Friday, June 30, 2017

NITI Aayog Agri Action Formula and its Effects

इन दिनों शायद ही कोई दिन बीतता हो जब खेती पर गहराते संकट को लेकर कोई खबर न आती हो. उत्तर प्रदेश से लेकर तमिलनाडु तक देश के एक बड़े हिस्से में किसान परेशान हैं. महाराष्ट्र में पिछले दो हफ्ते के दौरान ही 42 किसान खुदकुशी कर चुके हैं. तमिलनाडु बीते 140 साल का सबसे बुरा सूखा झेल रहा है. वहां के किसानों ने कुछ समय पहले दिल्ली के जंतर-मंतर पर धरना दिया था. जून की शुरुआत में मध्य प्रदेश में किसान आंदोलन उग्र हो गया था और पुलिस के साथ टकराव में छह किसानों की मौत हो गई थी. उसके बाद से राज्य से लगभग रोज ही किसानों की खुदकुशी की खबरें आ रही हैं. राजस्थान में भी किसान आक्रोशित हैं.
किसानों की समस्याओं को लेकर अलग-अलग संगठन सक्रिय हैं. इनमें भाजपा के पितृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक (आरएसएस) की शाखा भारतीय किसान संघ भी शामिल है. इन संगठनों का आरोप है कि 2015 में योजना आयोग की जगह गठित सरकारी थिंक टैंक नीति आयोग किसान विरोधी है. हाल में आयोग द्वारा जारी तीन वर्षीय एक्शन प्लान को किसान विरोधी बताते हुए इन संगठनों ने केंद्र सरकार से मांग की है कि आयोग से सुझाव स्वीकार नहीं किए जाने चाहिए.
नीति आयोग का एक्शन प्लान
बीते अप्रैल में नीति आयोग ने तीन वर्षीय एक्शन प्लान जारी किया था. इसमें 2017-18 से 2019-20 तक के लिए कृषि और शिक्षा सहित अर्थव्यवस्था के कई अहम क्षेत्रों में सुधार की रूप-रेखा तैयार की गई है. आयोग के इस एक्शन प्लान में खेती पर ‘कृषि : किसानों की दोगुना आय’ नाम से एक अलग खंड है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी अगले पांच वर्षों में किसानों की आय को दोगुना करने की बात कही है. केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने तो नौ जून को जयपुर में आयोजित एक कार्यक्रम में यहां तक कहा कि अगर 2022 तक किसानों की आमदनी दोगुनी न हो जाए तो जनता भाजपा को ठोकर मार दे.
क्या वाकई 2022 तक किसानों की आमदनी दोगुनी हो जाएगी? इन दिनों खेती के हालात देखें तो यह उम्मीद दूर की कौड़ी नजर आती है. कृषि मामलों के जानकार बताते हैं कि देश में कृषि संकट की स्थिति दिनों-दिन गंभीर होती जा रही है. दूसरी ओर, केंद्र सरकार और नीति आयोग इस संकट के मूल में जाने के बजाय इस क्षेत्र में निजी क्षेत्र की भूमिका बढ़ाने पर जोर दे रहे हैं. जानकार नीति आयोग एक्शन प्लान पर सवाल उठाते हुए इसे ‘कृषि के निजीकरण’ का रोडमैप करार देते हैं.
नीति आयोग द्वारा तैयार किए गए तीन वर्षीय एक्शन में कृषि क्षेत्र में सुधार के लिए कई नीतियों की पैरवी की गई है. इनमें न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को सीमित करना, अनुबंध वाली खेती (कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग) के साथ जीएम बीजों को बढ़ावा देना और इस क्षेत्र में निजी कंपनियों के सामने मौजूद बाधाओं को खत्म करने जैसे कदम शामिल हैं.
