इसी व्यवस्था पर सवाल उठे तो उससे बवाल खड़ा होना ही था और हुआ भी। लेकिन उसका सीधा शिकार बनी मुवक्किलों और मुलजिमों की वह कतार जो हर तारीख पर अपने लिए इंसाफ की गुहार लिए इंसाफ के मंदिरों में उम्मीद के साथ पहुंचती थी। न्यायव्यवस्था पहले ही देश भर में न्यायाधीशों की घोर कमी से जूझ रही है। अपनी संख्या के लिए जूझती व्यवस्था के लिए यह करारी चोट थी कि देश भर में प्रस्तावित जजों की नियुक्तियां खटाई में पड़ गर्इं। सरकार ने कॉलिजियम की ओर से प्रस्तावित 77 नामों से 43 नाम लौटा दिए। स्वाभाविक तौर पर इससे तूफान उठना ही था। विज्ञान भवन में एक समारोह में देश के मुख्य न्यायाधीश तीरथ सिंह ठाकुर की तो आंखें भर आई थीं।
जजों की नियुक्ति में सरकार की प्रस्ताव वापसी को जाहिर तौर पर जजों ने अपनी अस्मिता पर चोट माना और सभी नियुक्तियों की सूची जस की तस सरकार के पास फिर भेज दी। अब नजरें सरकार के अगले कदम पर हैं। अभी तक तो इस मामले में सरकार टकराव के रास्ते पर ही दिखाई पड़ रही है। हालांकि, देश में इस समय ऐसी सरकार है जिसका रवैया अपने फैसलों के प्रति अपेक्षाकृत ज्यादा मजबूत दिखाई देता है। हालिया नोटबंदी से यह साबित भी है कि लोगों की तमाम परेशानियों के बाद भी सरकार अपने फैसले पर पुनर्विचार करती नहीं दिख रही है। यह स्थिति तब है, जब सुप्रीम कोर्ट भी यह आशंका जता चुका है कि इस मुद्दे पर दंगे भड़कने जैसी स्थिति पैदा हो सकती है।
हालांकि, यह भी सच है कि पिछले एक अरसे से न्यायिक सक्रियता के सवाल पर सरकारें विचलित रही हैं। दरअसल, किसी न किसी तरह से परेशानहाल और त्रस्त जनता को लगता है कि सरकार की ओर पैदा की गई उसकी दुश्वारियों से उनको लोकतंत्र का यह तीसरा सबसे मजबूत स्तंभ ही राहत दिला सकता है। ऐसी स्थिति अक्सर सामने आती भी रही है जब कई मसलों पर सरकारों को न्यायपालिका की लताड़ झेलनी पड़ी है और इसी वजह से सरकारें और खासतौर पर कई राजनीतिज्ञ परेशान दिखते हैं। हालांकि न्याय के मंदिर का डर ऐसा है कि अगर किसी के पास कोई शिकायत होती भी है तो खुल कर बोल नहीं पाता। एक मुद्दत से यह टकराव की स्थिति तो थी, लेकिन इसका आमोफहम में इजहारे-खयाल नहीं था। मौजूदा सरकार ने नियुक्तियों और उनकी प्रक्रिया को लेकर जो कदम उठाए, उससे संघर्ष की एक खराब स्थिति जरूर पैदा हो गई है।
इससे पहले न्यायिक व्यवस्था में कथित भाई-भतीजावाद पर आम तौर पर सिर्फ वरिष्ठ वकीलों को ही खुल कर बोलते देखा जाता था। बल्कि कई तो उसका मुखर विरोध भी करते थे। लेकिन सत्ताधीश सरकारों से कोई प्रत्यक्ष विरोध कभी नहीं होता था। इसका एक बड़ा कारण शायद यह भी है कि देश की न्याय व्यवस्था अमूमन ‘तंगी’ में ही रही है। ज्यादातर न्यायालयों में जजों की कमी है और इसी वजह से मुकदमों का निपटारा टलता ही रहता है। 2016 में लोकसभा में भी यह जानकारी सामने आ गई थी कि देश के सुप्रीम कोर्ट में जजों की 19 फीसद, उच्च न्यायालयों में 44 फीसद और निचली अदालतों में 25 फीसद कमी है। ये नियुक्तियां किसी न किसी वजह से टलती ही रहती हैं। सही है कि खाली हुए पदों को दुबारा भरने में भी समय लग जाता है। लेकिन आखिर कितना? और अगर आज यह एक समस्या की शक्ल में सामने है तो इसकी प्रक्रिया पर सभी मिल-बैठ कर कुछ नया रास्ता क्यों नहीं निकालते हैं?
