Saturday, November 30, 2019

रावण के जन्म की कहानी



रावण नाम सुनते ही हमारे अंदर एक दैत्याकार , दस सिर  बीस हाथ वाले आदमी का चेहरा उभर आता है. कुछ के सामने शायद रामानंद सागर के रामायण के अरविंद त्रिवेदी जी द्वारा निभाए चरित्र का चेहरा उभर आता हो. लेकिन जो भी है आता चेहरा एक राक्षस का ही सामने है. लेकिन क्या रावण वाकई राक्षस था? इसे जानने के लिए हमें रावण के जन्म की कथा पर जाना होगा.

हुआ यूँ की राक्षस राज सुमाली ने सब दैत्यों को हरा दिया था. वो और उसके भाई माली और माल्यवान मिलकर बहुत ताकतवर थे. उसकी स्वयं की पत्नी केतुमति एक गन्धर्व कन्या थी. सुमाली स्वयं एक बेहद शक्तिशाली राजा था. उसने सारे दैत्यों और देवों को जीत कर अपना राज्य लंका में स्थापित किया था. किन्तु कालांतर में उसका शक्तिशाली भाई माली विष्णु के हाथों मारा गया और बाद में देवों के हाथों हार कर उसे रसताल में शरणागत होना पड़ा. विक्षुप्त सुमाली अब खुद से भी ज्यादा शक्तिशाली, समझदार, ज्ञानी पुरुष को अपने उत्तराधिकारी के रूप में चाहता था. वह चाहता था कि न सिर्फ देवगण उसके उत्तराधिकारी से डरें बल्कि  वो इतना तपी, हठी, योगी हो कि त्रिदेवों (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) को भी उसके ज्ञान, तप और योग का भय हो.

उसी समय स्वयं ब्रह्मा के पौत्र और महर्षि पुलत्स्य के पुत्र विश्रवा के तप के चर्चे सारे ब्रह्माण्ड में गूंज रहे थे. इनके तप, ऋषिव्रत से प्रसन्न हो महर्षि भारद्वाज ने अपनी कन्या इलाविडा का विवाह इनसे किया था. सुमाली और केतुमति को ये पुरुष युगपुरुष सा प्रतीत हुआ. विश्रवा के बारे में विस्तार से पता किया गया और सुमाली और केतुमति ने अपनी सबसे सुन्दर कन्या कैकसी जो खुद गन्धर्व कन्या कि तरह ही बेहद सुन्दर थी, का विवाह विश्रवा से करने का निश्चय किया. लेकिन परेशानी ये थी कि इतना बड़ा योगी किस तरह कैकसी से विवाह हेतु तैयार हो? इसके लिए कैकसी ने ऋषि आश्रम एक समक्ष अपने सौंदर्य का प्रदर्शन किया, ना-ना प्रकार से रिझाया, स्वयं सुमाली ने इस तरह का प्रेमाच्छिद वातावरण बनाया कि विश्रवा कैकसी के प्रेमपाश में बांध जाएँ. और हुआ भी यही. विश्रवा ऋषि कैकसी के प्रेम में बंधे अपना घर, अपने पुत्र कुबेर और पहली पत्नी इलाविडा को छोड़ कर कैकसी के साथ रहने के लिए आ गए. उन्होंने नया आश्रम बनाया और वहीँ कैकसी के साथ निवासरत हुए.

कालांतर में महर्षि विश्रवा और कैकसी को तीन पुत्र रावण, कुम्भकर्ण, विभीषण और एक कन्या प्राप्त सूर्पनखा प्राप्त हुए.

कहते हैं इन तीनों पुत्रों में से प्रथम पुत्र रावण में अनुवांशिक रूप से अपने पिता और अपनी माता दोनों के कुलों के बराबर गुण आये. दूसरे पुत्र कुम्भकर्ण में माता के कुल के गुण थे. अंतिम पुत्र विभीषण में पूर्णत: पिता के कुल के गुण थे.

