गणतंत्र दिवस गुज़र गया. तीस जनवरी क़रीब है. दोनों के बीच क्या रिश्ता है? क्या यह महज इत्तेफ़ाक़ है कि छब्बीस जनवरी के चौथे दिन गांधी का क़त्ल उनके प्रतिनिधि कर देते हैं जो भारत को हिंदू राष्ट्र बनाना चाहते थे? यह हत्या इस तारीख़ के छह दिन पहले बीस जनवरी को भी तो हो सकती थी जब हत्यारों के इसी दल ने गांधी की प्रार्थना सभा पर बम फेंका था. जो भी हो, लेकिन यह तय है कि जैसे संविधान एक सुविचारित विचार प्रक्रिया का परिणाम है, उसी प्रकार गांधी का क़त्ल भी किसी ग़ुस्से के उबाल का नतीजा न था. जैसा कि एक शिक्षा संस्थान के कर्मचारी कहते हैं - ‘आख़िर गोडसे भी पढ़े लिखे थे, कुछ सोच-समझकर ही उन्होंने गांधी को मारने का फैसला किया होगा.’
आम तौर पर 26 जनवरी को भारत के गणतांत्रिक चरित्र की घोषणा और उसके संकल्प के दिन के रूप में मनाया जाता है. भारतीयों के प्रजा से जन बनने की यात्रा 1950 में संविधान को देश का जीवन सिद्धांत मानने के साथ ही आरंभ हो गई थी. वैसे गणतांत्रिकता भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के दौरान ही एक मूल्य के रूप में स्वीकार कर ली गई थी, संविधान ने सिर्फ़ उसे अभिव्यक्त किया.
इस संविधान निर्माण प्रक्रिया का महत्वपूर्ण हिस्सा था इसका उद्देश्यों से संबंधित प्रस्ताव जो जवाहरलाल नेहरू ने 13 दिसंबर, 1946 को पेश किया था. यह भारत के संविधान की नींव या आधार भूमि है. इसी पर संविधान का पूरा ढांचा टिका हुआ है. इसे पेश तो नेहरू ने किया लेकिन एक तरह से वे अपने मित्र और गुरू के प्रवक्ता का काम कर रहे थे. लेकिन वह गुरू तो संविधान सभा का सदस्य भी न था.
गांधी संविधान सभा के गठन के वक़्त दिल्ली में न थे. वे दो नए राष्ट्रों के जन्म से पहले की सांप्रदायिक हिंसा की आग में कूद पड़े थे. जिस समय दिल्ली में इस पर विचार करने के लिए कि नया भारतीय राष्ट्र किन साझा उसूलों पर चलेगा, यह सभा काम शुरू करने जा रही थी, गांधी नोआख़ाली में थे. आज के बांग्लादेश और तब के पूर्वी पाकिस्तान में जाने को तैयार नोआख़ाली में मुसलमान बहुसंख्यक थे. हिंदू पड़ोसियों पर उन्होंने हमला किया और सैकड़ों हिंदू मारे गए. उसके ठीक पहले कोलकाता में जिन्ना के सीधी कार्रवाई के ऐलान पर भयंकर खूंरेजी हुई थी. क़रीब के बिहार में नोआख़ाली के बदले के नाम पर हज़ारों मुसलमानों को मार डाला गया.
माना जाता है कि पाकिस्तान के निर्माण से अपनी असहमति जताने को, और बंटवारे के साथ मिलने वाली आज़ादी से ख़ुद को अलग करने को ही गांधी ने दिल्ली छोड़ दी. इससे बड़ा दुष्प्रचार कुछ हो नहीं सकता. ऐसी खूंरेजी के दौर में वे सिर्फ़ हिंदू-मुस्लिम भाईचारे का प्रवचन देते हुए दिल्ली में बने रहते, यह मुमकिन न था. गांधी के लिए यह स्वाधीनता व्यर्थ थी क्योंकि इसके साथ ही सामूहिकता के उनके विचार पर हमला शुरू हो गया था.
