Sunday, December 24, 2023

तुम्हारे प्रेम की कविताएं

 


मुस्कुराऊं तो मुस्कुराती हो

बेवजह गाल सहलाती हो

पीछे से आ लिपट जाती हो

बाल बिखराती हो, बारिश कराती हो

नींद में बुदबुदाती हो

कितने वादे करती हो, 

कितने याद दिलाती हो

जब भी खिलखिलाती हो

कितनी भोली नज़र आती हो

चूम लूं , लजाती हो।


तुम बहुत भाती हो।


**


सूख के तुम्हारे होंठों से झर जायेगी कविता

कभी उंगलियों की पोरों के उलझ जायेगी कविता

तुम्हारे माथे को चूम इक कविता उगा दूंगा

तुम्हारी करवट पर शांत सो जायेगी कविता।


तुम्हारे होने से पूर्व मैं एक कविता था

तुम्हारे आने के बाद तुम एक कविता हो।


उलझी गलियों में जब उलझोगी

मेरी कविता सीने से लगाना

यूं थम मेरी उंगली चले आना!


**


कुछ भी प्रेम हो सकता है,

रिसते हाथ

सिसकती सांस

सरकते होंठ

भीगी आंख.


प्रेम... बस प्रेम है!


**


कविता अधूरी

बैठी रही किसी कवि की याद में।


जैसे तुम्हारी राह तकते

मैं बैठा हूं,

दिल्ली में दिल लिए।


**


कनखियों से देखता तुम्हारा लजाना

सादगी से सीने में उतर जाना।


कविता की पहली किताब की तुम प्रेरणा होगी

कविता की आखिरी किताब का नज़राना।


तुम्हारी लटो में उलझ मार जाऊंगा,

एक रोज ऐसी कविता हो जाऊंगा।


प्रेरणा सृष्टि के जन्म की रही होगी,

कनाखियों से देखना तुम्हारा लजाना।


**


यह कविता

माफीनामा है

तमाम स्त्रियों से,

जिनसे मैंने पुरुष की

तरह व्यवहार किया।


जबकि मुझे मनुष्य होना चाहिए था।



**


तुम्हारे होने से ही है ये दुनिया

तुम्हारे होने से हैं ये घर।


कितना सुखद है

किसी के होने से

खुद के होने का एहसास होना।




शौर्य गाथा 97/98

 वर्ल्डकप को इक महीना हो गया है लेकिन भाईसाहब अभी भी क्रिकेट की ही खुमारी में हैं। "पापा मैं तोहली अंकल बनूंगा, आप बॉल फेंको।" पापा बॉल करते हैं।

"पापा मैंने फोर रन मारे।" फिर बोलते हैं "पापा मैं आपको आउट कर रहा।" इनके हाथ में बैट है और ये पापा को आउट कर रहे हैं! इसलिए पापा उन्हें समझाते हैं कि आउट करने के लिए बाउलिंग की जाती है।
भाईसाहब "अले तोहली अंकल तो बैट से आउट करते हैं ना पापा को।"
अब पापा क्या ही बोलें।
--
फर्स्ट फ्लोर से हम भाईसाहब के बैट बॉल के साथ नीचे आ गए हैं। भाईसाहब तोहली अंकल' बने हुए हैं।
इन्हें प्यास लगने लगी है। "तोहली अंकल तो पानी पीना है पापा।" मैं पानी लेने ऊपर जाता हूं।
भाईसाहब नीचे से चिल्ला रहे हैं "आले तोहली अंकल ते पापा, तोहली अंकल ते पापा जल्दी नीचे आओ... नीचे। तोहली अंकल को बैटिंग करनी है...."
मम्मा पापा और कॉलोनी का हंस-हंस के बुरा हाल है। पापा पानी लेकर नीचे आते हैं। अपनी प्यास बुझाकर तोहली अंकल बैटिंग करने लगे हैं।

Friday, December 22, 2023

Papa's Letters to Shaurya #11thLetter

 

COVID ... ये समय सबसे तकलीफदेय था। याद करता हूं तो सिहर जाता हूं। हर वर्ष हर नवंबर का हर दिन बड़ी तकलीफ में कटता है। क्यों...? तुम बड़े होकर समझ जाओगे। तुम पंद्रह दिन के और हमें कोविड था... नाना नानी मामा मामी सब तकलीफ में। लगातार कोशिशें.. आंखों का पानी छिपाए... अपनी घबराहट छिपाए, कोशिशें। मेरे अंदर क्या चल रहा था उस समय शायद ही कोई समझा हो। हम उबर आए थे, शायद ईश्वर को हम पर दया आ गई थी। शायद तुम्हारे साथ ईश्वर आया था। एक छोटा बच्चा ईश्वर का ही रूप होता है... होता है न!
मेरे से ज्यादा तो उन सबने तकलीफ झेली जिन्होंने 1200 Kms की पैदल यात्राएं की। गरीबी हमसे क्या क्या नहीं करवाती। विस्थापन, फुटपाथ, उड़ी नींद और जाने क्या क्या नहीं झेला होगा सबने।कई बार सोचा हूं, कई बार अकेले में रोया हूं। विपिन चाचू के पास हमसे भयावह कहानियां है। पता नहीं वो कैसे सोया होगा।
मैं तुम्हें सब अपनी मनःस्थिति या वो समय बताने नहीं बता रहा हूं। बस इसलिए कि तुम इक दिन समझोगे कि हमें और अधिक मानवीय, मनुष्यतर बनना है। आपदाएं मानव सभ्यता को उसकी सच्चाई, उसकी औकात बताने आती हैं। ये बताने कि हम क्षणभंगुर हैं, ये बताने की मनुष्यता को प्रकृति कभी भी खत्म करने में सक्षम है। ये बताने कि हमें प्रकृति और मानवता दोनों को अधिक प्यार करने और सहेजने की आवश्यकता है।
मैं चाहता हूं की जब तुम बड़े हो जाओ तो इस आपदा से समझो कि अस्पताल में कॉविड में भी हम तक खाना पहुंचने मामा मामी, नाना नानी, 150Kms चलकर आते दादा दादी अपना सबकुछ दांव पर रखने के लिए तैयार थे। ये समझो कि परिवार के मायने क्या हैं।
तुम प्रकृति के अधिक पास हो जाओ, अधिक प्रेम करने लगो, थोड़ा ज्यादा रिश्ते समझने लगो, अंदर से अधिक ताकतवर बनो और अधिक मानवीय हो जाओ... इसलिए लिख रहा हूं।
तुम्हारे पापा.

Tuesday, December 19, 2023

प्रेम बस प्रेम की कवितायें



 कुछ लड़कियां ज़मीं होती हैं, कुछ आसमां,

कुछ नींद होती हैं, कुछ ख़्वाब,

कुछ नदी होती हैं, कुछ समंदर,

कुछ लड़कियां छत होती हैं, कुछ घर.


तुम रेयर कॉम्बिनेशन हो,

तुम ये सबकुछ हो!


*


भाषा खत्म हो जाएगी,

मैं तुम्हें कविता से पुकारूंगा.


कविताएं भाषाओं से नहीं

संवेदनाओं से लिखी जाती हैं.