जजों के खाली पदों का आलम यह है कि देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद हाई कोर्ट में जजों के अस्सी से भी ज्यादा पद खाली पड़े हैं, जबकि मद्रास और पंजाब व हरियाणा हाई कोर्ट में यह संख्या तीन दर्जन के आसपास है। निचली अदालतों में देखा जाए तो बिहार और गुजरात में 700 से भी ज्यादा पद रिक्त पड़े हैं, जबकि महाराष्टÑ में यह संख्या 400 के पार है। ये अनुमानित आंकड़े स्थिति की भयावहता को बयान करने के लिए काफी हैं। ऐसे में नियुक्तियों के लटकने से अदालती झमेले में उलझे लोगों की तकलीफ का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। क्या यह जरूरी नहीं कि इस स्थिति से फौरन निकलने की व्यवस्था हो?
देश में मुकदमों के निपटारे की गति और स्थिति बहुत बदतर है। हालांकि इसके कारणों की खोज करने वाले लोग मौजूदा न्यायिक व्यवस्था में भी कई कमियां निकाल देते हैं। मसलन, न्यायालयों में छुट्टियों को लेकर सदा विवाद रहा है। ये आंकड़े लगभग साफ हैं कि देश की सुप्रीम कोर्ट में साल में 193, उच्च न्यायालयों में 210 और निचली अदालतों में 245 छुट्टियां होती हैं। अगर हम भूमंडलीकरण के इस दौर में इसकी तुलना विदेशों से करें तो अमेरिका की अदालतों में कोई ग्रीष्म अवकाश नहीं होता। यूरोप में लंबी छुट्टी नहीं होती। इंग्लैंड और कनाडा में महज 24 और 11 दिन की छुट्टी होती है।
देश की अदालतों में लंबित पड़े मामलों की भरमार है। न्यायपालिका इसका कारण जजों की कमी तो दूसरा पक्ष उसका बड़ा कारण छुट्टियों को ठहराता है। दोनों के अपने तर्क हैं। लेकिन यह सच है कि इसका शिकार आखिरकार आम आदमी ही बनता है। इस हालत से निपटने के लिए अगर हम समाधान तलाशने की कोशिश करें तो यह तय है कि फौरी नियुक्तियों के अलावा अवकाश के कुल दिनों की व्यवस्था पर भी पुनर्विचार हो। इतना ही नहीं, हमारी अदालतों में अभी भी पुरानी तकनीक के सहारे ही काम चल रहा है। ऐसे में अदालतों के आधुनिकीकरण पर भी फौरन कदम उठाए जाने जरूरी हैं। इस दिशा में काफी प्रयास हुआ है, लेकिन उसमें और भी हो सकने की संभावना है। देश में अदालतों की संख्या भी बढ़ाई जा सकती है।
बहरहाल, बड़ा मसला इस समय सरकार और न्यायपालिका के बीच टकराव का है। देश के लोकतंत्र पर इस समय पूरे विश्व की नजर टिकी है और उसकी सेहत के लिए यह जरूरी है कि अगर मत-भिन्नता ने गतिरोध की शक्ल अख्तियार कर ली है तो इसे तुरंत तोड़ा जाए। इसका प्रत्यक्ष प्रभाव विश्व भर में इसकी छवि को धूमिल ही करेगा। सरकार अगर चाहती है कि जजों की नियुक्तियों की व्यवस्था में उसके मुताबिक कुछ सुधार हो तो उसे न्यायपालिका को विश्वास में लेकर ही इस दिशा में प्रयास करना चाहिए था। अभी भी उसमें सद्भाव से कोई रास्ता ढूंढ़ा जा सकता है। यों भी, बदलाव एक मुकम्मल प्रक्रिया से होकर गुजरे तभी कामयाब होता है। आनन-फानन में सब कुछ बदल देने का दावा कई बार बचे-खुचे को भी बिगाड़ देता है।