रावण में माता के कुल और पिता के कुल दोनों के गुण अनुवांशिक रूप से समाये हुए थे. इसलिए वो पिता के कुल की ओर से जहाँ स्वयं भगवान ब्रह्मा का प्रपोत्र था तो योगी श्रेष्ठ विश्रवा का पुत्र था. मतलब उसमे देवीय अंश, श्रेष्ठ ऋषि के श्रेष्ठ मानवीय अंश एक साथ विद्यमान थे. वहीँ माँ के कुल की तरफ से नानी के गन्धर्व अंश तथा पिता के बलशाली राक्षस कुल के अंश थे. मतलब रावण में बुद्धि, तप-तपस्या-त्याग, योग, ज्ञान जैसे दैवीय गुण एवं संयम, अभय, विवेक, न्याय जैसे मानवीय गुण अनुवांशिक रूप से से ही विद्यमान थे तो साथ में बल, शक्ति, युद्ध निपुणता तथा कपट,  क्रूरता, हिंसा जैसे राक्षसी गुण-अवगुण भी थे तो गांधर्वीय सौंदर्य, संगीत-ज्ञान एवं सांस्कृतिक निपुणता भी जन्म से मौजूद थी. इसलिए रावण सर्वोत्तम योगी व शिव भक्त था, एक बेहतरीन वीणा वादक, एक बेहतरीन योद्धा हुआ. इसलिए वह एक योगी का पुत्र होते हुए भी लंका को जीत पाने में समर्थ हुआ बल्कि वहां का बेहतरीन और जन-मान्य राजा भी साबित हुआ. रावण को चारों वेदों का ज्ञान था और सारे छह: शास्त्र भी ज्ञात थे. कहते हैं उसके दसों सिरों का मतलब भी यही है कि उसे चार वेद और छह शास्त्र ज्ञात थे. जैन धर्म में उसके दस सिरों का मतलब उसको दस दर्शनों का ज्ञान होना बताते हैं.

लेकिन इतना ज्ञान, प्रतापी, शिव-भक्त, आनुवंशिक रूप से श्रेष्ठ रावण के साथ ऐसा क्या हुआ था कि उसको मरने के लिए स्वयं भगवान को अवतार लेना पड़ा?
कारण ये था कि रावण का जन्म एक साजिश के माध्यम से हुआ था. इसलिए उसका लालन-पालन भी नाना-कुल के सानिध्य में हुआ. इसलिए भले ही उसमें अनुवांशिक रूप से राक्षस कुल के बस कुछ अंश थे किन्तु पालन-पोषण और संपर्क में मिले संस्कारों के कारण उसमें राक्षसी प्रवित्तियाँ ज्यादा हावी हुईं और अंतत: अंत का कारण भी बनी.

Sunday, June 30, 2019

Article 15


Gaurav Solanki की पहली कहानी मैंने 'चालीस' पढ़ी थी.  फिर 'हिसार में हाहाकार' पढ़ी,  लगा कि ये लड़का सच लिख देता है,  जैसा होता है वैसे ही.
सच मतलब कुछ की भाषा में डार्क ट्रुथ ऑफ द सोसायटी.  उससे conversations हुए तो ये लगा भी. 
Article 15 उसकी लिखी एक बेहतरीन फिल्म है.  सच जो कि लेयर्स में है,  नग्न है और एक युवा अधिकारी जिसकी खोज में है.

सच जो उसके बिल्कुल करीब है, साथ में जीप में चलता है,  लेकिन उसे ढूंढना और खोजना बेहद मुश्किल है.

हर सच को छुपाने एक पूरी जमात खड़ी होती है,  यहाँ भी है.

एक दलित क्रान्तिकारी भी है,  एक बेहद intelligent स्टूडेंट रहा है लेकिन कास्ट सिस्टम में कई प्रतिभाओं की तरह ही पिस गया आदमी.

हालांकि फिल्म में ये किरदार बहुत नहीं उभर पाया है.  उसके आने से अंत तक बहुत ज्यादा पता नहीं चलता.  हम उसकी हत्या से पहले उसके dialogues तक ज्यादा जुड़े महसूस नहीं कर पाते.

ऑफिसर और उसकी गर्लफ्रेन्ड के बीच के conversations फिल्म का बेहतरीन पार्ट हैं और अखबार के पेज-3 और पेज-7 के बीच के पेज लगते हैं. समझने लायक,  सुनने लायक,  गुढने लायक.
 ये 'गांवो में क्या हो रहा है और शहर तक क्या सच पहुँच रहा है' वाला अंतर है.

