Sunday, December 12, 2010

kUcHh मजेदार....

ज़िन्दगी अजीब चीज है, कभी ना ख़त्म होने बाला ड्रामा......'तुम मुझे ये कैसे भूल सकते हो......तुमने मुझे रात को 3.00 बजे क्यूँ नही उठाया?' हे भगवान् जब तुम्हें पढना है तो अलार्म लगा के सोओ ना......दोस्त और उसकी 'उस' के साथ कबाब में हड्डी बना मैं उनकी बेतुकी बातें सुन यही सोच रहा था. पर ये बेतुकी भी कितनी अजीब होती है.....जब हमारे साथ होती है तो अच्छी लगती है....और ओरो को करते देखते है तो 'बेतुकी'.
                         खैर, बिल आया '100' रूपये.........कुल तीन कॉफ़ी का बिल. 'इतना तो एक मजदूर कमा पाता है, दिन भर काम करने के बाद और यही 100 रूपये उसके घर के आठ आदमियों का पेट भरते हैं वो भी दोनों वक़्त की'........हमारी इस बेवक्त-की-बेतुकी का साथ दोस्त ने भी दिया, भरपूर. लेकिन मैडम गुस्सा....और हमारे आशिक मियाँ अब मनाने में जुट गये....बेचारे दोस्त की फ़िक्र नही.......ये आशिकी है यारा....खैर ये हमें भी अच्छा लगता था कभी, सताना किसी को, रुलाना किसी को, मनाना किसी को....लेकिन वो आशिकी ना थी, मियाँ हम अब तक ना समझ पाए वो क्या था.
 खैर पोपुलेशन बढ रही है, लगता है आत्माएं आज कल जहन्नुम से निकल सीधा आकर आदमी बनने लगी हैं. भगवान् ने पुराना ८४ लाख योनियों का सिस्टम चेंज कर दिया है. लेकिन यहाँ भी कित्ता सुख है.......'चेतक ब्रिज' के फुटपाथ पे लत्तो में पड़े आदमी को हमने देखा और 10 डिग्री की कडाके की ठण्ड में इग्नोर करते हुए हम आगे बढ गये......सी सी करते हुए.
 इंसानियत मर गई है और यही हम कह रहे है, ब्लॉग पे.......और अभी अभी छोड़ आये हैं लत्तो में लिपटा वो इंसान! यहाँ सब मेरे जैसे ही हैं...... घर में बैठ भ्रष्टाचार बढ़ने की गपशप करने बाले. ...भले ऑफिस में टेबल के नीचे पैसे सरकाए हों.
   "बचपन में सुना था 'बेटा पढ़ लो, काम आयेगा.' ये धोनी क्यूँ नही अपने माँ-बाप की सुनता था???? " अच्छा SMS था ना..अभी अभी मोबाइल बजा है. बेचारी मिडिल-क्लास कुछ सोचना ज़रूर शुरू कर दी होगी.
मियाँ मोबाइल भी अजीब है, एक अनपढ़ भी ओपरेट कर लेता है और हम बेचारे आधी B.Tech. सिग्नल्स, सिस्टम्स, और Mobile Communication पढने में गुजार दिए.
आज अखबार में पढ़ा है, भ्रष्टाचारी में देश 17 पायदान और बढ़ गया......हो भी क्यूँ नहीं एसा.....बेचारे हम भी अपने पूर्वजों को देख-देख अपनी सरकारी नौकरी की आस लगाए बैठे हैं.
अजीब ज़िन्दगी है, एक साहब मिले, उन्हें इस बार पिताजी ने पैसे नहीं भेजे थे......उनका इंजीनियरिंग का साढ़े पांचवा साल है और अभी 6 महिना और बचे हैं....साबजी हमारे सीनियर थे तो हम अदब से मिले...... वो रोना शुरू हो गये...'पापा ने पैसे नहीं भेजे हैं ये तो हमारा हक है कम से कम हक के पैसे तो भेजते'. ये अजीब देश है, अपने कर्त्तव्य से पहले यहाँ हक सिखाया जाता है....और ज़िन्दगी भर हम उसे गुनगुनाते रहते हैं. फिर बेचारे उसी हक को पाने घूस देते हैं, और घूसखोरी  को लेकर रोते हैं. तंत्र वेतंत्र है, कहने को अनंत है.......फिलहाल, आज की बकबक ख़त्म.