Sunday, November 19, 2017

India As I Know: आप कौन से भारत से हैं?

कहते हैं स्वयं के अधिकारों के लिए खड़ी हुई स्त्री सबसे खूबसूरत स्त्री होती है. किताबें थाम समाज से लड़ती सावित्रीबाई फुले, रमाबाई सरस्वती और तलवार थाम अंग्रेजों से लड़ती कित्तूर रानी चेन्नम्मा, झाँसी रानी लक्ष्मीबाई बेहद खूबसूरत रही होंगी.

मैंने पूर्व में जो उदाहरण दिए हैं उनमें अधिकतर स्त्रियों के हैं. दरअसल यही हमारा आठवां इंडिया है. देश की आधी आबादी का भारत.

निर्भया केस के बाद पुलिस से भिड़ती, कैंडल मार्च करती स्त्रियाँ बेहद खूबसूरत स्त्रियाँ थीं. संसद में 33% रिजर्वेशन के लिए संसद में बहस करती लड़कियां देखिए, हक की लड़ाई उनके चेहरे पर अप्रतिम सौंदर्य लेकर आता है.

मेरी शिक्षिका माँ जब सुबह स्कूल के लिए निकलती है तो बेहद ताकतवर और खूबसूरत नज़र आती है.

उन्नीसवीं सदी में Public Places (सार्वजानिक स्थलों) पर स्त्रियाँ कहीं नहीं थीं, बीसवीं सदी की शुरुआत में उन्होंने अपने डैनों को पसारना शुरू किया.

कल्पना दत्त, एनी बेसेंट, सरोजनी नायडू, अम्बिका साराभाई जैसे कई नामों ने घर से निकलकर स्वतंत्रता के लिए लड़ाई लड़ी. इसके लिए महात्मा गाँधी के प्रोत्साहन और अहिंसक आन्दोलन का अभूतपूर्व योगदान रहा. जिसने इन्हें घर से निकलकर संघर्ष करने के लिए प्रेरित किया.

1970 तक स्त्रियाँ मुख्यत: खेतों में काम करती नज़र आती थी.
1980 तक आप स्त्री को मुख्यत: शिक्षक या डॉक्टर के रूम में देख पाते थे.
लेकिन इक्कीसवीं सदी देखिए, यहाँ लडकियां पॉलिटिक्स ज्वाइन करने में सबसे आगे नज़र आती हैं, मल्टीनेशनल कंपनियों में ऑफिस जाती हैं, वीकेंड्स सेलिब्रेट करती हैं. हर क्षेत्र में परचम लहराए हुए हैं. सिविल सर्विसेज एग्जाम के पिछले तीन सालों के टोपर्स के नाम देखिये, तीनों लड़कियां ही हैं.

यह आठवां भारत जिसे पितृसत्ता ने हमेशा द्वितीय स्तर का नागरिक समझा है उसने बीसवीं सदी के उत्तरार्ध से स्वयं की स्वतंत्रता के साथ-साथ राष्ट्र के सामाजिक-आर्थिक उत्थान में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है.

लेकिन ऐसा नहीं है कि आठवें भारत के सामने चुनौतियाँ नहीं हैं. इस भारत से लोग डरे हुए नहीं हैं या पितृसत्ता ने बाधाएं पैदा नहीं की हैं.

जो डरा हुआ भारत है वही नौवां इंडिया है.

इस नौवें शम्भू प्रताप सिंह राठौर जैसे यौन शोषक अधिकारी भी शामिल हैं, निर्भया केस के छः क्रूर अपराधी भी शामिल हैं. साथ ही रेप पर बेहद अशोभनीय और बेहूदा बयान- ‘लड़कों से गलतियाँ हो जाती हैं.’ देने वाले मुलायम सिंह जैसे कई राजनेता भी शामिल हैं.

दहेज़ हत्याएं करने वाले लोग भी शामिल हैं. पत्नियों को पीटने वाले पति भी शामिल हैं. बेटियों को कोख मारने वाले, अशिक्षित रखने वाले माँ-बाप भी शामिल हैं. धर्म-संस्कृति के नाम पर औरतों की स्वतंत्रता छीनने वाले लोग, धर्म-गुरु भी शामिल हैं और ऐसे धार्मिक कानून भी.

सड़क पर बेहूदा फब्तियां कसने वाले लोग भी और लड़कियां छेड़ने वाले लोग भी.

कित्नु आठवां भारत- स्त्रियों का भारत इनसे डरने वाला नहीं है.

जब श्रीराम सेने बैंगलोर में पबों में महिलाओं को संस्कृति के नाम पर पीटती हैं वो स्त्रियाँ भी पिंक-चड्डी कैम्पेन चलाकर मुंहतोड़ जवाब देती हैं.

जब तीन-तलाक़ जैसी व्यवस्था क्रूरता की हदें पार कर देती है तो अधिकार पाने ‘ऑल इंडिया मुस्लिम महिला आन्दोलन’ न्यायपालिका का सहारा लेकर सारी व्यवस्था को ही गैर-कानूनी साबित कर देता है.

जब शनि शिगनापुर या हाजी अली में पूजा/प्रवेश पर प्रतिबन्ध लगा दिया जाता है तो तृप्ति देसाई और भूमाता ब्रिगेड आन्दोलन खड़ा कर अपना हक वापिस प्राप्त करते हैं.

आठवां इंडिया नौवें इंडिया से डरा हुआ नहीं है. वह इसकी जड़े हिलाने में समर्थ है, और उसने  हिला के भी रख दिया है.

मैं सफल स्त्रियों में कई बड़े नाम- इंदिरा गाँधी, किरण मजूमदार शॉ, इला भट्ट, चंदा कोचर इत्यादि उदाहरण स्वरुप ले सकता हूँ किन्तु मैं यहाँ अपने मित्रों- रीना, शुचि, प्रतीक्षा, याशिका, निशा, रोशनी आदि के नाम लेना चाहूँगा जिनकी स्वतंत्रता, समर्थता, कार्यकुशलता, निर्णय लेने की क्षमता, सोच और सफलता खुद में एक मिसाल है.

इनकी सफलता मैं इनके अलावा इनके माता-पिता का भी अपूर्व योगदान है. मेरी मित्र निवेदिता जब अपनी फोटो के साथ कैप्शन में यह लिखती है- ‘The portrait of amazing parents of a girl child.’ तो उनके संघर्ष और मेहनत सर्व-दृश्य होते है.

हालाँकि मैं यह दावा नहीं कर सकता कि कार्यस्थल तक का सफ़र और कार्यस्थल पर उन्हें पूर्णतः सुरक्षा मुहैया हुई है.

विशाखा गाइडलाइन्स ही 1997 में आई थीं. उसके पहले तक कार्यस्थल पर सुरक्षा के नाम पर गाइडलाइन्स तक नहीं थीं.

कार्यस्थल पर असुरक्षा और कार्यस्थल तक पहुँचाने में असुरक्षा को लेकर मुझे दो बड़े केस क्रमश: - रसिका राजू केस (जनवरी २०१७, इनफ़ोसिस पुणे) और प्रतिभा श्रीकाँटा मूर्ति केस (दिसम्बर 2005, बैंगलोर) याद हैं. लेकिन इनके बारे में किसी अन्य आर्टिकल में बात करेंगे.

विश्व बैंक अनुसार अगर Women Workforce Participation अभी के लगभग इक-चौथाई से 100% हो गया तो देश की जीडीपी 60% तक बढ़ जाएगी!

मुझे उम्मीद ही नहीं यकीन है कि ऐसा होगा क्यूंकि आठवाँ भारत नौवें भारत से न तो डरा हुआ है न डरने वाला है.

अंत में, मुझे यह लेख लिखने की आवश्यकता हुई मतलब अभी भी बहुत कुछ किया जाना जरूरी है और इसके लिए तमाम निजी-सरकारी प्रयास और सुरक्षा के कई उपाय आवश्यक होंगे तथा समाज और पुलिस का नजरिया बदलने की भी आवश्यकता होगी.

साथ ही, यह आपको तय करना है कि आप कौन से भारत से हैं- आठवें या नौवें? 

कमला भसीन अनुसार पितृसत्ता का मतलब पुरुषों द्वारा स्त्रियों से दोयम दर्ज़े का व्यवहार करना नहीं है बल्कि इसका मतलब है लिंग से परे किसी भी के द्वारा स्त्री को दूसरे दर्ज़े के नागरिक की तरह व्यवहार करना, उनके विकास में रुकावटें डालना. इसलिए महिलायें भी पितृसत्तात्मक हो सकती हैं.


