Sunday, November 20, 2016

बजट में बदलाव की बारी | DP Singh

सरकार बजट में बड़े बदलाव की तैयारी में जुटी है। सबसे महत्त्वपूर्ण परिवर्तन इसके समय से जुड़ा है। केंद्र सरकार फरवरी के बजाय जनवरी में बजट पेश करना चाहती है, जिसके लिए संसद का सत्र करीब एक माह पूर्व बुलाने की तैयारी की जा रही है। दूसरा बदलाव रेल बजट का आम बजट में विलय है। इस संबंध में वित्तमंत्री अरुण जेटली बाकायदा घोषणा कर चुके हैं। तीसरा बड़ा बदलाव आगामी वित्तवर्ष (2017-18) से वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) लागू करना है। सरकार के अनुसार इन तीनों कदमों से वित्तीय अनुशासन बढ़ेगा, जिससे अर्थव्यवस्था में और प्राण फूंके जा सकेंगे।
अगले साल के शुरू में होने वाले उत्तर प्रदेश, पंजाब व गुजरात विधानसभा चुनावों की तिथि का पता चलने के बाद ही बजट की सही-सही तारीख घोषित की जाएगी। वैसे सरकार एक फरवरी को आम बजट और उससे एक दिन पहले आर्थिक समीक्षा रिपोर्ट पेश करना चाहती है। इस बारे में जल्दी ही संसदीय मामलों की कैबिनेट समिति में चर्चा होगी और फिर लोकसभा अध्यक्ष से विचार-विमर्श किया जाएगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी किसी भी सूरत में इकतीस मार्च तक बजट पारित करना चाहते हैं, ताकि नया वित्तवर्ष (एक अप्रैल) शुरू होते ही अमल शुरू हो जाए। आशा है इस बार केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय (सीएसओ) सन 2016-17 के सकल घरेलू उत्पाद से जुड़े अग्रिम अनुमानित आंकड़े सात जनवरी तक जारी कर देगा। नीति आयोग के सदस्य विवेक देबरॉय और किशोर देसाई की समिति ने आम बजट में रेल बजट के विलय की सिफारिश की थी।
वित्तवर्ष अप्रैल-मार्च के बजाय जनवरी-दिसंबर करने और बजट फरवरी की जगह जनवरी में रखने की मांग पिछले एक दशक से की जा रही है। कई राज्य सरकारें भी यह मांग कर चुकी हैं। ब्रिटिश राज में तय किया गया बजट कार्यकाल, उसे पेश करने का महीना और तारीख अब तक चली आ रही है। परंपरा के अनुसार केंद्रीय बजट फरवरी के अंतिम कार्य दिवस पर सुबह 11 बजे लोकसभा में पेश किया जाता है। वर्ष 2000 तक इसे पेश करने का समय शाम पांच बजे था, जो अंग्रेजों ने अपनी सुविधानुसार तय किया था, क्योंकि जब हिंदुस्तान में शाम के पांच बजते हैं तब ब्रिटेन में दोपहर होती है। बतौर वित्तमंत्री यशवंत सिन्हा ने 2001 में पहली बार सुबह 11 बजे लोकसभा में बजट रखा था। अब अगले साल से इसका माह बदलने की तैयारी हो रही है।
फिलहाल दुनिया में बजट दो तरीके से पारित होते हैं। पहली प्रक्रिया तय वित्तवर्ष से काफी पहले शुरू हो जाती है और इसके चालू होने तक समाप्त हो जाती है। करीब पचासी फीसद विकसित देशों ने यह विधि अपना रखी है। अमेरिका में वित्तवर्ष शुरू होने से करीब आठ महीने पहले बजट पेश कर दिया जाता है जबकि जर्मनी, डेनमार्क, नार्वे में चार तथा फ्रांस, जापान, स्पेन, दक्षिण कोरिया में तीन माह पूर्व बजट पेश करना जरूरी है। वहां के संविधान में बाकायदा इसका उल्लेख है। इन देशों की संसद में बजट पर लंबी चर्चा चलती है। चर्चा के दौरान सरकार को अपने हर खर्चे और कर-प्रस्ताव पर स्पष्टीकरण देना पड़ता है। इन मुल्कों के जीवंत लोकतंत्र का सबसे बड़ा प्रमाण यह बजट प्रक्रिया है। वैसे भी माना जाता है कि जहां संसद पर सरकार हावी होती है वहां किसी भी मुद््दे पर बहस के लिए कम वक्त दिया जाता है, और जहां संसद मजबूत होती है वहां जन-प्रतिनिधि सरकार के प्रत्येक प्रस्ताव की लंबी और कड़ी पड़ताल करते हैं।
दूसरी प्रक्रिया में वित्तवर्ष के दौरान ही बजट पारित किया जाता है। ब्रिटेन, कनाडा, भारत और न्यूजीलैंड इस श्रेणी में आते हैं। भले ही भारत में वित्तवर्ष शुरू होने से करीब एक महीना पहले, फरवरी माह में बजट लोकसभा में पेश कर दिया जाता है, पर पारित तो मई के मध्य तक ही होता है। नियमानुसार पेश करने के पचहत्तर दिनों के भीतर बजट पर संसद की मोहर लगना जरूरी है। सरकार अप्रैल से मई के बीच लेखानुदान के जरिये अपना खर्च चलाती है। यह रकम उसकी कुल व्यय-राशि का लगभग सत्रह फीसद होती है। बजट पास होते-होते वित्तवर्ष के दो महीने निकल जाते हैं। फिर विभिन्न मंत्रालय नई योजनाओं पर अमल की रूपरेखा बनाते हैं, जिनकी मंजूरी और पैसा आने में करीब तीन महीने और लग जाते हैं। इसके बाद ही कायदे से धन मिलना शुरू होता है। तब तक बरसात का मौसम शुरू हो जाता है, जिससे इन्फ्रास्ट्रक्चर योजनाओं पर खर्च दो-तीन महीने और टल जाता है। अनावश्यक देरी के कारण अधिकांश योजनागत व्यय वित्तवर्ष की अंतिम छमाही (अक्तूबर-मार्च) में हो पाते हैं, जिस कारण कई बार मंजूर राशि खर्च नहीं हो पाती है। इस कमजोरी का असर विकास और जन-कल्याण से जुड़े कार्यक्रमों पर पड़ता है।