न्यूनतम समर्थन मूल्य का दायरा घटाना
2014 में केंद्र की सत्ता में आने से पहले भाजपा ने अपनी चुनावी घोषणापत्र में किसानों से उनकी फसल लागत से 50 फीसदी अधिक कीमत पर अनाज खरीदने का वादा किया था. इसकी सिफारिश साल 2004 में कृषि सुधार पर गठित एमएस स्वामीनाथन आयोग ने भी अपनी रिपोर्ट में की थी. कई राज्यों में किसानों के जो आंदोलन चल रहे हैं उनके तहत की जा रही मांगों की सूची में इस आयोग की सिफारिशों को लागू करना भी शामिल है.
उधर, अपने एक्शन प्लान में आयोग का मानना है कि एमएसपी की वजह से देश में फसल प्रणाली बिगड़ रही है. उसके मुताबिक किसान तिलहन और दलहन जैसी फसलों की तुलना में गेहूं, चावल और गन्ने की खेती पर अधिक ध्यान देते हैं क्योंकि इन तीनों फसलों के समर्थन मूल्य में औसतन ज्यादा बढ़ोतरी हो रही है. नीति आयोग के मुताबिक इन फसलों की अधिक खेती की वजह से पानी की उपलब्धता और जमीन की उर्वरता में कमी भी आ रही है.
हालांकि जानकारों की मानें तो जमीनी स्तर पर सच्चाई अलग है. उनके मुताबिक ऐसा नहीं है कि गेहूं, चावल और गन्ने को किसान दलहन और तिलहन पर प्राथमिकता दे रहा है. असल समस्या फसल का सही मूल्य मिलने की है. सरकार एमएसपी पर एक निश्चित मात्रा में ही खाद्यान्न या तिलहन की खरीद करती है. इसके बाद किसान को अपनी फसल बाजार में बेचनी पड़ती है जहां उसे सही दाम नहीं मिलता.
इस साल गेहूं के साथ तिलहन का भी बाजार मूल्य एमएसपी से कम रहा है. दालों की कीमत में भारी गिरावट से किसानों को नुकसान उठाना पड़ रहा है. यह गिरावट इसलिए आ रही है कि कारोबारी कम कीमतों पर दाल आयात कर रहे हैं. स्टॉक ज्यादा होने से कीमतें गिर रही हैं. यही वजह है कि किसान संगठनों ने सरकार से दालों और खाद्य तेलों के आयात पर कर बढ़ाने की मांग की है ताकि आयात को हतोत्साहित किया जा सके. लेकिन आयोग का एक्शन प्लान इस समस्या के बारे में कुछ भी नहीं कहता.
कुल मिलाकर नीति आयोग जहां एक ओर एमएसपी सीमित करने की बात कर रहा है, वहीं जमीनी हालात ये हैं कि सरकार द्वारा एमएसपी घोषित किए जाने के बावजूद किसानों को अपनी फसल की सही कीमत नहीं मिल पा रही. इसे राज्यों में ताजा किसान आंदोलन की एक बड़ी वजह माना जा रहा है. मध्य प्रदेश स्थित राष्ट्रीय किसान मजदूर संघ के नेता शिव कुमार शर्मा एक वेबसाइट के साथ बातचीत में बताते हैं कि मंडियों में किसानों का अनाज सरकारी दर से 30-40 फीसदी कम पर बिक रहा है. इसके अलावा राज्य में सरकारी खरीद एजेंसी भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) ने गेहूं की खरीदारी तय लक्ष्य से पहले ही रोक दी थी. एफसीआई ने इसकी वजह खरीद सत्र की शुरुआत में किसानों द्वारा पंजीकरण नहीं कराना बताया. इसकी वजह से किसानों को प्रति क्विंटल 200 रुपए का नुकसान उठाकर गेहूं बाजार में बेचना पड़ा.
इस महीने किसान आंदोलन शुरू होने के बाद अकेले मध्य प्रदेश में करीब 30 किसान खुदकुशी कर चुके हैं. इस बीच, राज्य के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का कहना है कि खेती में अब मुनाफा नहीं है और यह अब जनसंख्या का बोझ नहीं सह सकती. उन्होंने साफ-साफ कहा कि उनकी इच्छा है कि कुछ लोग किसानी से उद्योग और सेवा क्षेत्र में आएं. माना जा रहा है कि इन परिस्थितियों में अगर केंद्र एमएसपी में सुधार की जगह इसे सीमित करता है तो किसानों के लिए आने वाले दिन और भी बुरे हो सकते हैं.