कविताएं मुख से नहीं 

एहसासों से कही जाती हैं.


*


तुम्हारे होंठों को चूमकर

ईश्वर के सबसे करीब होता हूं.


सीता ने

प्रेम से राम को

राधा ने

प्रेम से कृष्ण को


ईश्वर बनाया है!


*


तुम्हारी हंसती आंखों में

निश्छलता रहेगी जबतक


प्रेम 

बना रहेगा धरती पर

तबतक.


*


मुझे यकीं है

सिर्फ प्रेम ही

किसी को पवित्र कर सकता है


कर्मकांड नहीं!


*


यौवन के

हर कोने पर निशां हैं.

देह के

हर हिस्से पर कोंपल सा फूटा हूं.


तुम्हारी आत्मा पर

कविता बोई है मैंने.


कैसे और कहां

जाओगे मुझे छोड़कर!


*


मैंने जब

नौकरी की,

रीढ़ की हड्डी खोई,

फाइनेंशियल मैनेजमेंट सीखा

सोशल सिक्योरिटी की परतें ओढ़ी.

सोशल स्टेटस समझा,

फिर लोगों को आंखों में

उसका दंभ देखा...


मैं जान गया

मैं इस दुनिया के लिए

नहीं बना हूं.


*


जब जब मैं मद्धम पड़ता हूं


तुम उग आते हो

उजाले की तरह.


*


किसी कविता सी तुम

फूट पड़ती हो घावों से

दर्ज़ के बीज से जैसे

फूट पड़ा है कोई पौधा.


जख्मों से

निकल पड़ी हैं कविताएं,

कहानियां, कई चित्र.


शुक्रिया दर्द का, जख्मों का.


*


मैंने तुम्हें ज़िंदा रखा है

किस्सों में, कहानियों में,

कविताओं में.


देह...

देह से परे

कवि ही किसी को

ज़िंदा रख सकता है...


कलम से.


*


लेट होने पर जो तुम

गुस्सा करती हो

मॉर्निंग वॉक न करूं तो

मुंह फुलाती हो

ऑफिस से आ कितना बतियाती हो

कुछ बातों पर कितना घबराती हो

मेरे मजे लेती हो

कितना खिलखिलाती हो

बच्चे से चिपक

मासूम सो जाती हो

भीड़ में हाथ पकड़

जो मुस्कुराती हो

किसी पार्टी में

कोने में ले जा बतियायी हो

चूम लूं, लजाती हो.


तुम बहुत भाती हो.


*


कुछ कविताएं

कितनी गरम होती हैं


जैसे पीठपर 

तुमने अधर रख दिए हों.


*


मेरे सीने में जमा

जो समंदर है


कहो

क्या तुम्हारे भी अंदर है?


सही की धार में बहते हो?

गलत को गलत कहते हो?


*


मैं अगढ़ ही रहना चाहूं तो?


तराशकर कहीं रखा जाऊं

सब देखें, पूजा करें.


मैं किसी पहाड़ का,

किसी नदी में बहता

अगढ़ पत्थर ही रहना चाहूंगा.


*


ईश्वर को सबसे ज्यादा याद

कृषक ने किया.


ईश्वर ने सबसे कम

कृषक की सुनी.


*


एक शहर था

जहां तुम्हारे होने तक मैं था

तुम्हारे होंठों को चूम मैंने

उस शहर को छोड़ा.


वो शहर

तुम होंठो में जमाकर

साथ ले गई हो.


बड़ा ताल जमा किया था होंठों पर

प्यास में फिर भी वे

सुना है मेरी राह तकते हैं!


*


कि मेरे शहर आओ


वो पेड़ अब भी चहचहाता है

वैसे ही,

वो नदी अभी बजे जा रही है

वैसे ही,

चौराहा वो निरंतर जी रहा है

वैसे ही.


तुम्हारे हमारे जाने से

कुछ तो नहीं बदला.


एक रिश्ता,

एक सपनों के घर के अलावा.


*


मैं तुम्हें सुलगा लेता हूं जानम


किसी शाम कातर होती आंखों में

भर जाता है उम्मीद का धुंआ.


*


एक दिन

कविता यूं ही अटक जायेगी

एक सांस

यूं ही थम जायेगी

कोई ख्वाब

यूं ही आंखों में रह जायेगा

एक टीस

बची रह जायेगी.


आसमां के गीत पर

सुबह को चादर ओढ़ गुनगुनाऊंगा.

एक रोज दुनिया से निकल

मैं दुनिया का हो जाऊंगा.


*


तुमसे एक अंतिम बात कहनी थी

ख्वाब सड़क पर पड़ी टहनी थी

एक सिरे पे जिसके तुम्हारा नाम था

पेड़ की दूसरे सिरे पे आस बंधी थी.


मेरे जिस्म में पत्ती रहनी थी.

ख्वाब सड़क पर गिरी टहनी थी.


*


तुम्हारे पास

जान रखकर वो लड़का

ज़िंदगी ढूढने चला है.


जिंदगी ढूंढ ले वो

तो बताना

बेजान जीने की अगर कला है.


*


मैंने कविताएं लिखीं

प्रेम सार्वजनिक कर दिया

मैंने कविताएं लिखीं

दुःख सार्वजनिक कर दिया.


मेरे दोस्त,

सबकुछ तुम्हारे साथ ही नहीं 

घटित हो रहा है पहली बार.


यकीन न हो तो

मेरी कविताएं पढ़ लेना.


*


प्रेम के खातिर

मारे जाते हों युवा

जिस समाज में


वो समाज कैसे कहला सकता है?

कहला भी ले तो

सभ्य कैसे कहा जा सकता है?


*


इंतजार करते रहे हम

कि सुंदर होगा जहां में कुछ और.


और बस गए हम.

तुम्हारे होंठों में बना घर

ताउम्र रह गए हम.

Monday, December 18, 2023

ईश्वर और प्रेम कि कवितायेँ


मुझसे कहा गया

मैं मंदिर जाऊंगा वहां ईश्वर मिलेगा.


मैंने तुम्हारी आँखों में देखा

ईश्वर वहां मुस्कुराता झांक रहा था.

--**--


बुद्ध, महावीर

मूर्तियों में क़ैद कर दिए गए.


उनका कहा

बड़ा कठोर, नग्न सच था.


उनका हश्र 

यही होना था!


--**--


जब मेरी उँगलियों की पौरें,

तुम्हारी उँगलियों की पौरों को

आहिस्ता-आहिस्ता छूती हैं...


तब सृष्टि का निर्माण

हौले-हौले शुरू होता है...


--**--


मेरे माथे को चूम खिलखिलाना,

मेरी हंसी में बस जाना.

मुझे गले लगाना,

मेरे सीने में समा जाना.

मेरे होंठों पे जमा कर देना खुद को,

चूमकर.

हाथों में लम्स,

छूकर.


देखें,

फिर हमें कौन जुदा करता है.


--**--


मुझे कोई देखे,

उसकी नज़र

तुम्हारी मुस्कान पर ठहर जाये!


तुम समाना

इस तरह

मेरे अंदर!


--**--


मेरे पास खेत नहीं कि

धान उगाता.