ये पुलिस अधिकारी कोई सिम्बा या सिंघम नहीं है.  एक साधारण युवा जो ट्रेनिंग के बाद अपनी पहली पोस्टिंग पे आया है.  किर दार सच के इतने करीब है कि Vipin की पहली पोस्टिंग की कहानियों की याद दिलाता है.

कई जगह पर किताबी हो जाने के बाद भी ये फिल्म एक बेहतरीन सिनेमा है.

Caste के अंदर caste,  category के अंदर sub-category की बात करते,  उनके अंतर  उजागर करते हमें फ्रेम दर फ्रेम में सोचते रहने को मजबूर करती है.

ये फिल्म Reservation के खिलाफ आंदोलित युवाओं को धैर्य रखने को कह सकती है.  उन्हें अपने दूषण की और झांकने का मौका देती है.
ये फिल्म 'Elite' दलित तबके को भी ये अधिकार खुद छोड़ निचले तबके को पहुंचाने की सलाह हो सकती है. निचले स्तर पे काम करने की सलाह हो सकती है. (हालांकि फिल्म खुद ये कह देती है कि जो दलित व्यक्ति ऊपर उठ के जाता है वो नीचे हेय दृष्टि से देखना शुरू कर देता है.)

फिल्म अन्य कारणों के अलावा इस दशक की सबसे अच्छी सिनेमाटोग्राफी के लिए भी याद की जाएगी.

हम सबका हमारे नग्न सच को एक बार देखने जाना तो बनता है.

-Vivek Vk Jain

#Article15 #RightToEquality #Constitution

For Reference:

Article 15 in The Constitution Of India 1949

15. Prohibition of discrimination on grounds of religion, race, caste, sex or place of birth
(1) The State shall not discriminate against any citizen on grounds only of religion, race, caste, sex, place of birth or any of them
(2) No citizen shall, on grounds only of religion, race, caste, sex, place of birth or any of them, be subject to any disability, liability, restriction or condition with regard to
(a) access to shops, public restaurants, hotels and palaces of public entertainment; or
(b) the use of wells, tanks, bathing ghats, roads and places of public resort maintained wholly or partly out of State funds or dedicated to the use of the general public
(3) Nothing in this article shall prevent the State from making any special provision for women and children
(4) Nothing in this article or in clause ( 2 ) of Article 29 shall prevent the State from making any special provision for the advancement of any socially and educationally backward classes of citizens or for the Scheduled Castes and the Scheduled Tribes

Thursday, April 18, 2019

मैंने मंटो से क्या सीखा | तसनीफ़ हैदर

रूसी कहानीकार चेखव के बारे में ये बात उर्दू के एक राइटर मुहम्मद मुजीब ने कही थी कि उसका दिल बहुत बड़ा था, वो इंसानियत के तमाम गुनाहों को माफ़ कर सकता था। मंटो के बारे में भी ठीक यही बात कही जा सकती है। आप कहेंगे कि राइटर गुनाहों को माफ़ करने का ठेकेदार है क्या?

मेरे ख़याल में मंटो से बहुत कुछ सीखने की ज़रूरत है—बल्कि हर उस बात का ठेका लेने की भी, जिसके लिए यार-दोस्त मना करते हैं, हिकमत से काम लेने का मश्वरा देते हैं, ख़ुश-ओ-ख़ुर्रम रहने, चुप रहने और हँसने-बोलने की एक्टिंग करने का लेक्चर देते हैं—उन संवेदनशील लोगों को भी, जिनके लिए ये काम ज़रा मुश्किल है।

