कभी-कभी बच्चों को देखता हूँ टीवी पे तो लगता है इतना पोटेंशियल में उनमें कहाँ से आया ...इतनी सी उम्र और क्या-क्या कर लेते हैं...फिर एक दिल मायूसी से भर जाता है...इतनी जल्दी झोंक दिए गये कॉम्पटीशन में. क्या करें, माँ-बाप भी तो अपने सपने बच्चों की आँखों में झोंक देते हैं. मुझे अपना बचपन याद आता है...छोटा सा गाँव, छोटा सा स्कूल और उसमें खुद झाड़ू लगा कर फट्टी बिछाकर के बैठा करते थे हम. न कोई बड़े बड़े सपने, न कोई बड़ी बड़ी बातें. बस घर से निकलो और स्कूल और वहां थोड़ी सी पढ़ाई और ढेर साडी मस्ती और लड़ाई...फिर बस घर आना. एक ही किताब थी दूसरी क्लास में और उसे मैं हर दस दिन में एक बार खरीदता था. कुछ तेरह रूपये की आती थी.
आधे लोगों को पढ़ के लगेगा कि किसी तेइस साल के लड़के के एसी कहानी कैसे हो सकती है, क्यूंकि 90's में तो देश तरक्की की राह पर था और कांवेंट्स भी बहुत थे....लेकिन मेरा गाँव तो अब भी वहीँ है....आज भी लोग मौज में हैं और झाड़ू लेकर आज भी अपनी जगह साफ़ कर लोग पढ़ते हैं.
इसीलिए शायद गिरने से डर नहीं लगता. इससे नीचे कहाँ जाऊंगा. समझ आया? छोड़ो, तुम नहीं समझोगे कॉन्वेंट एज़ुकेटेड लड़के-लडकियों.