भारत में बजट व्यवस्था पहली बार 7 अप्रैल, 1860 को अंग्रेजों ने लागू की थी। आजाद हिंदुस्तान का पहला बजट आरके षन्मुखम चेट्टी ने 26 नवंबर, 1947 को पेश किया। उसके बाद अस्सी से ज्यादा बजट आ चुके हैं, पर समय शाम पांच से बदल कर सुबह ग्यारह बजे करने के अलावा उसमें कोई अन्य उल्लेखनीय परिवर्तन नहीं हुआ है। संविधान का अनुच्छेद-112 बजट से जुड़ा है, जिसमें बजट शब्द की जगह इसे सरकार की अनुमानित वार्षिक आय और व्यय का लेखा-जोखा कहा गया है। बजट के समय और वर्ष के विषय में संविधान मौन है, इसलिए उन्हें बदलने के लिए सरकार को संसद की मंजूरी की आवश्यकता नहीं है। हां, जब से बदलाव की बात निकली है तब से कुछ पार्टियों ने सर्वदलीय बैठक बुलाने की मांग जरूर जड़ दी है। वैसे कांग्रेस सहित अनेक पार्टियां बजट जनवरी में पेश करने के सुझाव से सहमत हैं। सरकार ने साफ कर दिया है कि फिलहाल वित्तवर्ष बदलने का उसका कोई इरादा नहीं है। इसके लिए पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार शंकर आचार्य के नेतृत्व में एक समिति गठित की जा चुकी है, जिसकी रिपोर्ट इकतीस दिसंबर तक आने की उम्मीद है। सरकार उसके बाद ही कोई फैसला लेगी। उधर केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड (सीबीडीटी) भी जल्द बजट पारित करने के पक्ष में है। उसके अनुसार इससे वित्तवर्ष शुरू होते ही बजट के मुताबिक पैसा खर्च होगा और सरकार को लेखानुदान की जरूरत नहीं पड़ेगी।
दावा किया जा रहा है कि केंद्र का भावी बजट हमारे संघीय स्व
रूप का दर्पण होगा। राज्यों को खर्च के मामले में अधिक स्वायत्तता और स्वंत्रता मिलेगी। वैसे चौदहवें वित्त आयोग की सिफारिश के अनुसार केंद्र सरकार के करों में राज्यों की हिस्सेदारी दस फीसद बढ़ा दी गई है। आयोग की सिफारिशों पर वित्तवर्ष 2015-16 से अमल भी चालू हो गया, पर केंद्र की होशियारी से अधिकतर राज्यों को फायदे के बजाय नुकसान ही हुआ है।
केंद्र ने राज्यों की कर-हिस्सेदारी जरूर दस प्रतिशत बढ़ा दी, लेकिन बदले में केंद्र प्रायोजित योजनाओं (सीएसएस) के मद में कटौती कर दी। उसका तर्क है कि वित्त आयोग ने करों में राज्यों की हिस्सेदारी बढ़ाने की बात जरूर की, लेकिन राज्यों को केंद्र से मिलने वाली वित्तीय मदद में विशुद्ध इजाफे की सिफारिश नहीं की है। केंद्र सरकार ने इसी कमजोरी का लाभ उठाया। हालत यह बनी कि वित्तवर्ष 2015-16 में सात सूबों को केंद्र से एक साल पहले के मुकाबले कम रकम मिली। विशुद्ध प्राप्ति की प्रगति तो लगभग हर राज्य में थम-सी गई है। ऐसे में यदि वे अपने ग्रामीण विकास बजट में कटौती करते हैं, तो उन्हें अकेला दोषी कैसे ठहराया जा सकता है? यदि केंद्र ने सच्ची नीयत का परिचय नहीं दिया तब उसके लिए जीएसटी लागू करना भी आसान नहीं होगा।
आज भारत के जीडीपी के मुकाबले कुल कर-संग्रह का अनुपात सत्रह फीसद है। इसमें केंद्र सरकार की हिस्सेदारी लगभग दस प्रतिशत है। घरेलू बचत लगभग 7.6 फीसद है। ऊपर से घाटे को तयशुदा सीमा (3.5 प्रतिशत) में रखने का दबाव भी है। बात यहीं समाप्त नहीं हो जाती। सरकार की आय का करीब चालीस फीसद पैसा उधार पर ब्याज चुकाने में चला जाता है। ऊपर से कर-आय का करीब 5.8 लाख करोड़ रुपया मुकदमों के कारण फंसा पड़ा है, जिसे उगाहने के लिए वित्तमंत्री ने छूट दी है। कॉरपोरेट टैक्स घटा कर भी एक कमी की गई है। सरकार किसानों के कल्याण के बड़े-बड़े दावे जरूर करती है, पर दावों और हकीकत में भारी अंतर है।
अब बजट के समय ही नहीं, स्वभाव में भी परिवर्तन का प्रयास हो रहा है। भविष्य में योजनागत और गैर-योजनागत खर्च के स्थान पर ‘कैपिटल ऐंड रिवेन्यू एक्सपेंडिचर’ शीर्षक के तहत समस्त व्यय का बंटवारा होगा। आय के बजाय व्यय पर ज्यादा जोर रहेगा। जीएसटी लागू हो जाने से सेवा कर, उत्पाद कर और उप-कर (सेस) जैसे सभी करों का विलय हो जाएगा। इससे बजट में अप्रत्यक्ष कर का विवरण घट जाएगा, बजट सरल होगा और राज्यों को उनके हिस्से की रकम समय पर मिल जाएगी। बजट तैयार करने में कम से कम चार-पांच माह लग जाते हैं। यदि मोदी सरकार अगले वर्ष जनवरी माह में बजट पेश करना चाहती है, तो उसे इसकी तैयारी तुरंत शुरू करनी पड़ेगी। बजट सत्र फरवरी के बजाय जनवरी के तीसरे हफ्ते में बुलाने के लिए संसद को विश्वास में लेना पड़ेगा। साथ ही शीतकालीन सत्र की तारीख भी पहले सरकानी होगी। ये सारे निर्णय लंबे समय तक लटका कर रखने की गुंजाइश नहीं बची है।

अंतरिक्ष बाज़ार में हमारा दमखम

अंतरिक्ष के क्षेत्र में एक बार फिर इतिहास रचते हुए इसरो ने पीएसएलवी सी-35 के ज़रिए दो अलग-अलग कक्षाओं में सफलतापूर्वक आठ उपग्रह स्थापित कर दिए। दो घंटे से अधिक के इस अभियान को पीएसएलवी का सबसे लंबा अभियान माना जा रहा है। यह पहली बार है जब पीएसएलवी ने अपने पेलोड दो अलग-अलग कक्षाओं में स्थापित किये। महासागर और मौसम के अध्ययन के लिए तैयार किये गये स्कैटसैट-1 और सात अन्य उपग्रहों को लेकर पीएसएलवी सी-35 ने सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र से उड़ान भरी थी।
स्कैटसैट-1 के अलावा सात उपग्रहों में अमेरिका और कनाडा के उपग्रह भी शामिल हैं। इसरो का 44.4 मीटर लंबा पीएसएलवी रॉकेट आईआईटी मुंबई का प्रथम और बेंगलुरू बीईएस विश्वविद्यालय एवं उसके संघ का पीआई सैट उपग्रह भी साथ लेकर गया था। प्रथम का उद्देश्य कुल इलेक्ट्रॉन संख्या का आकलन करना है जबकि पीआई सैट अभियान रिमोट सेंसिंग अनुप्रयोगों के लिए नैनो सैटेलाइट के डिजाइन एवं विकास के लिए है।