Saturday, November 18, 2017

India As I Know: The Story of Seventh India

छठवें इंडिया में हमने बसंती बाई की बात की थी. सातवें भारत के लिए मैं कुछ अन्य प्रत्यक्ष उदाहरण लेना चाहूँगा.

ये उदाहरण मेरे मित्र दीप्ति, अमन, महिमा और एक युवा सरपंच छवि राजावत के हैं.

दीप्ति मल्टीनेशनल कंपनी इनफ़ोसिस में इंजिनियर हैं और मैसूर में कार्यरत हैं. लेकिन वे इसके अलावा कुछ और भी हैं. वह Office Hours के बाद और वीकेंड्स में सरकारी स्कूल में पढ़ाने जाती हैं. जैसा कि आपको पूर्व-विदित है सरकारी स्कूल शिक्षकों की कमी से जूझ रहे हैं और सरकारी स्कूलों की स्थिति ज्यादा अच्छी नहीं है.
उनका यह प्रयास बेहद सराहनीय कदम हैं और सरकारी स्कूलों में शिक्षकों की कमी से निपटने में सहायक है.
हालाँकि मैं यह दावा नहीं कर रहा कि उनके प्रयासों से पलक झपकते ही शिक्षा की तस्वीर उस स्कूल में बदल गई है किन्तु उन्होंने जो प्रयास किये ऐसे प्रयास सराहनीय हैं और सिर्फ वह ही नहीं अन्य युवा भी ऐसे प्रयास कर रहे हैं.

ये प्रयास स्वयं के स्तर पर हैं और वीकेंड पर मस्ती में, घूमने-फिरने में या आराम करने में समय व्यतीत करने की बजाये राष्ट्रहित में काम करने में मुफ्त में लगाया जा रहा स्वयं की ऊर्जा और वक़्त है.  

दूसरा उदहारण डॉ अमन का है. वे एक मानसिक चिकित्सा अधिकारी हैं और मेरे बेहतरीन मित्र हैं.

मानसिक चिकित्सा की स्थिति भारत में अत्यधिक ख़राब है और मध्यप्रदेश में मात्र दो मानसिक चिकित्सालय है- एक इंदौर में, दूसरा ग्वालियर में.

डॉ अमन ने ग्रामीण इलाकों में विभिन्न कैंप लगाकर ग्वालियर के ग्रामीण क्षेत्र में मानसिक स्वास्थ्य सम्बन्धी सन्देश पहुँचाया है. न सिर्फ इंदौर के चिकित्सालय में चाइल्ड साइकाइट्री वार्ड शुरू करने में मदद की बल्कि ग्वालियर में स्कूलों में कैंप लगाकर जागरूकता बढ़ाई है. जहाँ चाइल्ड साइकोलोजिस्ट और साइकेट्रिस्ट की भारत में अत्यधिक कमी है वहां अमन अकेले ही जागरूकता फैलाने में जुटे हुए हैं.

यह एक बेहतरीन उदहारण है एक युवा का जॉब में रहते हुए लीग से हटकर बेहतरीन काम करने का.
तीसरा उदाहरण महिमा का है. ये पुणे में एक सॉफ्टवेयर प्रोफेसनल हैं. इन्होने कैंसर से पीड़ित व्यक्तियों के लिए विग (Wig) बनाने के लिए अपने बाल दान किये हैं.

यह आपको एक मामूली सा प्रयास लग सकता है किन्तु सही मायने में यह इतना भी मामूली नहीं है.ये उन प्रयासों में से एक है जो स्वयं के सस्तर पर स्वयं की प्रेरणा से किया गया है.

ये इन युवाओं की सामाजिक चेतना और समाज और राष्ट्र के लिए किये गये प्रयासों को प्रदर्शित करता है.

अंतिम उदाहरण बेहद ताकतवर उदाहरण है. यह छवि राजावत का उदाहरण है, जिनके बारे में शायद आपने भी सुना होगा. मायो गर्ल्स कॉलेज से स्कूली शिक्षा, दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक और बाद में पुणे यूनिवर्सिटी से एमबीए करने वाली इस उच्च शिक्षित युवती ने कार्लसन ग्रुप, टाइम्स ऑफ़ इंडिया, एयरटेल इत्यादि में जॉब करने के बाद अपने पैतृक गाँव का विकास करने की ठानी. अपने पैतृक ग्राम सोदा (जयपुर, राजस्थान) में उन्होंने सरपंच का चुनाव लड़ा और चयनित हुईं.

कॉर्पोरेट जॉब और सिटी लाइफ जिनके पीछे आजकल युवा तेज़ी से भागते हैं, उन्हें छोड़ गाँव में आकर विकास करने का निर्णय आसान नहीं रहा होगा.

छवि ने रेन वाटर हार्वेस्टिंग, हर घर में शौचालय, पीने योग्य पानी की व्यवस्था जैसे प्रोजेक्ट बड़ी कुशलता और सफलता से संचालित किये.

छवि ने न सिर्फ ग्रामीण राजस्थान की छवि बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की बल्कि आज युवाओं के लिए प्रेरणास्त्रोत का काम भी वे कर रही हैं.

ये चारों उदहारण बिलकुल अलग-अलग हैं, अलग-अलग फील्ड से हैं, अलग-अलग जगह के हैं किन्तु इनमें एक समानता है- चारों युवा हैं.

ये युवा स्व-निर्मित युवा हैं जो अपने अपने स्तर पर राष्ट्र निर्माण में संलग्न हैं. दीप्ति के पिता रिटायर्ड PSU कर्मचारी हैं, अमन के पिता एयरफोर्स में रहे हैं, महिमा बुंदेलखंड से आती है और उनके पिता व्यापार करते हैं एवं छवि के पिता जयपुर में कार्यरत हैं.

ये युवा न तो किसी अम्बानी, गाँधी या यादव परिवार से ताल्लुक रखते हैं कि सीधे किसी कंपनी के सीईओ बनकर या किसी प्रदेश का मुख्यमंत्री/उप-मुख्यमंत्री बनकर देश-निर्माण/राष्ट्र-विकास के दावे ठोकें; और न ही बृहद स्तर पर कोई आन्दोलन चला रहे हैं किन्तु स्वयं के स्तर पर जो बन पड़े वह करने का प्रयास कर रहे हैं.

यह सातवाँ इंडिया है. युवाओं का भारत.

65% से ज्यादा जनसँख्या भारत में 35 से कम उम्र के युवाओं की है और वे विभिन्न समस्याओं से गुजर रहे हैं-

1.       शिक्षा एवं उच्च शिक्षा सम्बन्धी समस्याएं. ( रवीश की यूनिवर्सिटी सीरीज इसके लिए आप NDTV पर देख सकते हैं.)
2.       स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याएं
3.       कौशल विकास और कौशल निर्माण का अभाव
4.       यौन जागरूकता और यौन शिक्षा का अभाव
5.       पथ प्रदर्शको और नव-उद्योग शुरू करने में फण्ड का अभाव

भारत इस जनसांख्यिकी लाभांश से आर्थिक उन्नति हासिल कर सकता है अगर इन युवाओं में सपने भरे, इनके लिए नई दिशा प्रदान करने में सक्षम हो.

भारतीय युवा इतने ऊर्जावान और सोचपरक हैं कि स्वयं के अलावा वंचितों के लिए भी प्रयास कर सकते हैं. दीप्ति, अमन, महिमा, छवि तो हमारे सामने उदहारण स्वरुप हैं ही.

शिक्षित युवाओं का यह देश एक अद्भुत भारत है जो अपनी सीमायें, अपने परिवेश से निकल न सिर्फ स्वयं का विकास बल्कि देश बदलने की चाह भी रखता है.

इसका एक प्रत्यक्ष उदाहरण हमने अन्ना आन्दोलन और निर्भया केस के बाद के आन्दोलनों में देखा था.
जहाँ लाखों की संख्या में युवा सड़कों पर आकर देश की सरकार से उसके कामों का हिसाब मांग रहे थे. सरकारी भ्रष्टाचार के खिलाफ खड़े हुए थे. भारतीय पुलिस तंत्र से निर्भया केस जैसे कृत्यों के कारणों का हिसाब ले रहे थे.

स्वयं की सुरक्षा और देश का प्रश्न लिए जमा हुए ये युवक-युवतियां युवा-शक्ति के तो परिचायक थे ही साथ ही 1991 के बाद उपजे नव-मध्यमवर्ग के विकास और उसकी सामाजिक चेतना के विकास की भी कहानी कह रहे थे.


सातवाँ भारत इन्हीं ऊर्जावान, राष्ट्रहित में संलग्न, कुछ कर गुजरने का जज़्बा लिए हुए युवाओं का भारत है.

