बहुत से लोग हैं जो मानते हैं कि शिक्षक बहुत कम काम करते हैं. हफ्ते में दस या बारह कक्षा उनके हिसाब से मज़ाक हैं. जैसे वे वैसे ही सरकारें शिक्षकों के सिर्फ दस-बारह कक्षाओं के काम को देखते हुए उनकी तनख्वाह का कोई तर्क समझ नहीं पातीं. ऊपर से दो महीने की गर्मियों की छुट्टियां शिक्षकों से और भी जलन का कारण बन जाती हैं. वैसे, छुट्टियों के दौरान जब कक्षाएं बंद हो जाती हैं, अध्यापकों को आराम रहता हो, ऐसा नहीं. परीक्षा समाप्त होने के बाद उत्तर पुस्तिकाओं की जांच से लेकर नए सत्र के लिए दाखिलों में वे किसी न किसी में व्यस्त ही रहते हैं. इसलिए दो महीने का अवकाश एक मिथ है.
पढ़ाई या कक्षा को लेकर एक प्रकार की मूढ़ समझ नेताओं और नौकरशाहों में पाई जाती है. मसलन कई लोग कहते मिल जाएंगे कि एक विभाग में क्या ज़रूरी है कि दस बीस अध्यापक हों. क्यों नहीं एक ही अध्यापक दिन में चार कक्षाएं ले सकता. विशेषज्ञता का तर्क उन्हें नकली और बकवास लगता है.
विश्वविद्यालयों में इतने किस्म के दफ्तरी काम हैं जो अब शिक्षकों के हवाले कर दिए गए हैं. सचिव स्तर की सहायता कम से कम की जा रही है. इस वजह से आपको अध्यापक वे काम करते मिल जाएंगे जो पहले कार्यालय में सचिव किया करते थे.
भारत में अध्यापकों के काम को ठीक तरीके से समझा नहीं गया है. इसलिए केंद्रीय संस्थाओं को यदि छोड़ दें तो राज्यों में अवकाश में लगातार कटौती और तनख्वाह पर सरकारी निगाह की सख्ती बढ़ती चली जाती है. प्रायः राज्य सरकारें उन्हें सरकारी कर्मचारियों के बराबर वेतन के लायक नहीं मानतीं. बहुत रो-धोकर और हील-हुज्जत के बाद वे केंद्रीय वेतन आयोग की सिफारिशों को उनके लिए लागू करने पर तैयार हो पाती हैं.
शिक्षक को एक कक्षा के लिए चार से छ घंटे की तैयारी चाहिए और एक बार की तैयारी काफी नहीं, यह समझाना भी कठिन है. बाहर के अध्यापक यह सुनकर हैरान हो जाते हैं कि यहां एक अध्यापक के पास दस कक्षाएं हैं!
अध्यापन क्यों एक अलग किस्म का काम है? क्यों ज्ञान का स्थानांतरण मात्र पर्याप्त नहीं? ज्ञान सृजन उनका प्राथमिक दायित्व है. किसी भी क्षेत्र में ज्ञान की अब तक उपलब्ध सामग्री से छात्रों को परिचित कराना उनका काम ज़रूर है लेकिन उसके साथ अपना संबंध बनाना और उसके प्रति अपना नज़रिया विकसित करना एक ज़्यादा श्रम साध्य काम है और मौलिकता वहां पैदा होती है. इसलिए जो यह समझते हैं कि पीएचडी के बाद फिर पढ़ने की ज़रूरत नहीं, वे ज्ञान के व्यापार की समझ नहीं रखते. वैसे उनकी इस समझ के लिए हम अध्यापक भी जिम्मेदार हैं क्योंकि साल दर साल हममें से कई एक ही बात दुहराते चले जाते हैं.
नएपन और ताजगी के लिए शोध और निरंतर अध्ययन आवश्यक है और उसके लिए संसाधन चाहिए. क्यों हमारे प्रबंधन संस्थान या आईआईटी अपने शिक्षकों के लिए ये साधन मुहैया करा सकते है और क्यों विश्वविद्यालय नहीं? क्यों राज्यों के शिक्षकों के लिए इस प्रकार की बात सपना ही है?
अध्यापक नामक संस्था का निरंतर क्षरण आम चर्चा का विषय होना चाहिए लेकिन नहीं हो पाता. राज्यों में ढाई सौ रुपया प्रति कक्षा या पंद्रह से पच्चीस हजार रुपया प्रति माह पर सेवानिवृत्त अध्यापकों से अथवा रोजगार की तलाश में भटक रहे युवाओं से काम लेने में सरकारों को फायदा नज़र आता है और समाज को कोई उज्र (आपत्ति) नहीं.
