Wednesday, June 25, 2014

इश्क़ किनारे ताकें चाँद




यूँ रातभर क्यों जलता चाँद?
किस बेवफा को तड़पता चाँद?

फलक किनारे झुका हुआ
कितना बेनूर बेवस चाँद.
दिनभर ज्वर में तपता रहा
रातभर छत पे जलता चाँद.

महबूब निकाही धरती पे,
रात फलक पे ताके चाँद.
टुकुर -टुकुर टूटे दिल
रात फलक से ताके चाँद.

अजनबी  से कुछ हम,
अजनबी से कुछ तुम,
बीती यादें कुतरें बैठे
इश्क़ किनारे ताकें चाँद.

Tuesday, June 10, 2014

हम मुसाफिर ऐसे...




थका हूँ, गिरा हूँ
लेकिन आशान्वित तो पड़ा हूँ.
उठूंगा, लड़ूंगा, चलूँगा,
उम्मीद है,
उम्मीद से अधिक दौडूंगा.

ठहरा नहीं, रुक नहीं,
धीमा, मगर चल रहा हूँ.
जो सोचा,
कर रहा हूँ.

मैं बस चलना चाहता हूँ
नए-नए रास्तों से,
जिसका पता सफर में निकलने से पहले
मालूम ना हो.

'हमको तो बस तलाश नए रास्तों की है,
हम हैं मुसाफिर ऐसे जो मंज़िल से आये हैं.'*



*जावेद अख्तर साहब से उधार ली गईं दो लाइनें, जिनके बिना शायद ये कविता अधूरी लगती.

Pic : लोनावला का कहीं, कोई रास्ता.

Saturday, June 7, 2014

दो किलो की रद्दी के कागज़




मेरे पिता को मारा था दो किलो प्याज ने.
माँ कहती है-
गए थे बाज़ार लेने दो किलो प्याज़
और वही मर गए.
सुना है प्याज़ शरीर पे चिपकी मिली थी
तो माँ को लगता है
उन्हें मारा है दो किलो प्याज़ ने.

उनकी दाढ़ी बड़ी थी
पहली भीड़ ने त्रिशूल घोंपे.
फिर दूसरी भीड़ ने पूछा नाम,
और कर दिए गए हलाल.
अख़बार ने छापा है
दंगों में मरने वालों में मेरे बाप का नाम.

मुझे लगता है,
मेरे पिता को मारा धर्मग्रंथों ने.
क्यूंकि भड़क के भीड़ में शामिल
कभी मैं भी हो सकता हूँ,
या मेरे पिता हो सकते थे;
और मरने वाले आपके पिता.

मुझे नहीं लगता दंगों ने मारा,
मुझे बस लगता है-
मेरे पिता को मारा धर्मग्रंथों ने.
जिनमें भरी पड़ी है तमाम दकियानूसी,
कपडे-लत्तों के कायदे,
जीने-मरने के कायदे,
मरने-मारने के कायदे,
लड़ने-भिड़ने के कायदे.

कल धर्म-संसद में भी
दोहराया मैंने कि,
मेरे बाप को मारा धर्मग्रंथों ने.
कल क़त्ल किया मेरा, सारे धर्मों ने एक साथ.

मेरे पिता को मारा था दो किलो प्याज ने.
नहीं, दो किलो की रद्दी के कागज़ ने,
जो तुम्हारे लिए पवित्र हैं.