विभीषण का नाम सुनते ही हिंदी की एक युक्ति दिमाग में आना शुरू हो जाती है - 'घर का भेदी लंका ढाये.' बचपन से ही हम यही सुनते आ रहे हैं. कुछ लोग कहते हैं कि ये सच नहीं है. जो भी हो विभीषण का चरित्र रामायण में बिलकुल अनोखा चरित्र है. वो राक्षस कुल में जन्म लिया है किन्तु कर्मों से, कथनों से राक्षस नहीं है. रामानंद सागर जी की रामायण में भी विभीषण का ऐसे चित्रांकन (अभिनेता: मुकेश रावल जी) किया गया था जिसमें वे शरीर से सख्त दिखते थे किन्तु बातों से कोमल ह्रदय थे.
जैसा कि रावण के जन्म की कहानी^ कहते वक़्त लिखा था कि महर्षि विश्रवा और राक्षसकुल की कैकसी को तीन पुत्र रावण, कुम्भकर्ण, विभीषण और एक कन्या प्राप्त सूर्पनखा प्राप्त हुए थे और कहते हैं इन तीनों पुत्रों में से प्रथम पुत्र रावण में अनुवांशिक रूप से अपने पिता और अपनी माता दोनों के कुलों के बराबर गुण आये. दूसरे पुत्र कुम्भकर्ण में माता के कुल के गुण थे. अंतिम पुत्र विभीषण में पूर्णत: पिता के कुल के गुण थे. ये भी एक कारण है कि विभीषण कार्य और कथन से पिता की तरह ही ऋषि प्रतीत होते हैं.
लेकिन इसके पीछे एक और कारण भी है. जब अपने नाना सुमाली की इच्छा से तीनों भाइयों रावण, कुम्भकर्ण और विभीषण से भगवान् ब्रह्मा की आराधना की तो बाकि भाइयों ने बल, शक्ति मांगी किन्तु विभीषण उनमें से अकेले थे जिन्होंने माँगा कि 'प्रभु, मैं हमेशा सच के साथ चलूँ, सत-धर्म का साथ दूँ.'
कहानी अनुसार विभीषण मंत्री थे लंका के और सही-गलत का ज्ञान राजा को देना उनका कर्त्तव्य था किन्तु जब उन्होंने पर-स्त्री सीता के हरण के प्रति अपने महाराज रावण से आपत्ति प्रकट की, उनको समझाना चाहा तो उनका अपमान किया गया. उनके सर पर लात से प्रहार किया गया. विभीषण उसी पल सत्य का साथ देने अपने कुछ साथियों सहित श्रीराम के पास पहुँच गए. लेकिन सच तो ये है कि इसके पूर्व से ही विभीषण भगवान् विष्णु के अनन्य भक्त थे. उन्होंने ब्रह्मा से सत-धर्म परायणता के अलावा भागवत-भक्ति का भी वरदान माँगा था. दक्षिण भारत की एक मान्यता अनुसार वे भगवान विष्णु के रूप रंगनाथ-स्वामी के भक्त थे. उनकी पूजा करते हुए ही हनुमान ने उन्हें लंका दहन के पहले देखा था और उनका ही महल जल जाने से बच गया था.
विभीषण ने जब लंका को छोड़ा तो वे भगवान् राम के शरणागत होने के बाद युद्ध में उनकी मदद करते रहे. कहते हैं उन्होंने लंका के बहुत सारे राज़ राम को बताये थे इसलिए भी भगवान यह युद्ध मानवीय रूप में जीतने में सफल रहे. युद्ध के समय असली और मायावी विरुपाक्ष को पहचानने का रहस्य राम को विभीषण ने बताया था. अतिकाय को मारने के लिए ब्रम्हास्त्र का प्रयोग करने का परामर्श लक्ष्मण को विभीषण ने ही दिया था. सुषेण वैद्य का पता भी विभीषण ने बताया था. निकुंबला मंदिर तक जाने का गुप्त रास्ता भी विभीषण द्वारा ही बताया गया था, जहाँ जाकर लक्ष्मण मेघनाथ को मार सके थे. रावण की मृत्यु का ज्ञान भी विभीषण ने ही राम को दिया था और उनके बताये अनुसार ही नाभि में वाण मार रावण को मृत्यु सैय्या पर सुलाने में राम सफल हुए थे. (मानस में: 'नाभि कुंड पियूष बस याके, नाथ जिअत रावण बल ताके।')
लंका को जलाने को श्रेय भले ही हनुमान जी को दिया जाता हो किन्तु लंका की महत्वपूर्ण गुप्त जानकारियां विभीषण ने ही भगवान राम को प्रकट की थीं जिससे ही राक्षसराज रावण की बलशाली सोने की लंका एक मानवीय शत्रु के सामने घुटने टेकने पर मजबूर हुई थी. शायद इसलिए भी विभीषण को 'घर का भेदी लंका ढाये' जैसी नकारात्मक कहावत में शामिल किया गया है.
