बिहार की राजधानी पटना में एक म्यूज़ियम है। ठीक उसके पहले विद्यापति भवन है। जब भी विद्यापति जयंती का टाइम आता था, यह सड़क ओहदेदार फलां झा जी, फलां मिश्रा जी की गाड़ियों से भर जाती थी। दसवीं के क्लास में विद्यापति की एक कविता पढ़ी थी, आएल ऋतुपति राज बसंत। जानना एक भ्रम है। इसी भ्रम के तहत वर्षों तक लगता रहा कि हम भी विद्यापति को जानते हैं। क्या लिखा है, क्या गाया है, और क्या क्या किया है, इन सब बातों को जाने बग़ैर भी लगता रहा कि विद्यापति को जानते हैं। आज पता चला कि कुछ नहीं जानते हैं।
वाणी प्रकाशन से छपने वाले 350 रुपये के प्रतिमान का यह अंक लाजवाब है। विद्यापति पर पीएचडी करने वाले पंकज कुमार झा ने करीब 52 किताबों और संदर्भ ग्रंथों का हवाला देते हुए 18 पन्नों के लेख में विद्यापति और मिथिला जगत की मज़ेदार सैर कराई है। ऐसा लग रहा था कि आप स्कूटर से विद्यापति के विशाल रचना संसार और ऐतिहासिक संदर्भों का एक चक्कर लगा आए हैं। कार से चक्कर लगाने के लिए आपको पंकज की किताब का इंतज़ार करना पड़ेगा। पहला झटका यही लगता है कि विद्यापति संस्कृत के कवि ज़्यादा थे। उनकी आधी से अधिक रचना संस्कृत में है। इस लेख में इतिहास के विद्यार्थी की नज़र से काफी कुछ जानने को मिलेगा। आज के इंटरनेटीय पाठकों के लिए भी इस लेख से विद्यापति के बारे में दस महत्वपूर्ण बातें टाइप की गुज़ाइश बनती है। जिसे दो मिनट में स्क्रोल करते हुए काफी कुछ जाना जा सकता है। आज कल तमाम वेबसाइट इसी तरह की सुर्ख़िया लगाते हैं। जानिये इस भाषा में क्यों रचते थे विद्यापति। पूरा का पूरा लेख चित्रशैली में लिखा हुआ है।
“यानी हिंदी जगत में स्थापित प्रचलन के विपरीत विद्वानों को समय व विद्वतपरंपरा की वह कौन सी परिस्थितियां थीं, जिसने विद्यापति जैसे बहुभाषी कवि के पनपने की संभावनाएं पैदा कीं।” मध्यकाल के आधुनिक इतिहासकारों और हिन्दी साहित्य जगत के निर्माताओं ने विद्यापति को फुटनोट में डालकर क्यों छोड़ दिया। इन दो सवालों के जवाब में पंकज कई तरह की दिलचस्प जानकारियों से हमारा परिचय कराते हैं। “ साथ ही यह भी रेखांकित करना आवश्यक है कि आधुनिक काल में,ख़ासकर आज़ादी के बाद, विद्यापति जिस ‘गौरवशाली मैथिल संस्कृति’ के प्रतीक चिन्ह बनकर उभरे हैं, उसमें ग़ैर द्विज एवं ग्रामीणों की भागीदारी लगभग नगण्य है।” पंकज इस सवाल का जवाब भी खोज रहे हैं।
वैसे विद्यापति का असर इतना गहरा था कि रवींद्रनाथ ठाकुर ने अपनी किशोरावस्था में भानु सिंह के नाम से विद्यापति की नकल की कोशिश की थी। 1097-1320 के बीच कर्नाटक से आया योद्धा कुल के नान्यदेव ने मिथिला में कणार्ट वंश की स्थापना की थी। कुछ समय बाद मोहम्मद तुग़लक ने आइनी गांव के एक ब्राह्मण कामेश्वर ठाकुर को,जो आख़िरी कर्णाट शासक हरिसिंहदेव के राजपुरोहित थे, तिरहुत के सिंहासन पर बिठाया। आगे जो वंश चला उसे ओइनिवार वंश के नाम से जाना गया। रानी लखिमा देवी और रानी विश्वास देवी के भी राजसिंहासन पर बैठने का उल्लेख मिलता है।जयपुर लिट मेले में मुझे एक बार मैथिली गीतों की जानकार विभा रानी ने बताया था कि ज़माने तक कर्णाटक की नाटक और संगीत मंडली मिथिला आया करती थी और मिथिला वाली मंडली कर्णाटक जाती थी। विभा जी बताती हैं कि मैथिली शब्द और वाक्य संरचना तुरु भाषा में बहुत अधिक है। शेट्टी लोग तुरु बोलते थे। वैसे मैथिली का पहला अख़बार जयपुर से निकला था। मैथिली भी कम नैशनल नहीं है।