मुझे मंटो ने सिखाया कि संवेदनशील होने के लिए राइटर होना शर्त नहीं, मगर राइटर होने के लिए संवेदनशील होना बहुत ज़रूरी है। कहानी लिखना और कहानी जीना दोनों अलग बातें नहीं हैं, कहानी उसी दिमाग़ से निकलती है, जो पल-पल यहाँ समाज के ग़ैरज़रूरी स्पीड ब्रेकरों से ठोकर खाता रहता है। इसलिए उस दिमाग़ का इस्तेमाल न करना, सवाल न पूछना और कहानी के ज़रिये अपनी कमीनगियों या अपनों की बदमाशियों को दरयाफ़्त न करना, एक खोट है। इन सब बातों के लिए ज़िम्मेदारी लेनी पड़ती है, जिसे व्यंग्य की ज़बान में ठेका लेना भी कहा जा सकता है, मंटो इस व्यंग्य को सहने के लिए तैयार था, उसने नासूरों से रिसते हुए पीप को दिखाते हुए किसी क़िस्म की शरम का इज़हार नहीं किया, बल्कि बेझिझक अपना कुरता उठा दिया और साथ-साथ समाज की सलवार भी खोल दी।
मंटो रूसी कथाकारों में जिस शख़्स से सबसे ज़्यादा प्रभावित था, वह गोर्की था, गोर्की के बारे में मशहूर है कि वह घर में बैठ कर कहानी लिखने का आदी नहीं था, लोगों से मिलना, ख़ास तौर पर उस तबक़े से जिसे कीचड़ में पैर डुबो कर जीने पर मजबूर किया जाता है, उसकी आदतों, लोभ की ऊँचाइयाँ और जिद्द-ओ-जहद को देखना उसने अपने ऊपर फ़र्ज़ कर लिया था। मंटो ने गोर्की से यह फ़न हासिल किया और वह भी अलग-अलग शहरों के अलग-अलग किरदारों से ठीक उसी अंदाज़ में मिला। उसने ऐसे लोगों पर कहानियाँ लिखीं, जिनको आम तौर पर हमारे यहाँ का राइटर दरयाफ़्त नहीं कर पाता और करता है तो उन पर अपनी तहरीर का इतना लाली-पाउडर पोत देता है कि वो नक़ली, बे-जान और धुँधले नज़र आते हैं। मंटो ऐसा नहीं करता, वो कहानी में उस किरदार के साथ अपने तजरबों को बयान करता है।
ज़िंदगी की कच्ची-पक्की नालियों में तैर रहे ऐसे किरदारों को हाथ डाल-डाल कर बाहर निकालना या फिर ख़ुद उनके साथ इस बदबूदार माहौल में उतर कर वहाँ की ज़िंदगी को बरत कर देखना मंटो का ख़ास और न भुला सकने वाला काम है। फ़्योदोर दोस्तोयेवस्की के नॉविल Insulted & Humiliated में एक ऐसे बूढ़े का ज़िक्र है, जिसको कहानीकार ख़ुद एक उदास और ज़लील मौत मरते हुए देखता है। मंटो ने रूसी नॉविल-निगारों से सिर्फ़ ऐसी हक़ीक़तपसंदी नहीं सीखी, उसने उन हक़ीक़त-निगारों का वह सूक्ष्म विश्लेषण भी हासिल किया, जो मुल्की हालात और सियासत, मज़हब और उसके पाखंड का पर्दा चाक करता है, लेकिन चूँकि मंटो अफ़साना लिखता था, नॉविल नहीं, इसलिए उसे इस विश्लेषण को, जिसे विस्तार की बहुत ज़रूरत थी, दूध पर से मलाई की तरह फूँक-फूँक कर हटाना भी पड़ता होगा, उसकी ऐसी कहानियाँ जो सोसाइटी में उबलते हुए दुख के फोड़ों को नुमायाँ करती हैं, विस्तार से तो ख़ाली हैं, मगर तजरबों से नहीं, जिनमें ‘हतक’, ‘नया क़ानून’, ‘सहाय’, ‘नंगी आवाज़ें’, ‘मेरा नाम राधा है’ वग़ैरा कई कहानियाँ शामिल हैं।