विभीषण के अनुसार उन्होंने ये सत्य धर्म के लिए किया था किन्तु एक अन्य चरित्र कुम्भकर्ण का भी है जो अपने सत-धर्म पर अडिग रहे थे. जो रावण से कहते हैं कि "आपने सीता का हरण कर गलती की है और सीता को आपको वापिस राम के पास छोड़ कर आना चाहिए" और जब रावण इंकार कर देते हैं तो वे कहते हैं " मैं जानता हूँ कि आपने गलत किया है और आपकी तरफ से लड़ते हुए मैं सत्य की तरफ नहीं खड़ा हूँ. फिर भी मैं अपने धर्म का पालन करूँगा, और मेरा धर्म है अग्रज की बात को मानना, अपने राजा के कहे का पालन करना. मैं धर्म का अनुसरण करते हुए लडूंगा और राम के हाथों मृत्यु को प्राप्त होऊंगा."
विभीषण के अनुसार वे धर्म का पालन करते हुए राम के साथ मिल गए और और कुम्भकर्ण के अनुसार वे धर्म का पालन करने रावण की और से लड़ते हुए श्रीराम के हाथों वीरगति को प्राप्त हुए. लेकिन सत्य और धर्म तो एक ही हो सकता है तो सच्चा धर्म कौन सा था?
वो आपको सोचना है. मेरे अनुसार तो पर-स्त्रीहरण उस समय की मोरालिटी अनुसार महापाप था और उसकी रक्षा करना सबसे बड़ा धर्म. रामायण की अन्य कथाओं में जैसे सति अहिल्या की कथा में भी कुछ-कुछ ऐसा ही लिखा मिलता है. शायद विभीषण के लिए इसलिए भाई का साथ देने से बड़ा धर्म-मार्ग राम की पत्नी को न्याय दिलाना था. इसलिए ही विभीषण का चरित्र विश्वास, धर्म, मित्रता और न्याय का प्रतीक माना जाता है.
लेकिन फिर कुम्भकर्ण के लिए ऐसा क्यों नहीं था? जबकि वे भी धर्मपालन की बात करते हैं. मैं जो समझा हूँ उसके अनुसार एक तो कुम्भकर्ण जन्म से ही माता के कुल के राक्षसी-गुण सर्वाधिक थे इसलिए वे नैतिकता को पूर्णत: समझने में असमर्थ रहे और साथ ही दूसरा ये कि पूरा वर्ष ही निद्रा में रहने के कारण वे परिस्थिति को ही अच्छे से नहीं समझ पाए थे और शायद तीसरा ये कि अधिकतर निद्रालीन रहने के कारण वे सत्य-असत्य की समझ ही गूढ़ रूप से नहीं रखते थे. इसलिए ही जहाँ विभीषण का चरित्र विश्वास, धर्म, मित्रता और न्याय का प्रतीक माना जाता है, वही रावण का साथ देने के लिए, दुराचार के साथ रहने के लिए कुंभकर्ण को बुराई के रूप में जलाया जाता है.
ऊपर मैंने सति अहिल्या की कथा की बात की है जिसमें रामायण से पूर्व में इंद्र द्वारा उनके सतीत्व हरण पर उनके पति महर्षि गौतम ने सजा देते हुए उन्हें पत्थर की मूरत बना दिया था. रामायण में राम द्वारा उनको पुनः मानवरूप देना एक तरीके से 'स्त्री का सतीत्व छल से हरा भी जाये तब भी स्त्री को ही सजा मिलेगी!' वाली पूर्व की मोरालिटी का विरोध भी है. जैसे राम माता अहिल्या को मानव रूप देते हुए कह रहे हों "माता, जब दोष आपका नहीं तो सजा आपको क्यों?" हालाँकि समाज आज भी बहुत आगे नहीं बड़ा है वह बलात्कारी से ज्यादा बलात्कार की शिकार महिला को अधिक सजा देता है, दोषी मानता है. शायद तब भी बहुत आगे नहीं बढ़ पाया था तभी तो वही राम अग्निपरीक्षा लेते वक़्त समाज से हारे से प्रतीत होते हैं. यह अनावश्यक कार्य भी उन्हें करना पड़ता है.
लेकिन विभीषण इस सत-धर्म को समझते थे. इसीलिए पूरा युद्ध होने बाद वे अपने प्रियजनों के लिए रोते हैं तो एक कथा अनुसार रावण उनसे कहता है कि "तुमने अपने धर्म का पालन किया है अनुज!" और एक अन्य कथा में जब वे लंका का राज लेने से इंकार करते हैं तो भगवान् राम अपना विराट भागवत-स्वरुप दिखा आदेश देते हैं, जिसे विभीषण को स्वीकारना पड़ता है और वे भाभी मंदोदरी का आशीष ले सिंहासन पर बैठते है.
विभीषण को अन्य कथाओं में देखें तो वे लंका के राज्याभिषेक उपरांत मंदोदरी से शादी करते हैं और एक कथा अनुसार अशोक वाटिका में सीता की प्रधान सेविका त्रिजटा उनकी पुत्री थीं. किन्तु दोनों कथाएं बाद में डाली गई प्रतीत होती हैं.
चित्र : राम के शरणागत होते विभीषण.