पंकज ने उन जड़ों की भी पड़ताल की है,जहां से विद्यापति को रचना संसार की विरासत मिलती है। मिथिला क्षेत्र में ग्यारहवीं सदी से लेकर सोलहवीं सदी के बीच संस्कृति ग्रंथों का भरमार मिलता है। पंकज अब यहीं से मध्यकाल के इतिहासलेखन की कान पकड़ते हुए पड़ताल करते हैं कि विद्यापति की अवहेलना क्यों हुई। कारण मध्यकाल के इतिहासकारों को फ़ारसी क़िताबों का ख़ज़ाना मिल गया। वे उस ख़ज़ाने में ही खोए रहे और ज़माने से बेख़बर हो गए। फ़ारसी और संस्कृत की दूरी बनी रही। संस्कृत में रचने के कारण आधुनिक इतिहासकार विद्यापति को समझने में सक्षम नहीं थे। विद्यापति एक ऐसे क्षेत्र से भी आते थे जिसका दिल्ली सल्तनत या किसी और बड़े राज्य के बनने-बिगड़ने में कोई विशेष भूमिका भी नहीं थी। हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखा गया तो वीरगाथा काल, भक्तिकाल और रीतिकाल के खांचे से भी रामचंद्र शुक्ल ने विद्यापति को बाहर कर दिया। उनके साथ साथ फ़ारसी के विद्वान अमीर ख़ुसरो भी बाहर हो गए।
यह लेख विद्यापति पर है मगर मध्यकालीन इतिहास लेखन की जड़ता को भी तोड़ता। दिल्ली सल्तनत और मुग़लों का इतिहास आज की शब्दावली में कहें तो एनसीआर का इतिहास है। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र का। यही कारण है कि इस इलाके की तमाम विविधताएं अब जड़ लगने लगी हैं क्योंकि उनसे जितना राजनीतिक सांस्कृतिक रस निचोड़ा जाना था, निचोड़ लिया गया है। पंकज पंद्रहवीं सदी में फ़ारसी और संस्कृत का बड़ा ही दिलचस्प खाका खींचते हैं।
कीर्तिलता ग्रंथ में विद्यापति कहते हैं कि संस्कृत सिर्फ बुद्धीजीवियों को भाती है। दिल्ली सल्तनत की स्थापना के साथ शाही कामकाज़ फ़ारसी में होने लगता है। पंकज ने शाही कामकाज़ की जगह सरकारी कामकाज़ लिखा है! “ लेकिन हम अक्सर भूल जाते हैं कि वो अफ़ग़ान, तुर्की, हब्शी, ताजिक व मध्य एशियाई लोग, जिनकी भागीदारी से सल्तनत की स्थापना हुई और जिनके हाथ में शासन की बागडोर थी, उनमें विविध भाषा-भाषी समूह मौजूद थे। इनमें से बहुत कम लोग फ़ारसी लिख-पढ़ या बोल सकते थे। तात्पर्य यह है कि अगर नये शासकीय लोगों के संस्कृतपरायी थी तो फ़ारसी से भी उन्हें कोई व्यक्तिगत लगाव नहीं था।“ अब समझ आ गया कि सत्ता को हमेशा लोक-भाषा के ख़िलाफ़ जाकर एक दूसरी भाषा की ज़रूरत क्यों पड़ती है। फ़ारसी, संस्कृत के बाद अंग्रेज़ी आ गई। अगर यह बात समझ नहीं आई तो सलमान की फिल्म का वो गाना सुनिये। बेबी को बेस पसंद है।
