Friday, January 31, 2014

Don't know, what to 'title' it. Its not a poem, its just what i felt today...



हर व्यक्ति बदलना चाहता है तुम्हें,
अपनी नज़र से.
हर व्यक्ति के लिए तुम हो,
अच्छे कभी, कभी बुरे.
उसकी नज़र, बस उसकी नज़र से
देखेगा तुम्हें वो...
चाहे तुम सही रहो या गलत!

दुनिया बहुत छोटी है,
सोच के मामले में.
दुनिया बहुत तिरछी है,
नज़र के मामले में.

तू अपनी धुन बजाता चल,
गीत खुद का गाता चला,
दुनिया की टेड़ी नज़रों को
अपनी नज़र दिखाता चल.

Wednesday, January 29, 2014

संस्कृति




तुम जड़ हो पत्थर पे उस कोने में बैठ जाना
जहां से किवदंतियां सच लगती हैं,
फिर पुकारना अपना महान अतीत,
करना उसका गुणगान,
और जब कुछ न बचे,
लोग न माने
तो बिछा देना लाशें.

आखिर तुम्हारी महान संस्कृति,
महान अतीत के खातिर
वर्त्तमान की
दो चार लाशें गिरना तो बनता है!

Thursday, January 16, 2014

पार्टीशन




मैं अक्सर पाकिस्तान के
उस टूटे घर के बारे में सोचता हूँ,
जो सलामत था जब मैं निकाला गया!
उस राख के बारे में भी
जो बिखरेगी यहाँ की सरजमीं पे.

मुंतज़िर हूँ  मैं
कि कभी ऐसा होगा.
मेरी बिखरी राख,
और वो टूटा घर
मिलेंगे,
बतियाएंगे,
मुझे याद करेंगे.
मेरा बचपन,
जवानी
और बुढ़ापा.

सुना है,
जर्मनी के दो धड़े
मिल एक हुए थे कभी.
मुझे यकीं है,
मिलेंगे कभी
मेरा टूटा घर और मेरी आँख.
और मैं न बचा तो,
मेरा टूटा घर और मेरी राख.

पार्टीशन कभी दिलों का नहीं हुआ.
ज़मीं का हुआ, जिसे खुदा  ने बख्शा,
सियासत का हुआ,
जिसे अकलमंदों ने चाहा.

मैंने और मेरे जैसों ने,
अपना मोहल्ला, अपना घर,
अपने लोग
जिनका मजहब से कोई वास्ता ही नहीं,
बस इतना ही चाहा था.

तुमने हमें निकाला
हमारे घर, हमारे मोहल्ले,
हमारे लोगों से,
हमनें उन्हें यादों में बसा लिया
एक यकीं लेकर-
कि मिलेंगे  कभी,
मेरा टूटा घर और मेरी आँख.
और मैं न बचा तो,
मेरा टूटा घर और मेरी राख.

मैंने कीमतों में इश्क़ चुकाया है.



कौन कहता है,
टूटा रिश्ता काम का नहीं होता.
वजहें नहीं ढूंढनी पड़ती कभी आंसू बहाने.
भूख भी भुला सकता हूँ,
इश्क़ की याद में.
...और तेरे जाने के बाद,
अब कोई बेवफा भी नहीं लगता.

कीमत चुकानी पड़ती है इश्क़ की.
हर अश्क़ की कीमत है,
मैंने कीमतों में इश्क़ चुकाया है.

Tuesday, January 14, 2014

वसीयत




वसीयत में लिख दो तुम,
दो किलो अचार माँ.
लिख देना अपनी गोद और मेरा सिर,
माथे पे दो चुम्बन और
चूल्हे से सीधे उतारे दो-चार फुल्के.

वसीयत में लिखना सारा वात्सल्य,
अगले जन्म का वादा....बस, इतना काफी है.

Sunday, January 12, 2014

रोज़गार




इक सवाल की तरह पनपी हो तुम
अब मुश्किल है कह पाना
कि रोटियों की तड़प ज्यादा है या तुम्हारी.

उफ़! रात की हथेली पे चाँद का रुपया
बरवस तुम्हें भुलाता है.
छू लूँ चाँद या तोड़ लूँ,
खरीद लूँ दो रोटियां
जिससे तुम्हें याद कर पाऊँ, भरपेट.

Saturday, January 4, 2014

Social discrimination




बीच का अंतर ढहा क्या?
दिल में जमा था, बहा क्या?

एक आईने में मैं,
एक आईने में तुम
एक जैसे अक्स पर
जो मैंने सहा,
तुमने सहा क्या?

हर रोज सुबह मद्धम है,
हर रात ज़रा ज्यादा काली.
मिट्टी के तुम
मिट्टी के हम
फूट तो बस पैसे ने डाली.
बीच का अंतर ढहा क्या?
जो मैंने सहा, तुमने सहा क्या?

मानव तुम, मानव हम,
खाते रोटी तुम, तो हम,
दो कपडे तुम्हें ज़रूरी,
बस दो ही पहने हम.
फिर भी, मन जैसा मेरा
तेरा वैसा रहा क्या?
पैसा-औकात के आगे
सोचने कुछ बचा क्या?
बीच का अंतर ढहा क्या?
जो मैंने सहा, तुमने सहा क्या?