30 जनवरी को गांधी की शहादत का दिन कहा जाता है. बेहतर इसे गांधी की हत्या का दिन ही कहा जाना होता. लेकिन शायद हत्या को नकारात्मक और शहादत को सकारात्मक मानकर ही दूसरे शब्द को कबूल किया गया होगा. हत्या रहने से याद बनी रहती कि गांधी का क़त्ल आखिर किसी ने, किसी की ओर से, किसी वजह से किया होगा. शहादत कहते ही हम इन प्रश्नों पर विचार करने से खुद को मुक्त कर लेते हैं. उस दिन को हम एक गौरव प्रदान कर देते हैं और उस दिन के अपराधी चरित्र को नज़र से दूर कर देते हैं.
बेहतर होता कि अपने आख़िरी जन्मदिन के एक दिन बाद हरिजन अखबार में उन्होंने जो कविता छापी थी, उसका पाठ हर 30 जनवरी को किया जाता
दिल्ली में राजकीय गांधी-स्मरण राजघाट पर होता है. समारोहपूर्वक देश के राज्याध्यक्ष, राष्ट्रपति, कार्यकारी प्रमुख, प्रधानमंत्री, सेना के तीनों अंगों के प्रमुखों की उपस्थिति में रामधुन गाई जाती है. बेहतर होता कि अपने आख़िरी जन्मदिन के एक दिन बाद हरिजन अखबार में उन्होंने जो कविता छापी थी, उसका पाठ हर 30 जनवरी को किया जाता. गांधी के जीवनीकार दीनानाथ गोपाल तेंदुलकर ने इसे उद्धृत किया है. ‘उपयुक्त पंक्तियां’ शीर्षक से गांधी ने ये पंक्तियां 3 अक्टूबर को प्रकाशित कीं:
ये मेरी जंजीरें हैं जिनके सहारे मैं उड़ सकता हूं; ये मेरे शोक हैं जिनके सहारे मैं तैर सकता हूं; ये मेरी पराजय हैं जिनके सहारे मैं दौड़ सकता हूं; ये मेरे आंसू हैं जिनके सहारे मैं सफ़र कर सकता हूं; यह मेरा सलीब है जिसके सहारे मैं इंसानियत के दिल तक चढ़ सकता हूं; मुझे मेरा सलीब बड़ा करने दे, ऐ खुदा!
ताज्जुब नहीं कि गांधी की हत्या पर बात करते वक्त इन पंक्तियों को कतई याद नहीं किया जाता. वरना हम उनके आख़िरी दिनों को कुछ और विस्तार से जानने की कोशिश करते. दिलचस्प है कि इन पंक्तियों में चलने का, आगे बढ़ने का ही चित्र है लेकिन वह चलना उन सबके सहारे है जो दरअसल चलने में रुकावटें हैं. ज़ंजीर, शोक, पराजय, आंसू, सलीब: सभी गति को बाधित करते हैं. लेकिन गांधी उसी बाधा को अपना पाथेय बना लेने की शक्ति की प्रार्थना करते हैं.
उन सबकी इस संकीर्ण घृणा के बावजूद मानवता या इंसानियत की कल्पना में विश्वास कैसे छोड़ देते गांधी? इसीलिए वे ईश्वर से अपने सलीब को और बड़ा करने का अनुरोध करते हैं.
गांधी अंत में पराजित अनुभव कर रहे थे, घृणा और हिंसा से. जिन्हें वे अपने लोग मानते थे, वे उन्हें निराश कर रहे थे. लेकिन उन सबकी इस संकीर्ण घृणा के बावजूद मानवता या इंसानियत की कल्पना में विश्वास कैसे छोड़ देते गांधी? इसीलिए वे अपने सलीब को और बड़ा करने का अनुरोध ईश्वर से करते हैं.
गांधी अपना जो चित्र इन पंक्तियों के माध्यम से गढ़ रहे हैं, उसपर गौर कीजिए: यह एक ग़मज़दा, पा-बजौलां (जंजीरों में जकड़े) और अपना सलीब बड़ा और बड़ा करके उसे ढोते हुए गांधी की तस्वीर है.
हम इस तस्वीर को क्यों कहीं अटाले पर रख देना चाहते हैं और क्यों गांधी की आंख बंद किए हुए, शांतमुख छवि ही उनकी एकमात्र याद के रूप में प्रचारित करते रहे हैं? गांधी, जिसके पैर नोआखाली की खाक छानते हुए चलनी हुए होंगे, जिसकी आंखें कलकत्ता, भागलपुर, दिल्ली में इंसानियत की तलाश करते हुए थक गई होंगी, जो जीने की इच्छा गंवा चुका, हारा हुआ बूढ़ा था - उस गांधी को याद करने में हमें क्या अपराध बोध होता है?
गांधी, जिसकी आंखें कलकत्ता, भागलपुर, दिल्ली में इंसानियत की तलाश करते हुए थक गई होंगी, जो जीने की इच्छा गंवा चुका, हारा हुआ बूढ़ा था-उस गांधी को याद करने में हमें क्या अपराध बोध होता है?
इस साल की तरह बीते साल भी 30 जनवरी की राजकीय स्मृति की तसवीरें तो हमें मिलीं, एक राजपुरुष की आंखें मींचे हुए, शायद गांधी को कहते हुए कि आखिर हमने तुम्हें पूरा खा डाला.