पुरानी कहानियों में सुनते थे कि नवाब साहब को किसी वेश्या पर प्यार आ गया तो उन्होंने उसे घर डाल लिया, शादी करली, फ़लाँ-फ़लाँ। मगर ऐसी हिम्मत और कौन-से राइटर में थी जो किसी वेश्या को बहन बनाता। इस नुक्ते की जानिब मेरा ध्यान कुछ साल पहले मेरे एक दोस्त ने दिलवाया। मंटो वेश्या या तवाइफ़ को बहन बना कर देखता था, मगर उसका ऐसा भाई न था, जो उसकी दलाली करता फिरे, बल्कि वह उसके ज़ख़्मों को ज़बान देने वाला भाई था। उसने औरतों के जितने किरदार अपनी कहानियों में तराशे हैं, वे ज़्यादातर असली हैं, बल्कि अगर सभी को असल ही समझा जाए तो कुछ ग़लत न होगा।
हो सकता है कि वह किसी किरदार को मुकम्मल तौर पर बयान करता हो, किसी को आधा और किसी के सिर्फ़ चंद पहलू, मगर औरत के साथ उसका रिश्ता एक आइडियल रिश्ता है, जिसमें उसने नसीहतों के तम्बू नहीं ताने हैं। उसके यहाँ औरत मर्द की ही तरह मज़लूम भी है, ज़ालिम भी, मक़्तूल भी है, क़ातिल भी। ‘हतक’ में सौगंधी का किरदार पढ़ते हुए अगर आपके ज़हन में दोस्तोयेवस्की के नॉविल ‘इडियट’ की नस्तास्या फ़्लीपोवना आ जाए तो उसे मंटो पर रूसी कथाकारों का एक तरह का प्रभाव समझा जा सकता है। नस्तास्या का किरदार सौगंधी की ही तरह मुँहफट, ख़तरनाक और झुँझलाने वाला है, जो मर्द को अंदर तक झिंझोड़ कर रख दे। हमारे समाज में ज़्यादातर पत्नियाँ इन्हीं किरदारों की एक सूरत होती हैं, इन्हीं का रंग-रूप और तेवर लिए, मैंने ख़ुद ऐसी बहुत-सी औरतें देखी हैं, बस उनके पास समाज को दिखाने के लिए एक सनद होती है, मगर यह बात उनके हक़ में सम-ए-क़ातिल (ज़हर) भी है, क्योंकि न तो वे सौगंधी की तरह अपने यार पर रिवॉल्वर तान सकती हैं और न ही नस्तास्या की तरह उन्हें भरी महफ़िल में बदनाम कर सकती हैं। मंटो औरत के बारे में कोई नतीजा निकालने के हक़ में नहीं है, ऐसी ग़लतियाँ आपको रूसी नॉविल-निगारों के यहाँ मिल जाएँगी, मगर मंटो जजमेनटल नहीं होता, हरगिज़ नहीं।
‘मेरा नाम राधा है’ में हालाँकि उसने मर्द और औरत के रिश्ते में भाई-बहन के रेशमी फ़ीते को उस बोर्ड की ही तरह क़रार दिया है, जिस पर लिखा होता है यहाँ पेशाब करना मना है। मगर मंटो जब ख़ुद एक भाई के ढाँचे में तब्दील होता है तो उसे बहन की छातियों से परेशानी नहीं होती, वह उन्हें दुपट्टे के नीचे ढाँक कर ज़मीन पर सीना तान कर चलने का धोखा ख़ुद को नहीं देता, बल्कि वह बहन के सीने की डोर को साँसों के उतार-चढ़ाव के साथ बहुत ऐतमाद के साथ देखता है और उसकी मनोवैज्ञानिक समस्याओं को इन्हीं डोरों की मदद से बयान करता है।
