कहानी के हर किरदार के पात्र होते हैं
तुम्हारा किरदार ही पूरी कहानी है.
मैं नहीं कहूंगा की तुम लेफ्ट थे या समाजवादी
या तुम्हे कौन हाईजैक कर रहा है
मुझे तुम्हारी आइडियोलॉजी (विचारधरा) से ज्यादा फर्क नहीं पड़ता
मुझे इस बात से फर्क पडता है
कि उम्र तेईस में तुममें राष्ट्र, आज़ादी और विचारधाराओं के प्रति
इतनी चेतना जागृत हो गई थी.
मैं तो स्व को ढूंढने में ही तेईस का हो गया था,
और अभी तक ढूंढ रहा हूँ.
जब आप महान को याद भी न कर सकें या उसका अवकाश ही आपके पास न रह जाए तो मान लेना चाहिए कि समय क्षुद्रता से आक्रांत हो चुका है. यही पिछले हफ्ते हुआ जब मुक्तिबोध की पुण्यतिथि गुजर गई और हम उन पर कायदे से बात भी न कर सके. लेकिन यह हफ्ता बेचैनी का था. मुक्तिबोध लेकिन शायद हमें माफ़ कर देंगे क्योंकि हमारा मन उनकी ही उज्जवल परंपरा की एक संवाहिका गौरी लंकेश की हत्या से क्षुब्ध, आलोड़ित था.
गौरी की हत्या के बाद अभिव्यक्ति की आजादी, विरोध के अधिकार के हनन के प्रश्न उठे. साथ ही हमने क्षुद्रता का नृत्य भी देखा, गाली-गलौज, गौरी और उनके मित्रों को लक्ष्य करके और जिस ढिठाई से उनकी हत्या का जो जश्न मनाया गया, उसने अनेक लोगों को स्तब्ध कर दिया.
यह था ‘खलई का हुलास.’ लेकिन खलता की पूरी विजय तब होती है जब समाज शुभ और सुंदर के साथ उदात्त का भी बोध खो बैठे. उदात्त के बिना मनुष्य का जीवित रहना असंभव है. खलता को स्वीकार कर लेना या उसका विरोध न कर पाना, यह मनुष्य को अपनी निगाह में छोटा बना देता है. उसकी भरपाई कुछ लोग उस खलता का औचित्य खोज कर, अपने मन को बहलाकर कर लेना चाहते हैं. लेकिन मन विद्रोह करता है. अपनी इस क्षुद्रता की सीमाबद्धता को तोड़ कर उदार के विस्तार में मिल जाना चाहता है.
गौरी लंकेश की ह्त्या के एक हफ्ते बाद ही बंगलुरु की सडकों पर जो जन क्षोभ का ज्वार उमड़ा, वह इस खोए हुए उदात्त को लेकर सामाजिक मन की तड़प की ही एक अभिव्यक्ति थी. कुछ समय पहले हिंसा के आगे जिस असहायता और बेबसी ने सबको छोटा बना दिया था, उसे जैसे एकबारगी ठोकर से उड़ा दिया गया.
महान या उदात्त क्षुद्रता के भीतर इतना हीनता बोध भर देता है, अनचाहे, कि वह हिंसा से भर उठती है. क्षुद्रता हर किसी को अपने सांचे में ढालना चाहती है और अपने स्तर पर खींच कर गिरा डालना चाहती है.
उदात्त का पतन समाज का नियम बन जाए तो फिर उसके पुनर्वास का संघर्ष भी कठिन हो जाता है. हालांकि वह उदात्त सबके भीतर है, कोई अपवाद नहीं है. लेकिन वह कुछ ऐसा है जो हमारी पहुंच में नहीं, कि हम उसके काबिल नहीं, ऐसा अकसर समाज के बहुलांश को समझा दिया जाता है. यह काम उन्हें काबू में करके किया जाता है जो उदात्त के उदाहरण हैं या हो सकते थे. यह आश्चर्य की बात न थी कि इंदिरा गांधी ने आपातकाल के दौरान कई लेखकों और कलाकारों को अपने घर चाय पर बुलाया. उनमें से अनेक गए भी जो हमारे आदर्श थे, जिन्हें देख कर हम महानता की कल्पना कर पाते थे. अज्ञेय ने इस पतन का हिस्सा होने से इनकार किया. भावी पीढ़ियां उनकी कृतज्ञ इस कारण भी हैं कि उन्होंने उदात्त के उदाहरण को भी जीवित रखा.
गोर्की जब तक लेनिन से सवाल करते रहे, उनका उदात्त स्वरूप सत्ता के लिए चुनौती बना रहा. लेनिन उन्हें सह न पाए तो सेहत सुधारने के बहाने इटली रवाना कर दिया. लेकिन गोर्की फिर लौटे अपने देश स्टालिन के दरबारी बन कर. और उनके साथी लेखकों और पाठकों का दिल बैठ गया. पास्तरनाक के उस दौर के संस्मरण में या बच्चों के लेखक चुकोव्स्की की डायरी में दर्दनाक ब्योरा मिलता है रूसी भाषा और साहित्य की प्रतिभाओं के आत्म हनन का.
कुछ वर्ष पहले जब हमने नंदीग्राम और सिंगूर की हत्याओं का समर्थन देखा अपने प्रिय बौद्धिकों के द्वारा तो तकलीफ इसकी हुई कि वे अपने सत्तासीन नेताओं का औचित्य साधन करते हुए अपनी बौद्धिकता की साख भी धूल में मिला रहे थे. बौद्धिकता सोचती है कि वह अपने बल पर किसी का औचित्य साबित कर देगी लेकिन इस क्रम में वह खुदकुशी कर बैठती है.
मुक्तिबोध की कविताओं में इस उदात्त को पालतू बनाने के अनेक चित्र हैं. ‘चुप रहो मुखे सब कहने दो’ कविता का आरंभ यों होता है:
‘गंदे थर साफ़ दीखते हैं
जिनमें डूबा
वह चांद थिरकता रहता है
धीरे-धीरे!!
आखिर यह क्यों, ऐसा क्यों है?
उज्ज्वल मन गहरे डूब रहे क्यों गटरों में?’
‘डबरे में सूरज’ के प्रसिद्ध बिंब के विरुद्ध मुक्तिबोध का यह बिंब है, गंदे पानी के थर में थिरकते हुए चांद का बिंब. यह दुःख भरा आश्चर्य कि उज्ज्वल मन गटर में डूबे गए.
