Thursday, May 31, 2018

[ The Obtuse Angle ] 4

हम सोशल मीडिया पे लिख लिख कर गुस्से का इज़हार करते हैं, वक़्त हुआ तो किसी चौराहे पे मार्च या इंडिया गेट पे कैंडल जलाने में हिस्सा बनते हैं... और लेकिन वोट अपने जाति वाले को ही देते हैं.
हम इतने सभ्य हैं कि जब तक हादसे घर पे दस्तक नहीं देते खुद की सोच तक हम नहीं बदलते. हमने अपनी जातियों/धर्मों को वोट दिए हैं. हमने अपने फ्रैंकेंस्टीन खुद पैदा किये हैं.
कितना सुख है शाम को कुर्सी पर बैठ ये सोचने में कि आज हमारे साथ कोई हादसा नहीं हुआ है... और कितना सुकूं है फोन पे ये पता चलने में कि चाहने वाले भी ठीक हैं.
सच तो ये है, सुख के साथ मैं ये लिख रहा हूँ, सुकूं के साथ आप इसे पढ़ने वाले हैं. कल नए फ्रैंकेंस्टीन फिर पैदा करने वाले हैं. कल फिर सोशल मीडिया पे कवितायेँ, चौराहे पे मार्च और कैंडल जलाने वाले हैं और उसके फोटो चस्पाने वाले हैं.
वैसे पिछली बार की कविता उतनी अच्छी नहीं थी, शायद इमोशंस कम रह गए थे. इस बार तो क्या लिखा है आपने!
इस बार की फोटो ठीक ही है. अगली बार कैंडल सामने और बैनर बगल में रख के फोटो खिचाईयेगा... बेहतरीन आएगी. पूरा एक्टिविस्ट लगेंगे.
दुआ करता हूँ ये आपके लिए 'अगली बार' जल्दी ही आएगा.

#TheObtuseAngle, 

Wednesday, May 30, 2018

ईश्वर


मैं वो कविता संग्रह हूँ
जिसे तुम पूरा पढ़ने की हिम्मत नहीं जुटा सकते
आँख के नीचे के काले पड़े सच दीखते हैं उसमें.
मैं वो सांत्वनाएं हूँ
जो सदा अधूरी रहनी हैं,
कोई भी आशायें अविचलित हो सच नहीं होनीं न कोई अरमान,
बस भ्रम हैं सच होने को, उनके लिए शुभेच्छाएं.
मैं वो लाश हूँ
जिसे तुम्हें खुद अकेले कंधे पर ढोनी है,
न कोई राम आना है, न कोई श्याम.
तुम्हारे शोर में लिपटी अंतिम दारुण आदमी की चीख का
परिणाम हूँ मैं
जिसे निस्तर अकेले छोड़ा गया है.
अनसुलझे रहस्यों का अंतिम उत्तर हूँ.
अधूरी उम्मीदों के लिए हरी-पट्टी.
गढ़ा गया हूँ जैसे आर्टिफीसियल इंटेलिजेंस गढ़ी जा रही है
जैसे तुम्हारे अंदर कालापन बढ़ रहा है
जैसे सारी सांत्वनाएं ख़त्म हो रही हैं
जैसे प्रेम धूमिल हो रहा है
जैसे आकांक्षाएं आदमी को जीने नहीं दे रही हैं
जैसे खुद के क़त्ल के लिए पारिस्थितिकी को ख़त्म तुमने किया है
जैसे प्रेम के बदले संभावनाएं, स्वार्थ और समाज चुना जाता है
(फिर घड़ियाली आसुंओं में रोया जाता है)
वैसे ही अशरीर, अश्लील ईश्वर गढ़ा जाता है.
गांजा पिये भ्रम में रहो की मैं हूँ,
क्यूंकि हर अच्छे-बुरे का उत्तर तुम्हारा बाप हमेशा नहीं दे सकता.