नई व्यवस्था
नीति आयोग ने अपने एक्शन प्लान में एमएसपी को सीमित करने के लिए ‘प्राइस डेफिशन्सी पेमेंट’ नाम की भुगतान की एक नई व्यवस्था लाने पर भी जोर दिया है. इसके तहत भंडारण के लिए तय लक्ष्य के बराबर ही एमएसपी पर अनाज खरीदने की बात कही गई है. इसके बाद किसानों के पास जो भी अनाज बाकी रहेगा उसकी बाजार कीमत एमएसपी से कम होने पर ही 10 फीसदी सब्सिडी देने का प्रस्ताव है. विश्व व्यापार संगठन ने भी फसल पर सब्सिडी की सीमा 10 फीसदी तय की है.
हालांकि इस सब्सिडी को हासिल करने की राह में भी पेंच हैं. इसके लिए किसानों को एग्रीकल्चरल प्रोड्यूज मार्केटिंग कमेटीज के पास अपनी फसल और खेत का रकबा दर्ज कराना होगा. ऐसा न करने पर वे इसके हकदार नहीं होंगे. वैसे नीति आयोग के इस विचार के उलट भारत सहित अन्य विकासशील देश अभी तक खाद्य सब्सिडी को सीमित करने के अमेरिका जैसे विकसित देशों के प्रस्ताव का विरोध करते रहे हैं.
निजी क्षेत्र पर जोर
खेती में किसानों की लागत का एक बड़ा हिस्सा बीज, उर्वरक, सिंचाई आदि पर खर्च होता है. पिछले कुछ दशकों के दौरान इन मदों में किसानों का खर्च बढ़ा है. निजी कंपनियों द्वारा विकसित बीज के लिए उर्वरक, सिंचाई, कीटनाशक पर अधिक लागत आती है. जानकारों का मानना है कि यह एक ऐसा चक्र है जिसमें एक बार फंसने के बाद किसान का बाहर निकलना आसान नहीं होता. विश्व के कई देशों में इस वक्त जहां जैविक खेती को बढ़ावा दिया जा रहा है वहीं नीति आयोग ने एक्शन प्लान में इसका जिक्र तक नहीं किया गया है. इसके उलट आयोग ने बीज उत्पादन और वितरण क्षेत्र में निजी कंपनियों की भूमिका बढ़ाने की बात की है. इसके लिए कंपनियों के सामने कीमत नियंत्रण के रूप में मौजूद रूकावट को हटाने की भी पैरवी की गई है.
जेनिटकली मॉडिफाइड (जीएम) बीज को बढ़ावा
नीति आयोग ने जीएम बीज को उत्पादकता बढ़ाने वाला बताया है. साथ ही उसका कहना है कि इससे उर्वरक और कीटनाशक पर लागत में कमी आती है. आयोग ने इस बीज की पैरवी करते हुए यह भी कहा है कि इसकी स्वीकार्यता पूरे विश्वभर के किसानों में बढ़ रही है. इस पर उठ रहे सवालों और आपत्तियों को लेकर आयोग का कहना है कि इसका संबंध बहुराष्ट्रीय बीज कंपनियों से नहीं बल्कि, देशी कंपनियों और संगठनों से है. भारत में अभी तक केवल जीएम कपास को ही मान्यता दी गई है. इसके अलावा जीएम सरसों को मान्यता देने की प्रक्रिया चल रही है.