दूसरा भीषण बिंब एक विशाल पर्वत का है जो कभी भी भूकंप नहीं कर सकता. वह एक भूतपूर्व ज्वालामुखी है जिसने अपनी विस्फोटक क्षमता को ही नष्ट कर डाला है. भ्रम भर रह गया है विशालता का क्योंकि वह खोखली है.
महानता के आत्म हनन का दृश्य लोमहर्षक है:
‘हैं बंधे खड़े,
ये महत्, बृहत्,
जिनके मुंह से प्रज्ज्वलित गैस-सी सांस-आग
वे इस जमीन में गड़े खड़े;
मशहूर करिश्मों वाले गहरे स्याह तिलस्मी तेज़ बैल
तगड़े तगड़े
अपने अपने खूंटों से सारे बंधे खड़े’
ये सब महान संभावनाओं से युक्त थे, प्रतिभा के स्वामी, लेकिन खुद को इन्होंने जिस खूंटे से बांध लिया है, वह स्वर्ण धातु का है,/ रत्नाभ दीप्ति का है,/ आत्मैक ज्योति का है,/ स्वार्थैक प्रीति का है.’, इसीलिए उन्होंने जो कुछ भी किया वह धूल बन गया. इस दुखदायी परिवर्तन को देखिए,
‘देदीप्यमान रेडियम मनोहर भावों का
क्रमशः काले जड़ सीसे में
परिवर्तित होता गया
कि वह प्रतिकूल बन गया
वे बड़े-बड़े पर्वत अंधियारे कुएं बन गये
जो कल कपिला गाय आज तेंदुए बन गए.
हाय हाय, यह श्याम कथानक है
आदमी बदल जाने की यह प्रक्रिया भयानक है.’
यह नाश अपना आदमी खुद ही करता है. जीने के नाम पर:
‘जीने के लिए, स्वयं से पृथक भिन्न होकर
तुमने किसी जिन्न की छोटी खटिया पर
अपने को उसकी बराबरी में करने
सही-सही लेटने
निज के ये ज़्यादा लंबे पैर
काट डाले
अपने ही ज्यादा लम्बे हाथ
छांट डाले.’
लेकिन यह सब होता है तो इसलिए कि कोई एक है ‘जिसके दासों के अनुदासों के उपदासों ने ही/ अपने दासों को उपदासों को अनुदासों को भी/ देश-देश में इस स्वदेश में, आसमान में भी/ मानव-मस्तक की राहों में छाहों के ज़रिये/ मनानुशासन, जीवन शोषण, समय-निरोधन के/ सब कार्यों में लगा दिया है सभी अनुचरों को.’
यह समझना आवश्यक है क्योंकि प्रायः इस शक्ति पर ध्यान केन्द्रित करने की जगह हम पदच्युत प्रतिभाओं पर ही निशाना साधने में ऊर्जा खर्च कर डालते हैं. और वह शक्ति मुस्कराती रहती है.
मनानुशासन, जीवन शोषण और समय-निरोधन, ध्यान देने योग्य शब्द हैं. यह जिनके माध्यम से किया जाता है वे बौद्धिक हैं लेकिन हैं ‘औचित्य-प्रदर्शक घोर दार्शनिक.’ ये खुद को निष्पक्ष विश्लेषक कहते हैं जो न्याय के पक्ष में खड़ा होना और अन्याय का विरोध करना, दोनों को ही बौद्धिकों के कामों में नहीं गिनते. उसे एक्टिविस्ट कहा जाता है कुछ मज़ाक उड़ाते हुए जो इसे शर्त बताता है.
मुक्तिबोध ऐसे विश्लेषकों से कहते हैं,
‘तुम खूब करो विश्लेषण जग का जीवन का
और डूब मरो
निःसंग बढी अंधियारे में चलती है
उसको चलने दो
और ऊब मरो .
तुम करो आत्म साक्षात्कार यह संभव है
पर, निज चरित्र-साक्षात्कार ही दुर्लभ है
चिंतन की शक्ति और चित्रण का शिल्प लिए
तुम खूब मरो.’
चिंतन की शक्ति हो या चित्रण का शिल्प, अगर वह न्याय बोध से खाली है तो व्यर्थ है. उसमें उदात्त की संभावना तो है लकिन वह चरितार्थ होगी इस न्याय बोध से संवलित होकर ही.
गौरी लंकेश इस न्याय बोध की मशाल थीं इसलिए बुझा दी गईं. लकिन फिर वह पूरे देश में और उसी बंगलुरु की सडकों पर हजार-हजार मशालों में जल उठीं. यह उदात्त पर साधारण का दावा है और आसानी से वह उसे छोड़ने वाला नहीं.
असंतोष, अलगाव, उपद्रव, आंदोलन, असमानता, असामंजस्य, अराजकता, आदर्श विहीनता, अन्याय, अत्याचार, अपमान, असफलता अवसाद, अस्थिरता, अनिश्चितता, संघर्ष, हिंसा… यही सब घेरे हुए है आज हमारे जीवन को.
व्यक्ति में एवं समाज में साम्प्रदायिकता, जातीयता, भाषावाद, क्षेत्रीयतावाद, हिंसा की संकीर्ण कुत्सित भावनाओं व समस्याओं के मूल में उत्तरदायी कारण है मनुष्य का नैतिक और चारित्रिक पतन अर्थात नैतिक मूल्यों का क्षय एवं अवमूल्यन.
नैतिकता का सम्बंध मानवीय अभिवृत्ति से है, इसलिए शिक्षा से इसका महत्त्वपूर्ण अभिन्न व अटूट सम्बंध है. कौशलों व दक्षताओं की अपेक्षा अभिवृत्ति-मूलक प्रवृत्तियों के विकास में पर्यावरणीय घटकों का विशेष योगदान होता है. यदि बच्चों के परिवेश में नैतिकता के तत्त्व पर्याप्त रूप से उपलब्ध नहीं हैं तो परिवेश में जिन तत्त्वों की प्रधानता होगी वे जीवन का अंश बन जायेंगे. इसीलिए कहा जाता है कि मूल्य पढ़ाये नहीं जाते, अधिग्रहीत किये जाते हैं.
देश की सबसे बड़ी शैक्षिक संस्था-राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद के द्वारा उन मूल्यों की एक सूची तैयार की गयी है जो व्यक्ति में नैतिक मूल्यों के परिचायक हो सकते हैं. इस सूची में 84 मूल्यों को सम्मिलित किया गया है.