प्रतिमान का यह अंक मज़ेदार है। आम पाठकों को महिषासुर से परिचय कराता है जिस संजय जोठे ने लिखा है और इसके बाद भी अभी तक प्रतिमान प्रतिबंधित नहीं हुआ है और न ही संसद में बहस हुई है। स्मृति ईरानी का पढ़ने-लिखने वाला मंत्रालय भी बदल गया है। वैसे जूट उद्योग के समाप्त होने पर भी बेहतरीन लेख है। पंकज के लेख के बाद शिवानी कपूर का इत्र बनाम चमड़ा पढ़ने लायक है। गंध दुर्गंध की राजनीति को शिवानी ने आम पाठकों के लिए आसान शब्दों में उकेरा है। गंध एक राजनीतिक अवधारणा है। दूसरे विश्व युद्ध में फ़ासीवादी जर्मनी के यातना शिविरों की पहली ख़बर वहां निकल रही जलते शवों की बदबू ने ही दी थी। वक्त मिलता तो शिवानी कपूर के लेख की अलग से समीक्षा पेश करता। चमड़े और इत्र के कारोबार से जुड़े गंध को लेकर ज़बरदस्त काम है। हम सब जो रोज़ डियो मारकर दफ्तर चल देते हैं,उनकी नाक इस लेख के बाद कुछ और सूंघने लगेगी। हिलाल अहमद ने प्रोफेसर रंधीर को ख़ूब याद किया है।
“तब शायद वे सोचेंगे कि ज्ञान की समकालीन राजनीति द्वारा आरोपित सीमाओं ने हमारा क्या हश्र किया है,और आधुनिक विचार को अपनी ज़मीन पर संसाधित करते हुए हम भारतीय बुद्धि की कैसी-कैसी अहम उपलब्धियों का लाभ उठाने से वंचित रह गए हैं।“
ओह नो!मौलिक होने की तड़प ग़ैर संघी खेमे में भी है। लगता था कि भारतीय चिंतन के सवाल पर संघ का ही एकाधिकार है। वैसे demonetization भी भारतीय सोच है। गुप्त काल में जब सिक्कों की कमी हुई तो राज्य सत्ता के अधिकारियों को नगदी वेतन की जगह ज़मीन के टुकड़े दिये जाने लगे और भारत में सामंतवाद आया। ज़मीन के टुकड़े में वेतन तो कैशलेस के समान था मगर सामंतों ने ग़रीबों से जो वसूला उससे उबरने में अभी तक बजट का इंतज़ार हो रहा है। सामंतवाद के पहिये के नीचे वही ग़रीब कुचला गया जिसे आज मुक्त कराने की बात हो रही है।मार्कसवादी इतिहासकार रामशरण शर्मा की इस थ्योरी को कभी नहीं मानना चाहिए वो भी इस सरकार में तो हर्गिज़ नहीं। थोड़ा प्रो गर्वमेंट होना चाहिए! कालक्रम में कई राजाओं ने,जिनमें से कई सनकी भी थे,अपने सिक्के चलवाये।नए सिक्के आए होंगे तो पुराने वाले बंद ही हुए होंगे।
अब उपनिवेशवादी सोच का क्या होगा,इतना लोड नहीं लेता।नवउदारवादी विचारधारा को राष्ट्रवादी बताने वाले केमिस्ट्री में प्रथम श्रेणी से पास आज के नेता भी इस सोच पर हमला कर रहे हैं और दूसरी तरफ से ‘ग़ैर संघी भारतीय इतिहासकार’ भी। आपने देखा सरकारों के साथ ‘नोमिनक्लेचर’यानी नामावली कैसे बदलती है। ग़ैर संघी भारतीय इतिहासकार! वैसे प्रतिमान के इस अंक में भारत और भारतीयता पर भी एक गंभीर लेख है। कैशलेस होकर हम राष्ट्रवादी बनेंगे और अमरीकी वीज़ा और मास्टर कार्ड को सर्विस चार्ज देंगे। हम किसी का अहसान नहीं रखते। हम प्रतिमान पढ़ते हैं। जिस टिप्पणी पर हमने टिप्पणी की वो प्रतिमान के संपादक अभय कुमार दुबे की प्रतीत होती है। दुबे, तिवारी, चौबे, मिश्र, झा, कपूर से भरपूर यह अंक आगे चलकर ख़ास किस्म के पाठ की सामग्री बनेगा। यह मेरा विश्वास है!
हिन्दी के पाठकों को प्रतिमान का अंक गर्व के साथ अपने पास रखना चाहिए। कभी कभी शो ऑफ भी करना चाहिए। थैले से बाहर हाथ में लेकर चल सकते हैं। सिर्फ पढ़ना ज़रूरी नहीं है,आप पढ़ते हैं इसका भाव बाहर भी झलकना चाहिए। टी शर्ट के साथ इस आदत को डिस्प्ले कीजिए। हिन्दी वाला डूड बनिये लेकिन पहले प्रतिमान पढ़कर कूल तो बनिये। विश्व पुस्तक मेले में हॉल नंबर 12 में वाणी का स्टॉल है। वहां से ले लीजिएगा।