सरकार एक बार नियुक्तियां लौटा चुकी है। दोबारा लौटाना क्या न्यायपालिका की सर्वोच्चता पर सवाल नहीं होगा? समय आ गया है कि इस पर अब और बवाल न हो और ‘मेमोरेंडम आॅफ प्रोसीजर’ पर आम सहमति बना कर इस मुद्दे का पटाक्षेप किया जाए, क्योंकि मौजूदा गतिरोध का प्रभाव जनसाधारण पर अच्छा तो कतई नहीं है। यह न तो हमारी न्यायपालिका और न ही सरकार के लिए कोई सकारात्मक स्थिति है। एक ऐसा आभास आ रहा है कि जैसे सरकार और न्यायपालिका में जबर्दस्त तकरार और संघर्ष का वातावरण है। देश और दुनिया को इंसाफ देने वाले मंदिर से अगर ऐसा आभास आए कि जैसे खुद उनको ही अपने साथ नाइंसाफी महसूस हो रही है तो लोकतंत्र के लिए यह कोई गर्व की बात तो कतई नहीं। लिहाजा इंसाफ हो!
कॉलिजियम प्रणाली
जजों की नियुक्ति और स्थानांतरण की यह व्यवस्था सुप्रीम कोर्ट के फैसलों के आधार पर बनी है। न तो इसके लिए संसद में कोई कानून बना और न ही संविधान में प्रावधान है। कॉलिजियम के प्रमुख सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश होते हैं, जिसमें चार सदस्य सबसे वरिष्ठ जज होते हैं। हाई कोर्ट के कॉलेजियम का नेतृत्व वहां के चीफ जस्टिस करते हैं। हाई कोर्ट संस्तुति सुप्रीम कोर्ट कॉलिजियम को भेजता है। वहां से सरकार को नियुक्ति की सिफारिश जाती है।
एनजेएसी
राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार जब भी सत्ता में आई, कॉलिजियम प्रणाली को ‘नेशनल जूडीशियल अप्वाइंटमेंट कमीशन’ से बदलने की कोशिश की। 1998-2003 में राजग-1 सरकार ने जस्टिस एमएन वेंकटचेलैया कमिटी गठित की, जिसने एनजेएसी का विकल्प सुझाया। इसके तहत छह लोगों की कमेटी का प्रस्ताव है। इसमें सुप्रीम कोर्ट के तीन वरिष्ठ जज, विधि मंत्री और दो ऐसे लोग होंगे, जिन्हें प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता और भारत के मुख्य न्यायाधीश की कमेटी मिलकर चुनेगी। इसका मुख्यालय कानून मंत्रालय में होगा। इस कमेटी के कोई दो सदस्य अगर वीटो कर दें तो फैसला रद्द हो जाएगा। पिछले साल पांच जजों के संविधान पीठ ने एनजेएसी को असंवैधानिक ठहराते हुए इसके लिए किया गया संविधान संशोधन रद्द कर दिया। चार के मुकाबले एक के बहुमत से फैसला दिया कि कॉलिजियम प्रणाली बनी रहे।
मेमोरेंडम आॅफ प्रॉसीजर (एमओपी)
वर्ष 2015 में संविधान पीठ ने एमओपी ड्राफ्ट करने के लिए सरकार से कहा, जिससे नियुक्ति संबंधी पात्रता और पारदर्शिता की गारंटी बने। भारत के मुख्य न्यायाधीश से सलाह लेकर इसे तैयार करना है। लेकिन कई मसलों पर सरकार और न्यायपालिका के बीच सहमति नहीं बन पा रही है। इस कारण एमओपी का स्वरूप तैयार नहीं हो पाया है। एमओपी के अभाव में सरकार जजों की नियुक्ति प्रक्रिया पर धीमे चल रही है।
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खुला ख़त गुलज़ार को

