Tuesday, February 6, 2018

मुकम्मल कविता

तुम इक मुकम्मल कविता की तलाश में
सबेरे-सबेरे निकाल पड़ते हो
एहसासों की यात्रा में
लेकिन रास्ते में तुम्हें वह दारुण बच्चा मिलता है
जिसके पिता ने आर्मी में दी है जान
लेकिन उसे एक अच्छे स्कूल में नहीं मिला एडमिशन.
तुम उसकी विधवा मां की करुण आंखों में
कविता कहने का सपना छोड़ देते हो.
सबेरे-सबेरे मुकम्मल कविता की तलाश में निकलते
तुम्हें एक मजदूर मिलता है
जिसका आधार कार्ड तो है
लेकिन उंगलियां मजदूरी करते घिस गईं हैं
सरकारी लाभ से वंचित इस 'सेकेंड सिटिज़न'
की पोरों में छोड़ आते हो एक अलिखित कविता.
एक लड़की
जिसने नंगी आंखों से दंगों के
मरते देखा होता है अपना परिवार
और देखा होता है होता खुद का बलात्कार.
उस लड़की के विक्षिप्त मन में उतरते
कविता का 'क' भी नहीं कह पाते हो.
एक स्कूल बस मिलती है
जिसे ऐसे जाहिलों ने जलाया होता है
जो कभी स्कूल नहीं गए
लेकिन अपने निम्न इतिहास बोध के कारण
दंगे-फसाद-भय-जुर्म से राजनीति सेंकना चाहते हैं
तुम सिर फूटे चार साल के स्कूली बच्चे के
रिसते घाव में कविता का भाव छोड़ आते हैं.
थक हार जब मिलती नहीं कोई मुकम्मल कविता
तब नेरुदा उठा पढ़ना शुरू करते हैं
लेकिन वहां भी श्रीलंकन-तमिल औरत
निर्वस्त्र खड़ी दिखती है
जिसका नेरुदा ने कभी बलात्कार किया था.
... और तुम कविता लिखने का ख्याल
अख़बार के पन्नों, नेरुदा की किताब
और अपने आदमी होने के एहसास के साथ जला देते हो.