मेरे पास प्रेम था,

मैंने प्रेम उगाया.


शहर में प्रेम की कवितायेँ


 कितना वक़्त था

जो तुम्हारे बगैर 

काटा न जा सकना था.


पर सारा ही कट रहा है

तुम्हारे बगैर.


--**--


मुझसे जब तुम

उस शहर में मिलती हो

ज्यादा खूबसूरत लगती हो.


आँखें और बड़ा ताल,

माथा और मानव संग्रहालय

होंठ और भारत भवन.


कितनी समानता है न?

आँखों में जो सैलाब है

झील से कुछ ज्यादा ही है.

माथे पर बल

मानव संग्रहालय में दर्ज़ सभ्यताओं से ज्यादा हैं.

होंठों से झिरते लफ्ज़...

भारत भवन में भी उतने सुन्दर नहीं कहे किसी ने.


तुम हो मेरा शहर.


तो बताओ मेरे शहर,

तुमसे इश्क़ कर

क्यों न जाऊं तर!


जब तुम उस शहर होती हो,

ज्यादा खूबसूरत होती हो.


--**--


तुम्हारे चूमकर पैर 

मैं जाऊंगा घर.


पैर चूमकर

रिश्ता न सही

प्रेम मुकम्मल सा लगता है.


--**--


तुमसे बात करने के बाद

कवितायेँ झरने लगती हैं.


--**--


हम प्रेम को नहीं चुनते

प्रेम हमें चुनता है.


प्रेम मुकम्मल होगा या नहीं

ये समाज चुनता है.


(हीर की कब्र पर फूल हरे होंगे.)


--**--


जिसके सीने से लिपट 

क्रोध, मोह, माया, स्वार्थ,

काम, अहंकार, घृणा, द्वेष

त्यागा सा लगे.


उसी से तुम्हें सच्चा प्रेम है.


--**--


कितने इतवार काटे मैंने

तुम्हारे इंतज़ार में.

बावन? पांच सौ बीस?

अब तो गिनती ही नहीं.


शतायु को बावन सौ 

इतवार मिलते हैं.

तुम्हारे बगैर

हर इतवार शतायु होता है.


--**--


मैं किसी दिन लिखूंगा

कोई कविता,

जो तुमसे ज्यादा खूबसूरत होगी.


--**--


मैं चाहता हूँ,

किसी सिंधु घाटी सभ्यता 

के किनारे

गढ़ना तुम्हें किसी कविता में.


हज़ारों साल बाद कोई देखे

कहे 'ओह! ब्यूटीफुल डांसिंग गर्ल!'


--**--


तुम्हारी नाक

महावीर टेकरी सी है.

तुम्हारे अंगूठे

कोलर डैम छूटे हैं.


तुम मोहब्बत में जानं

मेरा भोपाल शहर हो जाती हो!


--**--


कितने लोग थे

जिनके हिस्से पूरा प्यार नहीं आया.


और वे अधूरे जीते रहे.

तुन्हें कभी पता ही नहीं चला

की प्रेम के बाद

दुनिया कैसी होती है!


Sunday, December 10, 2023

Papa's Letters to Shaurya #TenthLetter


मेरे जंगल में गुम होने की कई जगह हैं, जहां एकांत में बैठ लिखा जा सकता है, अपने उन्नीदे शब्द उकेरे जा सकते हैं, किंतु वहां बैठ लेखनी नहीं उभरती। वहां का अपना सौंदर्य है, जो सम्मोहित कर लेता है। वहां बैठ बस उसे निहारने भर से जीवन गतिमान लगने लगता है।
लेखनी तब उभरती है जब ऑफिस में बैठे हों चेयर पर, सामने मिलने वाले हों और यकायक से तुम याद आ जाओ, तुम्हारे नन्हें हाथ याद आ जाएं, 'पापा-पापा' कहना याद आ जाए। मैं अतिथि के जाने तक उन शब्दों को जेहन में सहेजता हूं और जाते ही पेपर पर उकेरने की कोशिश करता हूं। आधे-अधूरे लफ्ज़ पेपर पर आ ही जाते हैं। ऐसी कितनी ही #शौर्य_गाथा-यें पेपर पर अधूरी लिखी हुई रखी हुई हैं। शायद जो पूर्ण हो पाई हैं, उनसे अधिक ये हैं।
लिखने से ज्यादा मैं तुम्हें महसूस करना सीख गया हूं। तुम्हारे साथ रहते थोड़ा ज्यादा बच्चा होना सीख गया हूं। बड़ा होते-होते बहुत कुछ मर गया था, थोड़ा-थोड़ा उसे महसूस कर रहा हूं। मोहब्बत को नए नजरिया से देख रहा हूं। ट्रू लव के मायने जान रहा हूं। अक्सर कहीं पढ़ा एक वाक्य जेहन में उभर आता है "एक पिता अपने बच्चों को सबसे अच्छा गिफ्ट क्या दे सकता है?" उत्तर है-"बच्चों की मां से और अधिक प्रेम कर सकता है।"
शायद तुम्हारे आने के बाद तुम्हारी मां से और अधिक प्रेम करने लगा हूं।
तुम्हारी कोमल हथेलियों ने मुझे और अधिक कोमल बनाया है। तुम्हारी हंसी ने मुझे अधिक सुख महसूस करना सिखाया है।
जिनके बच्चे हैं वे ये दो वाक्य अच्छे से समझ गए होंगे-
1. क्यों बच्चे भगवान का रूप कहलाते हैं, और
2. क्यों ये सृष्टि का भविष्य हैं।
तुमने मुझे दोनों समझाए हैं।
मैं फोटो खींचने में बहुत आलसी हूं। इन कुछ महीने में अधिक फोटो लेना शुरू किया है। तुम्हारे लम्हे लफ्जों के अलावा चित्रों में सहेजना चाहता हूं।
तुम्हारे होने ने मुझमें बहुत सी तब्दीलियां लाई हैं। कुछ तो शब्दों में भी नहीं समा पाएंगी...
तुम्हारे पापा
फ़ोटो:
हम सींच रहे हैं
एक-एक पौधा.
वे गुलाब
हम उन्हें.

Thursday, December 7, 2023

युद्ध और प्रेम की कविताएं

 


तुम्हारे ब्रह्मांड में जा
तुम्हारे होंठों को चूम ले.

मेरी कविता की बस यही चाह है.

---

तुम्हारी पीठ पर
जो कवितायें लिखीं गईं

वे ही सबसे सुंदर कवितायें थीं.

---

जिन कविताओं को
तुमने होंठों से लगाया.

वे ही मुकम्मल घोषित की गईं.

---

मेरे पास बंदूक है
मैं उस पर कविता रख
सुकूं से सो जाता हूं.

सिर्फ कविता
बंदूक सुला सकती है,
शांति स्थापित कर सकती है.

---

मैं लिखता हूं
कविता,
कि एक रोज
तुम तक पहुंच ये
तुम्हारे होंठों को चूमेगी.

मेरी याद में तुम हथेलियां सहलाओगी.

---

एक कविता युद्ध को सहला रही थी
युद्ध जर्जर था युद्धोपरांत.