गुलज़ार,
यूं तो कुछ चीज़ें नवाज़िशों से ऊपर होती हैं, पर यह सच है कि जब आपको सिने दुनिया का सबसे बड़ा अवॉर्ड मिलने की ख़बर सुनते हैं तो खुशी का एक भीगा हुआ फाहा हमारे गालों को छू जाता है. दादा साहब फाल्के जहां भी होंगे, आज खुश होंगे.
नाम भी क्या ख़ूब रखा है, ‘गुलज़ार’. जो हमेशा खिला ही रहेगा. ताज़ादम बना रहेगा. उस पौराणिक और आध्यात्मिक से नजर आने वाले आले की तरह, जहां हर सुबह न जाने कौन एक ताजा फूल रख जाता है.
गुलज़ार दद्दा, इसी बहाने हम आपको अपने हिस्से की वो धूप दिखाना चाहते हैं, जो बीते बरसों में आपकी नज़्मों, नग़मों और फिल्मों से हमने चुराई है. आपके एहसासों के खजाने के इस्तेमाल से हमने ‘कभी रिप्लेस न किए जा सकने वाले’ अनगिन पल कमाए हैं. इसलिए हमारी ओर से एक शुक्राने की नमाज़ तो बनती है.
बचपन से ही शुरू करते हैं. जब हम चाय-पराठे खाकर जंगल बुक देखने बैठे थे और ‘चड्ढी पहनकर फूल खिला है’ सुनकर मस्त हो गए थे. इसे सुनकर ही हमने चड्ढी में शर्माना बंद किया था. हमें लगा था कि चड्ढी पहनकर इतराना इतनी बुरी चीज भी नहीं है. इसमें खिला भी जा सकता है.
फिर हम कुछ बड़े हो जाते हैं तो एक दिन धूल खाए स्टोर में चौथे दर्जे की एक कॉपी मिलती है. जिस पर कुछ तिरछे ढंग से लिखा हुआ हमारा एक नाम होता है. और एक खुशी होती है जो बयान नहीं की जा सकती. या कि लकड़ी की अलमारी के नीचे मिली वह पुरानी सी गेंद, जो अभी भी इस्तेमाल की जा सकती है. ठीक ऐसा ही लगता रहा, जब बरसों तक एक गीत सुनने के बाद हम किसी दिन अपने दोस्त से पूछते- ‘ये किसने लिखा है?’ तो वह कहता, ‘अफकॉर्स गुलज़ार’ और हम हर बार सुखद आश्चर्य से भर जाते कि ‘अच्छा ये भी गुलजार ने लिखा था!’
‘डोले रे डोले रे, नीला समंदर है आकाश प्याजी, डूबे न डूबे मेरा जहाजी’, सुनते हैं तो लगता है कि लिखने वाला बच्चा ही रहा होगा. गुलजार, आप सबके लिए अलग-अलग गुलजार हैं. नजर आने वाला गुलजार ऐसा है कि जैसे कवि न हो, हर रहस्य जानने वाला बुजुर्ग हो, जो कह रहा हो कि देखो बेटा कलफ लगा कुर्ता ऐसा लगता है. कभी ऐसा लगा कि पक्का ये गोलमाल वाले अमोल पालेकर का भाई है. छोटे कुर्ते का आख्यान हमने वहीं से पाया है.
थोड़े और बड़े हुए तो लगा कि गुलज़ार वो है जो संवेदनशील फिल्में बनाता है जिसे हमारे पापा जो गोविंदा छाप फिल्में नहीं देखते, भी देखने जाते हैं. माचिस, इजाजत, आंधी, मासूम, परिचय और भी ढेर सारी. फिर मिर्ज़ा ग़ालिब को पर्दे पर लाने की खुशनसीबी भी आप ही के हिस्से आई.
बहुत बाद में समझ आया कि गुलज़ार, आप सैकड़ों कंचों की एक पोटली की तरह हैं. जिसके पास जो कंचा आया, उसने उसी तरह समझ लिया. हमारा ख़्याल है कि आप इकलौते हैं जो हमारे बाबा से लेकर हमारे बेटे तक पसरे हुए हैं. नाना के लिए आप क़यामतख़ेज़ कहानियां फिल्माने वाले शख्स रहे होंगे. किसी के लिए गीत लिखने वाली शोख तोतली आवाज की बच्ची की तरह होंगे जो पोल्का डॉट्स वाले पायजामों में इतराती भी होगी. आप पर ऐसा यकीन बना कि गुलजार का लिखा डायनासोर होगा तो उसमें भी ‘क्यूटत्व’ खोजा जा सकेगा.
