Saturday, March 31, 2018

राशिदी और सक्सेना को सुनने के लिए कलेजा चाहिए | रवीश कुमार

“मैं शांति चाहता हूं। मेरा बेटा चला गया है। मैं नहीं चाहता कि कोई दूसरा परिवार अपना बेटा खोए। मैं नहीं चाहता कि अब और किसी का घर का जले। मैंने लोगों से कहा है कि अगर मेरे बेटे की मौत का बदला लेने के लिए कोई कार्रवाई की गई तो मैं आसनसोल छोड़ कर चला जाऊंगा। मैंने लोगों से कहा है कि अगर आप मुझे प्यार करते हैं तो उंगली भी नहीं उठाएंगे। मैं पिछले तीस साल से इमाम हूं, मेरे लिए ज़रूरी है कि मैं लोगों को सही संदेश दूं और वो संदेश है शांति का। मुझे व्यक्तिगत नुकसान से उबरना होगा।”

अपने 16 साल के बेटे सिब्तुल्ला राशिदी की हत्या के बाद एक इमाम का यह बयान दिल्ली के अंकित सक्सेना के पिता यशपाल सक्सेना की याद दिलाता है। हिंसा और क्रूरता के ऐसे क्षणों में कुछ लोग हज़ारों की हत्यारी भीड़ को भी छोटा कर देते हैं। 16 साल के सिब्तुल्ला को भीड़ उठाकर ले गई और उसके बाद लाश ही मिली। बंगाल की हिंसा में बंगाल की हिंसा में चार लोगों की मौत हुई है। छोटे यादव, एस के शाहजहां, और मक़सूद ख़ान। इस हिंसा
“मैं भड़काऊ बयान नहीं चाहता हूं। जो हुआ है उसका मुझे गहरा दुख है लेकिन मैं मुसलमानों के ख़िलाफ़ नफ़रत का माहौल नहीं चाहता। मेरी किसी धर्म से कोई शिकायत नहीं है। हां, जिन्होंने मेरे बेटे की हत्या की, वो मुसलमान थे लेकिन सभी मुसलमान को हत्यारा नहीं कहा जा सकता है। आप मेरा इस्तमाल सांप्रदायिक तनाव फैलाने में न करें। मुझे इसमें न घसीटें। मैं सभी से अपील करता हूं कि इसे माहौल ख़राब करने के लिए धर्म से न जोड़ें।“
यह बयान दिल्ली के यशपाल सक्सेना का है जिनके बेटे अंकित सक्सेना की इसी फरवरी में एक मुस्लिम परिवार ने हत्या कर दी। अंकित को जिस लड़की से प्यार था,उसने अपने मां बाप के ख़िलाफ़ गवाही दी है। यशपाल जी ने उस वक्त कहा था जब नेता उनके बेटे की हत्या को लेकर सांप्रदायिक माहौल बनाना चाहते थे ताकि वोट बैंक बन सके। आसनसोल के सिब्तुल्ला को जो भीड़ उठा कर ले गई वो किसकी भीड़ रही होगी, बताने की ज़रूरत नहीं है। मगर आप सारे तर्कों के धूल में मिला दिए जाने के इस माहौल में यशपाल सक्सेना और इमाम राशिदी की बातों को सुनिए। समझने का प्रयास कीजिए। दोनों पिताओं के बेटे की हत्या हुई है मगर वे किसी और के बेटे की जान न जाए इसकी चिन्ता कर रहे हैं।
सांप्रदायिक तनाव कब किस मोड़ पर ले जाएगा, हम नहीं जानते। दोनों समुदायों की भीड़ को हत्यारी बताने के लिए कुछ न कुछ सही कारण मिल जाते हैं। किसने पहले पत्थर फेंका, किसने पहले बम फेंका। मगर एक बार राशिदी और सक्सेना की तरह सोच कर देखिए। जिनके बेटों की हत्याओ को लेकर नेता शहर को भड़काते हैं, उनके परिवार वाले शहर को बचाने की चिन्ता करते हैं। हमारी राजनीति फेल हो गई है। उसके पास धार्मिक उन्माद ही आखिरी हथियार बचा है। जिसकी कीमत जनता को जान देकर, अपना घर फुंकवा कर चुकानी होगी ताकि नेता गद्दी पर बैठा रह सके।
आपको समझ जाना चाहिए कि आपकी लड़ाई किससे है। आपकी लड़ाई हिन्दू या मुसलमान से नहीं है, उस नेता और राजनीति से है जो आपको भेड़ बकरियों की तरह हिन्दू मुसलमान के फ़साद में इस्तमाल करना चाहता है। आपकी जवानी को दंगों में झोंक देना चाहता है ताकि कोई चपेट में आकर मारा जाए और वो फिर उस लाश पर हिन्दू और मुसलमान की तरफ से राजनीति कर सके। क्या इस तरह की ईमानदार अपील आप किसी नेता के मुंह सुनते हैं? 2019 के संदर्भ में कई शहरों को इस आक्रामकता में झोंक देने की तैयारी है। इसकी चपेट में कौन आएगा हम नहीं जानते हैं। मुझे दुख होता है कि आज का युवा ऐसी हिंसा के ख़िलाफ़ खुलकर नहीं बोलता है। अपने घरों में बहस नहीं करता है। जबकि इस राजनीति का सबसे ज़्यादा नुकसान युवा ही उठा रहा है। बेहतर है आप ऐसे लोगों से सतर्क हो जाएं और उनसे दूर रहें जो इस तरह कि हिंसा और हत्या या उसके बदले की जा सकने वाली हिंसा और हत्या को सही ठहराने के लिए तथ्य और तर्क खोजते रहते हैं। नेताओं को आपकी लाश चाहिए ताकि वे आपको दफ़नाने और जलाने के बाद राज कर सकें। फैसला आपको करना है कि करना क्या है।
Publishedd on Nai Sadak