युद्ध दौरान कविता
टूटी मानवता को सहलाती रही,
युद्ध उपरांत युद्ध को.

युद्ध और क्रोध तोड़ते हैं विरोधी,
साथ ही स्वयं को...

कविता ने कहा उस रोज.

---

युद्ध और प्रेम में हमेशा
युद्ध चुना गया.
होंठों और बंदूक में
बंदूक चुनी गई.

यह मानवीय निर्बलता है
कि युद्ध आसान है,
प्रेम कठिन.

गले लगाना, होंठ चूमना
बंदूक उठाने से
ज्यादा साहस का काम है.

---

तुमसे प्रेम
अनायास नहीं था.
तुम्हारी सुंदर आंखों में
आंसू
सीने में सैलाब
जिस्म में जज़्बा
जेहन में विचार
इरादों में पंख थे.

ये रेयर कॉम्बिनेशन हैं.

तुम्हें छू में तरंगित था
चूमकर बुद्ध हुआ
जब जब सीने से लगे तुम
मैं खुद को खोता गया,
तुम्हारा होता गया।

बताओ,
तुमसे प्रेम न हो तो किससे होता!

---

तुम्हारी पीठ पर लिखे हैं
मैंने सबसे सुंदर शब्द
तुम्हारे हाथों में छोड़ी है
सबसे सुंदर एहसास.

मैं कहीं भी रहूं,
तुम जहां भी रहो

थककर, हारकर
आंसू, उन्माद लिए
तुमतक पहुंच जाता हूं.

तुम मेरा घर हो.

तुमसे प्रेमकर मैंने जाना दोस्त,
घर सिर्फ जगहें नहीं होती
लोग भी होते हैं!

---

फोटो : इंटरनेट

Monday, December 4, 2023

Papa's Letters to Shaurya #NinthLetter


तुम्हारी नानी एक संत को सुन रही हैं। उनके कई सारे फॉलोअर्स हैं। वे एक प्रश्न के जवाब में कहते हैं "स्त्रियों को जॉब न करके घर चलाना चाहिए। बच्चे बड़े करने चाहिए। क्या आपकी मां जॉब करती तो आप जो बन पाए हैं वह बन पाती?" वह प्रश्न पूछने वाली महिला (जो खुद एक वर्किंग वुमन है) से प्रश्न करते हैं। मुझे उनकी बात सुनकर हंसी आ जाती है। ऐसा नहीं है कि वह अच्छे विचारक नहीं है। वह एक बहुत अच्छे विचारक हैं। कई बार मैं उनको सुनकर, उनकी फॉरवर्ड थिंकिंग को देखकर आश्चर्यचकित रह जाता हूं। लेकिन मैंने अक्सर देखा है कि अच्छे विचारक भी अपने अंदर से बरसों से चली आ रही रूढ़ियों को निकाल नहीं पाते हैं।
तुम्हारी दादी भी वर्किंग है और तुम्हारी मां भी और दोनों ही सुपर वुमन हैं। तुम्हें दो बातें बताता हूं-
पहली, बच्चे सम्हालना, घर संभालना सिर्फ महिलाओं का काम नहीं है। यह वर्क डिवीजन हमने ही बनाए हुए हैं। जबकि घर और बच्चे महिला और पुरुष दोनों के होते हैं। इसलिए ये काम भी दोनों को करने मिलकर चाहिए या या जिसको करना है वो कर सकता है। इस तरह के डिवीजन पुरुषवादी समाज ने अपनी सहूलियत के लिए बनाए हैं।
तुम्हें बड़े होने के साथ यह समझना जरूरी होगा कि एक उन्नत समाज के लिए इक्वलिटी आवश्यक है। जो 'घर' से शुरू होती है... आपके अपने घर से...
दूसरी, ये कि स्त्रियों को इसलिए जॉब नहीं करनी है कि घर में पैसे की आवश्यकता है। बल्कि इसलिए करनी है-
1. for financial freedom
2. for their self respect
3. for their self development, and
4. because they want to work
( 1. आर्थिक आजादी के लिए
2. अपने स्वाभिमान के लिए
3. उनके स्व-विकास के लिए, और
4. क्योंकि वे काम करना चाहती हैं )
सदियों से लड़कियों को कम पढ़ाया जा रहा है क्योंकि लोग सोचते हैं कि 'बड़े होकर उन्हें कौन सा काम करना है!' उनकी एजुकेशन हमेशा सेकेंडरी रही है। यह बहुत स्टुपिड सा लॉजिक है, जिसे मैं ना समझ पाता हूं, ना ही पचा पाता हूं।
हालांकि हम 19वीं सदी में से ईश्वर चंद्र विद्यासागर, दयानंद सरस्वती, ज्योतिबा और सावित्री फुले, महर्षि कर्वे (20वीं सदी) द्वारा स्त्री शिक्षा पर किए बहुत सारे कामों से काफी आगे जाकर हम स्त्री साक्षरता में अब 77% पर पहुंच गए हैं और लगभग 33% भारतीय महिलाएं वर्किंग वुमन हैं। लेकिन समाज के रूप में अभी भी ऐसी सोच से हमें काफी आगे आने की आवश्यकता है।
हॉपफुली, बड़े होकर जो मैं लिख रहा हूं उसके मायने समझोगे और मम्मा क्यों सुपर वुमन है ये भी।
तुम्हारे पापा

Sunday, December 3, 2023

शौर्य गाथा 93

 भाईसाहब ओवरलोडेड विद क्यूटनेस हैं। तोतली आवाज में बहुत सी बातें, बहुत सी प्यारी प्यारी हरकतें, स्कूल के झूठे-सच्चे तोतले किस्से। ऐसे लग रहा है कि ये लम्हे फ्रीज हो जाएं और भाईसाहब इसी उमर में ठहर जाएं।

कितना सुंदर है बचपन। प्यारी प्यारी शिकायतें, छोटी छोटी डिमांड्स, छोटी छोटी बात में बड़ी सी खुशियां, बेखौफ हंसी, निश्छल प्रेम। बचपन देख आप ज़िंदगी से मोहब्बत में कई दफ़े पड़ सकते हैं, कई-कई बार!
इनकी बीमारियां महज़ अपनी बहन को देखकर ख़त्म हो जाती हैं! चॉकलेट पे खुशियां बिखर जाती हैं! पेपर टेप की नेमप्लेट से भाईसाहब का जैसे दिन बन जाता है! किताबें अपनी भाषा में ऊलजलूल पढ़ ली जाती हैं! इतना खूबसूरत जिंदगी का और कौन हिस्सा होता होगा...

ख़त

 



मैं पलंग पे लेटा हुआ था. वो आये 'कैसे हो मियां?' औपचारिक मुस्कुराये. मैंने अपना पांव हाथों से उठा के बैठने की कोशिश की. 'नहीं, नहीं लेटे रहो, और ये पकड़ो.' उन्होंने एक लिफाफा मेरी और बढ़ा दिया. 'गवर्मेंट ने सेवन लाख की जो घोषणा की थी, उसकी डिटेल्स है. कुछ दिन में पैसे तुम्हारे अकाउंट में पहुँच जायेंगे.' मैंने लिफाफा सायमा को थमा दिया. '...और हाँ, टीवी पर 'फारेस्ट गम्प' और 'शाव्शंक रिडेम्पशन' किस्म की फिल्म देखते रहना अच्छा लगेगा. उन्होंने जाते-जाते कहा. 'शुक्रिया...' मैंने धीरे से कहा और अपना घुटनों तक कटा पांव सरकाने की कोशिश की.