अभी ज्यादा दिन नहीं हुए जब जून में इसरो ने भारत के अंतरिक्ष इतिहास में पहली बार एक साथ 20 सैटेलाइट लॉन्च करके इतिहास रच दिया था। इसमें तीन स्वदेशी और 17 विदेशी सैटेलाइट शामिल थे। इसरो ने इससे पहले वर्ष 2008 में 10 उपग्रहों को पृथ्वी की विभिन्न कक्षाओं में एक साथ प्रक्षेपित किया था। हाल में ही स्वदेशी स्पेस शटल की सफ़ल लांचिंग के बाद दुनिया भर में भारतीय अंतरिक्ष एजेंसी इसरो की धूम मची है। इस सफलता ने 200 अरब डालर की अंतरिक्ष मार्केट में भी हलचल पैदा कर दी है क्योंकि बेहद कम लागत की वजह से अधिकांश देश अपने उपग्रहों का प्रक्षेपण करवाने के लिए भारत का रुख करेंगे। अब समय आ गया है जब इसरो व्यावसायिक सफ़लता के साथ-साथ अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा की तरह अंतरिक्ष अन्वेषण पर भी ज्यादा ध्यान दे। इस काम के लिए सरकार को इसरो का सालाना बजट भी बढ़ाना पड़ेगा जो नासा के मुकाबले काफ़ी कम है। भारी विदेशी उपग्रहों को अधिक संख्या में प्रक्षेपित करने के लिए अब हमें पीएसएलवी के साथ-साथ जीएसएलवी रॉकेट का भी उपयोग करना होगा।
शशांक द्विवेदी
शशांक द्विवेदी
अंतरिक्ष बाजार में भारत के लिए संभावनाएं बढ़ रही हैं। इसने अमेरिका सहित कई बड़े देशों का एकाधिकार तोड़ा है। असल में, इन देशों को हमेशा यह लगता रहा है कि भारत यदि अंतरिक्ष के क्षेत्र में इसी तरह से सफ़लता हासिल करता रहा तो उनका न सिर्फ उपग्रह प्रक्षेपण के क़ारोबार से एकाधिकार छिन जाएगा बल्कि मिसाइलों की दुनिया में भी भारत इतनी मजबूत स्थिति में पहुंच सकता है कि बड़ी ताकतों को चुनौती देने लगे। पिछले दिनों दुश्मन मिसाइल को हवा में ही नष्ट करने की क्षमता वाली इंटरसेप्टर मिसाइल का सफल प्रक्षेपण इस बात का सबूत है कि भारत बैलेस्टिक मिसाइल रक्षा तंत्र के विकास में भी बड़ी कामयाबी हासिल कर चुका है। दुश्मन के बैलेस्टिक मिसाइल को हवा में ही ध्वस्त करने के लिए भारत ने सुपरसोनिक इंटरसेप्टर मिसाइल बना कर दुनिया के विकसित देशों की नींद उड़ा दी है।
अब पूरी दुनिया में सैटेलाइट के माध्यम से टेलीविजन प्रसारण, मौसम की भविष्यवाणी और दूरसंचार का क्षेत्र बहुत तेजी से बढ़ रहा है और चूंकि ये सभी सुविधाएं उपग्रहों के माध्यम से संचालित होती हैं, इसलिए संचार उपग्रहों को अंतरिक्ष में स्थापित करने की मांग में बढ़ोतरी हो रही है। हालांकि इस क्षेत्र में चीन, रूस, जापान आदि देश प्रतिस्पर्धा में हैं, लेकिन यह बाजार इतनी तेजी से बढ़ रहा है कि यह मांग उनके सहारे पूरी नहीं की जा सकती। ऐसे में व्यावसायिक तौर पर भारत के लिए बहुत संभावनाएं हैं। कम लागत और सफलता की गारंटी इसरो की सबसे बड़ी ताकत है।
अब अमेरिका भी अपने सैटेलाइट लांचिंग के लिए भारत की मदद ले रहा है जो अंतरिक्ष बाजार में भारत की धमक का स्पष्ट संकेत है। अमेरिका 20वां देश है जो कमर्शियल लांच के लिए इसरो से जुड़ा है। भारत से पहले अमेरिका, रूस और जापान ने ही स्पेस ऑब्जर्वेटरी लांच किया है। वास्तव में नियमित रूप से विदेशी उपग्रहों का सफल प्रक्षेपण ‘भारत की अंतरिक्ष क्षमता की वैश्विक अभिपुष्टि’ है।
इसरो द्वारा 57 विदेशी उपग्रहों के प्रक्षेपण से देश के पास काफी विदेशी मुद्रा आई है। इसके साथ ही लगभग 200 अरब डालर के अंतरिक्ष बाजार में भारत एक महत्वपूर्ण देश बनकर उभरा है। चांद और मंगल अभियान सहित इसरो अपने 100 से ज्यादा अंतरिक्ष अभियान पूरे करके पहले ही इतिहास रच चुका है। पहले भारत 5 टन के सैटेलाइट लांचिंग के लिए विदेशी एजेंसियों को 500 करोड़ रुपये देता था, जबकि अब इसरो पीएसएलवी से सिर्फ 200 करोड़ में लांच कर देता है। 19 अप्रैल, 1975 में स्वदेश निर्मित उपग्रह ‘आर्यभट्ट’ के प्रक्षेपण के साथ अपने अंतरिक्ष सफर की शुरुआत करने वाले इसरो की यह सफलता भारत की अंतरिक्ष में बढ़ते वर्चस्व की तरफ इशारा करती है। इससे दूरसंवेदी उपग्रहों के निर्माण व संचालन में वाणिज्यिक रूप से भी फायदा पहुंच रहा है। अमेरिका की फ्यूट्रान कॉरपोरेशन की एक शोध रिपोर्ट भी बताती है कि अंतरिक्ष जगत के बड़े देशों के बीच का अंतर्राष्ट्रीय सहयोग रणनीतिक तौर पर भी सराहनीय है। इससे बड़े पैमाने पर लगने वाले संसाधनों का बंटवारा हो जाता है। खासतौर पर इसमें होने वाले भारी खर्च का भी।
भविष्य में अंतरिक्ष में प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी क्योंकि यह अरबों डालर की मार्केट है। भारत के पास कुछ बढ़त पहले से है, इसमें और प्रगति करके इसका बड़े पैमाने पर वाणिज्यिक उपयोग संभव है। कुछ साल पहले तक फ्रांस की एरियन स्पेस कंपनी की मदद से भारत अपने उपग्रह छोड़ता था, पर अब वह ग्राहक के बजाय साझीदार की भूमिका में पहुंच गया है। यदि इसी तरह भारत अंतरिक्ष क्षेत्र में सफलता प्राप्त करता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब हमारे यान अंतरिक्ष यात्रियों को चांद, मंगल या अन्य ग्रहों की सैर करा सकेंगे।
भारत अंतरिक्ष विज्ञान में नई सफलताएं हासिल कर विकास को अधिक गति दे सकता है। इसरो उपग्रह केंद्र, बेंगलुरु के निदेशक प्रोफेसर यशपाल के मुताबिक दुनिया का हमारी स्पेस टेक्नोलॉजी पर भरोसा बढ़ा है तभी अमेरिका सहित कई विकसित देश अपने सैटेलाइट की लांचिंग भारत से करा रहे हैं। इसरो के मून मिशन, मंगल अभियान के बाद स्वदेशी स्पेस शटल की कामयाबी इसरो के लिए संभावनाओं के नये दरवाजे खोल देगी, जिससे भारत को निश्चित रूप से बहुत फ़ायदा पहुंचेगा।

सफाई के लिए संकल्प की जरूरत | ममता सिंह