लेकिन बीते साल उसी दिन गांधी उससे दूर छिटक कर, उस राजघाट से दूर जिसपर राजसत्ता का कब्जा है, अपने आंसुओं और सलीब के वारिसों के साथ दिल्ली की सड़कों पर कुछ घंटे चलते रहे. यह कुछ अजीब नज़ारा था,क्योंकि इस जुलूस में रोहित वेमुला की तस्वीर थामे हुए मेवात के मुसलमान मार्च कर रहे थे और गांधी की तस्वीर लिए हुए दलित चल रहे थे. जिसमें जय भीम के नारे सुनाई दे रहे थे, इसमें उस आधुनिक अर्थव्यवस्था द्वारा बेघरबार कर दिए लोग चल रहे थे जिसे गांधी ने प्रत्येक हिंसा की जड़ माना था और अपनी यौन-प्रवृत्ति के कारण अब तक अपराधी माने जाने वाले लोग भी. इसमें वामपंथी भी थे और नारीवादी भी.
बच्चे भी थे इनमें जो शायद न समझते हों कि वे क्या कर रहे थे वहां, लेकिन वे इसका अहसास तो कर ही पा रहे होंगे कि यह तरह-तरह के लोगों का जमावड़ा है.’ नारी पर अत्याचार बंद करो’ का नारा लगाते हुए अत्याचार को भले ही अचार बोल रहे हों लेकिन ये नागार्जुन के उन बच्चों की याद दिलाते हैं जिनकी तोतली बोली में उन्होंने नारा सुना था: मेरा नाम तेरा नाम बिएनाम बिएनाम.
जाहिर है, गांधी की लाश में उन्हें दिलचस्पी है, गांधी के क़त्ल के बाद उनके सलीब को जिन्होंने उठा लिया और पीठ पर लादे चले जा रहे हैं.
कुछ वे लोग भी थे जिनका पेशा पढ़ने -लिखने का है, लेकिन वे कतारों में थे, कतार सीधी करने और नारे दुरुस्त करने के फर्ज के लदे न थे, खामोशी से, कभी मुस्कराते हुए, कभी खुद नारे लगाते हुए चले जा रहे थे. एक नारा सुनाई पड़ रहा था: कौन सा क़ानून सबसे बदतर: तीन सौ सतहत्तर, तीन सौ सतहत्तर. लगा सरोजिनी नायडू होतीं तो अपने बापू को कहतीं, ‘मिकी माउस,यह जो तुमने इन्द्रियों को वश करके यौनेच्छा त्याग दी, तुम्हारे नाम के इस जुलूस में यह क्या नारा लग रहा है?’ और गांधी हंस पड़ते: ‘किसी के हक का मामला है, इसमें मेरी पसंद और इच्छा क्यों कर आड़े आए?’
मंडी हाउस से जंतर मंतर कोई बहुत दूर नहीं और इस जुलूस में भी ढाई एक हजार लोग रहे होंगे लेकिन, इस गांधी-यात्रा ने ट्रैफिक रोक ज़रूर दिया था. पूरी सड़क छेंकी न थी लेकिन मोटरों की लाइन लग तो गई ही थी. शुक्र है, उसी दिन कुछ दूर नौजवानों को पीटने वाली पुलिस ने अपना डंडा पीछे ही रखा था.
इस जुलूस को हिंदी अखबारों ने न देखा, अंग्रेजी वाले भी इससे बेखबर रहे. दृश्य तो यह बन रहा था लेकिन टेलीविज़न के लिए इतना सनसनीखेज न था कि वे अपने कैमरे तानें!
जाहिर है, गांधी की लाश में उन्हें दिलचस्पी है, गांधी के क़त्ल के बाद उनके सलीब को जिन्होंने उठा लिया और पीठ पर लादे चले जा रहे हैं, उनमें नहीं. क्या हुआ कि अगले दिन किसी हिंदी, अंग्रेज़ी अखबार के लिए यह खबर न बन पाया! लेकिन क्या ये दोनों जुबानें इस पर सोचेंगी कि क्यों एक दूसरी हिंदुस्तानी जुबान उर्दू के सारे अखबारों के लिए यह अहम् खबर थी. क्या कहीं खबरी दुनिया में कोई दरार पड़ गई है?
गांधी कोई पहुंचे हुए संत न थे. उनके अंतःकरण का आयतन विशाल था इसलिए वे महात्मा थे, इसलिए नहीं कि वे संसार-त्यागी, वीतराग हो चुके थे.
क्यों यह गांधी-यात्रा उर्दू अखबारों के लिए खबर थी और क्यों हिंदी-अंग्रेज़ी के लिए नहीं? क्या हिंदी-अंग्रेज़ी के अखबार उस जनता के लिए नहीं जो उर्दू पढ़ती है? क्या उसकी फिकरों से उन्हें कोई लेना-देना नहीं? क्या वे भी नख-दंत विहीन गांधी से खुश हैं, और उनकी उसमें कोई रुचि नहीं जिसे मुक्तिबोध संघर्षशील सत्य कहते हैं?
गांधी कोई पहुंचे हुए संत न थे. उनके अंतःकरण का आयतन विशाल था इसलिए वे महात्मा थे, इसलिए नहीं कि वे संसार-त्यागी, वीतराग हो चुके थे. वे अपने संघर्ष के कारण मारे गए, सत्य की तलाश में बढ़ते हुए, एक नई राजनीतिक भाषा खोजते हुए, उसी खोज के अपराध के कारण मारे गए. जो उस खोज को अब भी जारी रखना चाहते हैं अगर वे नज़रअंदाज किए जा रहे हैं तो क्या उन्हें हैरान होना चाहिए और निराश हो जाना चाहिए? या उन्हें इसके लिए अपने जतन को दूना कर देना चाहिए?