आपने अपनी बेटी का गोया आइसक्रीम-सा नाम रखा, ‘बोस्की’. बाहरी दुनिया के लिए वह मेघना हो गई हों, पर घर पर बोस्की ही रहीं. बचपन में हमने कई तरह से गणनाएं सीखी. एक, दो तीन. वन टू थ्री. प्रथमा द्वितीया, तृतीया. पर जवान हुए तो आपने हमें नई गिनती सिखाई. 116 चांद की रातें और एक तुम्हारे कांधे का तिल. रात टुकड़ों में बसर होती रही, हम नींद से कोसों दूर कुछ-कुछ कुछ-कुछ गिनते रहे.
गुलज़ार, आप ही थे जिसने बताया कि हमारे रोजमर्रा के आस-पास के लफ़्ज कितने जिंदा हैं. उन्हें सुनना कुछ ऐसा था कि जैसे घास पर देर तक पसरे हुए ख़ुद घास हो गए हों और फिर एक काला-लाल वो कीड़ा होता है गोल सा, जो छूते ही फुर्र हो जाता है. या कि हांडी में पकी उस सिंदूरी दही का स्वाद. वैसा ही जमीनी और असल एहसास आपके लफ्जों में होता रहा और बहुत कुछ पीछे छूटने से बचता रहा.
अपनी महबूबा के बारे में सोचते हुए कल्पना के कैनवस पर हमने जो पहला स्ट्रोक मारा तो एक गोरी का ही तसव्वुर बुना. धोखे से एफएम पर गाना बज गया कि मेरा गोरा रंग लइले, मोहे श्याम वर्ण दइ दे. तो हमें नहीं पता होता था कि यह आपका लिखा पहला गाना था. लेकिन इसे सुनने के साथ हम एक पवित्र चेष्टापूर्ण पुलक से भर जाते थे और सांवले होने के बावजूद इस अभिनव अपराजित मंत्र की तरह एक गोरी कन्या की मासूम आकांक्षा करते थे; जो एक दिन आएगी और हमसे हमारा सांवला रंग ले लेगी.
हम जब शोख हुए और हमने प्यार किया, तो जाना कि जिगर से बीड़ी जलाने का मतलब क्या होता है. ‘मैं चांद निकल गई दैया रे, भीतर भीतर आग जले’. इससे पहले बीड़ी को लेकर हमारे मन में जो छवि थी, उसमें काले होंठ थे, खांसी थी, झुर्रियों वाली उंगलियां थीं. लेकिन आपने सब पलट दिया. बीड़ी को मलिनता से उठाकर इश्क से रफू कर दिया. उस वक्त लगा कि बीड़ी पीने के बाद बिपाशा सी नमकीन नायिका भी आपके साथ नाच सकती है. यह वैसा ही था कि जैसे राजीव गांधी गन्ना खा लें तो गन्ना डीपीएस में भी ट्रेंड कर जाए. लफ़्ज़ों में असीम ताकत है.
फिर जब गांव और कस्बों से सामान बांध हम अपने संघर्ष पथ के लिए निकले तो आपने हमें हमारे वक्त का एंथम दिया. ‘छोटे-छोटे शहरों से, खाली बोर दुपहरों से, हम तो झोला उठाकर चले.’ यह बात भी आपको औरों से अलग बनाती रही कि आप हिंदी में नहीं लिखते, हिंदुस्तानी में लिखते हैं, और अंग्रेज़ीदां शब्दों को इज्जत बख्शने से भी गुरेज नहीं करते. किसी मुलाकात में सिगरेट की डिबिया पर बनाया गया पौधा और बाद में उस पर उग आया फूल, आपकी नज़्म का हिस्सा होता रहा. हमने जवानी का पहला कश लगाया तो याद आया कि यह खुमारी सर चढ़ी है, लब पर जो चल रही है.