Monday, March 26, 2018

[ The Obtuse Angle ] 2

मैं सोचता हूँ अगर स्टीफन हाकिंग भारत में होते तो कैसे रहे होते? क्या हमारे देश में उनकी अपंगता ने उन्हें जीने दिया होता? क्या हमारी 'महान' परिवार व्यवस्था, जिसकी हम मिसालें देते हैं ने उनके टैलेंट को ध्यान रख जरूरतें मुहैया कराई होतीं? क्या ख्याल रखा होता? और क्या हमारी 'महान' गुरु-शिष्य परंपरा में शिष्यों ने उसी तरह उनका ख्याल रखा होता जिस तरह उनके छात्रों ने उनका रखा था?

आपको भी जवाब पता हैं और मुझे भी. सच तो ये है कि हमारी 'महान' व्यवस्थाएं अंदर से सड़ चुकी हैं. इतनी अधिक कि उनकी 'महानता' पर गर्व कर लीपा-पोती करने कि बजाय हमें शर्म करते/रखते हुए उन्हें सुधारने की आवश्यकता है.

लेकिन बजट भी हमारे बजट भाषण में शिक्षा और स्वास्थ्य पर किये वादे में से भी कुछ प्रतिशत की कमी करने के बाद बिना की बहस के आधे घंटे में पास हो जाता है और इसका विरोध करना न हमारी प्रायोरिटी बनता है न मीडिया की.

सच तो ये है कि सिर्फ मीडिया नहीं हम सब ही बाथटब में डूबे हुए हैं और श्रीदेवी के बहुत पहले से ही.

#TheObtuseAngle

Tuesday, March 13, 2018

जैन-बैल-खेल


कभी लगा वो लोग खुशकिस्मत हैं 
जो खुद की देह में ही अजनबी हो गए
उनसे जो खुद के घर में अजनबी हुए हैं.

फिर कभी उल्टा लगा.
मतलब खुद के घर में अजनबी होना अच्छा है
खुद की देह में अजनबी होने के.

फिर दोनों ही ख्याल अजीब लगने लगे
जैसे बचपन में 'त्रिशला-नन्दन महावीर' भजन निरर्थक था.
वैसे वो आज भी निरर्थक ही है.

मेरे पिता ने मुझसे बेहतर जैन बनने को कहा
मेरे हर बार बेहतर जैन बनकर पहुंचा
उन्हें हर बार और भी कमतर जैन महसूस हुआ.

