Friday, April 6, 2012

एक छोटा सा दिमाग और कुछ सतरंगी ख्याल

                                                                                                                                                                                            दौड़ की तरह ज़िन्दगी जीते लोग, और उनमे से एक आप......बस एक महीने ही चलते हो और थक जाते हो.....यहाँ सुबह ऑफिस की जद्दोजहद में ये ख्याल ही नहीं रहता की देश की सरकार ने कुछ ट्रेफिक रूल्स बनाए हैं और आप एक पढ़े-लिखे इंसान हैं.........वो पाँव में पट्टी बांधे आये हुए हैं..........क्या हो गया था सर?.........'यार 'कोन' निकलवाया था, तो.........ये सल्ली मेडिकल लीव अप्प्रोव ही नहीं की'........ये साल्ला गम बिकता नहीं है कहीं!!!......बिकता  होता तो पैसे देकर के ही दे आते.......काम से फुरसतें मिलें तो ख़ुशी-गम का एहसास हो लोगों को.......'सर , मैं घर जाना चाहता हूँ, पूरे एक महीने के लिए......'लॉस  ऑफ़ पे' पर.' मैं अपनी बात ख़त्म करता हूँ......वो कुछ नहीं बोलते हैं, चुपचाप छुट्टियाँ अप्प्रोव कर देते हैं........दिल से शायद वो भी कवि रहे होंगे............'उसका' फोन है, 'तुम अपने सारे डिसीजंस क्या दिल से लेते हो?'.......मैं कुछ नहीं बोलता हूँ.........बातें करते-करते वो रो पड़ती है......'अब तो तुम भी नहीं हो यहाँ किससे शेयर करूं'.......मैं कुछ नहीं कह पाता हूँ......ये गम शायद गलीचे में बंधा चलता है, कहीं भी जाओगे.......साथ-साथ चलता रहेगा......और ये इश्क भी इसी उम्र में होना है, और साथ में बहुत से जज्बात. .......मैं समझाते-समझाते रुक जाता हूँ........खैर.
                                        'मैं ये मूवी फ्रेंड्स के साथ देख आऊं?' वो बड़े प्यार से पूछती है.......उसे पता है मुझे अच्छा नहीं लगेगा, उसका जाना लेकिन मैं मना भी नहीं करूँगा........तरकरीबन आधा घंटे बात.......और फिर उसमें हज़ारों नसीहतें.........'अच्छे से पढना, और खाना भी खा लेना.'   दूर रह कर भी मेरा पूरा ख्याल  रखा जाता है तो लगता है चलो ज़िन्दगी में माँ-बाप के अलावा कुछ लोग तो हैं जो तुम्हारे लिए ठहर सकते हैं.....इस शोर के बीच, इस दौड़ के बीच.


                चलते-चलते.............


 जावेद अख्तर साहब की कल नई किताब आई है.....शीर्षक है 'लावा'. इन्दोर के उस ऑडिटोरियम में जावेद साहब बोलते हैं.......'लावा' निकलने में कुल सत्रह साल लग गये'...........'हज्जार से ज्यादा की क्षमता बाला ये हॉल पूरा भरा है, लगता है कविता पसंद करने बाले आज भी जिंदा हैं.'


                            उनकी पहली किताब 'तरकश' से 'उलझन'......



करोडो चेहरे 
और 
उनके पीछे 
करोडो चेहरे
ये रास्ते है की भीड़ है छते 
जमीं जिस्मो से ढक गई है 
कदम तो क्या तिल भी धरने की अब जगह नहीं है 
ये देखता हूँ तो सोचता हूँ 
की अब जहाँ हूँ 
वहीँ सिमट के खड़ा रहूँ मै
मगर करूँ क्या 
की जानता हूँ 
की रुक गया तो 
जो भीड़ पीछे से आ रही है 
वो मुझको पेरों तले कुचल देगी, पीस देगी 
तो अब चलता हूँ मै
तो खुद मेरे पेरों मे आ रहा है 
किसी का सीना 
किसी का बाजू
किसी का चेहरा 
चलूँ 
तो ओरों पे जुल्म ढाऊ
रुकूँ 
तो ओरों के जुल्म झेलूं 
जमीर 
तुझको तो नाज है अपनी मुंसिफी पर
जरा सुनु तो 
की आज क्या तेरा फेसला है