वास्तव में, नैतिक गुणों की कोई एक पूर्ण सूची तैयार नहीं की जा सकती, तथापि संक्षेप में हम इतना कह सकते हैं कि हम उन गुणों को नैतिक कह सकते हैं जो व्यक्ति के स्वयं के, सर्वांगीण विकास और कल्याण में योगदान देने के साथ-साथ किसी अन्य के विकास और कल्याण में किसी प्रकार की बाधा न पहुंचाए. विशेष ध्यान देने योग्य बात यह है कि नैतिक मूल्यों की जननी नैतिकता सद्गुणों का समन्वय मात्र नहीं है, अपितु यह एक व्यापक गुण है जिसका प्रभाव मनुष्य के समस्त क्रिया- कलापों पर होता है और सम्पूर्ण व्यक्तित्व इससे प्रभावित होता है. वास्तव में नैतिक मूल्य/नैतिकता आचरण की संहिता है. हमें इस बात को भली भांति समझना होगा कि नैतिक मूल्य नितांत वैयक्तिक होते हैं. अपने प्रस्फुटन उन्नयन व क्रियान्वय से यह क्रमशः अंतयक्तिक/सामाजिक व सार्वभौमिक होते जाते हैं.
एक ही समाज में विभिन्न कालों में नैतिक संहिता भी बदल जाती है. नैतिकता/नैतिक मूल्य वास्तव में ऐसी सामाजिक अवधारणा है जिसका मूल्यांकन किया जा सकता है. यह कर्तव्य की आंतरिक भावना है और उन आचरण के प्रतिमानों का समन्वित रूप है जिसके आधार पर सत्य असत्य, अच्छा-बुरा, उचित-अनुचित का निर्णय किया जा सकता है और यह विवेक के बल से संचालित होती है.
आधुनिक जीवन में नैतिक मूल्यों की आवश्यकता, महत्त्व अनिवार्यता व अपरिहार्यता को इस बात से सरलता व संक्षिप्ता में समझा जा सकता है कि संसार के दार्शनिकों, समाजशात्रियों, मनोवैज्ञानिकों शिक्षा शात्रियों, नीति शात्रियों ने नैतिकता को मानव के लिए एक आवश्यक गुण माना है.
खेद का विषय है कि हमारी शिक्षा केवल बौद्धिक विकास पर ध्यान देती है. हमारी शिक्षा शिक्षार्थी में बोध जाग्रत नहीं करती वह जिज्ञासा नहीं जगाती जो स्वयं सत्य को खोजने के लिए प्रेरित करे और आत्मज्ञान की ओर ले जाये, सही शिक्षा वही हो सकती है जो शिक्षार्थी में नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों को विकसित कर सके.
नैतिकता मनुष्य के सम्यक जीवन के लिए अत्यंत आवश्यक है. इसके अभाव में मानव का सामूहिक जीवन कठिन हो जाता है. नैतिकता से उत्पन्न नैतिक मूल्य मानव की ही विशेषता है. नैतिक मूल्य ही व्यक्ति को मानव होने की श्रेणी प्रदान करते हैं. इनके आधार पर ही मनुष्य सामाजिक जानवर से ऊपर उठ कर नैतिक अथवा मानवीय प्राणी कहलाता है. अच्छा-बुरा, सही गलत के मापदण्ड पर ही व्यक्ति, वस्तु, व्यवहार व घटना की परख की जाती है. ये मानदंड ही मूल्य कहलाते हैं. और भारतीय परम्परा में ये मूल्य ही धर्म कहलाता है अर्थात ‘धर्म’ उन शाश्वत मूल्यों का नाम है जिनकी मन, वचन, कर्म की सत्य अभिव्यक्ति से ही मनुष्य मनुष्य कहलाता है अन्यथा उसमें और पशु में भला क्या अंतर? धर्म का अभिप्राय है मानवोचित आचरण संहिता. यह आचरण संहिता ही नैतिकता है और इस नैतिकता के मापदंड ही नैतिक मूल्य हैं. नैतिक मूल्यों के अभाव में कोई भी व्यक्ति, समाज या देश निश्चित रूप से पतनोन्मुख हो जायेगा. नैतिक मूल्य मनुष्य के विवेक में स्थित, आंतरिक व अंतः र्स्फूत तत्त्व हैं जो व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास में आधार का कार्य करते हैं,
नैतिक मूल्यों का विस्तार व्यक्ति से विश्व तक, जीवन के सभी क्षेत्रों में होता है. व्यक्ति-परिवार, समुदाय, समाज, राष्ट्र से मानवता तक नैतिक मूल्यों की यात्रा होती है. नैतिक मूल्यों के महत्त्व को व्यक्ति समाज राष्ट्र व विश्व की दृष्टियों से देखा समझा जा सकता है. समाजिक जीवन में तेज़ी से हो रहे परिवर्तन के कारण उत्पन्न समस्याओं की चुनौतियों से निपटने के लिए और नवीन व प्राचीन के मध्य स्वस्थ अंतः क्रिया को सम्भव बनाने में नैतिक मूल्य सेतु-हेतु का कार्य करते हैं. नैतिक मूल्यों के कारण ही समाज में संगठनकारी शक्तियां व प्रक्रिया गति पाती हैं और विघटनकारी शक्तियों का क्षय होता है.
नैतिकता समाज सामाजिक जीवन के सुगम बनाती है और समाज में अप्रत्यक्ष रूप से नियंत्रण रखती है. समाज राष्ट्र में एकीकरण और अस्मिता की रक्षा नैतिकता के अभाव में नहीं हो सकती है. विश्व बंधुत्व की भावना, मानवतावाद, समता भाव, प्रेम और त्याग जैसे नैतिक गुणों के अभाव में विश्व शांति, अंतर्राष्ट्रीय सहयोग, मैत्री आदि की कल्पना भी नहीं की जा सकती.