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References:
 villagesoda.org
 Chhavi's interviews on youtube
 Anna Andolan and Nirbhaya case coverage by indianexpress.com
 2011 census data from censusindia.gov.in

Friday, November 17, 2017

India As I Know... 3

भोपाल मध्यप्रदेश की राजधानी है. सीहोर उससे सटा हुआ जिला है. बात 1994 की है. पंचायती राज एक्ट पारित हुए अभी कुछ ही महीने हुए थे. मध्यप्रदेश देश का प्रथम प्रदेश था जिसने इससे लागू किया था. बसंती बाई सीहोर जिले के बरखेडी ग्राम की एक दलित महिला थी.

1994 में पंचायती राज में अनुसूचित जाति आरक्षण और  33% महिला आरक्षण (अब मध्यप्रदेश में यह 50% है.) के कारण वह बरखेडी की सरपंच चुनी गई. यह एक आंदोलित करने वाली घटना थी ऐसा पहली बार हुआ था. एक तो महिला ऊपर से अनुसूचित जाति से.

यह उच्च वर्ग के लोगो के लिए असहनीय सा प्रतीत हुआ. उच्च वर्ग के लोगों ने उसके खिलाफ पुलिस में  झूठे मामले दर्ज़ किए. अभद्र व्यव्हार, गालियां एवं परिवार को धमकी देना आम बात थी. सरपंच के काम में विभिन्न रोड़े अटकाए गए. इन सबसे तंग आकर उसे कुछ महीनों में Resign करना पड़ा.

बात यहीं ख़त्म नहीं होती. बसंती को ग्रामीणों ने काम देने तक से इंकार कर दिया. यह अघोषित सामाजिक बहिष्कार के जैसा था. उसकी समाज के लोग भी उसकी सहायता करने के लिए साथ नहीं आए.

लेकिन यह कहानी का अंत नहीं है. कुछ महीनों बाद ग्रामीणों को महसूस हुआ कि बसंती बाई ने कई बेहतरीन काम किए हैं. शायद कुछ बदलाव जो 50 सालों में नहीं आए थे वे बसंती सरपंच रहते लाने में सफल हुई थी.

अगली बार सरपंच की सीट अनारक्षित होने पर भी बसंती बाई को पुन: चुना गया! यह एक Revolution के जैसा है जिसमे भले ही लिंग और जातिगत भेदभाव को लोगों ने प्रथमतः महत्त्व दिया लेकिन बाद में इन सबसे परे सिर्फ बसंती के काम और गाँव में हुए विकास को महत्त्व दिया गया.

यह छठवां इंडिया है जहाँ जातिगत भेदभाव धीरे-धीरे धुंधलाता जा रहा है.

इसमें हमारे संविधान और इसके क्रियान्वयन के लिए आई सरकारी नीतियों की अहम् भूमिका  रही है. जिनमें शामिल है-

१.      1955 का नागरिक अधिकार सुरक्षा अधिनियम (1976 से पहले यह अश्पृश्यता (अपराध) अधिनियम नाम से जाना जाता था.)
२.      अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989
३.      पंचायती राज व्यवस्था
४.      विभिन प्रकार के आरक्षण

किन्तु इसका एक दूसरा पहलू भी है. जातिगत भेदभाव कम होने के साथ साथ जातिगत पहचान को बढ़ावा मिला है.

राजस्थान में हुआ गुर्जर आन्दोलन, गुजरात का पाटीदार आन्दोलन, हरियाणा का जाट आरक्षण आन्दोलन, आंध्रप्रदेश का कापू आन्दोलन और महाराष्ट्र का मराठा आन्दोलन इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं और इसकी और इशारा करते नज़र आते हैं.

जहाँ ये आन्दोलन जातिगत पहचान को बढ़ावा देते नज़र आते हैं वहीं जातिगत रूप से मिले आरक्षण के कारण इनकी मांगे आरक्षण प्राप्ति तक सिमट के रह जाती हैं.

इनमें सबसे ज्यादा ध्यान देने वाली बात ये है कि इन सभी आंदोलनों में (गुर्जर आन्दोलन को छोड़कर, जिसके कुछ अपने कारण हैं.) किसी भी आन्दोलन की मांग खुद को SC/ST वर्ग में शामिल करने की नहीं है. सारे के सारे आन्दोलन सिर्फ अन्य पिछड़ा वर्ग में आरक्षण चाहते हैं.

कारण? अनुसूचित जाति वर्ग में मुख्यतः वे जातियां शामिल हैं जो 2000 वर्षों से शोषित हैं और अस्पृश्य (अछूत) मानी गई हैं. शायद अन्य जातियां इसीलिए इस केटेगरी में जाना नहीं चाहती क्यूंकि यह अपना उनकी सामाजिक-जातिगत स्थिति को कमतर करेगा और समाज में उनकी स्थिति कमजोर होगी. किन्तु अन्य पिछड़ा वर्ग में जाने में उनकी सामाजिक-जातिगत स्थिति पर भी कम असर करेगा और आरक्षण का फायदा भी देगा. शायद यह उनके लिए Win-Win Situation सा है.

सत्य यह है कि 2000 साल पुरानी समस्या मात्र सत्तर साल की स्वतंत्रता, संविधानिक अधिकार और अथक सरकारी प्रयास पूर्णतः ख़त्म नहीं कर सकते हैं. किन्तु यह भी सत्य है कि परिस्थितियां धुंधली करने में हमारा देश सफल हुआ है.

मुझे प्रत्यक्ष अनुभव तब प्राप्त हुआ जब आज भी सामंतवादी व्यवस्था के लिए जाने जाने वाले बुंदेलखंड के मेरे गाँव में 2016 और 2017 में दलित-महिला सरपंच को ध्वजारोहण और झंडा-वंदन से रोकने की हिमाकत किसी ने नहीं की.

शायद सार्वजानिक कार्यक्रमों जिनपर गाँव की उच्च जातियों (ब्राह्मण, बनिया, क्षत्रिय) का अधिपत्य होता था वहां एक दलित महिला का खड़े होकर ध्वजारोहण और झंडा-वंदन करना न सिर्फ धुंधलाती भेदभावपूर्ण सामाजिक-जातिगत व्यवस्था का परिचायक है बल्कि सबके सामने मस्तक उंच कर खाई महिला लिंगगत भेदभाव को भी धता बता रही थी.

यह छटवां विकसित होता इंडिया आजादी के आन्दोलन के समय के पेरियार, अम्बेडकर, गाँधी के विभिन्न प्रयासों के कारण निर्मित हुआ है. ये प्रयास एक- दूसरे से बिलकुल अलग भले ही थे किन्तु उद्देश्य में पूर्णत: एक ही नज़र आते हैं.

संविधान निर्माताओं और प्रथम प्रधानमंत्री नेहरु के 17 वर्षों के प्रयासों को भी इस नये उभरते भारत के लिए सराहा जाना चाहिए, जिन्होंने न सिर्फ सामान-अधिकारों युक्त संविधान बनाने बल्कि उसके क्रियान्वयन में भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की.

1992 में आई नई पंचायती राज व्यवस्था का भी शुक्रिया अदा किया जा सकता है जिसने भेदभाव कम करने में धीमी किन्तु महत्वपूर्ण भूमिका अदा की.

अंत में एक प्रयास भारतीय रेल का भी है जहाँ मेरे सामने बैठे व्यक्ति ने बिना जाति, धर्म पूछे मुझसे बातें की और मुझे खुद का खाना Offer किया.


धुंधले होते जातिगत भेदभाव के साथ बढती हुई जातिगत पहचान वाला यह छठवां भारत विशुद्ध रूप से ‘बेहतरीन’ तो नहीं कहा जा सकता क्यूंकि समय के साथ यह भले ही भेदभाव कम करे किन्तु जातिगत पहचान स्वयं में नई समस्याएं उत्पन्न करेगा. (जिनके बारे में बात लेख के अन्य हिस्से में करेंगे.)

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Reference:
 NCERT Political science textbooks of class 11th and class 12th
 Gurcharan Das's 'The Elephant Paradigm'
 Wikipedia pages 'Panchayati Raj (India), 'Scheduled Caste and Scheduled Tribe (Prevention of Atrocities) Act, 1989' 
 MP govt portal mprural.mp.gov.in
 'India Since Independence' by Bipin Chandra

Thursday, November 16, 2017

India As I Know: The Panch Parmeshwara





यह एक कहानी सा है... बात 2009 की है. मैं इंजीनियरिंग के तीसरे साल में था. अख़बारों में एक कहानी आई. यह रुचिका गिरहोत्रा की कहानी थी. वह एक किशोरवय (Teen Age, just 14 years old) स्थानीय बैडमिंटन खिलाडी थी जिसका Sextual Harassment एक सीनियर पुलिस अधिकारी शम्भू प्रताप सिंह राठौर ने किया था. 