गुलजार, आपने अलमारी में रखे और छज्जों पर घास से उगाए गए शब्दों को बाहर निकाला और उनका रंग हमारी रुटीन लाइफ पर हौले से छिड़क दिया. उस दौर में जब हम शहरी होने और होते चले जाने पर आमादा थे, आपने तमाम भदेस चीज़ों की लड़ाई लड़ी. आपने हमें 'हम' बनाए रखने में मदद की. हमारे कस्बाईपन को बचाए रखने का हौसला दिया. ख़ुद को ‘तत्सम’ न होने देने की सारी लड़ाई में हमें ‘तद्भव’ बने रहने में मदद की.
आपने हमारे इर्द- गिर्द फैली हुई प्रकृति को एक इंसान के भीतर ठूंस दिया और फिर उससे कहा कि अब हरकतें करो. तो हुआ ये कि चांद नंगे पांव आ गया और सूरज एक सूदखोर में तब्दील हो गया. फड़फड़ाते हुए किताबों पर दस्तक देने वाली हवाएं प्रेमिकाएं हो गईं और कुछ पुराने चेहरे कल के अखबार हो गए. यह कितना रोमांचकारी था, कॉलेज के उन लड़के-लड़कियों के लिए.
आपने हमें प्यार करना सिखाया. उससे भी जरूरी प्यार में ईमानदार रहना सिखाया. यह बेबाकी सिखाई कि हम कह सकें कि चुनरी लेकर सोती थी, तो कमाल लगती थी. सात रंग के सपने बुनना सिखाया. सोनू निगम की आवाज को सुनते हुए आप ही के लफ्जों के सहारे हमने यह उम्मीद बांधे रखी कि हया की लाली खिलेगी और जुल्फ के नीचे गर्दन पर सुबह-ओ शाम मिलती भी रहेगी. अपनी कुछ सबसे अच्छी दोस्तों को जीभ चिढ़ाते हुए हमने पीली धूप पहनकर बाग में न जाने की नसीहत दी.
कि इक खटास भी मामूली सी रिश्ते में आई कभी तो हम अधीर नहीं हुए. क्योंकि हम जानते थे कि झक सफेद कुर्ते और भारी सी आवाज वाला एक शख्स कहता है कि हाथ छूटे भी तो रिश्ते नहीं टूटा करते. फिर एफएम पर आपका गाना डेडिकेट कर हमने माफी का इज़हार किया. कि हमको मालूम है इश्क मासूम है, इश्क़ में हो जाती हैं गलतियां. सब्र से इश्क महरूम है.
भयानक पराजय के क्षण में कमरे में फूट-फूट कर रोने के बाद हमने ईयरफोन लगाकर आप ही के नाम वाला फोल्डर खोला हमेशा. उबरने के दौरान जिंदगी से गले लगाने की दरख़्वास्त की. भयानक खुशी के क्षण में भी आपके लिखे गाने पर कुछ ज्यादा ही जोर से थिरके. सबसे सुकून वाले पलों में ‘तुझसे नाराज नहीं ऐ जिंदगी’ ही लगाया हमेशा. कभी-कभी तो हैरत होती है कि हमारे सारे जज्बातों के लिए आपके पास लफ्ज़ हैं. आप के नग़मे हम सब की भावनाओं के प्रतिनिधि हो गए हैं. कि हमारा सारा सामान आपके पास पड़ा हो जैसे.
गुलज़ार आप पर इल्ज़ाम भी लगे. कुछ लोग कहते हैं कि कुछ फिल्में प्रेरित होकर बनाई गईं. सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के ‘इब्ने-बतूता’ का इस्तेमाल आपने किया. लेकिन क्या है दद्दा, कि हम भावुक लोग हैं और अपनी भावना में हम बड़े ईमानदार होते हैं. इल्जाम लगता है तो लगता है कि यह गलती हमने की है. रेशम के कुछ धागों को अपने जादुई चरखे में कातकर आपने धन्य कर दिया, पर वे धागे किसी और के ही रहे होंगे. और आपके पास तो अपना बाग है. बचा जा सकता था न.