तीन हृदयाघात के कारण लुई वाश्कान्स्की का हृदय बहुत कमज़ोर हो चला था। मधुमेह उन्हें पहले से था। शरीर में रक्त को पम्प करने में अक्षम उस बीमार दिल के साथ उसे बहुत लम्बा नहीं चलना था कि तभी उसके जीवन में डेनीज़ डारवाल की मृत्यु का प्रवेश हुआ। डेनीज़ की मृत्यु एक कार-दुर्घटना में हुई थी। शराब के नशे में धुत एक कार-ड्राइवर ने उनके और उनकी माँ को रौंद डाला था। माँ की तुरन्त मृत्यु हो गयी थी और डेनीज़ का मस्तिष्क भी रक्त के अभाव में मृत हो गया था। यद्यपि उनका हृदय तब भी लगातार धड़क रहा था। उसी रात नौ बजे डॉक्टरों ने उन्हें बचाने के सारे उद्यम रोक दिये क्योंकि ऐसा करने के बाद भी मृत मस्तिष्क के साथ जीवन आगे सम्भव न था। डेनीज़ के पिता एडवर्ड से सम्पर्क स्थापित किया गया। उन्हें बताया गया कि उनकी पुत्री को वापस जीवित लाना अब सम्भव नहीं है। जीवन का अर्थ चेतना होता है। चेतना मस्तिष्क में अधिष्ठित है। मस्तिष्क रक्त न मिलने से मिनटों में मर जाता है। डेनीज़ मस्तिष्क-मृत यानी ब्रेन-डेड है। लेकिन एक काम क्या वे करना चाहेंगे ? क्या वे अपनी प्यारी बिटिया का हृदय बीमार लुई वाश्कान्स्की नामक एक अधेड़ व्यक्ति को दान में देना चाहेंगे ? अपनी बिटिया का मुस्कुराता चेहरा एडवर्ड के सामने तैरने लगा। कैसे उसने उसके लिए केक बेक किया था। नयी नौकरी की पहली तनख़्वाह और उसने अपने पापा के लिए बाथरोब ख़रीदा था। एडवर्ड अपने आँसू न रोक सके। महज़ चार मिनटों में उन्होंने यह निर्णय ले लिया था कि वे अपनी प्यारी बिटिया का हृदय इस अधेड़ आदमी के जीवन के लिए दान कर देंगे जिसे वे जानते तक नहीं हैं। दक्षिण अफ़्रीका में उस दिन डॉ.क्रिश्चियन बर्नार्ड ने मनुष्य से मनुष्य में वह पहला सफल हृदय-प्रत्यारोपण किया। डेनीज़ का हृदय लुई वाश्कान्स्की के सीने में रुकने से पहले अठारह दिन धड़का। डेनीज़ के वृक्क एक दस साल के अश्वेत बच्चे जॉनेथन वॉन विक को लगाये गये। हंगामा मचा : कैसे किसी श्वेत महिला के गुर्दे किसी अश्वेत को दिये जा सकते हैं ! पच्चीस वर्षीय डेनीज़ मरकर इतिहास रच गयी थीं। अपने देह के दो अंगों के दान से उसने लिंगभेद और नस्लभेद , दोनों को अपनी भाषा में सटीक प्रत्युत्तर दिया था। कई बार मृत्यु का शाश्वत मौन वह कर जाता है जो सम्पूर्ण जीवन शब्द-व्यापार करके भी नहीं कर पाता।
पाँच लोग परस्पर स्नेह पीकर अमर हो गये उस रोज़ : डेनीज़ डारवाल, डॉ.क्रिश्चियन बर्नार्ड , एडवर्ड डारवाल, लुई वाश्कान्स्की और जॉनेथन वॉन विक।
( आगामी पुस्तक 'यदा यदा हि स्वास्थ्यस्य' से एक अंश। चित्र इण्टरनेट से साभार। )
पिछले लेख में हमने हिंदी और हिंदी की दुर्दशा को ले के लेखकों, लेखक गुटों और सरकारी रवैये की बात की थी. लेकिन हिंदी की दशा के लिए सिर्फ यही लोग जिम्मेवार नहीं हैं. सच तो ये है कि अख़बारों, प्रकाशकों और हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के रवैये ने भी इसमें कम योगदान नहीं दिया है.
आप हिंदी के किसी भी मुख्य पत्र को उठा लीजिये. पहला तो आर्थिक, सामाजार्थिक, राजनैतिक और भू-सामरिक मुद्दों पे कोई ढंग का विश्लेषण नहीं मिलेगा और मिलेगा भी तो उस स्तर का नहीं जो मिंट, द हिन्दू, इंडियन एक्सप्रेस जैसे अंग्रेजी के अख़बारों में मिलता है. इसलिए मेरे जैसे द्विभाषी व्यक्ति स्वतः अंग्रेजी की और आकर्षित होते हैं.
दूसरा, उदाहरण के लिए दैनिक भास्कर जैसे अख़बार की कोई सी भी एक खबर उठा लीजिये. एक शीर्षक देखिये- ' बेस्ट रायटर नहीं बेस्ट सेलिंग रायटर हूँ लकली.' इसमें हिंदी को देखो, कितनी है?
असल में समाचारपत्र ही तो भाषा प्रसार का प्रमुख कारक होते हैं और देखा जाये तो उनसे ही भाषा में परिवर्तन आते हैं. लेकिन ऐसे परिवर्तन!! हिंदी में ऐसे परिवर्तनों से तो अच्छा है कि परिवर्तन ही न आएं.
[ हिंदी पत्रकारिता का एक अन्य नमूना दूसरी कतरन में. ]
प्रकाशकों ने लेखन को कभी फायदे का सौदा नहीं बनने दिया. मुनव्वर राणा ने एक बार कहा था कि हिंदी के सारे प्रकाशक बेईमान हैं. उनका कहा गलत भी मान लिया जाये तो भी अगर मुक्तिबोध की ही बात करें तो वो जीते जी कभी प्रकाशित लेखक नहीं हो पाए. पहली किताब मृत्यु के बाद आई. हमेशा दरिद्रता से घिरे रहे. वैसे पहली बार प्रकाशित होने के लिए लेखक को पैसे देने होते हैं, ये बात किसी से छिपी नहीं है. किताब से हुई आय का एक छोटा हिस्सा ही लेखक को मिलता है.
हिंदी की दशा का कारण उसे राष्ट्रीय भाषा बनाने की झक भी है. मुग़ल काल में फ़ारसी राज्य की भाषा थी. आज देखने को नहीं मिलती, क्यूंकि कोई भी भाषा थोप कर राष्ट्रीय भाषा का दर्ज़ा अभी प्राप्त नहीं करती. असल में न तो हम अन्य क्षेत्रीय भाषाओँ के शब्द लेना चाहते हैं. हमपे 'शुद्धिकरण' हावी है. न देशज शब्दों को हिंदी के अंतर्गत दर्ज़ा देना चाहते हैं. फिर उसके भी बाद हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाना चाहते हैं.
