Tuesday, July 15, 2014

लप्रेक (लघु प्रेमकथायें)



         कभी कभी ख़ुदा के कान में बड़ी जोर से चिल्लाने का मन करता है.... लगता है उठा दूँ सोते से. ज़िंदगियाँ लेने से पहले के हिसाब ठीक करे.

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       'उस रात तुम चाँद लग रहे थे...सच कह रहा हूँ... बस मेरे आसमान पे नहीं छाये थे.'  किसी ज़माने में किसी ने लिखा था, महबूब के निकाह को लेकर....सोचता हूँ, उस वक़्त उसके दिल में क्या चल रहा होगा?

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      'तुम नहीं समझोगे, तुमने मोहब्बत नहीं की कभी.' जॉब छोड़ के जाते-जाते वो मुझसे बोलती है..... दो साल बाद- 'इश्क़ करोगे हमसे?' वही है. 'तुम्हें बड़े दिन बाद पता चला कि मैंने भी इश्क़ किया था.' मैं धीरे से उसके कान में फुसफुसाता हूँ.

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    'लड़कियों का संघर्ष तो जन्म के साथ ही शुरू हो जाता है.' वो टूटी-फूटी हिंदी में बोलती है. बड़ा दीर्घ बोल के भी खिलखिला रही है. शायद अबतक कुर्बानियों की आदत हो गयी है.

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    'पता है,अगर मेरी कुछ प्रायोरिटी नहीं होती तो तुमसे मैं शादी कर लेती....यू आर जैम'  वो कहती है.
'मेरी वाली ने भी यही कहा था.' मैं कहता हूँ.
    एक सन्नाटा सा पसर गया है, जिसे कोई तोड़ने की कोशिश नहीं करता.

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    'तुम अपने पहले प्यार से शादी नहीं कर पाते..... गर कर भी लेते हो तो फिर उतना खूबसूरत नहीं बचता.' वो धीरे से कान में कहता है.
   उसकी पत्नी मुस्कुरा रही है. धीरे-धीरे वो मुस्कान मुझे फेक लगने लगती है.
   उसने अपने स्कूल टाइम प्यार से शादी की थी.

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   'सबके अपने-अपने ग़म हैं, तुम भी अपने के साथ जी लो.' आज के दिन की एक और फ़क़त फिलॉसोफी मिलती है.


Tuesday, July 8, 2014

डेमोक्रेसी




मैं कहता हूँ
डेमोक्रेसी किसी मचान पे बैठ मुर्गे खाना
फिर नशे में दो चार इंसानों के शिकार करना है.

चुपचाप से चले जाओ बारिश में
भीगकर कौन सा पिघलने वाले हो,
कौन सा पत्थरों पे चल एड़ियां घिस जाएँगी.
अस्तित्व के इशारे पे बकलोली मत करो अब,
कौन सा तुम मरे तो धरती कांपने लगेगी.

चार किताबों के पांच सिद्धांत और
नर्मदा बचाओ चिल्लाने से भी कहीं कुछ बचता है?
तुम्हारे शरीर से बस
आग जला रोटियां सेंकी जा सकती हैं.
तुम्हारी जमीन पे फैक्ट्रियां धुआं उगल सकती हैं,
उस धुएं में तुम्हारी लाशें भी न दिखेंगी किसी को.
तुम्हारी बेटियां बस मरने के लिए बनी हैं,
जिस्म लूट लेंगे, दहेज़ को जला देंगे,
बचीं तो गांव में नंगा घुमा देंगे.

पूजते रहो अनाप-शनाप 'ब्लडी गॉड्स',
इन्ही के नामों पे चढ़ तुम्हारे जिस्म नौंचे जायेंगे.
तुम नहीं समझोगे कि तुम्हारे आराध्य तुम्हें ही मारेंगे.
तुम्हारी शिक्षा को नशे में दे देंगे-
राष्ट्रहित, वक़्त और बदलाव, या थोड़ी अक्ल बची रही तो
अबकी बार, तबकी बार के चार नारे.
डेढ़-लाख करोड़ के ज़ीरो गिने हैं?
इतने में हमारे कुत्ते का पेट भी नही भरता!

'उन्हें डेमोक्रेसी किसी मचान पे बैठ मुर्गे खाना
फिर नशे में दो चार इंसानों के शिकार करना है.'
लपक के मेरे सीने से बारूद पार हो जाता है.
अगली आवाजें 'डेमोक्रेसी...', 'डेमोक्रेसी...' चिल्लाती हैं,
खद्दर को साफ़ कर वो कहते हैं...' ब्लडी फूल्स'.

