Saturday, August 20, 2022

भोपालनामा 10

 मैं भोपाली हूँ, लेकिन सिर्फ भोपाली, सुरमा भोपाली नहीं. अगर हम सुरमा होते तो हज़ारों को मरने न देते, बेमौत. किसी की गलती की सजा बेचारे हम न भुगतते. Bhopal Gas Tragedy, a name which creates fear in every Bhopali, in every inidan. बहुत कुछ हो गया, पच्चीस बरस पहले, इक रात में, हजारों जानें खाक हो गई, मिट गई पल भर में.

मैं उस समय पैदा भी नहीं हुआ था पर आज यहाँ रहते वो ज़ख्म देख रहा हूँ..........आज भी कई दिलों में ताज़ा हैं. फिर भी बहुत बदल गया है यहाँ. ज़ख्म सिर्फ उन दिलों में हैं जिनने खोया है. बाकी अब राजनीति की भेंट चढ़ गया. इक मंत्रालय बना हुआ है, भोपाल गैस tragedy राहत हेतु, 100 करोड़ हर पंच बरसिये योजना में मिलते है उसे, लेकिन वो कहाँ जाते है कुछ पता नहीं. दोषी विदेशी धरती पर जमे हुए हैं, उनके दोष का दर्द हम झेल रहे हैं.


आज भी दूसरी पीड़ी पंगु पैदा हो रही है. अपंग पैदा हो रही है. इसका असर सचमुच भयानक है.

ये सच है, कम्पनी औ सरकार ने पैसा दिया है, बहुत कुछ, लेकिन कितना असली हकदार तक पंहुचा और उसने कितनी मरहम लगाईं, ये नहीं कह सकता.पैसा लोगों की जगह तो नहीं ले सकता ना!!

                  .........आज पच्चीसवीं वरसी पर देश, विदेश इन मृतकों के लिए नाम हैं, लेकिन यहाँ, निकाय चुनावो के स्पीकर्स बज रहे हैं, वोटरों को लुभाने पटाखे फोड़े जा रहे हैं. मैं यहाँ लिख रहा हूँ और बाहर की ये आवाजें भी सुन रहा हूँ. भोपाल का दर्द सिर्फ उनके ज़ेहन में है जिनने खोया है.

    मेरे यहाँ इक कामबाली आती है, ज्योति, जब हादसा हुआ वो १३ साल की थी, उसकी कच्ची आँखों ने सब देखा है, उसका वर्णन रोंकते खड़े करने बाला है. उसने लकड़ी की कमी से लाशों को इक के ऊपर इक जलते देखा है, लोगों को बिलखते मरते देखा है, अपने चाचा, दादा को खोया है. उसका दर्द इतना भयानक है की आप पूरा नहीं सुन सकते.

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हाँ, कार्बाइड फैक्ट्री की आज की स्थिति बताऊँ, तो आप भी चौंक जायेंगे. वहा से 3km दूर-दूर तक का underground water प्रदूषित है, ज़हरीला कचरा वहीँ पडा है, लेकिन आस-पास बस्तियां मौजूद हैं, इन्ही situations में रह रही हैं. कचरे के ऊपर बच्चे क्रिकेट खेलते हैं. उनको पूछने बाला शायद न तो म.प्र. सरकार है न ही केंद्र. वो ही बेचारे गरीब लोग जाये तो कहाँ जाये? विस्थापन की जरूरत पर कोई ध्यान नहीं दे रहा है.


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      इक कहानी और है, त्रासदी के बाद की कहानी. कुछ लोगों के पास 8-8 घर हैं, क्यूंकि जिन घरों में कोई नहीं बचा वहां इनने कब्ज़ा कर लिया. त्रासदी अनुदान खा-खा लोग करोड़पति हैं, नेता इसे भुना सत्ता के गलियारों में खुश हैं, त्रासदी मंत्रालय भी खुश है, पैसे पेट में पचा-पचा.

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जीवन भी अजीब है, हर घटना की कई कहानियां बन जाती हैं.