अगर हिंदी को अपने हाल पर छोड़ दें तो शायद वो ज्यादा पनपती, क्यूंकि उसका विरोध जिस तरह से अभी तमिलनाडु और कर्नाटक में हो रहा है वैसा नहीं होता. जबरन किया गया प्रसार विरोध ही ले के आता है.
भारत की कोई आधिकारिक राष्ट्रभाषा नहीं है और संविधान में उल्लिखित 'सरकार हिंदी का प्रचार-प्रसार करेगी' को भी हमें हटा देना चाहिए. ये न सिर्फ हिंदी बल्कि राष्ट्रीय एकता के लिए भी अच्छा ही होगा.
'हिंदी दिवस' की शुभकामनाएं. वैसे ये औपचारिकता भी हिंदी की दुर्दशा स्वतः व्यक्त करती है.
[ फोटो आशीष चौधरी जी और बीएस पाब्ला जी की फेसबुक टाइमलाइन से ]
यह लेख इसलिए भी लिखा जा रहा है क्यूंकि मैं इन दिनों हिंदी का छात्र हूँ और इसलिए भी की हिंदी पे लिखना अब जरूरी सा हो गया है. उस दौर में जब 'राइट विंग' हिंदी के शुद्धिकरण की बात कर रही है, नए लेखकों की नई वाली जमात पैदा हो रही है और हिंदी को पढ़ना, हिंदी माध्यम में पढ़ना बस मजबूरी के सिवा कुछ भी नहीं बचा है.
सच तो ये है, भाषा के हाल बेहाल उसके बोलने वालों से नहीं होते; होते हैं तो उसको लिखने वालों से और उन सरकारों से जो इसे 'गवर्न' करती हैं, नियम कायदे और ये शब्द गढ़ती हैं. मैं पाब्लो नेरुदा को पढ़ने स्पेनिश सीखने तैयार हो सकता हूँ, इब्ने इंशा को पढ़ने शायद उर्दू पढ़ना सीख लूँ या टैगोर को पढ़ने बंगाली. लेकिन हिंदी को पढ़ने कौन हिंदी सीखने तैयार होगा? सच तो ये है प्रेमचंद के बाद कोई ऐसा लेखक शायद ही हुआ हो जिसे पढ़ने लोग हिंदी सीखना चाहें... और 'जीवित' प्रेमचंद तो खुद भी ऐसे लेखक नहीं थे, मरने के बाद बने. (क्यूंकि हम मृत्युपूजक, दरिद्रपूजक समाज हैं.)
नेट पे छानिये, सरकारी हिंदी के शब्दकोष की एक पीडीऍफ़ मिलेगी. कुल 660 पेजों वाली. अब मुझे बताओ इतने सारे शब्द कब और कैसे गढ़ लिए गए... और गढ़े भी गए तो प्रचारित क्यों नहीं किये गए, या हो पाए?
सच तो ये की सरकारी हिंदी आम आदमी से उतनी ही दूर है जितना की हमारे प्रधानमंत्री एक आम इंसान से होते हैं. फलत: अंग्रेजी के शब्द हिंदी से आसान लगने लगते हैं और लोग उन्हीं को पढ़ते और प्रचारित करते हैं.
एक प्रश्न लेखकों से किया जा सकता है (हालाँकि मैं खुद लिखने की कोशिश करता हूँ) . प्रश्न आसान सा है, कि भाइयो गुटों से कब बाहर आओगे और गलियां देना, खाना कब बंद करोगे? और ये दरिद्र-नारायण पूजन को भी ख़त्म होना जरूरी नहीं है?
कुमार विश्वास को गाली देते कई लोग उनसे उन्नीस ही लिखते हैं. जावेद साहेब, गुलज़ार साहब के फिल्मी गीत कभी साहित्य में शामिल ही नहीं किये गए और वहां बॉब डायलन नोबेल पा चुके हैं.
समस्या सिर्फ प्रगतिशील लेखक संघ की नहीं है, न उसके मुक्तिबोध का जन्मदिन मनाने का बहिष्कार करने की. असली समस्या तो ये है कि मुक्तिबोध का हिंदी बोलने वाली 95% जनता ने नाम ही नहीं सुना है और नई पीढ़ी में से तो 99% ने न सुना होगा. मैंने खुद 'अँधेरे में' उनकी सबसे प्रसिद्द कविता 24 की उम्र में प्रथम दफ़े पढ़ी थी. मुझे लगता है विश्व की अन्य जगहों पर भी 'प्रोग्रेसिव रायटर्स एसोसिएशन्स' धूल खाते हुए ही पड़ी होंगी. मुझे भी नहीं पता था कुछ दिन पहले तक की ये भारत में ज़िंदा बची है.
फ़िलहाल 500 पुस्तकें बिकने के बाद 'बेस्ट सेलर' होने वाले हिंदी लेखकों और 660 पन्नों का सरकारी हिंदी का शब्दकोष निकालने वाली सरकार को 'हिंदी' के बारे में सोचने की ज़रूरत है.... नहीं तो कुछ वर्षों में हम हिंदी में ही 'हिंदी' ढूंढ़ रहे होंगे.
बहुत से लोग हैं जो मानते हैं कि शिक्षक बहुत कम काम करते हैं. हफ्ते में दस या बारह कक्षा उनके हिसाब से मज़ाक हैं. जैसे वे वैसे ही सरकारें शिक्षकों के सिर्फ दस-बारह कक्षाओं के काम को देखते हुए उनकी तनख्वाह का कोई तर्क समझ नहीं पातीं. ऊपर से दो महीने की गर्मियों की छुट्टियां शिक्षकों से और भी जलन का कारण बन जाती हैं. वैसे, छुट्टियों के दौरान जब कक्षाएं बंद हो जाती हैं, अध्यापकों को आराम रहता हो, ऐसा नहीं. परीक्षा समाप्त होने के बाद उत्तर पुस्तिकाओं की जांच से लेकर नए सत्र के लिए दाखिलों में वे किसी न किसी में व्यस्त ही रहते हैं. इसलिए दो महीने का अवकाश एक मिथ है.
पढ़ाई या कक्षा को लेकर एक प्रकार की मूढ़ समझ नेताओं और नौकरशाहों में पाई जाती है. मसलन कई लोग कहते मिल जाएंगे कि एक विभाग में क्या ज़रूरी है कि दस बीस अध्यापक हों. क्यों नहीं एक ही अध्यापक दिन में चार कक्षाएं ले सकता. विशेषज्ञता का तर्क उन्हें नकली और बकवास लगता है.