दिल्ली विश्वविद्यालय में यह क्षरण एक दूसरे रूप में भी दिखलाई पड़ता है. हर सत्र की शुरुआत में अध्यापकों की एक बड़ी फौज सांस रोककर इंतजार करती है कि उसे फिर से बहाल किया जाएगा या नहीं. ये खुद को और बाकी सब भी इन्हें एढॉक (तदर्थ) कहते हैं. बरसों के रोजाना इस्तेमाल के चलते यह शब्द अब हिंदी का हो चुका है. ये वे हैं जिन्हें चार-चार महीने के लिए नियुक्त किया जाता है और जिन्हें यह नहीं मालूम होता कि नए सत्र में वे वापस लिए जाएंगे या नहीं. यह अनिश्चितता उनकी आत्म छवि के साथ क्या करती है, इसपर न तो कोई शोध हुआ है न अध्ययन. जब वे काम करते भी रहते हैं तो अलग से दिखलाई पड़ते हैं और प्रशासन से लेकर स्थायी शिक्षक तक इन्हें बंधुआ मानते हैं जिनसे हर तरह का काम लिया जा सकता है.
क्यों दिल्ली विश्वविद्यालय में यह तदर्थ व्यवस्था स्थायी हो चुकी है? क्या इसमें सिर्फ प्रशासन का दोष है या सभी शिक्षक संगठनों का स्वार्थ भी उन्हें अनिश्चय में रखने में ही है ताकि वे उनके स्थायी मुवक्किल बने रह सकें जिनके लिए वे संघर्ष करते हुए दिखाई पड़ते हैं. एक वक्त था जब किसी स्थायी पद पर अस्थायी बहाली अधिकतम छह महीने के लिए ही हो सकती थी, फिर उसे स्थायी तौर पर भरना होता था लेकिन धीरे धीरे अस्थायित्व ही नियम बन गया. जब इन तदर्थ अध्यापकों को जनतांत्रिक अधिकार के नाम पर डूटा के चुनाव में मतदान का अधिकार दे दिया गया तो फिर प्रतिद्वंद्वी संगठनों के लिए वे एक ऐसा वोट बैंक बन गए जिसे वे असुरक्षित रखकर ही लाभ ले सकते हैं.
इनमें से कई स्थायी हो पाते हैं और कई नहीं. लेकिन इस क्रम में जो संस्कृति विकसित होती है वह सिर्फ इन तदर्थ अध्यापकों पर ही असर डालती हो, ऐसा नहीं. उससे कॉलेज और विश्वविद्यालय का वातावरण प्रभावित होता है. इन अध्यापकों में से अधिकतर का पूरा ध्यान स्थायित्व हासिल करने पर रहे तो इसमें क्या इन्हें दोषी माना जाए? अगर यह समझ नौजवानों में बने कि पढ़ने-लिखने से अधिक समय सही किस्म का संपर्क बनाने में लगाना चाहिए तो यह कैसे गलत है?
यह समस्या लेकिन सिर्फ भारत की नहीं. यूरोप और अमेरिका के विश्वविद्यालयों में कम से कम खर्चे पर अधिक से अधिक अध्यापन का काम लेने में सरकारों और प्रशासन के यकीन से अब कुली अध्यापकों की बड़ी फौज बन चुकी है.
अध्यापकों से छुटकारा पाने का एक तरीका ऑनलाइन अध्यापन के मूक्स नामक संस्करण से पैदा हुआ है. किसी विषय के एक माहिर अध्यापक से व्याख्यानों की श्रृंखला तैयार कर उसे ऑनलाइन उपलब्ध कराने पर न इमारत की दरकार रहती है न अध्यापकों की. मात्र कुछ सहायकों से काम चल सकता है. भारत की सरकारें इससे काफी प्रभावित हुई हैं और एक विकल्प के तौर पर इसे प्रोत्साहित करने में लगी हैं. यह वे श्रेष्ठता के नाम पर कर रही हैं.
हम श्रेष्ठता के इस तर्क की जांच इससे कर सकते हैं कि जो नेता या नीति निर्माता देश की जनता के के लिए इसे लाभकारी मानते हैं तो वे क्यों अपने बच्चों को आईवी लीग (अकादमिक श्रेष्ठता का प्रतीक) विश्वविद्यालयों में भेजना चाहते हैं?
शिक्षा में काफी कुछ चर्चा करने को है लकिन अध्यापक एक ऐसा विषय है जिसपर ठहर कर सोचने के लिए हमें समय निकालना ही चाहिए.