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              फिलहाल मृतकों को श्रद्धा अर्पित....काश! बचे हुए लोगों को अच्छे प्रयास किये जाएँ.

लेखन वर्ष: 2014

Tuesday, August 16, 2022

भोपालनामा 9

 भोपाल... तुम्हें भुलाने की जितनी भी कोशिशें करता हूं तुम शक्लें बदल-बदल उतने पास आते जाते हो.

तुम्हें पहले अपनी आंखों से देखा, फिर 1984 गैस हादसे में बुझ चुकी सफ़ीना बी आंखों से फिर देखा, फिर कई अन्य आंखों में तुम दिखे. मसलन ट्रेन में वारंगल की एक स्वीट आंटी की आंखों में रचे बसे थे. आज फिर एक दफे दो खूबसूरत आंखों में तुम दिखे तो वो आंखें अपनी सी लगने लगीं.
तुम जिन आंखों में बसे होते हो उन्हें खूबसूरत बना देते हो, साथ में उनमें रचे बसे ख्वाबों को भी.
भोपाल तुमसे खूबसूरत कभी मैसूर लगा था लेकिन एक बार फिर तुम्हारी गोद में बैठा तो तुम्हारा होकर रह गया.
काश! तुम सिर्फ शहर ना होते तो तुम्हें अभी आगोश में भर लेता.
टूटे भोजताल की सूखी ज़मीं पे बसे तुम इतने हरे हो कि होशंग शाह के इरादे, कार्बाइड का दंश और मानवीय उन्माद तुम्हारा कुछ बिगाड़ नहीं सके.
मैं तुमसे इश्क़ में हमेशा रहूंगा.
मैं भटकता रहूं शहर-दर-शहर पर आख़िर गोद में तुम्हारी घर पाता हूं.

Sunday, August 14, 2022

हम | भोपालनामा 8

 वो लड़की

पीला पहन लेती है
तो बसंत हो जाती है,
गुलाबी पहने तो जयपुर.
वो इतनी हरी है जैसे भोपाल हो.
उसकी आँखों में बड़ी झील तैरती है.
मैं प्रेम हूं,
वो ममत्व.
मैं नदी भर के उसपे लुटाता हूं,
वो सागर है.
मैं गीत हूं,
वो धुन.
और जो जो मैं नहीं हो पाता
वो सबकुछ हो जाती है.
लम्हा तक हो जाती है सिमटकर.
मैं उसके साथ ख्वाबों का शहर
भोपाल होना चाहता हूं
वो मेरे साथ
आसमान हो जाना चाहती है.
हम हर दिन साथ होना चाहते हैं.
मैं उसका पिता होते होते रह गया
वो सच में मेरी माँ हो गई.

Friday, August 12, 2022

भोपालनामा 7

 वो शहर जिसमें तुम उम्र गुजारने की सोचते हो, बस जाने की सोचते हो, इतना बदल गया है कि राज्य के सबसे ज्यादा प्रदूषित शहरों में दूसरे स्थान पर है. जिन रास्तों पर तुम बेटोक गए हो वहा एक-एक मिनट के ट्रैफिक जाम है.

कुछ चौराहे पुराने से लगते ही नहीं, कई लोग अपने से भी नहीं. जैसे कि शहर बदलते-बदलते रंग भी बदलने लगे हों.
अजीब इत्तेफ़ाक़ है कि कुछ लोग अभी भी पहचान लेते हैं, दस साल बाद भी!
वे जगहें जहां पेड़- खेत थे, वहां अब माल और मीनारें हैं. आश्चर्य होता है कि रंग रूप बदलता यह शहर पचास साल पहले किसी जिले की तहसील हुआ करता था. हां, जिजीविषा अब भी ज्यूं की त्यूं है. स्व. अब्दुल जब्बार के गैस त्रासदी विक्टिम्स के लिए किए काम को कुछ लोग याद करते आंखें छलका देते हैं.
कोलार डैम वही है, झील वही है, वन विहार भी... कुछ कैफे भी वैसे के वैसे ही हैं. भारत भवन की शाम उतनी ही सुन्दर है... बस तुम्हें ही सबकुछ अधूरा अधूरा सा लगता है. दिल में भी और शहर में भी. जैसे कुछ था जो अब यहां नहीं है. कुछ खो गया है.
जैसे ये शहर, शहर तो वही है बस तुम उस शहर के बाशिंदे नहीं रहे!
तुम वहीं खड़े हो... शहर आगे बढ़ चुका है... लोग आगे बढ़ चुके हैं. शहर ने तरक्की कर ली है… लोगों ने भी ? शहरी आवश्यकताओं जैसे कपट और कटुता को अपना लिया है.