पर आपको जितनी बार पढ़ते हैं, ताज़ा लगता है. यह अऩिवार्य रूप से रहस्यमयी है. अरण्य को कितनी बार भी देख लो, कौतुक बना रहता है. हो सकता है कि पोखर देख लिया हो पर उन नाजुक कमलडंडियों पर नजर न गई हो. किसी दरख्त पर बुलबुल का कोई खूबसूरत घोंसला देखने से छूट गया हो. पढ़कर सोचता रहता हूं देर तलक. रात पश्मीने की होती तो कैसा होता.
और वह बात जो साहिर लुधियानवी के बारे में हम फख्र से कहते हैं कि उनके लिखे हुए में एक राजनीतिक-सामाजिक पहलू भी है. कुछ लोग असहमत होंगे शायद, पर हमें लगता है कि आपने उसे भी एक जरूरी हिस्से की तरह बनाए रखा. ‘आंखों को वीजा नहीं लगता, सपनो की सरहद होती नहीं’ जैसी कालजयी पंक्ति इस दौर को आपका बेशकीमती तोहफा है. फिर उस नज्म को कौन भूल सकता है, जिसमें ख्वाब की दस्तक पर सरहद पार से कुछ मेहमान आते हैं और फिर गोलियों के चलने के साथ ऐसे हसीन ख्वाबों का खून हो जाता है. या अपनी त्रिवेणी में जब आप कहते हैं कि ‘चूड़ी के टुकड़े थे, पैर में चुभते ही खूं बह निकला/ नंगे पांव खेल रहा था लड़का अपने आंगन में/ बाप ने कल दारू पी के मां की बांह मरोड़ी थी.’ या जब ईश्वर से मासूम सवाल दागते हैं कि इक जरा छींक ही दो तुम तो यकीं आए कि सब देख रहे हो. आप हर बार मुझे ख़ालिस इंसान लगे हैं, दद्दा.
अपने आप में यही बात हमें रोमांचित कर देती है कि 76 साल की उम्र में आप ‘दिल तो बच्चा है जी’ लिख रहे थे, और वो भी पूरी ठसक के साथ, यह बताते हुए कि उम्र के सुफैद हो जाने के बाद भी जवानी की कारी बदरी कई बार नहीं छंटती है. शुक्रिया गुलज़ार. तहे-दिल किधर होता है मालूम नहीं. पर शुक्रिया. ये ऊपर वाली तस्वीर में जो कांच का यूनिवर्सल गिलास दिख रहा है न, उसी में आपके साथ इक अदरक वाली चाय पीने का मन है दद्दा. क्या करूं, खुशी से उपजी ख्वाहिश है.
बेलग़ाम उड़ती हैं कुछ ख़्वाहिशें ऐसे दिल में
‘मैक्सिकन’ फिल्मों में कुछ दौड़ते घोड़े जैसे
थान पर बांधी नहीं जाती सब ख़्वाहिशें मुझसे। :)
लेखक -कुलदीप मिश्र, Source: http://aajtak.intoday.in/story/an-open-letter-to-gulzar-1-760970.html

बोल! अरी ओ धरती बोल / मजाज़ लखनवी

बोल !अरी ओ धरती बोल

राज सिंहासन डावांडोल !

बादल बिजली रैन अंधियारी

दुख की मारी परजा सारी

बूढे़ बच्चे सब दुखिया हैं

दुखिया नर हैं दुखिया नारी

बस्ती बस्ती लूट मची है

सब बनिए हैं सब व्यापारी

बोल ! ओ धरती बोल

राज सिंहासन डावांडोल !

आवारा नज़्म में 'मजाज़'

 रात हंस-हंसकर ये कहती है कि मैख़ाने में चल
 फिर किसी शहनाज़े-लालारुख़ के काशाने में चल
 ये नहीं मुमकिन तो फिर ऐ दोस्त वीराने में चल

 इक महल की आड़ से निकला वो पीला माहताब (चांद)
 जैसे मुल्ला का अमामा(पगड़ी)जैसे बनिए की किताब
 जैसे मुफलिस की जवानीजैसे बेवा (विधवा) का शबाब
 ऐ ग़मे दिल क्या करूंऐ वहशते दिल क्या करूं