लेकिन 2012 में कृषि मामलों की संसद की स्थाई समिति ने अपनी 37वीं रिपोर्ट में आयोग के दावों के उलट बात कही थी. ‘कल्टीवेशन ऑफ जेनेटिक मॉडीफाइड फूड क्रॉप - प्रॉस्पेक्ट्स एंड इफेक्ट्स’ नाम की इस रिपोर्ट में कहा गया है कि बीटी कॉटन अपनाने वाले किसानों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है. इसके मुताबिक जीएम बीजों से खेती की लागत बढ़ने से किसानों पर कर्ज का बोझ बढ़ने की आशंका पैदा हो गई है. समिति ने अपनी रिपोर्ट में महाराष्ट्र के विदर्भ का हवाला देकर कहा है कि बीटी कपास से केवल बीज कंपनियों को फायदा हुआ.
अनुबंध कृषि पर जोर
सरकारी थिंक टैंक अपनी एक्शन प्लान में खेती में निजी क्षेत्र की भूमिका बढ़ाकर कृषि सुधार को गति देने की बात कर रहा है. इसके लिए आयोग ने अनुबंध कृषि की पैरवी की है और इसके लिए अलग से कानून बनाए जाने की बात कही है. अनुबंध कृषि के तहत किसानों के साथ एक समझौता किया जाएगा. खेती करने के लिए उन्हें आधुनिक तकनीक और तय कीमत सहित अन्य सुविधाएं मुहैया कराई जाएंगी. इसके बदले अनाज पर अधिकार निजी कंपनी का होगा.
कृषि मामलों के जानकार इस पर चिंता जताते हैं. उनके मुताबिक इससे किसान किसान ही नहीं रहेंगे. वे एक तय रकम और कुछ सुविधाओं के बदले खेतिहर मजदूर बन जाएंगे. इसके अलावा कंपनियों और किसानों के बीच किए गए समझौते में शामिल शर्तों, जैसे किसानों के लिए तय रकम का निर्धारण किस आधार पर होगा, पर भी काफी कुछ निर्भर करता है. एक वर्ग का मानना है कि भारत जैसे देश में जहां न्यायिक प्रक्रिया काफी समय लेने वाली और खर्चीली होती है, वहां कंपनियों द्वारा तय की गई शर्तों को किसानों द्वारा सही से समझना और फिर कुछ गलत होने पर इसके खिलाफ अदालत में दावा करना उनके लिए एक बड़ी चुनौती साबित हो सकता है.
Source: Satyagrah Hindi Website

‘किसानों की क़र्ज़ माफ़ी से अर्थव्यवस्था बिगड़ती है, चंद घरानों का अरबों माफ़ करने से संवरती है’ - देविंदर शर्मा

हमारे यहां बहुत सारे लोग यह मानते हैं कि अभी कुछ महीने में कुछ हुआ है कि किसानों की समस्या बढ़ गई. मध्य प्रदेश में जो गोलीबारी हुई या महाराष्ट्र में जो किसान आंदोलन हुआ, ये सब 2-4 महीनों में अचानक से नहीं हुआ है. मेरे यह मानना है कि यह सब बहुत पहले से दबा हुआ था, जिसे हम देख नहीं पा रहे थे. कृषि में जो भी समस्या थी वो भयंकर रूप लेता जा रहा था और उसे कभी न कभी तो फटना था. ये जो गुस्सा इतने सालों से दबा हुआ था वो तो निकलना था और कैसे निकलेगा यह कोई बता नहीं सकता. हम कब तक किसी को दबा सकते हैं, एक न एक दिन उसे बाहर आना था.
किसानों के आंदोलन का मुख्य कारण आर्थिक स्थिति है. हमे नहीं पता चलता क्योंकि हम शहर में रहते हैं. किसान जब आलू उगा रहा होता है या टमाटर की, सब्ज़ियों की पैदावार कर रहा होता है और जब फसल अच्छी होती है, उसके बाद जब मंडियों में उचित दाम नहीं मिलते तो वो क्या करे? जब उसको टमाटर के 30 पैसे किलो मिले या फिर 2 रुपये किलो मिले और आलू अब तक सड़ रहा है, प्याज़ का भी बुरा हाल है. यह सब कुछ दिनों में नहीं हुआ बल्कि सालों से हो रहा था और इसे लेकर गुस्सा फूटना लाज़मी था.