पाकिस्तान के निर्माण से संबंधित राजा राजगोपालाचारी के प्रस्ताव को उनकी सहमति थी. जीवनपर्यंत संवाद और समझौते के पैरोकार गांधी इतने अड़ियल न थे और न इतने आत्मग्रस्त कि अपने मित्रों के प्रयास की ईमानदारी पर शक करें. लेकिन वे किसी भी तरह मोहम्मद अली जिन्ना के सिद्धांत से सहमत नहीं हो सकते थे जो राष्ट्र के संयोजक तत्व के रूप में धर्म को पेश कर रहे थे.
जिन्ना ने भारत के अधिकांश मुसलमानों को यह समझाने में कामयाबी हासिल कर ली थी कि हिंदुओं के साथ वे सामूहिक जीवन नहीं जी सकते. गांधी इसके ख़िलाफ़ धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र का सिद्धांत प्रस्तुत कर रहे थे. लेकिन अब पाकिस्तान और भारत दो अलग मुल्क होने वाले थे. और इसके साथ ही एक नई और अप्रीतिकर स्थिति उत्पन्न होने वाली थी - दोनों राष्ट्रों में धार्मिक बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक समूह के विचार का जन्म. भारत में बड़े अल्पसंख्यक समूह के तौर पर मुसलमान रहने वाले थे और पाकिस्तान में हिंदू. इनके साथ क्या बर्ताव होगा?
जिन्ना ने इस्लाम के आधार पर मुल्क बन जाने के बाद यह वादा किया कि पाकिस्तान में अल्पसंख्यक हिंदुओं और अन्य धर्मावलंबियों के साथ बराबरी का बर्ताव होगा. लेकिन यह न हुआ. गांधी ने बार-बार कहा कि क़ायदे आज़म अपने वायदे को निभाने को लेकर गंभीर नहीं हैं. उन्होंने यह पूछना बंद नहीं किया कि क्यों हिंदू और सिख लाहौर और सिंध छोड़ने को मजबूर हैं. गांधी का यह सवाल इतना परेशानकुन था कि तब दिल्ली के डॉन अख़बार ने जिन्ना से जवाब तलब करने के लिए गांधी की आलोचना की. गांधी ने जवाब दिया कि अब जब पाकिस्तान बन गया और सारा अख़्तियार जिन्ना साहब के हाथ में आ गया है, तो उनके वचन की रक्षा अगर वे नहीं करेंगे तो कौन करेगा!
अल्पसंख्यकों के प्रति राज्य का नज़रिया और उसका व्यवहार गांधी कि लिए अब सबसे बड़ा सवाल बन गया था. 15 अगस्त, 1947 को आत्म निरीक्षण के दिन के रूप में बिताने की उनकी अपील के पीछे वजह बहुत साफ़ थी. वे कैसे जश्न मना सकते थे जब दोनों राष्ट्रों के अल्पसंख्यक असुरक्षित और भयभीत हों!
जिन्ना इस परीक्षा में असफल रहे. और उसका नतीजा पाकिस्तान भुगत रहा है. क्या भारत के नेता भी जिन्ना की राह चलें? इस प्रश्न का उत्तर संविधान के उद्देश्यों के प्रस्ताव में था. इसके पांचवे बिंदु में प्रत्येक नागरिक को सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक न्याय के साथ अवसर की बराबरी, पेशे, पूजा उपासना, विचार और अभिव्यक्ति, संगठन और कार्रवाई की आज़ादी का वादा किया गया. छठे बिंदु में अल्पसंख्यकों, पिछड़ों और आदिवासी क्षेत्रों और दलित और अन्य पिछड़े वर्गों की सुरक्षा के उपाय का वादा है. अंतिम बिंदु विश्व में अपनी जगह हासिल करने के साथ मानवता और विश्व की शांति में अपना योगदान देने का संकल्प है.