स्वच्छ भारत अभियान शहरों और गांवों की सफाई के लिए शुरू किया गया है। बेशक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वच्छ भारत अभियान को लेकर संजीदा हैं, पर राज्य सरकारें और प्रशासन तंत्र अब भी बेपरवाह बने हुए हैं। करीब दो साल का सफर स्वच्छ भारत अभियान पूरा कर चुका है। शुरुआती दौर में कई नामी-गिरामी लोगों और राजनेताओं ने जिस तरह गली-मुहल्लों में झाडू लेकर सफाई की, उससे एकबारगी ऐसा लगा कि यह अभियान अपने मकसद में पूरी तरह कामयाब होगा। पर विडंबना है कि देश के कई गली-मुहल्ले कूड़े करकट के ढेर से अंटे पड़े हैं। कई स्थानों पर सरकार की ओर से कूड़ेदान की व्यवस्था तक नहीं की गई है। मलेरिया, डेंगू और चिकनगुनिया जैसी बीमारियों के फैलने से यह बात शत-प्रतिशत सिद्ध होती है कि अब भी स्वच्छ भारत अभियान की रफ्तार काफी धीमी है। ऐसा भी नहीं कि स्वच्छ भारत अभियान पूरी तरह शिथिल पड़ गया है, लेकिन इसकी रफ्तार पर सवाल जरूर उठ रहे हैं। इस अभियान को और ज्यादा गति प्रदान करने की जरूरत है।
बीते दो साल के दौरान देश के कई हिस्सों में स्वच्छता अभियान को सफलता मिली है। सर्वेक्षण रैंकिंग में मैसूर को पहला स्थान मिला है। 9.3 लाख की जनसंख्या वाले मैसूर से 402 टन ठोस कचरा रोज निकलता है। जागरूकता की वजह से ही यहां के सभी पैंसठ वार्ड खुले में शौच से मुक्त घोषित किए जा चुके हैं। मैसूर की तरह ही दिल्ली और मुंबई जैसे बड़े शहरों को भी सबक लेना चाहिए चाहिए। दिल्ली में डेंगू और चिकनगुनिया फैला ही है, मुंबई में तो टीबी का प्रकोप भी बढ़ा है। उत्तराखंड के नब्बे शहरी निकायों में कुल 706 वार्ड हैं, जहां 195 वार्डों में शत-प्रतिशत घर-घर कूड़ा इकट्ठा किया जा रहा है, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में और ज्यादा इस दिशा में ध्यान केंद्रित करने की जरूरत है। बिहार, उत्तरप्रदेश, राजस्थान और गुजरात जैसे राज्यों को भी इस मिशन को सफल बनाने के लिए तत्काल प्रभाव से एक सशक्त खाका बनाने की आवश्यकता है। इन राज्यों में योजनाएं तो बनी हैं, लेकिन उन पर अमल अभी बाकी है। महज खाका बनाने से यह मिशन कामयाब नहीं हो पाएगा।
इस अभियान को सफल बनाने के लिए नौकरशाही को आंकड़ों में उलझाने वाले काम बंद कर देना चाहिए। सशक्त रणनीति के तहत काम करना चाहिए। यूपीए शासन के दौरान निर्मल भारत अभियान शुरू हुआ था। मोदी सरकार में निर्मल भारत अभियान का नाम बदल कर स्वच्छ भारत अभियान कर दिया। प्रधानमंत्री की अगुआई में इस अभियान को देश भर में शुरू किया गया। इसके तहत 2019 तक 9 करोड़ 8 लाख यानी प्रति मिनट छियालीस शौचालय बनाने का लक्ष्य तय किया गया। पर नौकरशाही द्वारा पेश किए गए आंकड़े बताते हैं कि 2014-15 के दौरान प्रति मिनट ग्यारह शौचालय ही बनाए गए हैं। इसका मतलब साफ है कि इसी रफ्तार से काम चलता रहा तो 2032 के पहले यह लक्ष्य हासिल नहीं हो पाएगा।
सरकारी रिपोर्ट के मुताबिक, निर्मल भारत अभियान के तहत 2001 से 2010 तक ढाई सौ अरब रुपए आबंटित किए गए, लेकिन सच्चाई यह है कि इस पर मात्र एक सौ पंद्रह अरब रुपए खर्च हो पाए हैं। सरकारी आंकड़ों में केवल इस बात पर जोर दिया जाता है कि कितने शौचालय बनाए गए हैं। निगरानी नहीं की जाती। नियंत्रक और महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट के मुताबिक, निर्मल भारत अभियान के तहत छत्तीसगढ़ में बनाए गए शौचालयों में से साठ फीसद, राजस्थान में पैंसठ फीसद और बिहार में अड़सठ फीसद बेकार पड़े हुए हैं। इनमें पानी पहुंचाने के इंतजाम नहीं हैं। स्वच्छता पर शोध करने वाली एक संस्था ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि बिहार, हरियाणा, मध्यप्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश में उनचास फीसद घरों में शौचालय होने के बावजूद कम से कम दो व्यक्ति खुले में शौच जरूर करते हैं।
स्वच्छ भारत अभियान को सफल बनाने के लिए एक लाख छियानबे हजार नौ करोड़ रुपए की मंजूरी मिली है। इस अभियान को 2019 में पूरा करने का लक्ष्य रखा गया है। इस महत्त्वपूर्ण अभियान में शहरी विकास मंत्रालय, ग्रामीण विकास मंत्रालय, पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय, राज्य सरकार, गैर-सरकारी संगठन, सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम और निगमों आदि को शामिल किया गया है। इस दौरान पूरे देश में बारह करोड़ शौचालय बनाए जाएंगे। दरअसल, इस अभियान द्वारा भारत को पांच साल में गंदगी मुक्त देश बनाने का लक्ष्य है। इसके अंतर्गत ग्रामीण व शहरी इलाकों में सामुदायिक और सार्वजनिक शौचालय बनाना और पानी की आपूर्ति करना, सड़कें, फुटपाथ, बस्तियां साफ रखना और अपशिष्ट जल को स्वच्छ करना भी शामिल है। शहरी विकास मंत्रालय ने स्वच्छ भारत अभियान के लिए बासठ हजार करोड़ रुपए आबंटित किए हैं। शहरी क्षेत्र में हर घर में शौचालय बनाने, सामुदायिक और सार्वजनिक शौचालय बनाने, ठोस कचरे का उचित प्रबंधन करने के साथ ही देश के चार हजार इकतालीस वैधानिक कस्बों के एक करोड़ चार लाख घरों को इस अभियान में शामिल करने का लक्ष्य है। ढाई लाख से ज्यादा सामुदायिक शौचालयों के निर्माण की योजना उन रिहायशी इलाकों में की गई है, जहां व्यक्तिगत घरेलू शौचालय की उपलब्धता मुश्किल है। इसी तरह बस अड्डे, रेलवे स्टेशन, बाजार आदि जगहों पर ढाई लाख से ज्यादा सार्वजनिक शौचालयों के निर्माण की योजना है।