यह सब एक साल की बात नहीं बल्कि पिछले 5 सालों में ऐसा हुआ है कि किसानों की जो लागत मूल्य है वो तक मिल नहीं पा रही है. 5 साल का वक़्त कम नहीं होता. पांच साल तक उसने बर्दाश्त किया और उसी के बीच नोटबंदी भी आ गई थी. जिससे कृषि संकट और भी बढ़ा. वैज्ञानिक और कुछ विशेषज्ञ ऐसा कह रहे थे कि नोटबंदी का असर बुआई पर पड़ेगा. लेकिन मैंने कहा था कि इसका बुआई पर असर नहीं पड़ेगा. मूल्य पर असर पड़ेगा, लेकिन बुआई पर असर नहीं पड़ेगा, क्योंकि कोई भी किसान अपने खेत को खाली नहीं छोड़ सकता. उसका जो असर होना था वो उत्पादक की क़ीमत पर होना था.
हमारे देश में जो 2015-2016 का सूखा था मुझे लगता है उससे ज़्यादा मार नोटबंदी के कारण पड़ी है. नोटबंदी के कारण किसानों की आर्थिक स्थिति कमज़ोर हुई और उसे कम पैसे मिले. मैं जब किसानों से बात करता हूं, तो पता चलता है कि 30-40 प्रतिशत कृषि उत्पादकों की कीमतों में गिरावट आई है.
नोटबंदी के बाद कृषि क्षेत्र में भारी पैदावार हुई थी और किसानों को भी उम्मीद थी कि उन्होंने उचित मूल्य मिलेगा. उसे लगा था कि पैदावार के चलते उसकी आर्थिक हालत में सुधार होगा. लेकिन ऐसा हुआ नहीं बल्कि उत्पादकों की कीमतों में गिरावट आई, सिर्फ आलू और प्याज़ नहीं बल्कि दाल, चावल और यहां तक कि गेंहू की कीमतों में भी गिरावट देखी गई. किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य से भी 300-400 रुपये कम मिलने लगा. बिहार में मैंने देखा कि लोग 600 रुपये में गेंहू बेचते हैं, वैसे 1500 रुपये में भी बेचते हैं. जब मामला ऐसे स्तर पर आ जाएगा तो जाहिर है कि प्रतिक्रिया भी होगी.
तुअर दाल हो या मूंग दाल हो, सभी दालों में, जहां न्यूनतम समर्थन मूल्य 5000 से 5500 तक था वहां किसानों को सिर्फ़ 3000 रुपये ही मिला और सरसों में जहां 3000 रुपये था, वहां लोगों को सिर्फ 500 या 600 रुपये मिला. तुअर दाल का समर्थन मूल्य जहां 5050 था वहां औसतन उन्हें 3200 से 3400 मिले है. किसानों की इस बार पैदावार 70 फ़ीसदी बढ़ी, उसके बावज़ूद अगर उनके साथ ऐसा होगा तो किसानों को दुःख तो होगा ही.
किसानों की आमदनी दोगुनी कैसी होगी यह किसी को नहीं पता, मुझे लगता है जो ऐसा बोल रहे हैं उन्हें भी नहीं पता है. जिस तरह आजकल जीडीपी डबल हो जाती है उसी प्रकार यह भी हो जाएगा. मुझे यह सब बातें हैरान नहीं करतीं. मुझे भी याद है कि जब वित्त मंत्री अरुण जेटली ने 2016 में संसद में कहा था कि किसानों की आमदनी दोगुनी हो जाएगी. आज भी सरकार के आंकड़े कहते हैं कि हमारे देश में किसानों की सालाना औसतन आमदनी महज 20000 रुपये है यानी मासिक तौर पर 1700 रुपये से भी कम है.