विश्वविद्यालयों में इतने किस्म के दफ्तरी काम हैं जो अब शिक्षकों के हवाले कर दिए गए हैं. सचिव स्तर की सहायता कम से कम की जा रही है. इस वजह से आपको अध्यापक वे काम करते मिल जाएंगे जो पहले कार्यालय में सचिव किया करते थे.
भारत में अध्यापकों के काम को ठीक तरीके से समझा नहीं गया है. इसलिए केंद्रीय संस्थाओं को यदि छोड़ दें तो राज्यों में अवकाश में लगातार कटौती और तनख्वाह पर सरकारी निगाह की सख्ती बढ़ती चली जाती है. प्रायः राज्य सरकारें उन्हें सरकारी कर्मचारियों के बराबर वेतन के लायक नहीं मानतीं. बहुत रो-धोकर और हील-हुज्जत के बाद वे केंद्रीय वेतन आयोग की सिफारिशों को उनके लिए लागू करने पर तैयार हो पाती हैं.
शिक्षक को एक कक्षा के लिए चार से छ घंटे की तैयारी चाहिए और एक बार की तैयारी काफी नहीं, यह समझाना भी कठिन है. बाहर के अध्यापक यह सुनकर हैरान हो जाते हैं कि यहां एक अध्यापक के पास दस कक्षाएं हैं!
अध्यापन क्यों एक अलग किस्म का काम है? क्यों ज्ञान का स्थानांतरण मात्र पर्याप्त नहीं? ज्ञान सृजन उनका प्राथमिक दायित्व है. किसी भी क्षेत्र में ज्ञान की अब तक उपलब्ध सामग्री से छात्रों को परिचित कराना उनका काम ज़रूर है लेकिन उसके साथ अपना संबंध बनाना और उसके प्रति अपना नज़रिया विकसित करना एक ज़्यादा श्रम साध्य काम है और मौलिकता वहां पैदा होती है. इसलिए जो यह समझते हैं कि पीएचडी के बाद फिर पढ़ने की ज़रूरत नहीं, वे ज्ञान के व्यापार की समझ नहीं रखते. वैसे उनकी इस समझ के लिए हम अध्यापक भी जिम्मेदार हैं क्योंकि साल दर साल हममें से कई एक ही बात दुहराते चले जाते हैं.
नएपन और ताजगी के लिए शोध और निरंतर अध्ययन आवश्यक है और उसके लिए संसाधन चाहिए. क्यों हमारे प्रबंधन संस्थान या आईआईटी अपने शिक्षकों के लिए ये साधन मुहैया करा सकते है और क्यों विश्वविद्यालय नहीं? क्यों राज्यों के शिक्षकों के लिए इस प्रकार की बात सपना ही है?
अध्यापक नामक संस्था का निरंतर क्षरण आम चर्चा का विषय होना चाहिए लेकिन नहीं हो पाता. राज्यों में ढाई सौ रुपया प्रति कक्षा या पंद्रह से पच्चीस हजार रुपया प्रति माह पर सेवानिवृत्त अध्यापकों से अथवा रोजगार की तलाश में भटक रहे युवाओं से काम लेने में सरकारों को फायदा नज़र आता है और समाज को कोई उज्र (आपत्ति) नहीं.
दिल्ली विश्वविद्यालय में यह क्षरण एक दूसरे रूप में भी दिखलाई पड़ता है. हर सत्र की शुरुआत में अध्यापकों की एक बड़ी फौज सांस रोककर इंतजार करती है कि उसे फिर से बहाल किया जाएगा या नहीं. ये खुद को और बाकी सब भी इन्हें एढॉक (तदर्थ) कहते हैं. बरसों के रोजाना इस्तेमाल के चलते यह शब्द अब हिंदी का हो चुका है. ये वे हैं जिन्हें चार-चार महीने के लिए नियुक्त किया जाता है और जिन्हें यह नहीं मालूम होता कि नए सत्र में वे वापस लिए जाएंगे या नहीं. यह अनिश्चितता उनकी आत्म छवि के साथ क्या करती है, इसपर न तो कोई शोध हुआ है न अध्ययन. जब वे काम करते भी रहते हैं तो अलग से दिखलाई पड़ते हैं और प्रशासन से लेकर स्थायी शिक्षक तक इन्हें बंधुआ मानते हैं जिनसे हर तरह का काम लिया जा सकता है.
क्यों दिल्ली विश्वविद्यालय में यह तदर्थ व्यवस्था स्थायी हो चुकी है? क्या इसमें सिर्फ प्रशासन का दोष है या सभी शिक्षक संगठनों का स्वार्थ भी उन्हें अनिश्चय में रखने में ही है ताकि वे उनके स्थायी मुवक्किल बने रह सकें जिनके लिए वे संघर्ष करते हुए दिखाई पड़ते हैं. एक वक्त था जब किसी स्थायी पद पर अस्थायी बहाली अधिकतम छह महीने के लिए ही हो सकती थी, फिर उसे स्थायी तौर पर भरना होता था लेकिन धीरे धीरे अस्थायित्व ही नियम बन गया. जब इन तदर्थ अध्यापकों को जनतांत्रिक अधिकार के नाम पर डूटा के चुनाव में मतदान का अधिकार दे दिया गया तो फिर प्रतिद्वंद्वी संगठनों के लिए वे एक ऐसा वोट बैंक बन गए जिसे वे असुरक्षित रखकर ही लाभ ले सकते हैं.
इनमें से कई स्थायी हो पाते हैं और कई नहीं. लेकिन इस क्रम में जो संस्कृति विकसित होती है वह सिर्फ इन तदर्थ अध्यापकों पर ही असर डालती हो, ऐसा नहीं. उससे कॉलेज और विश्वविद्यालय का वातावरण प्रभावित होता है. इन अध्यापकों में से अधिकतर का पूरा ध्यान स्थायित्व हासिल करने पर रहे तो इसमें क्या इन्हें दोषी माना जाए? अगर यह समझ नौजवानों में बने कि पढ़ने-लिखने से अधिक समय सही किस्म का संपर्क बनाने में लगाना चाहिए तो यह कैसे गलत है?
यह समस्या लेकिन सिर्फ भारत की नहीं. यूरोप और अमेरिका के विश्वविद्यालयों में कम से कम खर्चे पर अधिक से अधिक अध्यापन का काम लेने में सरकारों और प्रशासन के यकीन से अब कुली अध्यापकों की बड़ी फौज बन चुकी है.