1990 की इस घटना की शिकायत रुचिका ने पुलिस में दर्ज की थी. रिजल्ट ये निकला-

१.      पुलिस में शिकायत (FIR) लिखने से ही मन कर दिया.
२.      रुचिका के परिवार को प्रताणित करना शुरू कर दिया.
३.      रुचिका को स्कूल से प्रिंसिपल ने दबाव/डर या घूस के कारण निकाल दिया.
४.      रुचिका के परिवार को अंडर-ग्राउंड होना पड़ा.
५.      रुचिका ने १९९३ में लगातार प्रतारणा के कारण आत्महत्या कर ली.

2009 में रुचिका की NRI दोस्त और परिवार के प्रयासों के कारण केस फाइनल स्टेज में पहुंचा था.

यह मेरे लिए एक हिला देने वाली घटना थी. मैं एक 20 साल का नौजवान था जिसने हाल ही में अपना पहला वोट दिया था. रुचिका शायद मृत्यु के वक़्त मेरे से भी कम उम्र की रही होगी. मैं उसका दर्द पूर्ण-समानुभूति से महसूस कर पा रहा था.

 आगे की घटना इससे भी ज्यादा खतरनाक थी. शम्भू प्रताप सिंह राठौर  की पत्नी उसका साथ दे रही थी. मीडिया को भी रुचिका के पूर्णतः Support में नहीं कहा जा सकता था. अंतत: शम्भू प्रताप सिंह राठौर को छह महीने मात्र की सजा हुई. जिसपर उसे उसी समय जमानंत भी मिल गई. (बाद में, मीडिया और नागरिक समूहों (Citizen Organisations) के दबाव में १८ महीने की सजा हुई, किन्तु मात्र 6 महीने में ही जमानत लेकर शम्भू प्रताप सिंह राठौर बाहर आ गया.)

पूरे तंत्र को अपने हित में उपयोग करने, कई लोगों को डरा-धमकाकर साथ करने, एक लड़की को आत्महत्या करने पर मजबूर करने और एक पूरा परिवार तबाह करने के ऐवज में मात्र छह महीने की सज़ा! वो भी bailable!  (जमानत योग्य) यह हमारी न्याय-व्यवस्था थी!

यह पांचवा इंडिया है. जहाँ पत्नी पति के अक्षम्य गुनाहों में भी क्षमा करने, साथ रहने और साथ देने को तैयार रहती है. अधिकारी सारे सिस्टम को खरीद लेते हैं और कोई केस जिसका रिजल्ट लगभग 20 साल बाद आता है, मात्र 6 माह की सजा सुना पाता है.

पांचवा भारत जिसके लोकतंत्र में धर्म, जाति, मूलवंश, लिंग, जन्मस्थान के आधार पर विभेद का प्रतिषेध है, जहाँ सामाजिक-आर्थिक स्थिति से परे कानून का सामान संरक्षण है, समानता के तमाम अधिकार सुनिश्चित हैं. वहां गरीब आज भी न्याय से महरूम है. 3 करोड़ मामले लंबित हैं और करीब ६७% कैदी Under-Trial Prisoners (विचाराधीन कैदी) हैं
.
फिल्म जॉली एलएलबी-2 में जज कहता है कि ‘ आज भी न्यायव्यवस्था पर लोगो का भरोसा कायम है. लड़ाई-झगडे में आज भी व्यक्ति कहता है कि ‘I will see you in the court.’’

   जजों को परमेश्वर का दर्ज़ा देते हुए 90 साल पहले प्रेमचंद ने भी ‘पञ्च परमेश्वर’ कहानी लिखी थी. लेकिन यकीन मानिये जजों के उभरते भ्रष्टाचार के मामले और न्यायपालिका से आम-आदमी की निराशा न्यायव्यवस्था के प्रति लोगोंका भरोसा धीरे-धीरे कम कर रही है.

2012 में जब निर्भया केस में लोग सड़कों पर आये और करीब एक साल बाद जब सज़ा सुनाई गई (यह 5 लोगों के लिए मृत्युदंड की सजा थी) तब मुझे 2009-2010 याद आ रहा था. शम्भू प्रताप सिंह राठौर को 6 महीने की सजा और जमानत के बाद अख़बारों में छपा उसका मुस्कुराता चेहरा याद आ रहा था.

मेरे सामने प्रश्न था कि अगर निर्भया केस के अधिकारी यदि मजदूर और आर्थिक रूप से विपन्न न होते तो क्या इतनी कठोर सजा मिलती?

हालाँकि दोनों केस बिलकुल अलग हैं और निर्भया केस में की गई Brutality (क्रूरता) अपराधियों के प्रदूषित मष्तिष्क और गहन आपराधिक प्रवित्ति को प्रदर्शित करती है किन्तु पुलिस की ड्रेस में तमाम सिस्टम से खेलने वाले सीनियर पुलिस अधिकारी शम्भू प्रताप सिंह राठौर के अपराध को भी कम कर के नहीं आँका जा सकता है.

सलमान खान का 2002 हिट-एंड-रन केस में बरी होना मेरी अवधारणा कि ‘न्यायपालिका सिर्फ गरीब या मध्यमवर्ग को ही अपराध की सज़ा देने में सक्षम है’, को अधिक मजबूत किया है.

एक वक़्त मुझे ऐसा लगने लगा कि गोदान (1936) में प्रेमचंद का लिखा वाक्य – ‘ आजादी सिर्फ बड़े लोगों के काम की है.’  इस देश “भारत जो कि इंडिया है” के लिए लिए सच ही है.

किन्तु समय के साथ मैं बड़ा हुआ हूँ और शायद आम भारतियों की तरह ही भरोसा करता हूँ और कहता हूँ कि ‘I will see you in the court.’


क्यूंकि शायद सिस्टम पर तमाम भ्रष्टाचार के बावजूद भरोसा रखना हम भारतियों की सोच में शामिल है. शायद न्यायालिका ने हर जगह निराश भी नहीं किया है. जेसिका लाल मर्डर केस, नितीश कटारा मर्डर केस जैसे प्रसिद्ध मामले इसके उदहारण हैं. हालाँकि फरियादी को अथक परिश्रम करने की जरूरत जरूर पड़ी है.

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References:
 nytimes.com and indianexpress.com articles on Ruchika Girhotra Case
 Wikipedia pages: 'Ruchika Girhotra Case', '2012 Delhi gang rape'
 indianexpress.com articles on 2012 Nirbhaya Case
 Different news articles on Salman Khan hit and run verdict
 Rajya Sabha TV debates related to 'Indian Judicial System'
 Photo: hindi-literature.com

Wednesday, November 15, 2017

India As I Know…



 मैं वहां पैदा हुआ जहाँ 67% भारतीय रहते हैं... एक छोटे से गाँव में. ये एक गुदना (मिट्टी  का) घर था. जिसमें मेरे मम्मी पापा survive कर रहे थे. गाँव में कुछ ही पक्के घर थे और उनमें से एक मेरे दादाजी का था जो थोड़ी ही दूर रह रहे थे. पापा और दादा में कुछ तो हुआ था जिसकी वजह से पापा यहाँ रह रहे थे. ये टिपिकल ग्रामीण टाइप की लड़ाई थी जिसमे भले दो अलग-अलग चूल्हे हो गए हों, दिल अब भी एक ही थे. दादा के दर्द पर पापा बराबर कराहते थे.... और भले पापा से सुबह बहस हो जाए दादा हमें अपनी पीठ पर लादकर घूमते थे. दादी हमें खाना खिलाने के बाद खाती थी. ये पहला एक्सपीरियंस (Experience) मेरा ‘इंडिया’ के साथ था जो मुझे याद रहा... क्यूंकि बाद में मैंने हॉलीवुड फ़िल्में देखी और वहां बेटा अपने बाप या सौतेले बाप का नाम लेता था, चाचा का नाम धड़ल्ले से लेता था और कभी कभी तो वह बाप या दादा को पहचानता भी नहीं था. मेरे बचपन और इन फिल्मों में ज़मीन समान का अंतर था.

मेरे गाँव में दसवीं तक स्कूल था और एक छोटे गाँव के हिसाब से यह काफी था. वहां बैंक था जो 20Km की रेडियस में एक मात्र बैंक था. आसपास के गाँव के हिसाब से मेरा गाँव काफी संपन्न या विकसित कहा जा सकता है क्यूंकि वहां  दो-तीन ग्रेजुएट भी थे और एक तो पोस्ट ग्रेजुएट भी था.