कृषि क्षेत्र में हम जब आमदनी का आकलन करते हैं, तो हम देखते हैं कि कितना उत्पादक बाज़ार में आया है. लेकिन इस बार सरकार ने अलग तरीके से देखा है. सरकार ने उसने जो स्वयं के भोजन के लिए रखा है, उसे भी जोड़ कर दिखाया है. अगर किसानों की आमदनी दोनों को मिलकर 20000 रुपये सालाना है, तो मुझे लगता है इससे बड़ी क्या त्रासदी हो सकती है.
हरित क्रांति के इतने दिनों बाद भी अगर ऐसी हालत है, तो सोचना पड़ेगा. हमारे आधे देश में 1700 रुपये औसत से भी कम आमदनी है और यह सब सांकेतिक है कि उसकी हालत ख़राब है. आज उसकी आमदनी 20000 है और हम उसे 40000 हजार करना चाहते हैं, यह तो इन्फ्लेशन से अपने आप हो ही जाती है. क्या 40000 रुपये भी उसके लिए पर्याप्त आमदनी है? मुझे ऐसा लगता है कि हमने जान बूझकर किसानों को कमज़ोर अवस्था में रखा हुआ है. हम किसानों को भूखा रखते हैं. क्योंकि हमें इन्फ्लेशन को नियंत्रित करता है.
लंबे समय से किसान समस्या झेल रहा है, इसीलिए किसान प्रदर्शन करने उतरे. यह पहले की नीतियों का नतीजा है जिसमें किसान जो उगाता है, उसका उचित मूल्य भी उसे नहीं मिलता.
मुझे राजस्थान के पूर्व राज्यपाल मिले और उन्होंने कहा कि वो मेरी बात से सहमत नहीं हैं. उन्होंने कहा कि राजस्थान में एक बारिश होती है तो किसानों की आर्थिक हालत 2-3 साल के लिए सुधर जाती है. मैंने उनसे कहा कि सर आप नौकरशाही में क्यों गए, आपको तो किसान होना चाहिए था. लोग इस तरह की कथाओं का प्रचार करते हैं कि एक बारिश से किसान के पास 2-3 साल सुधर जाता है. कृषि क्षेत्र में जो 15 प्रतिशत फ़ूड इन्फ्लेशन था, वो सिर्फ बिचौलियों की वजह से था बल्कि किसान की हालत तो उसी तरह थी. उत्पादकों की अगर कीमत बढ़ भी जाती थी, तो उसका फ़ायदा कभी भी किसानों को नहीं मिलता है.
दो साल पहले प्याज के भाव बहुत बढ़ गए थे. हंगामा मच गया था. उस समय किसान को आठ रुपये मिला, लेकिन बाजार में बिका 80 रुपये, 100 रुपये. इसका फायदा किसान को नहीं हुआ, बिचौलिये को हुआ. बिचौलिया फायदा उठाते हैं लेकिन ऐसा संदेश जाता है कि किसान को बहुत फायदा हो रहा है. लेकिन वैसा नहीं होता.
हमारे देश में खरीद मंडियां सिर्फ 7000 है बल्कि जरूरत के हिसाब से देश में कम से कम 42000-45000 मंडियां होनी चाहिए. मंडियों की कमी के चलते समर्थन मूल्य का वितरण संभव नहीं हो पाता. हमारे देश में जब हरित क्रांति हुई थी, तब हमारे नीति निर्माताओं ने सबसे अच्छा काम किया कि न्यूनतम समर्थन मूल्य का प्रावधान लाया, जहां किसानों को उनके फसल के लिए एक न्यूनतम निर्धारित मूल्य मिलेगा.
समर्थन मूल्य का फ़ायदा यह था कि किसान जब अपनी फ़सल बाज़ार में लाता है, तो वो चाहे तो किसी भी क़ीमत पर उसे बेच सकता है, लेकिन अगर कोई ख़रीदार नहीं मिला तो सरकार एक न्यूनतम मूल्य पर उसे ख़रीद लेती थी. यह ख़रीद का न्यूनतम मूल्य है कि इससे नीचे फ़सल का दाम नहीं गिरना चाहिए.
