Sunday, April 26, 2020

एक था कुम्भकर्ण

KRIYA GURUPRANAM: The story of Kumbhakarna

कुम्भकर्ण की कहानी जाननी हो तो हमें जय-विजय की कहानी जाननी होगी. जय-विजय वैकुण्ड के द्वारपाल थे. ब्राह्मण पुराणानुसार वे वरुण देव और उनकी पत्नी स्तुता के पौत्र और कलि के पुत्र थे. अनन्य विष्णु भक्त दोनों भाइयों को विष्णु ने वैकुण्ड का द्वारपाल नियुक्त किया.

भागवत पुराण अनुसार एक बार ब्रह्मा के मानस पुत्र चार कुमारों ने वैकुण्ड का भ्रमण किया तो द्वार पर ही उन्हें जय विजय मिल गए. चारों कुमार तपस्या के बल पर बाल रूप में दिखते थे. जय-विजय ने उन्हें देखा और बाल रूप के कारण बच्चे समझ कर यह कह जाने से रोक दिया कि 'भगवन अभी विश्राम में हैं. बाद में दर्शन कीजिये.' कुमार कुपित हो गए. 'विष्णु अपने भक्तों के लिए हमेशा उपस्थित रहते हैं.' यह कह कर उन्होंने जय-विजय को पृथ्वीलोक पर हमेशा के लिए जीवन-मृत्यु चक्र में फंसे रहने का श्राप दे दिया.

जय विजय घबराकर भगवन की शरण में पहुंचे. विष्णुजी ने कहा कि कुमारों का दिया हुआ श्राप तो बदला नहीं जा सकता है लेकिन मुक्ति के दो उपाय हैं. एक ये कि तुम दोनों सात जन्मों तक मेरे अनन्य भक्त बनकर के धरती पर जन्म लो और इसके पश्चात् वापस वैकुण्ड लौट आओगे. दूसरा ये कि सिर्फ तीन जन्मों तक मेरे परम-शत्रु बनकर जन्म लो और फिर वापस वैकुण्ड लौट जाओगे. जय-विजय प्रभु के अनन्य भक्त थे उन्हें बहुत दिनों तक विष्णुजी से अलग रह पाना संभव नहीं था. इसलिए उन्होंने शत्रु बनकर जन्म लेना स्वीकार किया. लेकिन इसके लिए उन्हें कुल तीन युगों कि यात्रा करनी पड़ी!

सतयुग में वे हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप के रूप में जन्में. विष्णु ने उनका उद्धार करने हिरण्याक्ष के लिए वराह अवतार और हिरण्यकश्यप के लिए नरसिंह अवतार लिया. त्रेता युग में वे रावण और कुम्भकर्ण के रूप में जन्में और रामावतार से उदधृत हुए. द्वापर युग में वे शिशुपाल और दन्तावक्र के रूप में जन्में और कृष्णावतार से उद्धृत हुए.

अत: मृत्यु उपरांत रावण और कुंभकर्ण को वैकुण्ठ प्राप्त हुआ था.

कुम्भकर्ण का मतलब होता है कुम्भ (यानि मटका) के जैसे कानों वाला. नाम भी इसलिए पड़ा था कि वो दैत्याकार पैदा हुआ था. कुम्भकर्ण ऋषि विश्रवा के पुत्र के रूप में जन्मा था जिसमे जन्म से राक्षसी प्रवित्तियाँ हावी थी. इसलिए वह दैत्याकार था. लेकिन ऋषि संरक्षण में उसमें रीति-नीति, प्रेम जैसे मानवीय गुणों का वास भी हुआ. विश्रवा ये जानते थे कि अर्ध-राक्षस, अर्ध-मानवीय उनके पुत्रों का जीवन कठिनतम हो सकता है इसलिए उन्होंने ब्रह्मा जी कि तपस्या के लिए अपने तीनों पुत्रों को प्रेरित किया. अति कठोर तपस्या करने के पश्चात् रावण, कुम्भकर्ण और विभीषण पर ब्रह्मा जी प्रसन्न हुए और उनसे वर मांगने को कहा.

कुंभकर्ण को दो वर मांगने थे- इन्द्रासनम और निर्देवतम. अर्थात 'इन्द्र का आसन' और 'देवताओं का अंत'. लेकिन इन्द्र को इस बात का भान था. इसलिए उन्होंने देवी सरस्वती की आराधना की. फल स्वरुप देवी कुम्भकरण कि जिह्वा में आकर बैठ गई और कुंभकर्ण के मुंह जो निकला वो था- निद्रासनम और निद्रावतनम अर्थात 'निद्रा के लिए आसन' हो और 'निद्रा का आगमन' हो. सीधे सीधे उसने सोने के लिए वरदान मांग लिए. ब्रह्मा से तथास्तु कहा और रावण के लाख मनाने पर भी वरदान बदले बिना अंतर्ध्यान हो गए. इस तरह धरती पर एक राक्षस चैन की नींद सोने लगा.

कालांतर में कुम्भकर्ण के कुम्भ, निकुम्भ और भीमासुर नाम से पुत्र भी हुए.

मानस में कुम्भकर्ण की राम के प्रति अनन्यता जाहिर की गई है. तुलसीदास जी ने लिखा हुआ है:

राम रूप गुन सुमिरत मगन भयउ छन एक
रावन मागेउ कोटि घट मद अरु महिष अनेक

( रामचंद्रजी के रूप और गुणों को स्मरण करके वह एक क्षण के लिए प्रेम में मग्न हो गया। फिर रावण से करोड़ों घड़े मदिरा और अनेकों भैंसे मँगवाए.)