Thursday, August 11, 2022

भोपालनामा 6

 लफ़्ज़ों को आग में पका कुंदन नहीं बनाया जा सकता न शहर के बीचों-बीच खड़े हो चिल्ला-चिल्लाकर इश्तेहार किया जा सकता है. लफ़्ज़ों में तुम हो और तुम खुद को पढ़ के भी नहीं समझ पाओगे. उम्र में दो साल बड़े तुम ज़िन्दगी में पूरे बीस साल....अपना काम कर खुश होते हो और अक्सर फ़ोटो अपने कर्म के इश्तेहार के रूप में डाल देते हो तो लगता है तुम सुकूं की आखिरी सीढ़ी पे बैठे मुस्कुरा रहे हो. हर 'पिक' में तुम मुझे 'क्यूट' लगते हो..ऊपर से हमारे बीच का कॉमन भोपाल. जितना इश्क़ मुझे उससे... उतना तुम्हें. सोचता हूँ किसी दिन बोल दूँ, फिर खुद को बच्चा समझने लगता हूँ. घर में उम्र में सबसे बड़ा पर थोड़ा कम मेच्युर मैं... तो ये होना ही है.

तुम्हारी यात्रायें, मतलब लिए हैं...ढेर सारे, ढेरों के ढेरों पन्नों में तुम उकेर देते हो जिन्हें. मेरे लफ्ज़ सिर्फ दो लोग लिए हैं... ढेर सारे 'तुम' और थोड़ा सा 'मैं', जिन्हें मैं थोड़ी स्याही ही दे सकता हूँ तुम्हें समझाने.
तुमने पढ़ा क्या? छोड़ो, पढ़ के भी तुम नहीं समझोगे कि यहां 'तुम' तुम हो.

Wednesday, August 10, 2022

भोपालनामा 5

 हम कितना ही क्या सीख रहे हैं अपनी गलतियों से? कब-कब तो हमने क्या-क्या नहीं झेला है? 2 3 दिसंबर 1984 की काली रात ठीक 37 साल पहले 3000 से अधिक जिंदगियां लील गई. 10,000 से अधिक लोगों को प्रभावित किया और हमें एक ऐसा दर्द दे गई जिसे हम हर साल याद कर आंसू बहाते हैं.

भोपाल के यूनियन कार्बाइड प्लांट में हुए इस हादसे में मीथिल आइसोसाइनाइड ( methyl isocyanate (MIC)) गैस का रिसाव हुआ था. उस रिसाव की वजह से कई बच्चे यतीम हो गए, कई लोगों ने अपने घर के चिराग को दिए, कई लोगों ने अपनी आंखें खो दी, अपंग हो गए और इसका असर आज भी भोपाल के उन प्रभावित लोगों में देखा जा सकता है.
हादसे के बाद दोषी देश से भाग गए. सरकार ने अपनी 'सरकारी' कोशिशें की. यूनियन कार्बाइड ने केंद्र सरकार को 470 मिलियन डॉलर देने का वादा किया किंतु उसका एक बहुत छोटा हिस्सा ही उन पीड़ितों के पास पहुंच पाया. अफसोस! वह भी स्व. अब्दुल जब्बार जैसे लोगों द्वारा ताउम्र त्रासदी प्रभावितों के लिए लड़ाई लड़ने के बाद!
2 दिसंबर को हम #NationalPollutionControlDay भोपाल गैस त्रासदी की दुखद याद में ही मनाते हैं कि हम समझदार हों, सतर्क हों, कि अगली दफे ऐसी कोई घटना हमारे साथ घटित ना हो. लेकिन क्या वाकई हम सारी घटनाओं से सीखते हैं? चेतते हैं? क्या वाकई हम अभी चेते हुए हैं? यह सोचना होगा.
डच आर्टिस्ट Ruth Kupferschmidt द्वारा भोपाल में बनाए गैस त्रासदी मेमोरियल के नीचे लिखा हुआ है:-
"No Hiroshima, No Bhopal.
We Want to Live"
लेकिन अफ़सोस हर वर्ष ही ऐसा कोई हादसा हो ही जाता है.