नोआख़ाली में एक गांव से दूसरे गांव जाते और बंगाल, बिहार में अपना होश खो बैठे हिंदुओं और मुसलमानों में पड़ोसियत का अहसास जगाने में व्यस्त और अपने प्रयास की लघुता के अहसास की तीव्रता से पीड़ित गांधी की निगाह दिल्ली पर भी थी. इसी आग के बीच चलते हुए हुए उन्होंने नेहरू को स्पष्ट शब्दों में लिखा – संविधान के उद्देश्यों के प्रस्ताव से कोई समझौता न करना, उस पर टिके रहो.
जो गांधी बंगाल, बिहार, पंजाब, काठियावाड़, कश्मीर के हिंदुओं और मुसलमानों से कह रहे थे, उसे एक राष्ट्रीय सिद्धांत बनाना ही होगा. यह संविधान के ज़रिए हो सकता था. अल्पसंख्यकों को सुरक्षा ही नहीं, आत्मीयता का अहसास दिलाना भारत के पहले राष्ट्रीय उद्देश्यों में से एक होना था.
जिन्ना ने एक ज़ुबानी वादा किया था, लेकिन साधन और साध्य में इतनी बड़ी खाई थी कि उनके अनुयायी इसे समझ ही नहीं सकते थे. अगर राष्ट्र धर्म के आधार पर बना है तो राष्ट्रीय जीवन धर्मनिरपेक्ष क्योंकर हो! भारत में बात उलट थी. साधन और साध्य में एकता थी. सिर्फ़ यही नहीं वचन और कर्म में भी ऐक्य था.
गांधी, नेहरू और उनके सहयोगी हिंदुओं और सिखों के ग़ुस्से को समझ तो रहे थे, लेकिन उसके आगे हथियार डालने को राज़ी न थे. उलटे वे उन्हें समझाने की कोशिश कर रहे थे कि मुसलमानों का हक़ भारत पर उनके बराबर है. समझाने के साथ यह भी साफ़ तौर पर कहा जाता रहा था कि ग़ुस्से की आड़ में मुसलमानों के साथ किसी तरह की ज़्यादती को सरकार बर्दाश्त नहीं करेगी. उनकी यह संकल्प दृढ़ता से भारत के हिंदुओं के एक हिस्से को घृणा थी. वह भारत को पाकिस्तान का हिंदू प्रतिरूप बनाना चाहते थे. उनकी सहमति संविधान के इन उद्देश्यों से होना नामुमकिन थी.
अलावा इसके कि भारत में मुसलमानों के साथ न्यायपूर्ण व्यवहार की प्रतिबद्धता थी, गांधी यह भी कह रहे थे कि उनकी इच्छा के विरुद्ध पाकिस्तान बन जाने का मतलब यह क्यों हो कि दोनों मुल्क एक दूसरे के दुश्मन हो जाएं. पाकिस्तान से दोस्ती की वकालत गांधी के आख़िरी दिनों के वक्तव्यों का एक प्रिय विषय थी. विश्व शांति में भारत के योगदान का आधार पाकिस्तान से उसकी मित्रता ही हो सकती थी. बावजूद उसके उकसाने के भारत को अपनी ओर से आक्रमण नहीं करना था और बंटवारे के वक़्त दोनों के बीच जो भी क़रार हुआ, उसका सम्मान करना था.
संविधान के उद्देश्यों से यह सबकुछ बिलकुल मेल में था. गांधी के जीवित रहते उनसे हिलने का सवाल न था. इसलिए उनकी हत्या की ही जानी थी.
गांधी की हत्या के चलते संविधान सभा के काम में कुछ व्यवधान पड़ा. लेकिन उनके साथी उनसे वचनबद्ध थे. उन्होंने संविधान प्रस्तावित करते समय घोषित किए गए उद्देश्यों के साथ समझौता नहीं किया.