सायमा ने दरवाजा बंद किया. वो मेरे पास आई, मैंने उसे लिफाफा थमा दिया. 'इसका अब क्या करेगें?' उसने धीरे से कहा फिर मेरे से लिपट गई. 'सब ठीक हो जाएगा सायमा, बस एक पैर ही तो कटा है, जिंदा तो हूँ न.' मैंने उसे पांचवें दिन और पचासवीं बार एक ही वाक्य दुहराते हुए दिलासा दी. वो मेरे से चिपकी रही. मैंने उसके बालों को सहलाया. 'मुझे तुमसे कुछ कहना है सायमा.' 'हाँ कहो,' उसने सर उठाते हुए कहा. मैंने तकिये के नीचे से निकालकर उसके हाथ में एक लिफाफा थमा दिया.
'पढो.'
'उर्दू में है ये, किसने भेजा? अच्छा पढ़ के सुनाती हूँ.'

'अब्बू, यहाँ सब खैरियत से है. मैं अच्छे से पढ़ रही हूँ, हर रोज़ स्कूल भी जाती हूँ. इस बार रोज़े नहीं रखे थे, अम्मी ने कहा है और बड़ी हो जाओ तो रखना. नये कपडे लेने थे लेकिन अम्मी कहती है आपके भेजे पैसे ज्यादा दिन नहीं चलते और दादी का इलाज़ भी कराना पडता है. इस बार ज्यादा पैसे भेजना. मैंने कहा था न इस बार अच्छे से लिखना सीख जाउंगी, देखो सीख गई. अब सदीक़ स्कूल में एडमिशन दिला दो तो और अच्छे से पढूंगी. अम्मी कहती उसके पास साल भर की फीस भरने पांच हज़ार रूपये नहीं है. -आपकी नाजिया'

'रंजीत, किसने लिखा ये? तुम्हारे पास कैसे आया?' '
मुझे नहीं अनवर अली के लिए आया था'
'कौन अनवर अली?'
'पाकिस्तानी जिसे मैंने मारा था. उसकी जेब में था ये. मैं चेक कर रहा था तब मुझे मिला.'
'तो....?'
'मैं नाजिया के बाप का कातिल हूँ.'
'तुमने जानबूझ के तो नहीं किया न रंजीत, अगर तुम नहीं मारते तो वो तुम्हें मार देता. देखो पांव तो काटना ही पड़ा न.'
'लेकिन....'
 'लेकिन क्या? तुम्हारी गलती नहीं है, अगर तुम्हें कुछ हो जाता तो मैं और रिद्मा कैसे रहते? रिद्मा तो तीन साल की उम्र में ही अनाथ हो जाती न. पता नहीं तुम क्या सोच रहे हो.' सायमा थोडा गुस्से में बोली.
'अगर हम इन सात लाख में से पांच हज़ार अनवर के घर भेज दे तो? हमारी रिद्मा के जैसे उसकी नाजिया भी पढ़ लेगी.' मैंने धीरे से कहा.

सायमा ने थोड़ी देर ख़ामोशी से एक टक मेरी तरफ देखा. फिर 'मेजर रंजीत तुम्हारा दिल बहुत बड़ा है.' कह के  मेरे से  चिपक गई. 'मेरी और अनवर की कोई दुश्मनी नहीं थी....सियासत की थी. सैनिक हाथों में हथियार नहीं लेना चाहते सायमा, सियासतें उन्हें मजबूर करती हैं.' मैंने उसे चूमते हुए कहा.

अगले पंद्रह साल तक नाजिया को पैसे मिलते रहे और एक ख़त भी, जिसपे सिर्फ 'सॉरी बेटा' लिखा होता था.


[चित्र 2002 में प्रदर्शित 'वी वर सोल्जर' के अंतिम दृश्यों में से एक दृश्य का है. चित्र के साथ 'सब टाइटल्स' पे ज़रूर ध्यान दें.]

Wednesday, November 29, 2023

Papa's Letters to Shaurya #EighthLetter


कभी-कभी ऑफिस से आकर तुमसे मिलता हूं तो अंदर से गिल्ट (Guilt) महसूस होती है। अपने सपने के लिए सिर्फ व्यक्ति sacrifice नहीं करता, उनके बच्चे भी करते हैं। वर्किंग पेरेंट्स का गिल्ट में होना कोई नया नहीं है, किंतु मेरे लिए पहला अनुभव है। मेरे फ्रेंड्स बोलते हैं बच्चों को भी आदत हो जाती है और दोपहर में सोने के बाद जागकर तुम अपनी आया का नाम लेते हो तो ऐसा सही भी लगने लगता है। मम्मा या मेरे ऑफिस से लौटकर आने के बाद जिस तरह तुम चहक जाते हो, देखते ही बनता है। तुम्हारी नानी भी यही बोलती हैं कि मम्मा पापा के आने के बाद जैसे शौर्य को दुनिया मिल जाती है।
किंतु तुम्हारा जो दिन भर का इंतजार है वह मेरे लिए तकलीफदेय है। इसलिए भी कि बोर्डिंग में रहते मैंने भी रविवार के इंतजार किए हैं। तुम्हारे दादा-दादी ने भी बिना नागा किए हर रविवार आने की चेष्टाएं की हैं। मैं उनका दर्द, उनका रविवार का इंतजार अब समझ सकता हूं।
बच्चों के साथ पैरेंट्स भी जन्म लेते हैं अब मैं यह समझ सकता हूं। तुम्हारी मम्मा और मेरी फ्यूचर और करियर को लेकर अपने से जो अपेक्षाएं थीं, वह भी कम हुई है। हमारी जिंदगी का केंद्र बिंदु तुम हो। सब कुछ तुम्हारे आसपास ही घूमता है और जब तुम्हें तकलीफ होती है तो हम भी तकलीफ में होते हैं। गिल्ट से भर जाते हैं।
मुझे एक शहर हमेशा जिंदा सा लगता है। कई विचार, कई सड़कें, कहीं लाइटें, कई लोग सबकुछ एक साथ से चलते, आगे बढ़ते, समय में ढलते लगते हैं। जीवंतता का वो शहर जैसे मेरे अंदर समा गया है। जब से तुम जिंदगी में आए हो। कई फिकरें, कई सपने, ढेर सारा प्रेम, उम्मीद, तुम्हारे करतब सब एक साथ आंखों और जेहन में चलते हैं। उसे तुम्हारे आने के बाद समग्र सा होने लगा हूं।
मैं तुम्हें कितना प्यार करता हूं शायद कभी कह नहीं पाऊंगा। कोई पेरेंट्स अपनी संतान को कितना चाहते हैं वे कभी नहीं कह पाते हैं। लेकिन इस उम्मीद में कि एक दिन तुम पढ़ोगे तो समझोगे, इसलिए लिख रहा हूं। साथ ही इस उम्मीद में कि पढ़ने वाले पाठक भी समझ पाएं कि उनके पैरेंट्स उन्हें कितना प्यार करते हैं, लिख रहा हूं।