ग्रामीण विकास मंत्रालय और पेयजल एवं स्वच्छता मंत्रालय के पास ग्रामीण इलाकों में स्वच्छ भारत अभियान की जिम्मेदारी है। देश में करीब ग्यारह करोड़ ग्यारह लाख शौचालयों के निर्माण के लिए एक लाख चौंतीस हजार करोड़ रुपए खर्च किए जा रहे हैं। इसके तहत ग्रामीण इलाकों में ग्रामीण विकास मंत्रालय हर गांव को 2019 तक हर साल बीस लाख रुपए देगा। सरकार ने हर परिवार में व्यक्तिगत शौचालय की लागत बारह हजार रुपए तय की है, ताकि सफाई, नहाने और कपड़े धोने के लिए पर्याप्त पानी की आपूर्ति की जा सके।
ऐसे शौचालय के लिए केंद्र सरकार की तरफ से मिलने वाली सहायता नौ हजार रुपए और इसमें राज्य सरकार का योगदान तीन हजार रुपए निर्धारित किया गया है। इस योजना के अंतर्गत जम्मू-कश्मीर, पूर्वोत्तर के राज्य और विशेष दर्जा प्राप्त राज्यों को मिलने वाली केंद्रीय सहायता राशि दस हजार आठ सौ रुपए होगी और राज्य सरकारों का योगदान बारह सौ रुपए होगा।  अगर पूरे देश में स्वच्छ भारत अभियान की स्थिति पर नजर डालें तो ज्यादातर क्षेत्रों में स्थिति बेहतर है। गुजरात में दिसंबर, 2015 तक 327,880 शौचालय बन चुके थे। मध्यप्रदेश और आंध्र प्रदेश में भी अभियान की स्थिति काफी बेहतर है। दिल्ली और उत्तराखंड में घरों के साथ शौचालय बनाने की तादाद बढ़ी है।
2014-15 के दौरान सभी प्रदेशों और केंद्र शासित प्रदेशों को करीब आठ सौ करोड़ रुपए जारी किए गए। इस दौरान करीब दो लाख व्यक्तिगत घरेलू शौचालयों के अलावा बारह सौ सार्वजनिक शौचालय बनाए गए।
पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय के तहत समय-समय पर स्वच्छ भारत मिशन-ग्रामीण कार्यक्रम की समीक्षा की जाती है। 2014-15 में अट्ठावन लाख चौवन हजार नौ सौ सत्तासी शौचालय बनाए, जो लक्ष्य से ज्यादा रहा। 2015-16 के दौरान अब तक 127.41 लाख शौचालय तैयार हो चुके हैं जो लक्ष्य से ज्यादा है। 2016-17 के लिए डेढ़ करोड़ व्यक्तिगत शौचालय बने, जिनमें 33 लाख 19 हजार 451 यानी 22.13 प्रतिशत एक अगस्त 2016 तक तैयार हो चुके हैं।  राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन के अध्ययन के मुताबिक, 2015-16 के नवंबर माह तक पूरे देश में एक करोड़ नौ लाख शौचालय बनाए गए। पर ग्रामीण क्षेत्रों में करीब 52.1 फीसद लोगों ने इसके इस्तेमाल के प्रति रुचि नहीं दिखाई। हालांकि शहरों में महज 7.5 फीसद लोग खुले में शौच के लिए जाते हैं। लेकिन यह आंकड़ा भी चिंताजनक है और न सिर्फ स्वच्छ भारत अभियान, बल्कि देश की प्रगति के लिए एक बड़ी चुनौती है।
इसी तरह स्वच्छ भारत मिशन की स्वच्छ स्टेटस रिपोर्ट-2016 के अनुसार, ग्रामीण क्षेत्रों में 1 अप्रैल, 2015 से 29 फरवरी, 2016 तक कुल अट्ठानबे लाख चौंसठ हजार शौचालय बनाए गए, जबकि शहरी क्षेत्रों में 1 मार्च तक दस लाख तिरसठ हजार शौचालयों का निर्माण हुआ।  स्वच्छ भारत अभियान के लिए विश्व बैंक ने एक अरब पचास हजार करोड़ डॉलर का ऋण मंजूर किया है। इसका मूल लक्ष्य, गरीबी रेखा से नीचे जीवन-यापन कर रहे सभी परिवारों को शौचालय की सुविधा देना, ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा और स्वच्छता कार्यक्रमों को बढ़ावा देना, गलियों और सड़कों की सफाई तथा घरेलू और पर्यावरण संबंधी सफाई व्यवस्था करना है।
केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अनुसार, शहरी भारत में हर साल 470 लाख टन ठोस कचरा उत्पन्न होता है। इसके अलावा पचहत्तर प्रतिशत से ज्यादा सीवेज का निपटारा नहीं हो पाता। ठोस कचरे की रिसाइकलिंग भी एक बड़ी समस्या है। भविष्य में बड़ी समस्या से बचने के लिए इन मुद्दों का निपटारा भी किया जाना जरूरी है। इस मिशन की सफलता परोक्ष रूप से भारत में व्यापार के निवेशकों का ध्यान आकर्षित करने, जीडीपी विकास दर बढ़ाने, दुनिया भर से पर्यटकों को आकर्षित करने, रोजगार के स्रोतों में विविधता लाने, स्वास्थ्य लागत को कम करने, मृत्युदर को कम करने, घातक बीमारियों की दर कम करने आदि में सहायक होगी। सफाई अभियान का मुख्य फोकस शौचालय निर्माण और गंदगी का निपटारा नहीं होना चाहिए, बल्कि औद्योगिक कचरा निस्तारण, मृदा और जल प्रदूषण रोकने के लिए भी ठोस उपाय किए जाने की जरूरत है।

इतिहास के पन्नों में शिमोन पेरेज | एस. निहाल सिंह

पिछले दिनों 93 साल की उम्र में शिमोन पेरेज की मृत्यु हो गई। वह इस्राइल के उन गिने-चुने कद्दावर नेताओं में से एक थे जिन्हें इस राष्ट्र की स्थापना का श्रेय दिया जाता है। जहां ये लोग एक तरफ आदर्शवाद का पर्याय बने थे वहीं दूसरी ओर अमेरिका की जासूसी करने के साथ-साथ उसकी शक्ति को भुनाने की सनक रखने के अलावा फिलीस्तीनियों को हाशिए पर ढकेलने के लिए ताकत का इस्तेमाल कर रहे थे।
अपनी इस नीति का कड़ाई से पालन करने वाले लोगों में शिमोन पेरेज का व्यक्तित्व अपेक्षाकृत नरम माना जाता था। 90 के दशक में कई अरब देशों की आधिकारिक यात्रा पर आए शिमोन का मैंने इंटरव्यू लिया था। वे मृदुभाषी थे और अंदर की जानकारी अपने तक ही सीमित रखते थे। शिमोन देश के केबिनेट मंत्री होने के अलावा प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति भी बने।