 महिषखाइ करि मदिरा पाना। गर्जा बज्राघात समान
कुंभकरन दुर्मद रन रंगा। चला दुर्ग तजि सेन न संगा.

(भैंसे खाकर और मदिरा पीकर वह बिजली गिरने के समान गरजा। मद से चूर रण के उत्साह से पूर्ण कुंभकर्ण किला छोड़कर चला। सेना भी साथ नहीं ली.)

कुंभकर्ण को जब जगाया गया तो उसने रावण से अकस्मात् जगाने का कारण पूछा और कारण जानने के बाद उसने जो कहा वो मानस में इस तरह लिखा हुआ है:

 भल न कीन्ह तैं निसिचर नाहा। अब मोहि आइ जगाएहि काहा॥
अजहूँ तात त्यागि अभिमाना। भजहु राम होइहि कल्याना॥

( हे राक्षसराज! तूने अच्छा नहीं किया। अब आकर मुझे क्यों जगाया? हे तात! अब भी अभिमान छोड़कर श्री रामजी को भजो तो कल्याण होगा.)

हैं दससीस मनुज रघुनायक। जाके हनूमान से पायक॥
अहह बंधु तैं कीन्हि खोटाई। प्रथमहिं मोहि न सुनाएहि आई॥
( हे रावण! जिनके हनुमान्‌ सरीखे सेवक हैं, वे श्री रघुनाथजी क्या मनुष्य हैं? हाय भाई! तूने बुरा किया, जो पहले ही आकर मुझे यह हाल नहीं सुनाया॥)

 कीन्हेहु प्रभु बिरोध तेहि देवक। सिव बिरंचि सुर जाके सेवक॥
नारद मुनि मोहि ग्यान जो कहा। कहतेउँ तोहि समय निरबाहा॥3॥
( हे स्वामी! तुमने उस परम देवता का विरोध किया, जिसके शिव, ब्रह्मा आदि देवता सेवक हैं। नारद मुनि ने मुझे जो ज्ञान कहा था, वह मैं तुझसे कहता, पर अब तो समय जाता रहा॥)

अब भरि अंक भेंटु मोहि भाई। लोचन सुफल करौं मैं जाई॥
स्याम गात सरसीरुह लोचन। देखौं जाइ ताप त्रय मोचन॥4॥
(हे भाई! अब तो अँकवार भरकर मुझसे मिल ले। मैं जाकर अपने नेत्र सफल करूँ। तीनों तापों को छुड़ाने वाले श्याम शरीर, कमल नेत्र श्री रामजी के जाकर दर्शन करूँ॥)

मतलब कुम्भकर्ण को पता था कि रावण ने क्या किया है और राम कौन हैं. किन्तु वह भ्रातृ-आज्ञा का पालन करने और रामचंद्र जी से मिलने के लिए युद्ध में शामिल हुआ.

विभीषण को देख कुम्भकर्ण ने उसे समझाया और उसे खरी-खोटी सुनाने के बाद उसकी प्रशंसा भी की. तुलसीदास अनुसार:

 देखि बिभीषनु आगें आयउ। परेउ चरन निज नाम सुनायउ॥
अनुज उठाइ हृदयँ तेहि लायो। रघुपति भक्त जानि मन भायो॥2॥
(उसे देखकर विभीषण आगे आए और उसके चरणों पर गिरकर अपना नाम सुनाया। छोटे भाई को उठाकर उसने हृदय से लगा लिया और श्री रघुनाथजी का भक्त जानकर वे उसके मन को प्रिय लगे॥)

 तात लात रावन मोहि मारा। कहत परम हित मंत्र बिचारा॥
तेहिं गलानि रघुपति पहिं आयउँ। देखि दीन प्रभु के मन भायउँ॥
(विभीषण ने कहा- हे तात! परम हितकर सलाह एवं विचार करने पर रावण ने मुझे लात मारी। उसी ग्लानि के मारे मैं श्री रघुनाथजी के पास चला आया। दीन देखकर प्रभु के मन को मैं बहुत प्रिय लगा॥)

सुनु भयउ कालबस रावन। सो कि मान अब परम सिखावन॥
धन्य धन्य तैं धन्य विभीषन। भयहु तात निसिचर कुल भूषन॥
कुम्भकर्ण ने कहा- हे पुत्र! सुन, रावण तो काल के वश हो गया है (उसके सिर पर मृत्यु नाच रही है)। वह क्या अब उत्तम शिक्षा मान सकता है? हे विभीषण! तू धन्य है, धन्य है। हे तात! तू राक्षस कुल का भूषण हो गया॥

 बंधु बंस तैं कीन्ह उजागर। भजेहु राम सोभा सुख सागर॥

(हे भाई! तूने अपने कुल को दैदीप्यमान कर दिया, जो शोभा और सुख के समुद्र श्री रामजी को भजा॥)

 बचन कर्म मन कपट तजि भजेहु राम रनधीर।
जाहु न निज पर सूझ मोहि भयउँ कालबस बीर॥
 मन, वचन और कर्म से कपट छोड़कर रणधीर श्री रामजी का भजन करना। हे भाई! मैं काल के वश हो गया हूँ, मुझे अपना-पराया नहीं सूझता, इसलिए अब तुम जाओ॥

इस तरह कुम्भकर्ण ने राक्षस प्रवृत्ति का होते हुए भी धर्म और नीति का पालन किया और मृत्यु को वरण  किया.