हर शब जब कोई करीब नहीं रहता तो कुछ सबब रहते हैं पास....कुछ ख्याल और इक मिरी परछाई....खोजते खोजते उससे ही बतिया लेता हूँ....कितने लोग शैतान से लड़े और याद बन गये....कभी खुद से भी लड़े होते तो शायद शैतान से न लड़ना पड़ता. अपने से बतियाना बड़ा मुश्किल है....अपने से लड़ना उससे भी ज्यादा.
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ज़िन्दगी 'इकॉनोमी' है तो
कुल सत्तर लोग कमाए हैं
मैंने कब्र तक चलने बाले.
देखो, कुछ कम तो नहीं!
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देखो हर दरख़्त के पीछे
एक नज़्म टिका के
रखी है मैंने.
रास्ता भूल जाओ तो
थाम के आ जाना.
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इस बार लिफ़ाफ़े में
रूह ही रख भेजी है.
अब मत कहना
मैं 'लेटर' नहीं लिखता.
पढ़ लो, जितना पढ़ पाओ.
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रात बड़ी काली सी है,
मेरा चाँद मुआं जाने कहाँ छुपा है.
तू आ जा,
बड़े दिन हुए यहाँ चांदनी नही खिली.
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अलमारी पे चिपका रखी थी
तेरी 'फोटू',
आज लौटा तो फर्श पे मिली पड़ी.
कुछ हुआ क्या?
तेरे अरमां भी जमीदोंज हुए क्या?
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ये नज़्म, ये शायरी, तेरा क्या?
लहू बहा मेरा, तेरा क्या?
अपने से मत पूछना ये सब.
तेरी नम आँखें अच्छी नहीं लगती.
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अक्सर ये हो जाता है,
तू साथ नहीं होती तो
मेरा वजूद,
मुझसे अपनी पहचान पूछ जाता है.
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शैतानियत बनाई थी ख़ुदा ने,
अब उलझा है
शैतान नर्क में धकेलने.
कुछ तो अपने कामों में
'परफेक्शन' ला खुदा!
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देश मुझे लगे अबला,
जिसपर
रातभर मनमानी किया,
सुबह नेता चिल्लाता उठा-
जम्हूरियत है, जम्हूरियत है, जम्हूरियत है!!