फिलीस्तीनियों की बड़ी त्रासदी यह रही कि वे कूटनीतिक मंच पर कभी नहीं जीत पाए क्योंकि मध्यस्थ की भूमिका निभाने वाला संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा कारणों और अमेरिका में हावी यहूदी लॉबी के प्रभाव के चलते पूरी तरह से इस्राइल के हक में पक्षपाती रहा है। अनेक इस्राइल-फिलीस्तीन संधियां समय-समय पर हुईं लेकिन उनमें से ज्यादातर इस्राइल से छुटकारा पाने के लिए चलाए गए ‘इंतेफादा’ नामक आंदोलन की तरह दफन होकर रह गयीं क्योंकि इस्राइल का उद्देश्य तो अपने ध्येय की खातिर समय प्राप्त करने का था। ओसलो में फिलीस्तीनी नेता यासर अराफात के साथ जो समझौता इस्राइल ने किया, उसकी वाहवाही के चलते 1994 में तत्कालीन प्रधानमंत्री यित्ज़ाक राबिन के साथ-साथ राष्ट्रपति शिमोन पेरेज और यासर अराफात को भी शांति के लिए नोबेल पुरस्कार संयुक्त रूप से दिया गया था।

एक दृश्य याद आ रहा है जब वाशिंगटन के व्हाइट हाउस के लॉन में अरब समस्या का हल निकालने के लिए इकट्ठा हुए अनेक नेताओं के लिए यह अवसर महज फोटो खिंचवाने का था। इसके बाद मिस्र ने यह कहकर हाथ खड़े कर दिए थे कि वह और ज्यादा अरब देशों का नेतृत्व नहीं कर सकता। यह संकेत था कि वह इसकी एवज में इस्राइल के कब्जे में आया अपना इलाका वापिस चाहता है। लेकिन इस समझौते का सबसे चौंकाने वाला पहलू यित्ज़ाक राबिन का स्टैंड था क्योंकि अग्रणी पंक्ति के नेताओं में वही एकमात्र ऐसे इस्राइली नेता थे जो फिलीस्तिनियों को उनका बनता कुछ हिस्सा देने को तैयार थे। चूंकि अधिसंख्य यहूदियों के लिए यह विचार नितांत नागवार था और वे उनके लिए एक खतरा बन गए थे, इसलिए उनमें से एक ने आगे चलकर राबिन का कत्ल कर दिया था।
इसके बाद की कहानी बदस्तूर इस जानी-पहचानी लीक पर ही चलती रही थी : फिलीस्तीनियों के कब्जाए हुए इलाके पर और ज्यादा गैरकानूनी यहूदी बस्तियां बनाना परंतु ‘द्वि-राष्ट्र उपाय’ की तोता-रटंत लगाने वाला इस्राइली नेतृत्व दरअसल कुछ भी न देने पर दृढ़ था। हाल के वर्षों में अमेरिकी विदेश मंत्री जॉन कैरी ने इस्राइली और फिलीस्तीनियों को पास लाने का काफी प्रयास किया लेकिन वे भी बेबस हो गए थे। तब जाकर उन्हें खुद को और ओबामा प्रशासन को एहसास हुआ था कि अमेरिकी सत्ता तंत्र पर किस कदर यहूदी लॉबी हावी है।
पहली बार मैं यासर अराफात से ट्यूनिस शहर में मिला था जब जॉडर्न से निष्कासित किए जाने के बाद फिलीस्तीन स्वतंत्रता संगठन ने वहां अपना मुख्यालय स्थानांतरित किया था। वे एक प्रभावशाली व्यक्तित्व वाले नेता थे जो अपने ध्येय के लिए बहुत सक्रिय थे। वे विश्व को बताना चाहते थे कि उनका आंदोलन जायज है और अंतत: सफल होगा। वे ज्यादातर अपनी भाषणशैली पर निर्भर थे। कालांतर साफ होता गया था कि उनकी वाक्पटुता की धार विरोधी की शक्ति के सामने कहीं नहीं टिकती। शिमोन पेरेज के कार्यकाल में फिलीस्तीनियों का ज्यादा-से-ज्यादा इलाका वहां यहूदी बस्तियां बसाने की खातिर हड़पा जाने लगा, यहां तक कि पहले-पहल इसके विरोध में चले लोगों के प्रदर्शन बाद में ठंडे पड़ने लगे। ‘द्वि-राष्ट्र उपाय’ महज एक कौतूहल का विषय बन कर गया।
इस्राइली नेतृत्व में केवल राबिन ही थे जिन्हें यह एहसास हो गया था कि फिलीस्तीनियों को उनका हक और जमीन देना ही देश में लंबे समय तक शांति बनाए रखने का उपाय है। इस्राइल की अपनी यात्रा के दौरान जिन लोगों से मैं मिला तो यह पाया कि वे इस सिद्धांत से सहमत थे लेकिन उनकी आवाज कमजोर थी और उनकी गिनती उन अधिसंख्यकों के मुकाबले बहुत कम थी जो यह चाहते हैं कि सब कुछ इस्राइल को मिले और फिलीस्तीनी जाएं भाड़ में। लगता है राष्ट्रपति ओबामा ने भी अरब समस्या का हल निकालने में हार मान ली है। सुश्री हिलेरी क्लिंटन जिनके बारे में कयास है कि वे आगामी राष्ट्रपति चुनाव जीत लेंगी, प्रतीत होता है कि वे भी शांति स्थापना की बजाय यहूदियों के प्रति ज्यादा सहानुभूति रखती हैं। इसलिए फिलीस्तीनियों के पास और कोई चारा नहीं है सिवाय इसके कि वे अपना अंतहीन संघर्ष जारी रखें।
बेशक एक समय में मिस्र और अरब देशों की राजनीति में ‘नासिर युग’ हुआ करता था। उन्होंने ब्रिटेन और फ्रांस की धाक को धता बताते हुए स्वेज नहर का अधिकार जीत लिया था लेकिन उसके बाद अरब राजनीति के प्रभुत्व में ज्यादातर ह्रास ही हुआ है। इस्राइल को युद्ध के जरिए नाथने के तमाम प्रयासों का अंत उलटे अरब देशों की बेइज्जती भरी हार और इलाके की हानि में ही हुआ है। स्थितियां जस-की-तस इसलिए भी बन जाती हैं क्योंकि इस्राइल का मुख्य संरक्षक अमेरिका चाहता है कि यहां शांति की शर्तें इस्राइली हितों के अनुसार हों।
इन परिस्थितियों के बनने में पेरेज की भूमिका काफी ज्यादा रही है। उन्होंने गैर-वैधानिक यहूदी बस्तियां बनाने के काम की देखरेख की थी। वे उन सभी मुख्य निर्णय प्रक्रियाओं का हिस्सा थे जो फिलीस्तीनियों की जमीन और हकों को छीनने की खातिर चलाई गई थीं। फिर भी पेरेज इस्राइली औपनिवेशवाद का एक नरम चेहरा बने रहे। अब इस्राइल इससे आगे कहां जा सकता है? आज की तारीख में यह उच्च तकनीक से अभिनव उत्पाद बनाने वाले उद्योगों का एक आधुनिक देश है जो परिष्कृत हथियारों का मुख्य निर्यातक भी है। लेकिन अपनी जमीन लगातार हड़पे जाने और दोयम दर्जे का व्यवहार किए जाने को देखकर खून का घूंट पीकर रह जाने वाले फिलीस्तीनियों का आक्रोश बढ़ता जा रहा है।