दूसरा, सरकार ने एफसीआई का गठन किया जो ख़रीद और वितरण पर नज़र तो रखेगा. एफसीआई का दो काम था, पहला सारी परिस्थितियों को मैनेज करना और दूसरा, वितरण प्रणाली यानी पीडीएस के ज़रिये जहां जहां कमी है, वहां पर वितरण का काम करना. मैं मानता हूं इसमें भ्रष्टाचार बहुत है लेकिन इसे ठीक करने की ज़रूरत है.’
जो समर्थन मूल्य प्रणाली है उसमें थोड़ी दिक़्क़त है. समर्थन मूल्य प्रणाली में सिर्फ़ फ़सल का लागत मूल्य सुरक्षित किया जाता है. उसके अलावा उसमें मुनाफ़ा नहीं मिलता. पूरे देश के लिए एक ही प्रकार का समर्थन मूल्य है, जबकि अलग अलग राज्यों में अलग अलग परिस्थिति है. पंजाब का किसान हर साल नुकसान में है. इससे भी समस्या आती है.
हमारा कृषि का जो केंद्र था वो पंजाब हरियाणा का बेल्ट होता था और हम सिर्फ़ उसी पर केंद्रित रहे. हमारे देश में जो 7700 मंडियां है उसमे से 70 फ़ीसदी मंडियां सिर्फ़ पंजाब और हरियाणा में है. उत्तर प्रदेश गेंहू का सबसे बड़ा उत्पादक है, उसके बावज़ूद सरकार सिर्फ़ 3 प्रतिशत गेंहू लेती है बाकी 97 फ़ीसदी खुले बाज़ार में बिकता है. अगर बाज़ार में दाम गिरता है तो किसानों को भारी नुकसान सहना पड़ता है.
अब यूपी के किसान अपना अनाज बेचने के लिए हरियाणा के मंडियों में आते हैं. क्योंकि वहां मंडियां नहीं हैं. यदि किसान हरियाणा आता है तो उसे सुरक्षित मूल्य मिल जाता है. सरकार को मंडियों की संख्या पर ध्यान देना होगा और उसको बढ़ाना होगा, ताकि किसानों को फ़ायदा पहुंच सके. ब्राज़ील में हर 20 किलोमीटर पर मंडी है और वहां की सरकार वचनबद्ध है कि किसान जो भी पैदा करेगा वो उसे ख़रीदेगी. इसी लिए ब्राज़ील ‘जीरो हंगर’ की स्थिति में पहुंच चुका है. उल्टा हमारे देश में जो भी मंडियां है उन्हें ख़त्म करने का काम किया जा रहा है.
पंजाब में ख़रीद मंडियां ज़्यादा हैं इसलिए किसानों को गेंहू का समर्थन मूल्य 1625 मिल जाता है, पर बिहार में मंडियां नहीं हैं जिसके चलते उन्हें अपना गेंहू 1000-1200 रुपये में बेचना पड़ता है. अगर हम पंजाब की मंडियां हटा देंगे, तो पंजाब का किसान भी बिहार का किसान बन जाएगा.
मैंने 1996 में चेन्नई में स्वामीनाथन फाउंडेशन के एक कार्यक्रम में गया था, जहां वर्ल्ड बैंक के एक अधिकारी आए थे, उन्होंने कहा था कि 2015 तक भारत में गांव से शहर की तरफ़ पलायन करने वालों की जनसंख्या इंग्लैंड, फ्रांस और जर्मनी की जनसंख्या के मुक़ाबले दोगुनी होगी. वर्ल्ड बैंक ने यह आकलन किया था कि 40 करोड़ लोग शहर की तरफ़ चले जाएंगे.
कृषि की जो समस्या है वो सरकार की तरफ से नियोजित समस्या है. सरकार दरअसल चाहती है कि यह सब हो, सरकार बस यह नहीं चाहती थी कि कोई विरोध प्रदर्शन करे. सीआईआई की रिपोर्ट कहती हैं कि ज़मीन अधिग्रहण करके 2022 तक सरकार में बैठे लोग 30 करोड़ रोज़गार पैदा करना चाहते हैं, जो आज़ादी के 70 साल बाद भी नहीं हुआ. मुझे नहीं समझ में आ रहा है कि यह कैसा दावा है कि आप 5 वर्ष के भीतर इतने बड़े पैमाने पर रोज़गार खड़ा कर देंगे.