Monday, August 8, 2022

भोपालनामा 4

 कॉमन सेंस बड़ी रेयर (दुर्लभ) चीज है. शायद इसलिए तीन तलाक़ जैसे फैसले 2017 तक का इंतज़ार करते हैं और उसपर भी दो 'हाइली क्वालिफाइड' (अत्यधिक योग्य) जज अपने पूर्वाग्रह नहीं छोड़ पाते. सदियों से चली आ रही रीति-रिवाज-मान्यताएं-धारणाएं जरुरी नहीं सही ही हों. अगर होतीं तो हम दलित-उत्थान के लिए प्रयासरत नहीं होते, न ही सती प्रथा ख़त्म हुई होती.

ये नहीं है कि बस यही एक कुरीति थी. अभी कई बाकि हैं. हर धर्म में ही. क्यूंकि कुरीतियां मज़हब देख के नहीं बनतीं. वे एक निश्चित वक़्त का समाज देख के बनती हैं, जिन्हें बाद में आने वाली पीढ़ियां फॉलो (पालन) करती रहती हैं... और वे कुरीतियां सदियों तक चलती रहती हैं. फिर हटाओ तो विरोध इसलिए होता है कि वो सदियों से चली आ रही थी.
जरूरी नहीं हमारे बाप-दादाओं ने जो किया वो सही हो और जो हम आज करें वो कल के वक़्त के हिसाब से सही हो. क्यूंकि नैतिकता वक़्त और समाज दोनों के हिसाब से बदलती है... और इसलिए किसी भी रीति का बदलना भी जरूरी है... नहीं तो वो कुरीति में परिणित हो जाएगी.
विरोध इस निर्णय का नहीं बल्कि इस बात का होना चाहिए कि ये निर्णय इतनी देरी से क्यों आया.
इतिहास गवाह है जितना समाज और धर्म का बेड़ागर्क धर्मगुरुओं ने किया है उतना शायद ही किसी ने किया हो. भोपाल में होने वाली मौलवियों की मीटिंग कितना करेगी, देखने वाली बात होगी.
Vivek | 2017

Saturday, August 6, 2022

भोपालनामा 3

 शाम-ए-शहर-ए-दिल्ली तुम्हारे संग खूबसूरत हो जाती है. संग तुम्हारे मैं भोपाल से इश्क़ में पड़ जाता हूं. जैसे शहर से इश्क़ होने के लिए उस शहर तुम्हारा होना जरूरी हो.

Thursday, August 4, 2022

भोपालनामा 2

 एक लड़का जिसके ज़िस्म में भोपाल बसा हुआ है। वो वीआईपी रोड पर दौड़ना चाहता है, लेक पे घंटों बैठना। उसे वन विहार में साइक्लिंग करनी है और महावीर टेकरी पर चढ़ लिखना होता है।

वो भोजपुर में कई दिन अधूरा शिवमन्दिर देख बिता सकता है। जैसे उसका ज़िस्म कोलार से लेक तक फैला हुआ हो।
'तुम्हें पता है, मुझे अब भोपाल पसंद नहीं।' वो एक दिन कहता है। 'पता है, मैं यहां बसना चाहता था, ज़िंदगी बिताना चाहता था... लेकिन अब नहीं।'
मैं कारण नहीं पूछता। मैं जानता हूं। 'तुम्हें अब भी उसकी याद आती है? लेकिन वो अब भोपाल में तो नहीं है।'
'वो नहीं यार वक्त याद आता है। सुकूं याद आता है। वो नहीं है वहां, उसके साथ का वक्त अब भी वहीं है। वो हर जगह छितर गई है यार।'
तुम राइटर्स ज्यादा ही फिलोसॉफिकल होते हो।
वो इस सड़क की ओर देख रहा है, जो भोपाल की तरफ जाती है।