मैं सरकारी स्कूल में पढता था जहां खुद ही झाड़ू लगा के, फट्टी बिछा कर के हम पढ़ते थे. मैं तीसरी में था जब मेरे अन्दर एक प्रश्न उठा. प्रश्न था की 7 में से 11 घटाने में क्या आएगा. प्राइमरी स्कूल के टीचर ने जवाब दिया की हम इस स्थिति में 7 के आगे 1 लिख उसे 17 बना देते हैं इसलिए उत्तर 6 होगा. मतलब 7 में से 11 घटाने पर उत्तर 6 आयेगा!!! यह 'दूसरा इंडिया' था. बाद में मैंने असर रिपोर्ट (ASER Report) पढ़ी, भारत में शिक्षा की स्थिति पर तमाम वैश्विक रिपोर्टों का डाटा देखा तब मुझे समझ आया यह ‘दूसरा इंडिया’ है. जहां बच्चे Curious हैं, समझ है उनमें और सोच भी, किन्तु सरकारी स्कूलों की हालत इतनी बदतर है की एक 6वीं का बच्चा दूसरी कक्षा के गणित के सवाल हल नही कर पाता है. एक 8वीं का बच्चा ढंग से किताब नहीं पढ़ पाता है... और अफ़सोस ये की सरकारें इन सब के बावजूद बड़े बड़े दावे करती है. अगर TSR सुब्रमण्यम रिपोर्ट और अन्य जगह से आंकड़े उठा कर देखें तो खाका और भी क्लियर हो जायेगा-
1.   सरकारी स्कूल 10 लाख से अधिक रेगुलर शिक्षकों की कमी से जूझ रहे हैं.
2.   10 लाख से अधिक शिक्षकों को ‘एजुकेशन ट्रेनिंग’ की जरूरत है जो या तो नहीं हो रही है या उसके होने की उम्मीद ही नहीं है.
3.   विद्यालयों में शौचालय नहीं हैं (मेरे में भी नहीं था) और पानी की कमी है.
4.   आज भी ग्रामीण स्कूलों में Caste Discrimination (जातिगत भेदभाव) विद्यमान है. (पहले अत्यधिक था. इसे विस्तार से प्रसिद्ध लेखक ओमप्रकाश बाल्मीकि ने अपनी आत्मकथा ‘जूठन’ में लिखा है)
5.   प्राइवेट विद्यालयों की हालत भी सरकारी स्कूलों से ज्यादा अच्छी नहीं है. और अब तो वे बढ़ते हुए अपराध से  भी ग्रषित हैं.

ये जो दूसरा इंडिया है वो हमारा भविष्य बनाने वाला है. हमारे Demographic Divident (जनसांख्यकीय लाभांश) का फायदा पहुचाने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वला है और आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार मानवपूँजी निर्माण बिना शिक्षा के संभव नहीं है. संयुक्त राष्ट्र (UN) की ‘ह्यूमन डेवलपमेंट रिपोर्ट’ तो बिना शिक्षा के सभ्यताओं का होना ही असंभव मानती है!

शिक्षा की ये स्थिति जो दूसरा इंडिया है इतनी भी बुरी इसलिए नहीं कही जा सकती क्यूंकि पांचवी के बाद मेरा चयन नवोदय स्कूल में हुआ और वहां मुझे शायद देश के सर्वश्रेष्ठ शिक्षक मिले. हिंदी पढ़ाने वाले शिक्षक शायद पढ़ाते कम थे हिंदी साहित्य में डूब कर हमें भी उसी रूचि के साथ डूबकर समझने के लिए मजबूर कर देते थे. इतिहास तो हमें खुद ऐतिहासिक किरदार बनाकर अपनी उपलब्धिया, कमियां खुद बखान करने को कह पढाया गया. ये बहुत अधिक डायनामिक तरीका था. शिक्षण के ऐसे तरीके सिर्फ हमारे स्कूल में ही हो सकते थे.
लेकिन ऐसे स्कूल जो राजीव गाँधी की परिकल्पना थे जिले के मात्र 80 प्रतिभावान बच्चों के लिए ही प्रतिवर्ष उपलब्ध थे, जिसके लिए एक टेस्ट लिया जाता था.

ये दूसरा इंडिया बदलने के लिए हें कड़ी मेहनत की आवश्यकता होगी और साथ में राजनीतिक इच्छाशक्ति की भी. जो कम ही हमें देखने को मिलती है.

मेरे राजनीति पर नकारात्मक कमेंट के कारण हैं. मेरे गाँव में जहाँ कुल 4000 लोग रहते थे, उनमें से कुछ घर मुसलमानों के भी थे. लेकिन जब 2002 के गुजरात दंगे हुए और वो दूरदर्शन पर समाचारों में आये तो मेरे पापा एक अंकल लल्लू मियां से बोले कि बेटा दंगे हो गये हैं आज बोले तो पीट देंगे तो उनका भी उसी हंसी के साथ जवाब था कि साब आप पीटने लगोगे तो भाभीजी बचा लेंगी.

ये सहिष्णुता लाजवाब है. ऐसा न तो पश्चिम में देखने को मिलता है न ही नव-स्वतंत्र अफ्रीकी देशों में.

लेकिन ये सहिष्णुता छिन्न-भिन्न हो गई जब 2015 में  एक तथाकथित सांस्कृतिक ग्रुप की शाखा हमारे गाँव में खुली और गाँव के युवा उसके सदस्य हो गये. 2016 में हमारे गाँव में पहला सांप्रदायिक दंगा हुआ. ये ‘तीसरा इंडिया’ है जहाँ तबतक सामाजिक एकता कयम रहती है जब तक की उसका फायदा देश की राजनीति लेना नहीं चाहती!

कुल 5000 से कम जनसँख्या वाले गाँव में जहाँ हायर सेकेंडरी तक स्कूल 2012 में आया. जहाँ से निकटतम कॉलेज 50Km दूर है और अधिकतर युवा बेरोजगार, अर्ध-शिक्षित (10वीं पास) हैं. जहाँ गर्मियों में पानी की अत्यधिक किल्लत होती है वहां न तो विकास इतनी तीव्रता से पहुंचा न ही जल संसाधन किन्तु साम्प्रदायिकता अधिक तीव्रता से पहुँच गई!

ये तीसरा इंडिया जहां जब तक अर्ध-शिक्षित, बेरोजगार युवाओं को राजनीतिक दल नहीं बरगलाते हैं तब तक सामाजिक एकता के सूत्र में बंधा रहता है.

1947 में स्वतंत्रता के बाद मात्र 1984, 1992 और 2002 में बड़े सांप्रदायिक दंगे हुए हैं और यह भारत जैसे वैविध्यपूर्ण, युवा-लोकतंत्र की उपलब्धि कही जा सकती है. किन्तु इन दंगों के पीछे प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से राजीतिक दलों का हाथ रहा है.

चौथा इंडिया मैंने तब देखा जब मैंने अपने स्कूल के सामने स्थित सरकारी अस्पताल का भ्रमण पहली बार किया. यह सरकारी अस्पताल एक PHC (प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र) है. जिसमें  तरकरीबन 20 सालों से कोई डॉक्टर नहीं है. और ये अस्पताल 20Km की रेडियस में एकमात्र अस्पताल है! एक नर्स के भरोसे चलती हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था इतनी अपूर्ण है की मानव जीवन की कीमत अत्यधिक कम नज़र आने लगती है. शायद इसलिए भारत ऑर्गन-ट्रेड की कैपिटल के रूप में विकसित हो रहा है.

सरकारी बजट में स्वास्थ्य पर होने वाले आवंटन को देख ‘ऊँट के मुंह में जीरा’ कहावत चरित्तार्थ होती नज़र आती है. Demographic Divident का फायदा लेने के लिए प्राथमिक स्वास्थ्य पर खर्च बेहद जरूरी है और एक स्वस्थ माँ ही स्वस्थ बच्चे को जन्म दे सकती है जो भविष्य में मानवपूँजी बन सकता है. किन्तु भारत की करुण स्थिति देखें तो 66% बच्चे कम-वजन (wasted), कम-लम्बाई (stunted) से ग्रषित हैं और IMR (शिशु मृत्यु दर) भी हमारा बहुताधिक (34 per 1000 Live Births) है.


ये बुरी स्थिति चौथा भारत नहीं है. दरअसल इसका असर ‘चौथा भारत’ है. स्वास्थ्य पे कम खर्च अधिक  बीमारियाँ लेकर आता है, बीमारी पर खर्च गरीब, गरीबी कुपोषण और भूख लेकर आती है. भूख अंग, शरीर और बच्चे तक बेंचने पे लोगों को मजबूर कर देती है. औरतें अपनी कोख तक गिरबी रखने को तैयार होती है. इस दुश्चक्र (Vicious Cycle)  में फंसे होने के कारण ही भारत मलेरिया, सेरोगेसी, देह व्यापार, अंग व्यापार, मानव तस्करी का सिरमौर बना हुआ है!