Sunday, November 26, 2023

शौर्य गाथा : 90. By Chachu

 आज ब्रो की सुबह जल्दी हो गयी है,ब्रो की हरकतें और बातें एकदम नेक्स्ट लेवल पर जा रहीं है।

ब्रो अब पॉटी बतानें लगे हैं...यार दोस्त तातू पोत्ती आ ली...और फिर दोनों दौड़ लगाते हैं वाशरूम की ओर...
इनको चाहिए कि चाचू भी वहीं बैठें और इनकी बकर सुनें...जैसे याल तातू डंप तृक की स्तोरी सुना दूँ?
'तातु वो तबूतर बुला ला था आपतो...'
'में पोलित अंतल हूँ'
'पुलिस अंतल पेण्त में पोत्ती नहीं तलते'
अभी कुछ दिन पहले ब्रो को ब्रश करना सिखानें में चाचू की ड्यूटी लगी थी।
भाभी नें ये कहते हुये जिम्मेदारी सौंपी की ब्रो तो रोज़ अपना पेस्ट खा लेते हैं....
दो चार दिन साथ ब्रश करनें के बाद भी ब्रो अपना पेस्ट मौका देख धमक देते हैं...थोड़ा सीख गए हैं।
इनके साथ जीना एकदम लाज़बाब है।
जैसे ही में बोलता हूं 'शौर्य भगवान की जय'
भाई पोत्ती शीट पर दम लगाते हुए बोलते हैं
'थोतू तातू भदवान ती दये'
😃

Sunday Notes: इतिहास

 


एक शहर है जो हर दिन बदलता है। कुछ चेहरे उसमें जुड़ते हैं, कुछ भी बिछड़ते हैं। लेकिन फिर भी वो स्थिर है। उसकी गलियां वही हैं, घरों की जगह वही है। करीब 3000 वर्षों बाद जब उसे खोज़ा जाएगा, हड़प्पा की तरह तो हम कहेंगे उम्दा शहर था, नगरीय व्यवस्था थी। आज वहां पर फुटपाथ पर ठंड में मरा वह बूढ़ा इसके खिलाफ गवाही है! इतिहास रुलर्स हैं, पॉलिसीज़ हैं, इंफ्रास्ट्रक्चर है... पर जो नहीं है वह बूढ़ा जो ठंड में फुटपाथ पर मर गया। जिसका कहीं नाम नहीं है। किसी सरकारी कागज में दर्ज भी हो तो खो जाएगा। 'अज्ञात व्यक्ति' का पुलिस दाह संस्कार कराएगी। 

इतिहास में दर्ज तो पुलिस भी नहीं है।सारे ' सरकारी' कर्मचारी ही। वे लोग बस हैं जिनके लिए ये काम करते हैं- सत्ताधीश। 

मोहम्मद बिन तुगलक की कितनी ही पॉलिसीज़ गलत थीं। कोई तो अधिकारी रहा होगा जिसने उसका विरोध किया होगा। किसी ने तो विरोध में इस्तीफा दिया होगा। किसी ने तो उसका आदेश मानने से इंकार किया होगा। उसका भी तो नाम इतिहास में होना था।

इतिहास की कहानियों में इमरजेंसी में इंदिरा गांधी के नाम के साथ उनका आदेश न मानने वाले अधिकारियों के नाम की दर्ज होने थे। प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री के साथ विनायक सेनों, संजीव भट्टों के नाम भी दर्ज होने थे। 

जीवनगाथाओं, बायोग्राफीज़ में बेहतरीन कामों के अलावा गलतियों का भी जिक्र होना चाहिए। दर्ज़ होना चाहिए कि उनकी इस गलती की वजह से आज देश को क्या भुगतना पड़ रहा। दर्ज़ होना चाहिए कि महान विभूति होते हुए भी उन्होंने ऐसी तमाम गलतियां की जो भविष्य में याद रखी जाएंगी और चेतायेंगी कि ऐसी गलतियां हमें आगे नहीं करनी है। लेकिन अफसोस इतिहास में दर्ज़ होते हैं सत्ताधीश, पॉलिसीज़, इंफ्रास्ट्रक्चर और गुम होते हैं वे लोग जिनके लिए ये सब बनाए जाते हैं या थोपे जाते हैं। विद्रोह... विद्रोह बस कभी-कभी दर्ज़ होता है। बहुत कम ही... किसी नेल्सन मंडेला का, किसी बहादुर शाह जफर का या किसी बिरसा मुंडा का और 200 वर्ष के अंतराल में सत्ताधीश रह जाते हैं, विद्रोह गायब हो जाते हैं... इतिहास से।

#SundayNotes

Saturday, November 25, 2023

क़त्ल

 यकीन मानिये, ये कहानी नहीं थी. ये आत्महत्या के वक़्त लिखा गया नोट था. लेकिन पुलिस को ये कहानी जैसा लगा था और इसलिए इसे सुसाइड नोट नहीं माना था और फाड़ के फेंक दिया था! पढ़िए और बताइए आपको क्या लगता है :--





मैं लिखता था, लेकिन चूँकि देश के हर लिखने वाले की नियति यह होती है कि वो सिर्फ लिखकर के पेट नहीं भर सकता तो मैं काम भी करता था. आप इसे उल्टा भी कह सकते हैं, कि मैं काम करता था लेकिन लिखता भी था. वो इसलिए क्यूंकि अब मैं काम हर दिन करता था और लिखता कभी-कभार था. फ़िलहाल मुद्दा ये नहीं है कि मैं लिखता था तो अब सिर्फ कहने को यही बचता है कि मैं काम करता था.

मैं जहां काम करता था वहां एक से लोग थे, एक से कपडे पहिन के हर दिन लगभग एक सा काम करते थे.  ये मुझे बंधुआ मजदूरी का नया सुधरा रूप लगता था. मेरी कंपनी बड़ी थी, जिसके सारे ग्राहक विदेशी थे. 'ग्राहक' सुनकर आप अपना खाली दिमाग नहीं चलाईएगा क्यूंकि मैं किसी लाल-बत्ती-क्षेत्र (आप अपनी भाषा में रेड लाइट एरिया भी बोल सकते हैं.)  में काम नहीं करता था. हाँ 'विदेशी' सुनकर ज़रूर आप कुछ कह सकते हैं. चलिए आप नहीं कहते तो मैं ही कहे देता हूँ, आपको इस तरह का काम नये तरीके कि गुलामी लग सकता है और दफ्तर किसी विदेशी हुकूमत की जेल.