यह भी सच है कि आज जो गड‍्डमड‍्ड परिस्थितियां हम मध्य-पूर्व एशिया में देख रहे हैं वह बाहरी ताकतों द्वारा ईजाद की गयी हैं। जिनमें सबसे उल्लेखनीय है 1916 में ब्रिटेन और फ्रांस के बीच हुआ साईकस-पीकोट समझौता, जिसके जरिए ओट्टोमन साम्राज्य की परिसंपत्तियों का बंटवारा इन दोनों मुल्कों ने अपनी सहूलियत के हिसाब से आपस में कर लिया था। हम आज औपनिवेशवादी काल पर सिर्फ अफसोस जता सकते हैं लेकिन मुख्य बिंदु यह है कि नासिर के बाद एक भी ऐसा करिश्माई अरब नेता उभर नहीं पाया जो आगे बढ़कर इनका नेतृत्व संभाल सके।
आज की तारीख में अरब जगत में कई किस्म और आकार के तानाशाह राज कर रहे हैं। अफगानिस्तान और इराक में मुंह की खाने के बाद ओबामा प्रशासन अब हवाई बमबारी करने के अलावा मध्य-पूर्व में सीधी सैन्य दखलअंदाजी करने से बच रहा है। सीरिया में पिछले पांच सालों से जो गृहयुद्ध चल रहा है, वह इसलिए है कि ईरान और रूस अपने हितों की खातिर अल्पसंख्यक समुदाय अलवाती से संबंध रखने वाले बशर-अल-असद की सरकार का सहयोग और मदद कर रहे हैं।
परिस्थितियों से निपटने में संयुक्त राष्ट्र फिर से नाकामयाब सिद्ध हुआ है। जितनी चौड़ी दरार पूर्व और पश्चिम के बीच होगी, उतनी ही क्षीण संभावना सुरक्षा परिषद से जारी होने वाली प्रभावशाली हिदायतों की होगी।

हवा में जहर के घूंट | Rita Singh

यह बेहद चिंताजनक है कि वायु प्रदूषण से भारत में हर साल छह लाख और दुनिया भर में साठ लाख लोगों की जान जा रही है। यह खुलासा विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अपनी हालिया रिपोर्ट में किया है। रिपोर्ट बताती है कि दक्षिण पूर्व एशिया क्षेत्र में वायु प्रदूषण की वजह से हर साल आठ लाख जानें जा रही हैं जिनमें पचहत्तर फीसद से ज्यादा मौतें भारत में हो रही हैं। रिपोर्ट के मुताबिक दक्षिण पूर्व एशिया क्षेत्र से हवा के जो नमूने मिले हैं उस आधार पर कहा जा सकता है कि यह क्षेत्र आपातकालीन स्थिति में है। हर दस में से नौ लोग ऐसी हवा में सांस ले रहे हैं जो उनकी सेहत को नुकसान पहुंचा रही है। 2012 के आंकड़ों के मुताबिक भारत में 2 लाख 49 हजार 388 लोगों की मौत हृदय रोग, 1 लाख 95 हजार एक मौतें दिल के दौरे, 1 लाख 10 हजार पांच सौ मौतें फेफड़ों की बीमारी और 26 हजार 334 मौतें फेफड़ों के कैंसर से हुर्इं।
गौरतलब है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने आठ अंतरराष्ट्रीय संस्थानों के साथ मिल कर दुनिया भर के तीन हजार शहरों व कस्बों की हवा का विश्लेषण किया है। इसमें बाहरी और अंदरूनी वायु प्रदूषण के तहत पीएम 2.5 और पीएम 10 प्रदूषकों के स्तर को मापा गया। कई शहरों में प्रदूषक तत्त्व विश्व स्वास्थ संगठन के तय मापदंड 10 माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर से अधिक पाए गए। रिपोर्ट में कहा गया है कि 92 फीसद वैश्विक जनसंख्या सर्वाधिक वायु प्रदूषित इलाकों में रह रही है। रिपोर्ट के मुताबिक 10.21 लाख यानी सर्वाधिक मौतें चीन में हुई हैं। भारत की बात करें तो देश की राजधानी दिल्ली सर्वाधिक प्रदूषित शहर है जिसका पीएम-10 का स्तर अधिक है। यहां इसका स्तर तकरीबन 2.35 माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर है।
भारत में वायु प्रदूषण किस तरह जानलेवा साबित हो रहा है यह पिछले साल यूनिवर्सिटी आॅफ शिकागो, हार्वर्ड और येल के अर्थशास्त्रियों की उस रिपोर्ट से उद््घाटित होता है जिसमें कहा गया कि भारत दुनिया के उन देशों में शुमार है जहां सबसे अधिक वायु प्रदूषण है और जिसकी वजह से यहां के लोगों को समय से तीन साल पहले काल का ग्रास बनना पड़ रहा है। रिपोर्ट के मुताबिक अगर भारत अपने वायु मानकों को पूरा करने के लिए इस आंकड़े को उलट देता है तो इससे 66 करोड़ लोगों के जीवन के 3.2 वर्ष बढ़ जाएंगे। इसी रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि भारत की आधी आबादी यानी 66 करोड़ लोग उन क्षेत्रों में रहते हैं जहां सूक्ष्म कण पदार्थ (पार्टिकुलेट मैटर)-प्रदूषण भारत के सुरक्षित मानकों से ऊपर हैं।
रिपोर्ट में कहा गया है कि अगर भारत वायु प्रदूषण पर शीघ्र नियंत्रण नहीं लगाता है तो 2025 तक अकेले राजधानी दिल्ली में ही वायु प्रदूषण से हर वर्ष 26,600 लोगों की मौत होगी। यूनिवर्सिटी आॅफ कैरोलीना के विद्वान जैसन वेस्ट के अध्ययन के मुताबिक वायु प्रदूषण से सबसे अधिक मौतें दक्षिण और पूर्व एशिया में होती हैं। आंकड़े बताते हैं कि हर साल मानव निर्मित वायु प्रदूषण से 4 लाख 70 हजार और औद्योगिक इकाइयों से उत्पन प्रदूषण से 21 लाख लोग दम तोड़ते हैं। पिछले साल दुनिया की जानी-मानी पत्रिका ‘नेचर’ ने भी खुलासा किया कि अगर शीघ्र ही वायु की गुणवत्ता में सुधार नहीं हुआ तो 2050 तक प्रत्येक वर्ष 66 लाख लोगों की जानें जा सकती हैं।