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Reference:
 ASER Report
 HDI Report
 RajyaSabha TV debates on 'Education In India'
 Economic Survey 2015-16, 2016-17
 The budget document of govt. of India
 Rana Ayyub's articles 
 Wikipedia pages: 'Anti-Sikh Riots'; 'Bombay Riots' and '2002 Gujrat Riots'

Friday, November 10, 2017

इस्राइल अब एक सच्चाई है लेकिन हम फिलिस्तीन को भी कैसे भूल सकते हैं! | अपूर्वानंद

दो नवंबर एक और वर्षगांठ का दिन था. लेकिन अपने आप में डूबे और खुद से जूझ रहे भारतवासियों को उसकी सुध न रहना स्वाभाविक ही था. सौ साल पहले ब्रिटेन के विदेश सचिव आर्थर जेम्स बेल्फर ने लार्ड रोथ्सचाइल्ड को एक ख़त लिखा. इस खत ने अरब का और खासकर फिलिस्तीन का नक्शा बदल दिया. यह ख़त आज लाखों फिलिस्तीनियों की ज़लावतनी के लिए जवाबदेह है और कई और लाख फिलिस्तीनियों पर इस्राइल के द्वारा हो रह जुल्म के लिए भी जिम्मेवार है.
बेल्फर ने इस ख़त में लिखा कि हिज मेजेस्टी की सरकार फिलिस्तीन में यहूदियों के लिए एक राष्ट्रीय निवास के पक्ष में है और इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए हर मुमकिन कोशिश करेगी. हालांकि इसमें यह भी कहा गया कि ऐसा करते हुए इसका ख्याल रखा जाएगा कि फिलिस्तीन में रहने वाले गैर यहूदियों के नागरिक और धार्मिक अधिकारों को कोई नुकसान न पहुंचे और दूसरे मुल्कों में रह रहे यहूदियों के अधिकारों और राजनीतिक अवस्था पर कोई प्रतिकूल प्रभाव न पड़े.
यह ज़िओनवादियों (फिलिस्तीन में इस्राइल बनाने के लिए आंदोलन चलाने वाले) को ब्रिटेन का खुला समर्थन था. इस ख़त के चार दशक बाद फिलस्तीन पर ‘नकबा’ या कहर टूटा जिसने उन्हें अपने ही वतन में बेगाना बना दिया और वहां इस्राइल नामक राष्ट्र का निर्माण हुआ. उस समय से आज तक फिलिस्तीनी अपनी ही ज़मीन पर एक स्वायत्त राष्ट्र की तरह रहने के हक के लिए लड़े आ रहे हैं लेकिन इस्राइल लगातार उन्हें पश्चिमी तट से भी बेदखल करता जा रहा है.
यहूदियों और इस्राइल का मानना है कि बेल्फर के इस पत्र ने सिर्फ उनके उस अधिकार को स्वीकार किया जो इस भूमि पर हजारों वर्षों से उनका रहा है क्योंकि यह उनकी पवित्र भूमि है.
इस गुजरे दो नवंबर को इस्राइल के प्रधानमंत्री ब्रिटेन पहुंचे और इस ख़त की शताब्दी का जश्न मनाया गया. क्यों न हो, क्योंकि इस ख़त के बिना इस्राइल का वजूद शायद मुमकिन न होता. लेकिन दूसरी तरफ फिलिस्तीनियों ने मांग की है कि ब्रिटेन इस ख़त के चलते ही उन पर जो ज़ुल्म फिछले सत्तर बरस से होता आ रहा है, उसके गुनाह में शरीक ठहरता है. और इसके लिए उसे माफी मांगनी चाहिए.
ब्रिटेन में भी बेल्फर के इस ख़त के खिलाफ एक जनमत है. लेकिन ब्रिटेन में इस्राइल के राजदूत कहना है कि जो भी बेल्फर के इस ख़त की आलोचना करता है वह इन्तिहापसंद है, दूसरे शब्दों में दहशतगर्द है. उनका कहना है कि इस ख़त के विरोध का अर्थ है यहूदियों के राष्ट्रीय निवास का विरोध जिसका सीधा मतलब है इस्राइल के अस्तित्व को अमान्य करना. उन्होंने चेतावनी दी कि यही रुख इरान का और हेज्बुल्लाह का भी है.
ब्रिटेन में ही ब्रिटेन के नागरिकों के खिलाफ इस तरह की जुबान के इस्तेमाल पर ब्रिटिश सरकार ने खामोशी साध ली. पत्रकार रॉबर्ट फिस्क ने अपनी सरकार की खामोशी को शर्मनाक बताते हुए कहा कि इस्राइली राजदूत के मुताबिक़ जो भी बेल्फर के इस पत्र का आलोचक है, वह आतंकवादी, यहूदी-विरोधी या नाजी मान लिया जाना चाहिए और उसे हमास का समर्थक घोषित कर दिया जाना चाहिए.
फिस्क ने याद दिलाया की इस पत्र में एक धोखाधड़ी है और वह यह कि यह यहूदियों के राष्ट्रीय निवास की तो बात करता है लेकिन उस वक्त 60000 यहूदियों के मुकाबले 700000 अरब लोगों के राष्ट्र के अधिकार की कोई चर्चा नहीं करता. वे ध्यान दिलाते हैं कि जहां यहूदी लफ्ज़ का इस्तेमाल है, वहीं न तो अरब और न मुसलमान शब्द का कोई उल्लेख इस पत्र में है. उन्हें सिर्फ ‘पहले से मौजूद समुदाय’ कहकर निपटा दिया गया है.
फिस्क पूछते हैं कि क्या यह बेईमानी न थी कि एक तरफ तो ब्रिटेन अपनी ज़मीन से दूर फिलस्तीन में यहूदियों के राष्ट्र की बात कर रहा था, दूसरी ओर खुद रूस और पूर्वी यूरोप से ब्रिटेन में यहूदियों के आने पर पाबंदी लगाने वाला क़ानून बना रहा था ! क्या बेल्फर यह चाहते थे कि ठन्डे और उदास ब्रिटेन की जगह यहूदी गर्म और उजले अरब प्रदेश का आनंद लें!
क्या यह भी सच नहीं कि हिटलर के कहर से बचकर भाग रहे यहूदियों को पनाह देने की उदारता ब्रिटेन ने न दिखाई, बल्कि उनसे पिंड छुड़ाने के लिए उन्हें फिलस्तीन का रास्ता दिखाया?
क्या यह भी सच नहीं कि पारंपरिक रूप से अरब मुसलमान और यहूदी फिलिस्तीन में शांति से रहते आए थे और अरब मुसलमानों ने उन्हें कभी बेदखल करने की कोशिश नहीं की थी. लेकिन यहूदियों ने अरब मुसलमानों की ज़मीन हड़प कर उन्हें खदेड़ने के लिए क्रूरता और हिंसा का लगातार सहारा लिया?
इस्राइल का यह ख्याल है कि फिलिस्तीनी उसके अस्त्तित्व को मिटा देना चाहते हैं और इसलिए आत्मरक्षा में उसे पहले से हमलावर कार्रवाई करने का पूरा अधिकार है. अमरीका के खुले समर्थन के चलते अब तक सीनाजोरी के साथ वह फिलिस्तीनियों की ज़मीन पर कब्जा करता जा रहा है. बावजूद अंतर्राष्ट्रीय जनमत के इसके खिलाफ होने के वह ढिठाई से गाजा पट्टी या पश्चिमी तट पर नई-नई यहूदी बस्तियां बसाता जा रहा है. गाजा पट्टी में रह रहे फिलस्तीनी दूसरे दर्जे के इंसानों की तरह किसी तरह अपनी ज़िंदगी बसर कर रहे हैं. लेकिन इस्राइल से दोस्ती करने को बेताब मुल्क अब उनकी चीख या कराह सुनना नहीं चाहते.
इस्राइल एक अंतर्राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त राष्ट्र है और उसे नक़्शे से मिटाना मुमकिन नहीं. लेकिन वह खुद एक दूसरे राष्ट्र का एक-एक चिह्न मिटाने की जो बेरहमी कर रहा है, क्या वह उसे कभी चैन से बैठने देगी? वह हमेशा ही एक जंग की हालत में रहने को मजबूर है और यह उसने खुद पर ओढ़ा है.
बेल्फर के ऐलान की शतवार्षिकी के मौके पर ब्रिटेन की प्रधानमंत्री ने कहा कि इस ऐलान पर हमें गर्व करना चाहिए. इसके जवाब में फिलिस्तीनी राजनेता हनान अशरावी ने ठीक ही लिखा कि यह ऐलान एक औपनिवेशिक अहंकार का नमूना है जो हजारों मील दूर की भूमि और उस पर रहे लोगों के भाग्य का फैसला करने का अधिकार खुद अपने पास रखता है. इस ऐलान ने यहूदियों के अलावा, जो उस वक्त सिर्फ 11फीसदी थे और जिनकी ज़मीन की मिलकियत 1947 तक सिर्फ सात फीसदी थी, वहां रह रहे मुसलमानों और ईसाईयों को गैर-यहूदी कहकर दूसरे दर्जे पर ढकेल दिया.
बेल्फर के पत्र या ऐलान का विरोध भारत को भी करना ही चाहिए क्योंकि हम उसी ब्रिटिश औपनिवेशिक अहंकार का शिकार रहे हैं, जो फिलिस्तीनियों की विपदा का कारण है. लेकिन आज हम फिलिस्तीन की आज़ादी की चाहत को भूल गए, उसे देखना नहीं चाहते और हथियारबंद इस्राइल के साथ मुस्कराते हुए तस्वीर खिंचाने को बेताब हैं!