अध्यापकों से छुटकारा पाने का एक तरीका ऑनलाइन अध्यापन के मूक्स नामक संस्करण से पैदा हुआ है. किसी विषय के एक माहिर अध्यापक से व्याख्यानों की श्रृंखला तैयार कर उसे ऑनलाइन उपलब्ध कराने पर न इमारत की दरकार रहती है न अध्यापकों की. मात्र कुछ सहायकों से काम चल सकता है. भारत की सरकारें इससे काफी प्रभावित हुई हैं और एक विकल्प के तौर पर इसे प्रोत्साहित करने में लगी हैं. यह वे श्रेष्ठता के नाम पर कर रही हैं.
हम श्रेष्ठता के इस तर्क की जांच इससे कर सकते हैं कि जो नेता या नीति निर्माता देश की जनता के के लिए इसे लाभकारी मानते हैं तो वे क्यों अपने बच्चों को आईवी लीग (अकादमिक श्रेष्ठता का प्रतीक) विश्वविद्यालयों में भेजना चाहते हैं?
शिक्षा में काफी कुछ चर्चा करने को है लकिन अध्यापक एक ऐसा विषय है जिसपर ठहर कर सोचने के लिए हमें समय निकालना ही चाहिए.
निजता प्रत्येक व्यक्ति का मौलिक अधिकार है. राज्य उस पर दावा नहीं कर सकता. वह उसे यह नहीं बता सकता कि वह क्या खाए, क्या पहने, क्या पढ़े, कैसे रहे. वह उसकी ज़िंदगी में बेरोकटोक तांकझांक नहीं कर सकता, न उससे यह मांग कर सकता है कि वह खुद से जुड़ी हर जानकारी राज्य के हवाले कर दे. कुल मिलाकर व्यक्ति खुदमुख्तार है.
व्यक्ति अपना विचार बना सकता है और उसे व्यक्त भी कर सकता है. उसे ऐसा करने से रोका नहीं जा सकता.
व्यक्ति के जीने का अधिकार तो मौलिक है लेकिन वह अर्थपूर्ण तभी है जब वह इज्जत के साथ जी सके. अगर मैं हमेशा दूसरे की निगरानी में रहने को मजबूर हूं तो जाहिर है मैं ससम्मान जीवन नहीं जी रहा.
24 अगस्त, 2017 को आज़ाद भारत के न्यायिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण दिन की तरह याद किया जाएगा. इसलिए कि भारत की सबसे बड़ी अदालत ने एकमत से भारत के नागरिकों के सबसे पवित्र अधिकार को राज्य के लिए भी उतना ही महत्वपूर्ण बना दिया.
निजता को व्यक्ति का अधिकार घोषित करने के उच्चतम न्यायालय के फैसले का जश्न ठीक ही मनाया जा रहा है. लेकिन उस उल्लास में हम भूल रहे हैं कि यह सब कुछ इसलिए है कि अब राज्य वह बन चुका है जो अपने नागरिकों को अपना मातहत मानता है और उनकी जिंदगियों पर कब्जा करने पर आमादा है. अभी तो उच्चतम न्यायालय ने उसकी इस सोच पर चोट कर दी है लेकिन यह मानना एक तरह की खुशफहमी होगी कि हर बार वह हमारी ढाल बन ही पाएगा.
उन तर्कों को देखें जो सरकार ने वैयक्तिक निजता को अधिकार माने जाने के खिलाफ दिए थे तो राज्य की मानसिकता का पता चलता है. उसने कहा कि निजता का तर्क आभिजात्यवादी है. यह तर्क अजीब है लेकिन ध्यान देने योग्य है. इन दिनों आभिजात्य होने को एक गाली की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है. प्रत्येक परिष्कृत विचार या आचरण को अभिजात या आभिजात्यवादी कहकर उसे तिरष्कृत कर दिया जाता है. या, अगर किसी विचार पर हमला करना हो तो पहले उसे अभिजात कह दिया जाता है.
सरकार ने अदालती फैसले के बाद यह कहना शुरू किया है कि यह दरअसल उसके ख्याल की ही तस्दीक है और अदालत में उसके वकील ने जो कुछ भी कहा था वह बस, कचहरी की बहस में हुई नोंकझोंक या बाता-बाती का हिस्सा है.
अदालत में सरकार के विचार या उसके रुख को उसका वकील ही सामने रखता है और अपनी दलील उसके निर्देश से पेश करता है. यह कहना कि वह तो यों ही बहस में मीर बनने को कह दिया गया था और उसे गंभीरता से नहीं लिया जाना चाहिए, इसलिए चिंता का विषय है कि इसके मायने यह भी निकलते हैं कि हमारा सामना एक गैरजिम्मेदार सरकार से है.
अखबारों और कई लोगों ने ठीक ही पिछले तीन सालों में सरकार की दलीलों का रिकॉर्ड सामने रखकर सरकार के क़ानून मंत्री के इस दावे को मिथ्या बताया है कि सरकार तो शुरू से ही निजता को नागरिकों का मौलिक अधिकार मान रही थी. ठीक ही पूछा गया है कि अगर ऐसा था तो फिर छह लोगों को अदालत की गुहार ही क्यों लगानी पड़ी? यह मुक़दमा ही क्यों हुआ?
सरकारी वकील ने कहा कि भारत के नागरिक यह दावा नहीं कर सकते कि उनके शरीर पर उनका अधिकार पूर्ण है. मैं अपने शरीर, या उसके अंगों की जानकारी किसे दूं न दूं, यह मेरा निर्णय होगा. लेकिन सरकार का कहना यह था कि वह मेरे शरीर के बारे में निर्णय कर सकती है.
सरकारी तर्क यह था कि निजता वस्तुतः एक आभिजात्यवादी विचार है जो भारत के लिए अजनबी है. चूंकि भारत में रहने वाले अधिकतर गरीब हैं, इसलिए यह उन पर या उनके संदर्भ में लागू नहीं होता. यह तर्क अजीबोगरीब तो है ही, बहुत खतरनाक भी है. यह निजता या स्वतंत्रता के अधिकार के साथ-साथ एक तरह से समानता के अधिकार के साथ भी राज्य का खिलवाड़ है
यह याद रखने की ज़रूरत है कि किसी वक्त भारतीयों की गरीबी, उनकी अशिक्षा को कारण बताया गया था अंगरेज़ हुक्मरानों के द्वारा यह कहने के लिए कि वे आज़ादी जैसी चीज़ को बरतने के काबिल नहीं हैं. अशिक्षित व्यक्ति जनतंत्र जैसे विचार को भी नहीं समझ सकता. अब बताया जा रहा है कि गरीब लोगों के लिए निजता का कोई मतलब नहीं है.