मुझे लगता है कि इनका दावा कहता है कि जो किसान शहर की तरफ़ आएंगे, वे इनकी स्मार्ट सिटी में दिहाड़ी मज़दूर बन जाएंगे. क्या इनको दिहाड़ी मज़दूर बनाना ही देश में रोज़गार पैदा करने का तंत्र है? हमारे देश की जो स्किल डेवलपमेंट रिपोर्ट है उसमें लिखा है कि कृषि क्षेत्र में जो जनसंख्या 52 फ़ीसदी है, उसे 18 फ़ीसदी पर लाया जाएगा.
हमारे देश की अर्थव्यवस्था ऐसा लगता है सीआरआर रेटिंग एजेंसी चला रही है और हमारे अर्थशास्त्री भी इसी को मापदंड के रूप में देखने लगते हैं. सरकार भी कहती है कि अगर किसानों का कर्ज़ माफ़ किया तो इस एजेंसी से बुरी रेटिंग मिलेगी. उत्तर प्रदेश में किसानों का जो कर्ज़ था 36000 करोड़ माफ़ कर दिया है, उसकी बात हो रही है, पर डिस्कॉम का जो 72000 माफ़ कर दिया गया, उसकी तो कोई बात ही नहीं कर रहा है.
एसबीआई की चेयरमैन अरुंधति ने टेलीकॉम सेक्टर के 4 लाख करोड़ को रिस्ट्रक्चर करने को लेकर तो बयान दे दिया, लेकिन किसानों के लिए सभी राज्यों में क़र्ज़ माफ़ करने की मांग मान लेते हैं तो कुल 3.1 लाख करोड़ है. कृषि क्षेत्र में क़र्ज़ माफ कर देने से 32 करोड़ लोगों को फ़ायदा मिलेगा. 32 करोड़ के लिए आप कहते हैं कि आर्थिक हालत बिगड़ जाएगी, लेकिन 15 घरानों के लिए 4 लाख करोड़ माफ कर देने पर आर्थिक वृद्धि होती है. हमारी सारी नीतियां यही हैं कि हमें सिर्फ़ एक प्रतिशत की मदद करनी है. कुछ घरानों का 10 लाख करोड़ का क़र्ज़ आर्थिक बढ़ोतरी मानी जाती है और किसानों का 3.1 लाख करोड़ आर्थिक नुकसान मानते हैं.
सातवें वेतन आयोग के चलते सरकार पर 4.80 लाख करोड़ का भार होगा, जिसका फ़ायदा सिर्फ़ एक फ़ीसदी लोगों को ही मिलेगा. अगर सरकार यही काम 52 फ़ीसदी किसानों को लिए कर दे, तो देश में हंगामा मच जाएगा. सरकार इस बातों पर क्यों नहीं विचार करती? मैं मानता हूं कि कृषि क्षेत्र अकेले इतना सक्षम है कि वो आर्थिक हालत में सुधार ला सके.
आज हमारा किसान थोड़ा समझदार हो चुका है. सोशल मीडिया के माध्यम से उसे पता है कि उसके साथ किस तरह की नाइंसाफी हो रही है. अब जब उसे सब पता चल रहा है तो इसी के कारण उसमें ग़ुस्सा बहुत है. पहले नहीं पता होता था तो वो कुछ नहीं कहता था पर आज जो इतने वर्षों का ग़ुस्सा है, वो फूट रहा है. मुझे लगता है सरकार को इसपर गंभीरता से विचार करना चाहिए कि अगर हम अपना कृषि क्षेत्र नहीं बचा पाए तो अर्थव्यवस्था भी नहीं बचा पाएंगे.
Devinder Sharma, Source: TheWireHindi