उनका धर्म मंदिर ले जाता था
और मैं ज्यूँ ज्यूँ धर्म के करीब आता गया
 मंदिर से दूर होता गया
और अपने में धर्म के पास.

न उन्हें कभी समझ आया
न मुझे शायद धर्म.

खैर, मुद्दे की बात ये है कि
मैंने उनसे ये ज़िन्दगी नहीं मांगी थी
उन्होंने दी वो भी रिश्ते-नाते, परिवार समाज, धर्म
और बने-बंधे कायदों के साथ.
मैं जुते हुए बैल कि तरह पैदा हुआ था
जिसे सीढ़ी धुरी में चलना था
और डंडे से रास्ता दिखाया जाना था.

मैंने इससे इंकार कर दिया.

मैंने एक प्रेमिका चुनी
एक सपना चुना
एक गीत लिखा
दो सौ रूपये की आज़ादी वाली किताब खरीदी 
और जूतों में पंख लगा उड़ गया.

प्रेमका ने दिल तोडा
सपना बिखर गया
गीत को किसी ने न गुनगुनाया
किताब का लेखक कर्मों से लिखे जैसा न था
और जूते घिस गए.

...और मुझे लगने लगा मेरे पिता सही थे.
जुते हुए बैल सा जीना ही सही है.

लेकिन देह और घर दोनों जगह ही अजनबी इंसान 
ऐसे ज़िंदा कैसे रहता.
इसलिए मैंने मरना चुना.
किन्तु आत्महत्या अपराध था
और मेरा सुसाइड-नोट पोएटिक था.
मेडिकल साइंस ने भी तरक्की कर ली थी. बचा लिया गया.

इसलिए मैंने दौड़ना शुरू किया
और खेत से बाहर आने तक दौड़ता रहा.
ये क्रांति थी
अबतक किसी ने दौड़ा न था.
और जो दौड़े थे बांधे गए थे.

मैं किरणों संग भाग रहा हूँ
सबेरे से 
और अँधेरे के पार भागूंगा
अगली उम्मीद तक.

तुम रस्सियां बंटना शुरू कर दो.
बाँधने लम्बी लगेगी.
आकाशगंगा के पार तक.

Wednesday, March 7, 2018

[ The Obtuse Angle ] 1

लेनिन क्या था से ज्यादा महत्वपूर्ण ये है कि लेनिन क्यों था... और क्यों आज़ादी के आंदोलन के वक़्त युवाओं के लिए ( जिनमें भगत सिंह भी शामिल थे) प्रेरणा का स्रोत रहा. बाकि सेंट पीटर्सबर्ग को बदल के पेत्रोग्राद कर दो और पेत्रोग्राद को बदल के लेनिनग्राद... अंत में होना उसे वापस सेंट पीटर्सबर्ग ही है. नाम बदलने से न तो लेनिन यकायक से पैदा हो गए थे न ही मर गए. न मूर्तियां बनने से लेनिन को जन्मना था न ही ढहाने से मरना था. बस बनाना और ढहाना हमारी सोच हैं. बनाना मुश्किल होता है ढहाना आसान. उदहारण के लिए चरित्र ही को ले लो. मूर्तियां ढहाने पे मुझे मूर्ति से ज्यादा कास्तकार के लिए दुःख होता है. उसने कितने जतन से बनाया होगा.

सोचता हूँ, ढहाने वालों लेनिन के बारे में पढ़ा हो तो बेहतर है. कम से कम भगत सिंह के लेनिन के प्रति रखी सोच ही पढ़ी हो. ...और दुःख जताने वालों ने भी दुनिया भर से लेनिन की मूर्तियां ढहने के कारण जाने हों तो बेहतर हो. कम से कम लेनिनग्राद के सेंट पीटर्सबर्ग हो जाने के कारण ही जाने हो.

मुझे मूर्ति गढ़ने वाले शिल्पी के लिये ज्यादा दुःख है. मूर्तियां गिरा लो, मंदिर या मस्जिद. हत्या आर्ट की ही होनी है.