मंटो सज़ा के ख़िलाफ़ है, उसकी ज़्यादातर कहानियों में किरदार ऐसी अजीब समाजी चक्की में पिसते हुए नज़र आते हैं, जिनमें मुजरिम ख़ुद ही एक घिनौने और बेहूदा जुर्म का शिकार दिखाई देता है। किसी का पेट चाक करने वाला, झूठ बोलने वाला, दलाली करने वाला, औरत को पीटने वाला या फिर शराब और बीड़ी के धुएँ में ग़म ग़लत करने वाला, गालियाँ बकने वाला और झूठी क़समें खाने वाला। दरअसल, ये सब इस बे-ग़ैरत और सोए हुए समाज के ऐसे ढके हुए पत्ते हैं, जिन्हें मंटो उलटने का हुनर जानता है। जो लोग समझते हैं कि वह सिर्फ़ अख़बारों की सुर्ख़ियों की मदद से कहानी गढ़ता है, वे ग़लत हैं, क्योंकि अख़बार की सुर्ख़ी के नीचे मौजूद कहानी का पूरा ब्यौरा, वह मुख़्तलिफ़ इलाक़ों में घूम कर, आँखें छील कर तैयार कर चुका होता है। ख़बर कोई भी हो, कैसी भी हो, वह अकेली नहीं होती, बल्कि वह एक इशारा होती है, समाज में पनपने वाले रुझानों को नुमायाँ करने वाला इशारा। अब तो ख़ैर हम इन इशारों को मंडी में ले आए हैं और ऐसे पतले मोटे, लंबे-चौड़े इशारों की तलाश में रहते हैं, जिनसे कुछ कमाई हो सके। मगर मंटो कमाई के लिए ख़बरों को तलाश नहीं करता था, बल्कि वह अपने तजरबों की कॉपियों को ख़बरों के अक्स से मिला कर देखता और उन्हें रक़म करता था। उसने जिन अदीबों या लेखकों को पसंद किया, वे फाँसी के ख़िलाफ़ थे, ख़ुद वह भी रहा होगा, फाँसी इस समाज की घुटन का इलाज नहीं, बल्कि फंदे खोल देना ज़्यादा ज़रूरी है।
मैंने मंटो से सीखा है कि ख़ुद को घोल कर कहानी को कैसे जिया जाता है। वह कौन-सा बोझ है जो एक शाइर और लेखक को पत्रकार और पुलिस अहलकार से ज़्यादा हलकान कर देता है, जबकि पत्रकार और पुलिस का वास्ता तो आए दिन ऐसी ख़बरों से पड़ता है, बल्कि उनका काम ही अजीब हरकतों के ग़लीज़ नतीजों को देखना और बयान करना है, मुजरिमों की फ़िराक़ में फिरना है, उनकी ताक में रहना है, लोगों की अनोखी ख़ूनी ख़्वाहिशों का सामना करना है। बल्कि किसी मनोवैज्ञानिक को भी जो ऐसे मरीज़ों को, जो नित-नए दिमाग़ी रोगों में मुब्तिला होते हैं, देखते रहने की आदत होती है, फिर भी ऐसा किया है कि इन तीनों के मुक़ाबले में लेखक इन सोचों के पैदा होने और पनपने के ग़म में घुलता रहता है, मंटो सिखाता है कि बे-हिसी और अनदेखी मुमकिन नहीं। ख़ास तौर पर उस शख़्स के लिए जो फ़िक्शन-निगार हो या फ़िक्शन को पढ़ना ही क्यों न पसंद करता हो। हर हाल में उसे अपने ज़हन-ओ-दिल को इंसानियत के लिए कुशादा रखना होगा और टूटते हुए तअल्लुक़ात, बिगड़ते हुए हालात और ग़ैरज़रूरी विरोध के बावजूद अपने अंदर के क़लमकार को ज़िंदा रखना होगा जो हर हालत में सच लिखने से बाज़ न रहे। ऐसा सच जिसकी कोई तकनीक नहीं, बस वह खरा हो।
-तसनीफ़ हैदर