मेरे आस पास जितने भी काम करते थे उन्हें सिर्फ काम से मतलब था, उन्हें बाहर की दुनिया नहीं पता थी. मैंने अपनी 'लीड' (जिसे फिर से आप अपनी भाषा इस्तेमाल करके 'बॉस' कह सकते हैं.) से कहा कि 'सचिन ने खेलना छोड़ दिया है.' उसने मुझे देखा, इस तरह से देखा जैसे मैंने किसी दूसरी दुनिया की कोई बात की हो. फिर कड़क के दक्षिण भारतीय हिंदी में पूछा कि ' एम् आर डी की सोर्स फाइल्स कॉपी हुआ की नहीं?' (एम् आर डी वाली बात में आपको आपकी भाषा में नहीं समझा सकता क्यूंकि समझाते-समझाते ही ये कहानी ख़त्म हो जाएगी फिर भी आप पूछेंगे कि ये एम् आर डी  होता क्या है. फ़िलहाल इतना समझ लीजये कि कोई पकाऊ सा काम है, जिसे करना ज़हर पीने के बाद मरने का इंतज़ार करने जैसा है.) फ़िलहाल मुझे हंसी आ गयी. इसलिए नहीं कि उसे कुछ नहीं पता था, इसलिए की आप ये समझते हैं कि क्रिकेट देश का सबसे पसंद किया जाने वाला खेल है और सचिन भगवान् की तरह है. गनीमत ये थी कि मैंने काम कल ही देर रात दस बजे तक दफ्तर में बैठ के ख़त्म किया था तो 'लीड' को अपने प्रश्न का उत्तर सकारात्मक मिला और मैं और भी कुछ सुनने से बच गया. फिर मैंने अपने पास बैठे दिनेश से पूछा, उसने भी मुझे अजीब तरीके से देखा जैसे मैंने उसकी बहिन की ख़ूबसूरती की चर्चा कर दी हो. हाँ, मैं ये सिर्फ इसलिए बता रहा हूँ, कि आपको ये न लगे कि मेरी 'लीड' औरत थी तो शायद उसे क्रिकेट के बारे में पता नहीं होगा.

'लीड' बनना कोई छोटी बात नहीं होती, क्यूंकि उसके लिए आपको सुबह आठ से शाम, माफ़ कीजिये रात दस बजे तक छ:- सात साल तक काम करना पड़ता है. हाँ लेकिन उसके बाद आपको ज्यादा काम करने की ज़रूरत नहीं होती, क्यूंकि आप आराम से अपना काम दूसरों पे थोप सकते हो. आप आराम से दूसरों पे हुक्म चला सकते हो या दूसरों के काम के बीच अपनी भद्दी सी फटी बिवाई वाली टांग अड़ाकर उसे परेशान कर सकते हो. कभी-कभी तो किसी के द्वारा किये काम का श्रेय भी ले सकते हो. हाँ आपने पिछले छ:- सात साल सिर्फ काम करते गुज़ारे हैं तो अब आप उसका गुस्सा भी लोगों पे निकाल सकते हो. ऐसे ही एक बार मैंने अपने पुराने 'लीड' से पूछा था, कि वो मुझे कुछ चीज़ समझाएगा क्या? लेकिन उसने मेरी तरफ कुछ-कुछ खा जाने वाली नज़रों से देखा और कहा कि मैं खुद सीख लूँ, क्यूंकि उसने भी भी खुद ही सीखा था, और मेरा बाप उसे सिखाने नहीं आया था. मैंने उसकी बात को अपने सर मैं बैठा लिया और खुद ही सीखा. लेकिन सीखने के बाद में बहुत हंसा, क्यूंकि मुझे पता चल गया था कि जो मेरे लीड को आता है वो अधूरा ज्ञान है. लेकिन मैंने उसकी गलतियां उसे नहीं बताईं क्यूंकि मैं शायद उसके अहं में छेद कर बात आगे नहीं बढाना चाहता था.

मेरे पुराने और नये लीड के बीच सम्बन्ध थे, ये बाद मुझे बाद में पता चली. इस बार आप सही हैं, उन दोनों के बीच अनैतिक सम्बन्ध ही थे. दोनों ही भद्दे लगते थे, लेकिन उनके बीच सम्बन्ध थे. अक्सर हम मान लेते हैं कि एक खूबसूरत लड़का और एक खूबसूरत लड़की ही प्यार कर सकते हैं. हमारी फिल्मों में भी यही दिखाया जाता है. लेकिन आदतन प्यार अंधा होता है तो एक भद्दी औरत के एक भद्दे आदमी से सम्बन्ध थे. खैर, मुझे उनके अनैतिक संबंधों से कुछ लेना-देना नहीं था. बात ये थी कि वो ऑफिस के वक़्त बाहर घूमने जाते थे और अपनी लीड का काम हमें करना पड़ता था. जो बंटकर मेरे हिस्से में पच्चीस प्रतिशत आता था. पच्चीस प्रतिशत मतलब दो घंटे ज्यादा, दो घंटे ज्यादा मतलब दस बजे तक काम करना. इतना काम करना मुझे कतई पसंद नहीं था और मेरी हिम्मत जवाब दे देती थी. मैं बेहताशा थक जाता था.

मैं परेशान था. काम के बोझ तले दबा महसूस कर रहा था. एक दिन मैं बीमार पड़ गया. मैंने अपनी लीड को बताया. लेकिन आपको जैसे पता ही है जहां मैं काम करता था वहां सबको मशीन समझा जाता था और आपका बीमार होना किसी कंप्यूटर प्रोग्राम में वायरस आने जैसा था. शायद इसीलिए उसने मुझपे चिल्लाया कि 'मैं कैसे बीमार पड़ सकता हूँ?' उसकी इस हरकत पे मैं हंसना चाहता था क्यूंकि बीमार 'कैसे पड़ा' ये तो बीमार पड़ने वाले को भी नहीं पता होता! लेकिन शायद मैं बीमार था तो मैंने रो दिया. उसदिन मैं बरसों बाद रोया था. मुझे माँ की बहुत याद आ रही थी मैंने अपनी माँ को फ़ोन किया, लेकिन मैं माँ के सामने रोना नहीं चाहता था, क्यूंकि इससे माँ परेशान हो जाती. 'कैसे हो बेटा?' माँ ने पूछा. मैंने 'अच्छा हूँ' जवाब दिया फिर उगते सूरज, पूरे चाँद और तारों की बातें की. घर के क्यारी में खिले फूलों में बारे में पूछा और सावन की बारिश का हाल बताया. जब उसे यकीन हो गया कि मैं खुश हूँ तो मैंने फ़ोन रख दिया.

मैं 'शम्भू के रेस्तरां में खाना खाता था. वो अच्छा खाना खिलाता था. वो 35  रूपये में एक थाली खिलाता था. खाना अच्छा था क्यूंकि 35 रूपये में था. हाँ, उस अच्छे खाने की दाल पतली होती थी और सब्जी में एकाध बार कीड़े भी निकले थे. वो बारस सौ किलोमीटर से यहाँ रेस्तरां खोलने आया था और यहाँ की भाषा भी सीखी थी, इसलिए ज्यादा पैसे कमाना अपना हक समझता था. इसीलिए सब्जी में हमेशा सड़े टमाटर ही डालता था. मुझे पहले से ही शक था इसका खाना खा के मैं बीमार पडूंगा लेकिन मेरे पास और कोई चारा नहीं था. ऑफिस से आते-आते मुझे दस बज जाते थे और उसके बाद न तो खाना बनाने कि इच्छा होती थी न ही हिम्मत.