गौरतलब है कि यह रिपोर्ट जर्मनी के मैक्स प्लेंक इंस्टीट्यूट आॅफ केमेस्ट्री के प्रोफेसर जोहान लेलिवेल्ड और उनके शोध दल ने तैयार की थी, जिसमें प्रदूषण फैलने के दो प्रमुख कारण गिनाए गए। एक पीएम 2.5-एस विषाक्त कण, और दूसरा, वाहनों से निकलने वाली गैस नाइट्रोजन आक्साइड। रिपोर्ट में आशंका जाहिर की गई कि भारत और चीन में वायु प्रदूषण की समस्या विशेष तौर पर गहरा सकती है, क्योंकि इन देशों में खाना पकाने के लिए कच्चे र्इंधन का इस्तेमाल होता है जो कि प्रदूषण का बड़ा स्रोत है। विशेषज्ञों की मानें तो इससे निपटने की तत्काल वैश्विक रणनीति तैयार नहीं की गई तो विश्व की बड़ी जनसंख्या वायु प्रदूषण की चपेट में होगी। अच्छी बात है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने वायु-प्रदूषण से होने वाले स्वास्थ्य-जोखिम के बारे में जागरूकता बढ़ाने की अपील की है। लेकिन विडंबना है कि इस पर अमल नहीं हो रहा है।  भारत की बात करें तो चार साल पहले ‘क्लीन एयर एक्शन प्लान’ के जरिए वायु प्रदूषण से निपटने का संकल्प व्यक्त किया गया। लेकिन उस पर कोई काम नहीं हो रहा। नतीजतन, उपग्रहों से लिए गए आंकड़ों के आधार पर तैयार रिपोर्ट के मुताबिक विश्व के 189 शहरों में सर्वाधिक प्रदूषण-स्तर भारतीय शहरों में है। मसलन, भारत का सिलिकॉन वैली कहा जाने वाला बंगलुरु विश्व के शहरों में वायु प्रदूषण स्तर में वृद्धि के मामले में अमेरिका के पोर्टलैंड शहर के बाद दूसरे स्थान पर है। यहां वर्ष 2002 से 2010 के बीच वायु प्रदूषण के स्तर में चौंतीस फीसद की वृद्धि पाई गई। कुछ ऐसे ही बदतर हालात देश के अन्य बड़े शहरों के भी हैं।
देश के शहरों के वायुमंडल में गैसों का अनुपात बिगड़ता जा रहा है और उसे लेकर किसी तरह की सतर्कता नहीं बरती जा रही। आंकड़ों पर गौर करें तो हाल के वर्षों में वायुमंडल में आॅक्सीजन की मात्रा घटी है और दूषित गैसों की मात्रा बढ़ी है। कार्बन डाइ आॅक्साइड की मात्रा में तकरीबन पच्चीस फीसद की वृद्धि हुई है। इसका मुख्य कारण बड़े कल-कारखानों और उद्योग-धंधों में कोयले व खनिज तेल का उपयोग है। गौरतलब है कि इनके जलने से सल्फर डाइ आॅक्साइड निकलती है जो मानव जीवन के लिए बेहद खतरनाक है। शहरों का बढ़ता दायरा, कारखानों से निकलने वाला धुआं, वाहनों की बढ़ती तादाद, तमाम ऐसे कारण हैं जिनसे प्रदूषण बढ़ रहा है। वाहनों के धुएं के साथ सीसा, कार्बन मोनोआॅक्साइड तथा नाइट्रोजन आॅक्साइड के कण निकलते हैं। ये दूषित कण मानव-शरीर में कई तरह की बीमारियां पैदा करते हैं। मसलन, सल्फर डाइ आॅक्साइड से फेफड़े के रोग, कैडमियम जैसे घातक पदार्थों से हृदय रोग, और कार्बन मोनोआॅक्साइड से कैंसर और श्वास संबंधी रोग होते हैं। कारखानों और विद्युत गृह की चिमनियों तथा स्वचालित मोटरगाड़ियों में विभिन्न र्इंधनों के पूर्ण और अपूर्ण दहन भी प्रदूषण को बढ़ावा देते हैं। 1984 में भोपाल स्थित यूनियन कारबाइड कारखाने से विषैली मिक गैस के रिसाव से हजारों लोग मौत के मुंह में समा गए और हजारों लोग अपंगता का दंश झेल रहे हैं। इसी प्रकार 1986 में अविभाजित सोवियत संघ के चेरनोबिल परमाणु रिएक्टर में रिसाव होने से रेडियोएक्टिव प्रदूषण हुआ और लाखों लोग प्रभावित हुए। वायु प्रदूषण से न केवल मानव समाज को बल्कि प्रकृति को भी भारी नुकसान पहुंच रहा है।
प्रदूषित वायुमंडल से, जब भी वर्षा होती है, प्रदूषक तत्त्व वर्षाजल के साथ मिलकर नदियों, तालाबों, जलाशयों और मृदा को प्रदूषित कर देते हैं। अम्लीय वर्षा का जलीय तंत्र समष्टि पर प्रतिकूल प्रभाव डाल रहा है। नार्वे, स्वीडन, कनाडा और संयुक्त राज्य अमेरिका की महान झीलें अम्लीय वर्षा से प्रभावित हैं। अम्लीय वर्षा वनों को भी बड़े पैमाने पर नष्ट कर रही है। यूरोप महाद्वीप में अम्लीय वर्षा के कारण साठ लाख हेक्टेयर वन नष्ट हो चुके हैं। ओजोन गैस की परत पृथ्वी के लिए रक्षाकवच का कार्य करती है- वायुमंडल की दूषित गैसों के कारण ओजोन को काफी नुकसान पहुंचा है। ध्रुवों पर इस परत में एक बड़ा छिद्र हो गया है जिससे सूर्य की खतरनाक पराबैंगनी किरणें भूपृष्ठ पर पहुंच कर ताप में वृद्धि कर रही हैं। इससे न केवल कैंसर जैसे असाध्य रोगों में वृद्धि हो रही है बल्कि पेड़ों से कार्बनिक यौगिकों के उत्सर्जन में बढ़ोतरी हुई है। इससे ओजोन व अन्य तत्त्वों के बनने की प्रक्रिया प्रभावित हो रही है।
नए शोध बताते हैं कि वायु प्रदूषित क्षेत्रों में रहने वाली गर्भवती महिलाओं से जन्म लेने वाले शिशुओं का वजन सामान्य शिशुओं की तुलना में कम होता है। यह खुलासा ‘एनवायरमेंटल हेल्थ प्रॉस्पेक्टिव’ द्वारा नौ देशों में तीस लाख से ज्यादा नवजात शिशुओं पर किए गए अध्ययन से हुआ है। शोध के मुताबिक जन्म के समय कम वजन के शिशुओं को आगे चल कर स्वास्थ्य संबंधी विभिन्न समस्याओं का सामना करना पड़ता है। यानी इनमें मधुमेह और हृदय रोग का खतरा बढ़ जाता है।
वायु प्रदूषण का दुष्प्रभाव ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विरासतों पर भी पड़ रहा है। पिछले साल देश के उनतालीस शहरों के 138 विरासतीय स्मारकों पर वायु प्रदूषण के घातक दुष्प्रभाव का अध्ययन किया गया। पाया गया कि शिमला, हसन, मंगलौर, मैसूर, कोट्टायम और मदुरै जैसे विरासती शहरों में पार्टिकुलेट मैटर पॉल्यूशन राष्ट्रीय मानक (60 माइक्रोग्राम क्यूबिक मीटर) से भी अधिक है। कुछ स्मारकों के निकट तो यह चार गुना से भी अधिक पाया गया। सर्वाधिक प्रदूषण-स्तर दिल्ली के लालकिला के आसपास पाया गया। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि शहरों के स्मारकों के आसपास रासायनिक और धूल प्रदूषण की जानकारी के बाद भी बचाव पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। ऐसा नहीं है कि वायु प्रदूषण के इन दुष्प्रभावों से निपटने और रोकथाम के लिए कानून नहीं है। लेकिन सच्चाई यह है कि उस कानून का पालन नहीं हो रहा है। उचित होगा कि सरकार वायु प्रदूषण की रोकथाम के लिए प्रभावकारी राष्ट्रीय योजना या नीति बनाए और उस पर कड़ाई से अमल करे।