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की कबीर साधना - डॉ. शशि पाण्डे

(हजारीप्रसाद द्विवेदी की 'कबीर' मैंने पड़ी थी और उसको आधार बना मैं एक लेख लिख रहा था किन्तु बाद में अहसास हुआ कि शायद 'अनुनाद' पर छपे इस निबंध में वो सबकुछ है जो मैं कहना चाहता था.)

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी को कबीरदास के जटिल व्यक्ति के सच को खोज निकालने का दुरूह और दुष्कर कार्य करने का श्रेय प्राप्त है।
द्विवेदी जी द्वारा सच्चे अर्थों में कबीर की आत्म खोज निकालना किसी आविष्कार से कम नहीं। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ कबीर’ (1971) के रूप में उनके पुनर्जन्म की बात कही है। इस ग्रन्थ के माध्यम से आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने कबीर के बारे में जितना कुछ लिखा है वह कबीर प्रेमियों के लिए महत्वपूर्ण है। कबीर को खोजने व समझने के लिए कबीर बनने की आवश्यकता थीजो मानव-मानव के बीच के कृतिम भेद को मिटा कर जात-पात की दीवारों को तोड़ता तथा बाह्माडम्बर के जाल को तोड़कर इस नश्वर शरीर से ईश्वर के अमृत-रस का पान कर सकताजो आत्म को परमात्मा का दर्शन करानरक को मोक्ष में बदल सकता था।
कबीर के मान के समाने बड़े से बड़ा ज्ञानी भी नतमस्तक है। यही कारण है कि जहाँ एक ओर कबीर समाज में भी लोकप्रिय बने रहंे,वहीं दूसरी ओर सहज बौध्य और सर्वग्राह्म भी बने रहे। कबीर के इस बहुआयामी व्यक्तित्व और उनकी आत्मिक शक्ति के रहस्यों को आचार्य द्विवेदी ने खोज निकाला है।
कबीर की वाणी वह लता है जिससे योग के क्षेत्र में भक्ति का बीज अंकुरित हुआ। कबीर ने कभी अपने ज्ञान को अपने गुरू को और अपनी साधना को कभी सन्देह की नजरों ने नहीं देखा अपने प्रति उनका विश्वास कभी भी डिगा नहीं। वे वीर साधक थेऔर वीरता अखण्ड आत्म विश्वास को अजेय करके ही पनपती है कबीर के लिए साधना एक विकट संग्राम स्थल थी। जहाँ कोई बिरला शूर ही टिक सकता है।1
कबीर निगुर्ण निराकार ब्रह्म को मानते थे इसलिए वे पण्डित या शेख पर आक्रमण करने पर कभी पीछे नहीं रहे। कबीर उस समाज मंे पाले गये जो न तो हिन्दुओं द्वारा समादृर्त था न मुसलमानों द्वारा पूर्णरूप से स्वीकृत कबीर सभी धर्मों को एक समान मानते थे। कबीर की व्यक्तित्व की एक विशेषता यह भी थी वह मस्त मौला स्वभाव के फक्कड़आदत से अवफड भक्त के सामनेभेदधारी के आगे प्रचण्ड,दिल के साफदिमाग के दुरूस्त भीतर से कोमलबाहर से कठोर जन्म से अस्पृश्यकर्म से बन्दनीय थे जो कुछ कहते अनुभव के आधार पर कहते थे।2
द्विवेदी जी ने कबीर में शायक सर्जक का रूप भी देखा होगा अन्यथा उनकी उलटवासियों में वे जीवन दर्शन क्यों ढूॅढतें। वस्तुतः हिन्दी साहित्य के इतिहास में सूर और तुलसी के बाद कबीर साहित्य को उच्च स्थान पर प्रतिष्ठित करने का श्रेय द्विवेदी जी को जाता है। वे अपने बहुचर्चित ग्रन्थ कबीर’ में लिखते हैं- ‘‘कबीरदास का रास्ता उल्टा था। उन्हें सौभाग्य वश सुयोग भी अच्छा मिला थाजितने प्रकार के संस्कार पड़ने के रास्ते हैंवे प्रायः सभी उनके लिए बंद थे। वे मुसलमान होकर भी असल में मुसलमान नहीं थेहिन्दू होकर भी हिन्दू नहीं थे। वे साधु होकर भी साधु नहीं थे। वे वैष्णव होकर भी वैष्णव नहीं थे। योगी होकर भी योगी नहीं थे। वे भगवान की आरे से सबसे न्यारे बनाकर भेजे गये थे।’’ कबीर पर ईश्वर की अति अनुकम्पा रही जिसका उपयोग उन्होंने बखूबी निभाया।3
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का मानना था ‘‘कबीरदास मुसलमान वंश में पैदा होकर भी सत्संग के बल पर हिन्दू शास्त्रीय मातों को इतना जान सके थे। यह सिद्धान्त वस्तुतः किसी दृढ़-प्रमाण पर आधारित नहीं है’’ यह कहना अनुचित है कि कबीरदास सत्संगी नहीं थे,किन्तु हिन्दू धर्म- सम्बन्धी उनका ज्ञान केवल सत्संग के बल पर प्राप्त नहीं किया गया था। परमात्मा-विश्वास-निर्गुण-निराकार की भावनासमाधि-सहजावस्था आदि का सम्पूर्ण ज्ञान उन्हें अपने कुल-परम्परागुरू-परम्परा से प्राप्त थे। कबीर की साखियों का सीधा अर्थ कबीर के आत्म विचार को पहचान दिया है। जब कबीरदास निर्गुण भगवान का स्मरण करते हैं तो उनका उद्देश्य यह होता है कि भगवान के गुणमय शरीर की जो कल्पना की गयी है वह कबीर का मात्र नहीं है।4
कुल-परम्परा से द्विवेदी जी का आशय है कि नीरू और नीमा नामक जुलाहा दम्पत्ति ने कबीर का पालन-पोषण कियावे नाथपंथी योगियों के शिष्य थे। द्विवेदी जी का मानना था कि कबीर मुसलमान होने के बाद न तो जुलाहा जाति अपने पूर्व संस्कार से एक दम मुक्त हो सकी थी और न उसकी सामाजिक मर्यादा बहुत ऊँची हो सकी थी।
द्विवेदी जी के शब्दों में ‘‘कबीर मुसलमान नाम मात्र के ही थे। इस नाथ-भावापन्न साद्योधर्मान्तरित जुलाहा जाति में पालित होने के कारण कबीरदास में नाथपंथी विश्वास सहज रूप में विद्यमान था। उनका मन योगियों के संस्कार से सुसंस्कृत था। उन्हें यौगिक सिद्धान्तों का ज्ञान अपनी धाय-माता से प्राप्त हुआ। कुल-गुरू-परम्परा के सम्बन्ध में द्विवेदी जी का मानना है कि कुल गुरू-परम्परा ईसवी सन् की पहली शताब्दी के अंतिम वर्षों में शुरू होती हैजब सहजमत में बौद्धगान व दोहे लिखे जाते थे। कबीरदास ने बाह्माचारमूलक धर्म की जो आलोचना की है उसकी भी एक सुदीर्ध परम्परा थी। इसी परम्परा को उन्होंने अपने विचार में स्थिर किया।’’5
द्विवेदी जी की दृष्टि में भक्ति ने कबीर को इतना महिमाशाली बना दिया कि वे जन-जन के कण्ठहार बन गए। ऐसी भक्ति-जो न योगियों के पास थी और न सहजयानी सिद्धों के पासन कर्मकाण्डी पण्डितों के पास थी और काजियों के पास। राम और उनकी भक्ति ये कबीर के गुरू रामानन्द की देन है। इन्हीं दो वस्तुओं ने कबीर को योगियों से अलग कर दिया। इन्हीं को पाकर कबीर सबसे अलग सबसे ऊपर हैंऔर सबसे आगे भी।