मैं चीज़ें भूलने लगा था. मुझे पहले लगा शायद ये मेरा भ्रम है लेकिन फिर गूगल पे ज्यादा तनाव से होने वाली इस बीमारी के बारे में पढ़ा तो मुझे इस भूलने की बीमारी के बारे में पता चला. एक दिन में ऑफिस के लिए निकला लेकिन भूलने के कारण में बाज़ार पहुँच गया. वहां मैंने कच्चे आलू खरीद कर खाए. यकीन मानिये मैंने कच्चे आलू ही खाए थे. हाँ कच्ची प्याज नहीं खाई थी. प्याज ने एक बार देश की सरकार गिराई थी शायद इसलिए मैं उससे डरता था. जब मुझे होश आया तो भागता ऑफिस पहुँचा, लेकिन देर से पहुंचा और फिर डांट खाई.

एक बार मैंने 'शम्भू के रेस्तरां' में खाना खाया. जैसा कि  आपको पता है, बिल 35 रूपये आया. कोई नेता ये कह सकता है कि मैंने तीन लोगों का खाना एक साथ खाया है. क्यूंकि देश में भरपेट खाना अब भी 12  रूपये में मिलता है. खैर, मैंने पैसे देने जेब में हाथ डाला लेकिन शायद मैं पर्स भूल गया था.(लड़कियों को आपत्ति हो तो वो पर्स को वॉलेट भी पढ़ सकती हैं.) मैंने दस मिनट में पैसे लेकर आने का वादा किया, लेकिन बदले में उसने मेरा मोबाइल गिरवी रख लिया. दस मिनट बाद में पैसे लेकर आया तो उसमें माँ के 16 मिस्ड कॉल थे. उन्होंने बार-बार फ़ोन किये शायद उन्हें कोई अनहोनी की आशंका हुई होगी. (बाद में मैं मुझे पता चला कि माँ को अपने बच्चों कि नियति पहले से पता होती है!) वो फ़ोन पे रो दी. मैंने झूठ बोल कि मैं बाथरूम था. वो चुप हो गई. मैं दस मिनट चुपचाप सड़क पे बैठा रहा.

मैं कभी-कभी नित्या को फ़ोन करना चाहता था. नित्या मेरा पुराना प्यार थी. हमने एक ही कॉलेज से पढाई की थी. साथ-साथ चार साल गुज़ारे थे. हम एक दुसरे के बहुत पास था. शायद इसलिए क्यूंकि हमने एक ही कॉलेज में नहीं एक ही रूम में भी पढ़ा था, और पढने के अलावा और भी कुछ किया था. हर बार उस 'कुछ' के बाद कपडे पहिनने से पहले हम एक ही ख्वाब देखा करते थे, जिसमें हमारे तीन-चार छोटे-छोटे बच्चे हुआ करते थे. अब आप उत्सुकतावश उन बच्चों का जेंडर मत पूछियेगा, क्यूंकि हमने ख्वाबों में बच्चों की चड्डी उतार जेंडर नहीं देखे थे. पहले हम बहुत बातें किया करते थे, लेकिन फिर में व्यस्त हो गया और वो नाराज़ हो गई. इसे मैं उसकी गलती नहीं कह सकता, क्यूंकि मेरे पास ही वक़्त नहीं था. लेकिन ये मेरी भी गलती नहीं थी. किसी ने समझदार आदमी ने था कि लम्बी दूरी का प्यार (आपकी भाषा में लॉन्ग-डिस्टेंस-रिलेशनशिप)  नहीं चलता , ये उसी आदमी की समझदारी का परिणाम था. खैर, धीरे-धीरे नित्या में मेरा फ़ोन उठाना बंद कर दिया और मेरे प्यार का अंत हो गया, और हमारे बच्चे कभी ख्वाबों से बाहर ही नहीं निकले!

मैं निराश था और निराशावश मैंने लौट के घर जाने का सोचा. घर पे मैं फिर से लिखना शुरू कर सकता था. लेकिन फिर मैंने ये ख़याल त्याग दिया. हुआ ये था कि एक बार मैंने 'बाढ़-राहत-कोष' में पाँच हज़ार रूपये जमा किये थे. जब मैंने ये बात अपने बाप को बताई तो उन्होंने कहा कि 'बीस हज़ार कमाने वाले पांच हज़ार दान नहीं करते.' उसके बाद उन्होंने बहुत सी बातें की जो मुझे कुछ-कुछ गाली जैसी लगी थी और मैं उन्हें यहाँ दुहराना नहीं चाहता. मैं सिर्फ लिखने से बहुत सारे पैसे नहीं कमा सकता था और उनसे पैसे मांगने से डर रहा था.

आखिर मैंने आत्महत्या करने की सोची. हाँ, इस चकाचौंध भरी दुनिया से, जहाँ एकबार मैं खुद ही आना चाहता था, काम करना चाहता था, से आखिर निराश होकर मैंने आत्महत्या करने की सोची. आत्महत्या बड़ा अजीब ख़याल होता है. खुद को मारना बड़ा अजीब ख़याल होता है. यह आपको पापी बना देता है, कमजोर प्रदर्शित करता है. इसलिए मैंने आत्महत्या का ख़याल त्याग दिया. लेकिन इसे हादसे का रूप देने का सोचा. मैंने दौड़ते हुए, दौड़ती कार के सामने आने का सोचा, लेकिन इस तरीके से बेगुनाह कार वाले को जेल जाना पड़ सकता था. लेकिन फिर मुझे लगा हम सब अपनी ज़िन्दगी में दो-चार दिन जेल में बिताने लायक गुनाह तो करते ही हैं, तो एक रात मैं तेजी से दौड़ती कार के सामने तेजी से आ गया. मैं दो मीटर दूर उछला और मर गया. लोगों ने कार को घेर लिया. कार में से एक औरत निकली. वह औरत मेरी लीड थी. मैं मरते-मरते भी अपनी मौत और उसकी किस्मत पे मुस्कुरा दिया.

अगले दिन अखबार में खबर छपी, 'फलाना सूचना प्रोद्योगिकी कंपनी में काम करने वाला चौबीस वर्षीय 'ढिमका' सॉफ्टवेर इंजिनियर सड़क हादसे में मारा गया.....' पुलिस ने इसे हादसा कहा था. मैंने आत्महत्या का नाम दिया है. लेकिन पढने के बाद आप समझ सकते हैं कि ये एक क़त्ल था. अत्यधिक काम और तनाव द्वारा किया गया क़त्ल!

(देश में हर साल औसतन 9500 लोग अत्यधिक काम से तनाव में आ आत्महत्या करते हैं. लेकिन बस खनकते पैसे गिनने वाली सरकार बहादुर चुप है और हम-आप के पास तो ये सोचने का वक़्त ही नहीं है!)

[ चित्र 2011 में प्रदर्शित मेरी फेवरेट फिल्म 'शेम', अभिनेता 'माइकल फ़ासबेंडर' का है. अगर आप वालिग है तो ही इसे देखिये, क्यूंकि ये एक NC-17  सर्टिफिकेट प्राप्त फिल्म है. ]