Monday, May 28, 2018

प्यार के अलावा


मैंने देह और प्रेम में खालिश प्रेम चुना
उसने समाज और मुझमें समाज
मैंने गीत और जुगनू में से कुछ न चुना
दोनों को आग लगा दी.
उसने आखिरी बार लिखा
‘प्यार के अलावा भी बहुत कुछ है दुनिया में’
बहुत कुछ प्यार से बड़ा था
प्यार बहुत कुछ न था.
उसने नीली आँखों में जीभर मुझे भरा
उजली हंसी से चूमा
दांतों में मेरे जिस्म छोड़ा, अटकाई यादें
फिर मुस्कुराने की दवा बताई
जैसे वो कोई हुनरमंद डेंटिस्ट हो.
फिर बहुत कुछ के पास चली गई
प्यार यहीं रह गया
जिसे मैंने बेटी की तरह पाला
और सिखाया कि प्यार बहुत कुछ से बहुत बड़ा है, सभी कुछ है.
---
प्यार के अलावा दुनिया में बस प्यार है.
अगर नहीं है
तो तुमने अपने आसपास एक झूठी दुनिया बनाई है
जो दवाओं के असर में मुस्कुरा रही है.

तुम्हारे लिए कविता


मैं तुम्हारे लिए कविता लिखता हूँ
उसमे डालता हूँ प्रेम की तमाम उपमाएं
कई सारे कठिन शब्द और कई मायने.
एक मुट्ठी चाँद को ले घोंटता हूँ,
गार्निशिंग के लिए तारे तोड़ रखे हैं.
नींद, देह, ऑंखें, होंठ, हथेली और लम्स
सबके लिए नयी नयी उपमाएं हैं.
जैसे- नींद विधवा की पथराई ऑंखें हैं
जो दीर्घ तक तुम्हारे स्वप्न देखती हैं.
देह आसमान है तुम्हारी,
जिसे मैं ओढ़ता, बिछाता हूँ.
होंठ नदी के गोल गीले पत्थर हैं
जिन्हें अपने होंठों पे बिठा मैं ईश्वर बना देता हूँ
(जैसे ऐसे पत्थर तुलसी पौधे संग ईश्वर हो जाते हैं.)
हथेलियां तुम्हारी गुजरात और पूर्वोत्तर भारत हैं,
एक में कच्छ के फ्लेमिंगोज़ घूमते हैं
दूसरे में हरियाती ब्रह्मपुत्र नदी है
और दोनों को छू कर चूमने की इच्छाएं हैं.
(बस यही दो जगह देश में अब मैंने नहीं खंगाली हैं.)
लम्स! उफ़्फ़!! हर एक छुअन वो कतरा है
जो खून में दौड़ रही है किसी इम्युनिटी की तरह...
ज़िंदा रहने का कारण बनी हुई है.
लेकिन गार्निशिंग तक ये कविता और तमाम उपमाएं
निरर्थक लगने लगती हैं.
हर कविता में मैं तुम्हारा हो जाना चाहता हूँ,
हर एक दिन पिछली दफे से ज्यादा और बेहतर प्रेम करना चाहता हूँ,
हर नई बार एक नए एहसास से छूना चाहता हूँ,
हर एक बार एक नई प्रेममई नज़र से देखना चाहता हूँ.
मेरा प्रेम किसी कविता में पूरा नहीं समा पाता
मेरे एहसास तमाम उपमाओं में भी अधूरे रह जाते हैं
इसलिए तुमपर लिखी मेरी सारी कवितायेँ अपूर्ण होती हैं.
मैं थककर इस कविता को
अधूरा ही तुम्हें सौंपता देता हूँ
और उस दिन का इंतज़ार करता हूँ
जब मैं अपनी तमाम भावनाये,
एहसास, प्रेम और हृदयेच्छाएं किसी कविता में समा पाऊं,
उसे सार्थक और पूर्ण बना पाऊं.

Sunday, May 27, 2018

तू ती को रि न


देयोनार बनो,
गाज़ीपुर बनो,
जलो, गलो, सड़ो, मरो,
चुप रहो.
चुपचाप
कानपुर,
फरीदाबाद,
लुधियाना या
दिल्ली हो जाओ.
या सवाल पूछो,
सड़कों पे आओ,
तो गोलियां खाओ
सरकारी चेतावनी सुनो.
तूती नहीं चुप्पी सीखो तूतीकोरिन.
सचेतोगे, जागरूक होंगे, मांगोगे
तो मार दिए जाओगे तूतीकोरिन.

--
Notes:
-Deonar, Gazipur- Asia's largest dumping grounds.
-Kanpur, Delhi, Ludhiyana - most polluted cities in the world.
-‘Right to clean and healthy environment’ is a fundamental right under article 21 of the Constitution.