Wednesday, May 30, 2018

ईश्वर


मैं वो कविता संग्रह हूँ
जिसे तुम पूरा पढ़ने की हिम्मत नहीं जुटा सकते
आँख के नीचे के काले पड़े सच दीखते हैं उसमें.
मैं वो सांत्वनाएं हूँ
जो सदा अधूरी रहनी हैं,
कोई भी आशायें अविचलित हो सच नहीं होनीं न कोई अरमान,
बस भ्रम हैं सच होने को, उनके लिए शुभेच्छाएं.
मैं वो लाश हूँ
जिसे तुम्हें खुद अकेले कंधे पर ढोनी है,
न कोई राम आना है, न कोई श्याम.
तुम्हारे शोर में लिपटी अंतिम दारुण आदमी की चीख का
परिणाम हूँ मैं
जिसे निस्तर अकेले छोड़ा गया है.
अनसुलझे रहस्यों का अंतिम उत्तर हूँ.
अधूरी उम्मीदों के लिए हरी-पट्टी.
गढ़ा गया हूँ जैसे आर्टिफीसियल इंटेलिजेंस गढ़ी जा रही है
जैसे तुम्हारे अंदर कालापन बढ़ रहा है
जैसे सारी सांत्वनाएं ख़त्म हो रही हैं
जैसे प्रेम धूमिल हो रहा है
जैसे आकांक्षाएं आदमी को जीने नहीं दे रही हैं
जैसे खुद के क़त्ल के लिए पारिस्थितिकी को ख़त्म तुमने किया है
जैसे प्रेम के बदले संभावनाएं, स्वार्थ और समाज चुना जाता है
(फिर घड़ियाली आसुंओं में रोया जाता है)
वैसे ही अशरीर, अश्लील ईश्वर गढ़ा जाता है.
गांजा पिये भ्रम में रहो की मैं हूँ,
क्यूंकि हर अच्छे-बुरे का उत्तर तुम्हारा बाप हमेशा नहीं दे सकता.