Sunday, July 6, 2014

‘मैंने आखिरी बार चे ग्वेरा को सिसकते हुए बरतन मांजते देखा’ : संदीप कुमार


           वह अन्ना आंदोलन का दौर था. ‘मैं भी अन्ना, तू भी अन्ना, अब तो सारा देश है अन्ना’ का बोलबाला था. दिल्ली पूरी तरह अन्नामय हो चुकी थी. जंतर मंतर देश का सबसे नया पिकनिक स्पॉट था जहां वीकेंड पर मध्यवर्गी युवा सपरिवार क्रांति करने जाते थे और पिकनिक के साथ अपने व्यक्तिवादी जीवन के तमाम अपराधबोध भी कम कर आते थे. यह कुछ-कुछ वैसा ही था जैसे हमारे गांव का साहूकार हर साल बिना नागा गंगा नहाने जाता है और इस तरह साल-भर डंडी मारने के पाप का भी प्रायश्चित कर आता है.
मैं भी उन दिनों क्रांति मोड में था और तमाम दोस्तों को अन्ना आंदोलन के संचालकों की ओर से मिलने वाले एसएमएस फॉरवर्ड करता रहता था जिनमें लिखा होता था कि एक बूढ़ा आदमी चिलचिलाती धूप में देश के लिए लड़ रहा है और आप अपने घर में आराम से बैठे हैं, आप अब नहीं तो कब निकलेंगे, आदि-आदि. उस दिन मैं आंदोलन स्थल पर पहुंचा तो धूप बहुत तेज थी और मुझे थोड़ी भूख भी लगी थी. मैं थोड़ा टहलता हुआ आगे डोसे की एक दुकान तक पहुंचा. वहां 15 साल का चे ग्वेरा (एक बच्चा जिसने चे ग्वेरा की तस्वीर छपी टी-शर्ट पहन रखी थी) अपने मालिक की मार खा रहा था. पता चला कि मेज साफ करते समय उसका पोंछा झक्क सफेद कपड़े वाले कुछ क्रांतिकारियों से जा टकराया था.
फिर भी, मैंने उसके मालिक से पूछा, ‘क्यों मार रहे हो इसे’
‘**मी है जी साला! एक नंबर का कामचोर.’ वह बोला.
‘पता है न बाल श्रम कानूनन अपराध है. नाप दिए जाओगे.’ मुझे थोड़ा गुस्सा आया.
‘नहीं जी लेबर कहां है. ये तो घर का लड़का है. भतीजा है मेरा.’ दुकान वाला सकपकाया.
‘कहां घर है बेटा?’ मैंने उस लड़के को पुचकार पूछा
‘कठपुतली कॉलोनी.’ वह बोला.
दुकानवाला अब नजरें चुराने लगा था.
लेकिन इस बीच वहां डोसा खाने आए युवा क्रांतिकारियों की सहनशक्ति समाप्त हो चली थी. वे दुकानवाले पर चिल्ला रहे थे. दुकानवाला लड़के का हाथ पकड़कर दुकान के अंदर चला गया था.
अब मैं युवाओं के उस समूह की ओर मुखातिब हुआ. शायद मेरे हावभाव देखकर उनको लगा होगा कि अब मैं कुछ ज्ञान बांटने की कोशिश करूंगा. मुझे दिखाते हुए उनमें से एक-दो जानबूझकर उबासियां लेने लगे. तीसरे ने अपना मोबाइल निकालकर इयर फोन कान में लगा लिया. चौथी जो एक लड़की थी वह अपने बाजू वाले को बताने लगी कि स्नैपडील पर जींस और कुरतों में भारी डिस्काउंट है.
उनके लिए मैं वहां अनुपस्थित था. मेरी भूख मर चुकी थी और मैं तेजी से अप्रासांगिक महसूस कर रहा था, लेकिन मुझे बार-बार उस बच्चे का निरीह चेहरा याद आ रहा था. मुझे लगा कि मुझे पुलिस को फोन करके बता देना चाहिए कि जंतर मंतर पर यानी देश के प्रमुख आंदोलन स्थल पर प्रशासन की नाक के नीचे बाल श्रम और मारपीट के रूप में दो-दो अपराध हो रहे हैं. लेकिन मैं ऐसा नहीं कर सका.
मुझे अचानक याद आया कि मुझे तो अभी आधे घंटे में ऑफिस के लिए निकलना है वरना लेट हो जाऊंगा. मुझे यह भी लगा कि पुलिस कंप्लेंट के बाद अगर किसी तरह का मुकदमा दर्ज हो गया तो मुझे शायद मुफ्त में अदालती चक्कर भी लगाने होंगे. मैं आंदोलन स्थल की ओर जा रहा था और लगातार यह सोच रहा था कि यह एक फोन कॉल मेरी व्यवस्थित
‘मेरी भूख मर चुकी थी और मैं तेजी से अप्रासांगिक महसूस कर रहा था, लेकिन मुझे बार-बार उस बच्चे का निरीह चेहरा याद आ रहा था’
जिंदगी में कितनी अव्यवस्था पैदा कर सकती थी? मैंने राहत की सांस ली और वहां से चल दिया.
उस दिन वहां से निकलते-निकलते मैंने यह भी सोचा कि अब ऐसी जगहों पर बगैर ऑफिशियल असाइनमेंट के नहीं जाऊंगा. रही बात ‘क्रांति’ में योगदान की तो मैं अपने एसएमएस पैक का पूरा लाभ उठाऊंगा. मैंने आखिरी बार चे ग्वेरा को उस दुकान के पीछे सिसकते हुए बरतन मांजते देखा था. बैकग्राउंड में पुरानी वाली शहीद फिल्म का गाना बज रहा था, ‘वतन की राह पर वतन के नौजवां शहीद हों’.
(  An Article by संदीप कुमार  in Tehalka Hindi Magazine http://tehelkahindi.com )

(Published in Tehelkahindi Magazine, Volume 6 Issue 12, Dated 30 June 2014)