Saturday, April 6, 2019

लव/अरेंज मैरिज (Stories From South India Tour)



सर मेरे दादा ने प्रेम विवाह किया था. अलग जाति में. सर लड़ाई हुई, तलवारें चल गईं. दादा के पिता (परदादा) मारे गए.

दादा यहाँ आ गए. वो नेशनल पार्क के कॉर्नर में बसी अपनी 15 - 20 घरों की बस्ती की ओर इशारा करता है.
अब हम सब यहाँ जंगल बचा रहे हैं. सबको रोजगार मिला है यहाँ. वो हिंदी- अंग्रेजी मिक्स कर के बोल रहा है.

'सर आपकी शादी हो गई?'

'हाँ'

'सर अब तो इंटर-कास्ट मैरिज में कोई प्रॉब्लम नहीं है. वो आज़ादी के पहले की बात थी. आपका इंटरकास्ट है?'

'न' मैं कहीं और ही खोया हूँ.

मुझे एक दोस्त की बहन याद आ रही है जिसे प्रेम विवाह करना था, लेकिन दोस्त के अलावा कोई और तैयार न था. बहन की शादी कहीं और की गई. दो साल बाद illicit  abortion के complications  की वजह से उसकी मृत्यु हो गई!

मैं उस बस्ती की ओर देखता हूँ और सोचता हूँ कि काश! दोस्त के पिता भी मान गए होते.

 मैं हरे भरे जंगल के पास हरी भरी बस्ती देख रहा था लेकिन दोस्त की आँखों में बसी बहन की राख सोच रहा था!


Image result for silent valley national park village

Monday, February 4, 2019

निज़ार क़ब्बानी की कविताएँ (अनुवाद : पूजा प्रियंवदा)


Nizar Qabbani 5 poems
निज़ार क़ब्बानी

प्यार की तुलना

मेरी प्रिय, मैं तुम्हारे दूसरे प्रेमियों जैसा नहीं हूँ
यदि दूसरा दे तुम्हें एक बादल
मैं तुम्हें देता हूँ बारिश
यदि वह दे तुम्हें एक लालटेन, मैं
दूँगा तुम्हें चाँद
यदि वह देगा तुम्हें एक डाली
मैं दूँगा तुम्हें पेड़
और अगर दूसरा तुम्हें देता है एक जहाज़
मैं दूँगा तुम्हें सफ़र

मैं दुनिया जीतता हूँ शब्दों से

मैं दुनिया जीतता हूँ शब्दों से
मैं मातृभाषा को जीतता हूँ
क्रियाएँ, संज्ञाएँ, वाक्य-विन्यास…
मैं चीज़ों के आरंभ को बुहार देता हूँ
और एक नई भाषा के साथ
जिसमें है पानी का संगीत, आग के संदेश
मैं आने वाली सदी को जलाता हूँ
और तुम्हारी आँखों में रोक लेता हूँ समय
और मिटा देता हूँ वह रेखा
जो अलग करती है
वक़्त को इस एक लम्हे से

जब मैं करता हूँ मोहब्बत

जब मैं करता हूँ मोहब्बत
मुझे महसूस होता है—
मैं वक़्त का शहंशाह हूँ
मेरा अधिकार है धरती और इसकी समस्त वस्तुओं पर
मैं अपने घोड़े पर जाता हूँ,
सूरज की ओर
जब मैं करता हूँ मोहब्बत
मैं बन जाता हूँ एक तरल रोशनी
जो आँख को नहीं दिखती
और मेरी कॉपियों में लिखी कविताएँ
बन जाती हैं छुईमुई और खसखस के खेत
जब मैं करता हूँ मोहब्बत
पानी मेरी उँगलियों से यकायक बह निकलता है
मेरी जीभ पर घास उग आती है
जब मैं करता हूँ मोहब्बत
मैं हो जाता हूँ सारे वक़्त के बाहर का वक़्त
जब मैं करता हूँ एक औरत से मोहब्बत
सारे पेड़,
मेरी और दौड़ पड़ते हैं नंगे पाँव

भाषा

जब एक आदमी होता है इश्क़ में
वह कैसे इस्तेमाल कर सकता है पुराने शब्द?
क्या एक औरत
अपने प्रेमी को चाहती हुई
सो जाए—
व्याकरणविदों और भाषाविदों के साथ?
मैंने कुछ नहीं कहा
उस औरत से जिससे प्रेम करता था
पर इकट्ठे किए एक सूटकेस में
प्रेम के सभी विशेषण
और सभी भाषाओं से भाग गया

रोशनी क़ंदील से ज़्यादा ज़रूरी है

रोशनी क़ंदील से ज़्यादा ज़रूरी है
कविता नोटबुक से ज़्यादा ज़रूरी है
और चुंबन होंठों से अधिक सार्थक
मेरे तुमको लिखे ख़त
हम दोनों से अधिक महान और महत्वपूर्ण हैं
वही अकेले दस्तावेज़ हैं जहाँ
लोग खोज निकालेंगे
तुम्हारा हुस्न
और मेरी दीवानगी
***
निज़ार क़ब्बानी (21 मार्च 1923–30 अप्रैल 1998) अरबी भाषा के सुप्रसिद्ध कवि हैं। यहाँ प्रस्तुत कविताएँ sadaneey.com से ली गई हैं।