Thursday, December 22, 2016

स्त्री के सपने


मेरे साथ जो स्त्री रहती है
वो सोती है, उसके सपने जागते हैं.
वो रोती है,
उसके सपने झरते हैं.
वो सीने से लगती है,
हिदायत देती सी लगती है,
कि उसके सपने न मरोड़ूँ.

मैं आदमी हूँ,
मेरा दम्भ
उसके सपनों पे धाड़ से पड़ता है
छनाक! उसके सारे सपने टूट जाते हैं.

वो एक आस लिए
फिर रोटी संग सपने बेलती है
चूल्हे पे आंच देती है,
कि मैं कायर किसी दिन
मर्द बनूँगा
और उसके सपने नहीं तोड़ूंगा.

मैं आदमी हूँ,
सभ्यता के आदि से कायर ही हूँ!

WW-I के घोड़े


तुम्हें चाहिए थी ज़मीनें
तुम्हें चाहिए थे राजपाट
तुम्हारी कलहें, तुम्हारी बंदूकें,
फिर हम क्यों मरे?
विश्वयुद्ध-एक के
मरे अस्सी लाख घोड़ों-खच्चरों का हिसाब दो मानव.
बताओ, तुम्हारी लड़ाई में हम क्यों मरे?
एक दिन
प्रार्थनाएं, तप, तमाम भागीरथी प्रयास कर
हम पाएंगे बुद्धि,
लेकिन तब भी
तुम्हारी नथों में न डालेंगे रस्सी.
न पीठ पे चढ़ दौड़ाएंगे तुम्हें,
अस्सी लाख क्या,
एक भी नहीं मरोगे तुम.
क्योंकि हम नहीं करेंगे कोई विश्वयुद्ध.
हम खुद में भी देंगे बराबरी का दर्ज़ा,
बाकि की तमाम नस्लों को भी.
उपनिवेशन, गुलामी और नस्लें पालतू बनाने से परे,
हम ऐसी बुद्धि चाहेंगे
जो समता, समरसता, समानता लाये-
नस्लों के परे, क्लासों के परे,
मुल्कों के परे, रंगों के परे.
हम तुम्हें जानवर नहीं कहेंगे मानव.