मेरी गरीबी को मेरी संप्रभुता का हरण करने का तर्क कैसे बनाया जा सकता है! मेरी गरीबी कोई मेरा अस्तित्वगत गुण या अवगुण नहीं, वह नितांत ही सामाजिक है. जिसके लिए मैं जिम्मेदार नहीं, उसे मेरे खिलाफ इस्तेमाल नहीं किया जा सकता.
गरीबी को एक तर्क की तरह इस्तेमाल किया जाता है अनेक प्रसंगों में व्यक्ति के जीवन में राजकीय हस्तक्षेप को जायज़ ठहराने के लिए. वह यह तय कर सकता है कि वह कितने बच्चे पैदा करे, यह कि वह कितनी कैलोरी ऊर्जा ले, यह कि किस तरह के घर में वह रहे. जब सरकार यह कहने लगती है कि स्कूल के दोपहर के खाने में बच्चे अंडे न खाएं, वह तय करेगी कि प्रोटीन का ज़रिया क्या होगा, तो वह उनकी निजता में ही दखल दे रही होती है.
समृद्ध या अमीर लोगों की तो कामनाएं होती हैं, गरीबों को वह अधिकार नहीं. यही बहस कार्ल मार्क्स आर्थिक और दार्शनिक पांडुलिपियों में कर रहे हैं कि मैं अपने श्रम का कैसे इस्तेमाल करूं और उसकी कीमत भी कितनी तय करूं, अगर यह मेरे बस में नहीं तो यह माना जाना चाहिए कि मुझसे मेरा आपा ही छीन लिया गया है.
निजता किसी दूसरे अधिकार के तहत नहीं है, वह अपने आप में वह संपूर्ण है, यह इस फैसले ने साफ़ किया. सरकार यह दलील दे रही थी कि अभी संविधान में इसे मौलिक अधिकार नहीं मना गया है. अदालत ने साफ़ कहा कि व्यक्ति राज्य की सृष्टि नहीं है और अगर कोई बात संविधान में अभी वर्णित नहीं है तो इसका अर्थ यह नहीं कि उसे लेकर दावा ही नहीं किया जा सकता.
निजता का यह अधिकार अब हमारा बुनियादी हक है. लेकिन यह कोई अदालत का प्रसाद भी नहीं है. ध्यान रहे कि अदालत को इस निर्णय के लिए प्रेरित करने के लिए छह लोग सरकार के खिलाफ अदालत में गए. उनके नाम जानना और उन्हें शुक्रिया अदा करना हर भारतीय का फ़र्ज़ है.
न्यायमूर्ति पुत्तुस्वामी के अलावा कल्याणी मेनन सेन, शांता सिन्हा, सुरेश वोमबातकेरे, डॉक्टर अनुपम सराफ, निखिल दे और बेजवाड़ा विल्सन ने उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया और कहा कि निजता को एक हिंदुस्तानी से छीना नहीं जा सकता. इनमें से अधिकतर वे हैं जो गरीबों के साथ काम करते हैं. विल्सन तो उस तबके के लिए काम करते हैं जो भारत की गंदगी साफ़ करता रहा है. पिछले एक महीने में दिल्ली जैसे शहर में गटर साफ़ करते हुए इनमें से छह की मौत हो चुकी है.
याद रहे ये उन लोगों में हैं जिन्हें तिरस्कारपूर्वक मानवाधिकार कार्यकर्ता या झोलावाला गिरोह कहा जाता है. इन्हें और इनके संगठनों को अक्सर सबसे ज़्यादा सरकारी हमले का सामना करना पड़ता है. इनके चरित्र हनन का अभियान अक्सर चलाया जाता है.
यह भूलना मुश्किल है कि भारत के प्रधानमंत्री ने हमारे न्यायाधीशों को ही लज्जित करने की कोशिश की थी यह कहकर कि वे कभी-कभी फाइव स्टार एक्टिविस्टों के चक्कर में आ जाते हैं. इस मामले में कम से कम अदालत ने इन्हीं फाइव स्टार एक्टिविस्टों की दलीलों पर मुहर लगाई है.
मैं तुम्हें फिर मिलूंगा दंडकारण्य के उन जंगलों में (अगर इंसान ने अंतिम पेड़ भी न काट लिया तो.) जहाँ शेर और भालुओं के बीच हरी नदी का कंचन पानी पिया था हमने.
मैं तुम्हें फिर मिलूंगा अमल-धवल शिखरों के पार (अगर आखिरी पर्वत भी सपाट होने से बचा रहा.) जहाँ सुनहरी डूब पर लेते हमने प्रथम बार आलिंगन किया था.
मैं तुम्हें फिर मिलूंगा
तमिलनाडु के तटों पर
(अगर तेल रिसाव से बचे रह गए वे)
जहाँ की रेत पर बैठ हमने बुने थे
सपने हरी धरती के.
मैं तुम्हें फिर मिलूंगा
उत्तरी ध्रुव की सफ़ेद चादर पर बैठा
(अगर ग्लोबल वार्मिंग से बचा रह गया बर्फ का आखिरी टुकड़ा.)
जहाँ सफ़ेद भालुओं के झुण्ड
हमारे संग खेलते-मचलते थे.
मैं तुम्हें फिर मिलूंगा
किसी सागर में मछलियों संग तैरता
(अगर आखिरी मछली भी न निगल गया इंसान)
जहाँ के खारे जल में
तुमने प्रथम दफे चूमा था मुझे.
मैं मनु- 'मनुज जन्मदाता' वादा करता हूँ
मैं तुम्हें फिर मिलूंगा 'श्रद्धा'
इसी धरती पर
जहाँ बच्चे जने थे हमने
जहाँ सृष्टि रची थी अपनी हमने,
जब आकाश नीला हुआ करता था,
धरती हरी
और पानी कंचन.
अगर उन बच्चों ने बची रहने दी धरती.
कुकृत्यों से उनके
पूर्णत: तबाह न हुई तो,
मैं तुम्हें फिर मिलूंगा.
*मनु और श्रद्धा मानव के प्रथम पूर्वज हैं. 'जयशंकर प्रसाद' के महाकाव्य 'कामायनी' के प्रमुख चरित्र.