द्विवेदी जी की दृष्टि में ज्ञान और भक्ति दोनों साथ-साथ चल सकते है और ईश्वरी ज्ञान अर्थात् ईश्वर के बारे में जानने की इच्छा मानव की भक्ति है। कबीर की ज्ञान-भक्ति-भावना पर लोगों ने तरह-तरह के सवाल खड़े किए हैं। लोगों को उत्तर देते हुए कबीर स्वंय लिखते हैं- सतगुरू भक्ति ले आए है।’6
कबीरदास ने आजीवन सम्प्रदायवादब्राहमाचार और बाहरी भेदभाव पर कठोरतम आघात किया था।
माला तिलक निन्दा करे ते परगट जमइत
कहे कबीर विचारिक तेउ राक्षस भूत
द्वादश तिलक बनार्वइअंग-अंग अस्थान
कहे कबीर विराजही उज्जवल हंस समान
कबीर मसूर में गुरू महिमा सउडात।7
          उत्तर भारत में भक्ति मार्ग को रामनन्द ले आये थे और सौभाग्य से उन्हें कबीर जैसा शिष्य मिल गया था। कबीर के अनुयायियों में ये दोहा प्रचालित है-
‘‘भक्ति द्रविड़ ऊपजी लाये रामानन्द
प्रगट किया कबीर सत्प दीप नवखण्ड’’
          द्विवेदी जी का मानना है कि कबीरदास की वाणी वह लता है जो योग के क्षेत्र में भक्ति का बीज पड़ने से अंकुरित हुई थी। द्विवेदी जी ने उनके स्वभाव का बड़ा ही सटीक विवेचन इस प्रकार किया है। ‘‘वे स्वभाव से फक्कड़ थेअच्छा हो या बुराखरा हो या खोटा जिससे एक बार चिपट गयेउससे जिन्दगी पर चिपटे रहे। वे सत्य के जिज्ञासु थे और कोई मोह ममता उन्हें अपने मार्ग से विचलित नहीं कर सकती थी। वे सिर से पेर तक मस्तमौला थे। मस्तजो पुराने कृत्यों का हिसाब नहीं रखतावर्तमान कर्मों को सर्वस्त नहीं समझता और भविष्य में सब कुछ झाड़-फटकार कर निकल जाता है।8
हम घर जारा आपनालिया मुराडा हाथ
अब घर जारो तातु का जाचले हमारा साक
          कबीर की यह घर-फूॅक मस्तीफक्कड़ाना लापरवाही और निर्मम अक्खड़ता उनके अखण्ड आत्म-विश्वास का परिणाम थी। उन्होंने कभी अपने ज्ञान कोअपने गुरू को और अपनी साधना को संदेह की नजरों से नहीं देखा। अपने प्रति उना विश्वास कहीं भी डिगा नहीं वे वीर साधक थे और वीरता अखण्ड आत्मविश्वास का आश्रय करके ही पनपती है।9
          द्विवेदी जी कबीर को अपने युग का सबसे बड़ा क्रान्तिकारी मानते है। वे लिखते हैं- ‘‘सहज सत्य का सहज ढंग से वर्णन करने में कबीरदास अपना प्रतिद्वन्द्वी नहीं जानते। वे मनुष्य बुद्धि को व्याहत करने वाली सभी वस्तुओं को अस्वीकार करने का अपास साहस लेकर उत्पन्न हुए। पण्डितशेखमुनिपीरऔलियाकुरानरोजा-नमाजएकादशीमन्दिर और मस्जिद उन दिनों मनुष्य चित्त को अभिभूत कर बैठे थे। परन्तु वे कबीरदास का मार्ग न रोक सकेंइसलिए कबीर अपने युग के सबसे क्रान्तिदर्शी थे।’’
          आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कबीर की भाषा का सही मूल्यांकन किया है। ‘‘भाषा कबीर का अच्छा अधिकार था। वे वाणी के डिक्टेटर थे। जिस बात को उन्होंने जिस रूप में प्रकट करना चाहा उसे उसी रूप में भाषा से कहलवा लिया। भाषा कुछ कबीर के सामने लाचार-सी नजर आती है उसमें मानें हिम्मत ही नहीं थी कि इस लापरवाह फक्कड़ की किसी फरमाइश को नहीं कर सकें। जैसी ताकत कबीर की भाषा में थीवैसी बहुत कम लेखकों में है। ‘‘कबीर की छनद योजनाउक्ति वैचित्र्य और अलंकार निधान पूर्ण रूप से स्वाभाविक अल्पसाधिक है।10
          द्विवेदी जी ने कबीर में शायद अपने सजृन का रूप देखा होगा अन्यथा उनकी उलटवासियों में वे जीवन दर्शन को क्यों ढूंढते द्विवेदी जी अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ कबीर’ में लिखते है। कबीर का रास्ता उल्टा था उन्हें सौभाग्यवश सयोग भी अच्छा मिला था। जितने प्रकार के संस्कार पड़ने के रास्ते हैवे प्रायः उनके लिए बंद थे। वे मुसलमान होकर भी असल में मुसलमान नहीं थे। हिन्दू होकर भी हिन्दू नहीं थे। वे साधु होकर भी साधु अग्रहस्थ नहीं थेवे वैष्णव होकर भी वैष्णव नहीं थे। योगी होकर भी योगी नहीं थे। वे भगवान की ओर से सबसे न्यारे बनाकर भेजे गये थे। सच्चे अर्थों में कबीर एक मानव थे।11
          द्विवेदी जी ने निर्गुण भक्तिधारा में कबीर की वाणी समाज को नई दिशा देती हैजाति व्यवस्था पर प्रहार करते हुए संत कबीर ने कहा-
जात पात पूछे नहीं कोई
हारे को भजे सो हारे का होई
कर्मकाडों के विरूद्ध संतों के निर्भीक स्वर उपजे कबीर की दृष्टि यहाँ समविष्टनिष्ठ की अपेक्षा व्यक्तिनिष्ठ अधिक दिखाई पड़ती हैं वह संसार को खाता-पीता तथा सुखी देखकर ईष्र्या नहीं करता वह सत्य दुःख में रात-रात भर जागता हैरोता है। वह कार्ल माक्र्स की तरह किसी रक्त रंजित क्रान्ति की बात नहीं करता और न श्रम को मृत पूॅजी मानता है वह भारतीय समतवादी दर्शन के परिप्रेक्ष्य में संतोष धन को गले लगाकर बोल उठता हैं।
गोधन गण धन वाणि धन और रतन धन खान
जब आवै संतोष धन सब धन धूरि समान
          कबीर प्रगतिशील वाणी न किसी पूँजीपति को ललकारती है और न किसी के आगे गिड़गिडाती है व जन सामान्य को लालच से बचने के लिए प्रेरित करती है।
          द्विवेदी जी का आलोचना ग्रन्थ ‘‘कबीर’’ स्पष्ट करता है कि कबीर मानव के द्वारा बनाये गये भेदों के बीच भी मानवीय रूप ही स्थापित करना चाहते थे। उन्होंने अपने संवादों में मानवीय एकता का बीज बोया हैजो पल्लवित पुष्पित होकर विश्व को मानवता की भावना से ओत-प्रोत करने में समर्थ है।
          द्विवेदी जी ने जिस तन्मयताऔर अध्यवसाय के स्वरूप कबीर के सम्पूर्ण व्यक्तित्व प्रस्तुतीकरण किया हैवह एक प्रकार की कबीर साधना है।


(डॉ. शशि पाण्डे)
हिन्दी विभाग
डी0एस0बी0 परिसर
नैनीताल
सन्दर्भ सूची
1.       हजारी प्रसाद द्विवेदी ग्रन्थावली- 04, संपादक- मुकन्द द्विवेदीराजकमल प्रकाशनपृ0- 391
2.       वहीपृ0- 325-328
3.       वहीपृ0- 287
4.       वहीपृ0- 202
5.       वहीपृ0- 206
6.       वहीपृ0- 210-211
7.       वहीपृ0- 319
8.       कबीर मंसूर में गुरू महिमा से उद्धत (पृ0- 1363), द्विवेदी ग्रन्थावलीपृ0- 211
9.       वहीपृ0- 321
10.     वहीपृ0- 366
11.     हजारी प्रसाद द्विवेदी और उनका रचना संसारडॉ. श्याम सिंह शशि के आलेख पृ0- 1
12.     वहीपृ0- 3