Tuesday, August 2, 2022

भोपालनामा

 'मैं अपने हिस्से की ज़िन्दगी तुम्हारे पास छोड़ के जा रहा हूं' लड़का जाते जाते बोलता है. लड़की को कुछ समझ नहीं आता.

लड़का अजीब है उसे दुनिया के सारे इल्म चाहिए. पढ़ता है तो पागलों की तरह पढ़ता है, लिखता है तो पागलों सा. कई कई घंटे तेज आवाज़ में गाने सुनता है. वो भी 60s के गाने, क्लासिकल या इंस्ट्रुमेंटल. लड़का घूमता है, उस फोटोग्राफी का शौक है. जैसे उसे सबकुछ सबकुछ ही भरना है अपने अंदर!
लड़की अलग है, लड़के से बिल्कुल अलग. ज़िन्दगी के कैलकुलेशन में उलझी है. एक ओर ज़िन्दगी उसके मज़े लेने पे तुली है दूसरी ओर वो लड़के का हाथ थाम सुकून पाती है. लड़के को हग करते वो सबकुछ सबकुछ भूल जाती है. लड़की के ज्यादा शौक नहीं. ना ज्यादा पढ़ती है ना सोलो ट्रिप से कोई प्लान हैं. लेकिन जब लिखती है... लड़के पे लिखती है तो अमृता प्रीतम हो जाती है.
लड़का लड़की एक दूसरे के साथ होते हैं तो दिन भर लड़ते हैं. लड़के का खाना लड़की से लड़े बिना नहीं पचता. लड़की कहती है कि उम्र भर साथ रहे तो एक दूसरे की जान ले लेंगे, अच्छा हुआ उम्र भर के वादे नहीं हैं.
लड़का जा रहा है शहर छोड़ के हमेशा हमेशा के लिए. लड़की आखिरी दफे गले लगती है. लड़के की आँखों में आंसू हैं... 'अबे ऐसे रो रहे हो जैसे उम्र भर न मिलना हो. मैं आ रही हूँ कुछ दिन में... तुम्हारे शहर.'
लड़का हाँ में जवाब देता है. लड़के के अंदर अजीब सा भय है. उसे अजीब सा शक है कि ये आखिरी हग है. वो लड़की को चूमता है... आखिरी दफे!
लड़का जाता है सोलो ट्रिप पर.... नार्थ-ईस्ट. लड़की जाने के बाद एकटक घूरती रहती है दरवाजा. जैसे दरवाजे उसकी जान ले के कोई जा रहा हो.
लड़की तीन दिन से सोई नहीं है. होंठो पे आखिरी बोसे के निशान अभी तक ज़िंदा करके रखे हैं. पता नहीं कहाँ कहाँ से लड़के के क्या क्या ख्याल ले के आती है... कि नींद में भी बड़बड़ाती है.
ट्वेंटी सेवन किल्ड इन आ ट्रैन एक्सीडेंट' अख़बार के फ्रंट पेज की खबर है.
दरवाजे से सच में लड़की की जान गई थी! अख़बार मौत की खबर लाने बने हैं!
लड़की लड़के के शहर जाती है.... भोपाल. लेक के किनारे, सड़कों पर, भारत भवन और लड़की के होंठों पर आखिरी बोसे में... बस यादें बची हैं.
'मैं अपने हिस्से की ज़िन्दगी तुम्हारे पास छोड़ के जा रहा हूं... लेकिन लड़की ने खुद के हिस्से का ही जीना छोड़ दिया है... लड़की अब किसी से भी नहीं झगड़ती...