Sunday, June 5, 2016

मैं जनसंख्या में दशमलव के बाद आता हूँ.

नवजात पैदा होता है
अपने खाने पीने का सामान लेकर.
मैंने भी बछड़े का दूध चुराकर प्रोटीन बटोरा आज.
नाली में ज़हर जा रहा था
वो आदमी मर गया जो साफ़ करने घुसा था.
जो साफ़ करने घुसा था उसे लोग नहीं छूते थे.
जो ज़िंदा हैं वो छूने लायक नहीं बचे.
मेरे बाप ने वसीयत में लिखा
मेरे मरने पे लकड़ियां मत देना.
वृक्ष कम हैं
हमारे बच्चों को ऑक्सीजन कौन देगा?
मेरा बाप वृद्धाश्रम में मरा था,
मरते मरते उसे मेरे बच्चों की फ़िक्र रही.
दशमलव के बाद के अंक
संख्या से नहीं पढ़े जाते.
मैं जनसंख्या में दशमलव के बाद आता हूँ.
एक इंडिया गेट पर मरे किसानों के नाम खोद डालो.
नहीं हमें बहुत से इंडिया गेट बनाने पड़ेगें.
रहने दो आईडिया अच्छा नहीं है
किसान अपनी ज़मीनें नहीं देंगे.
तुम बार-बार काटती फ़ोन
मैं मिलाता हुआ बार-बार
सोचता हूँ, तुम मेरी माँ से हो.
बारहवीं के रिजल्ट के बाद
उसने भी तीन दिन बात नहीं की थी.
शुक्र है घर में पंखा नहीं था, ए.सी. थे.
[ Poem Inspired From Incidences Published In Newspapers This Week ]

एक वृक्ष भी बचा रहे / नरेश सक्सेना


अंतिम समय जब कोई नहीं जाएगा साथ
एक वृक्ष जाएगा
अपनी गौरैयों-गिलहरियों से बिछुड़कर
साथ जाएगा एक वृक्ष
अग्नि में प्रवेश करेगा वही मुझ से पहले
'कितनी लकड़ी लगेगी'
शमशान की टालवाला पूछेगा
ग़रीब से ग़रीब भी सात मन तो लेता ही है
लिखता हूँ अंतिम इच्छाओं में
कि बिजली के दाहघर में हो मेरा संस्कार
ताकि मेरे बाद
एक बेटे और एक बेटी के साथ
एक वृक्ष भी बचा रहे संसार में।"