Thursday, April 19, 2012

उधार के चार रंग.....

                                                                                                                                               दिल की भी क्या कोई आँखें होती हैं?..... वो जोर-जोर से हंसती है. देखो आई नो यू आर नॉट सो स्मार्ट बट  आई लव यू सो लव यू........ वो फिर हंसती है. 'तू कौन सा बड़ी मिस- इंडिया है, वो बोलता है. फिर दोनों बड़े जोर जोर से हँसते है.......यकायक से वो शांत हो जाती है, फिर धीरे से बोलती है- 'मेरे घर बाले नहीं मानेंगे'........ और फिर वही, मौत के बाद की सी ख़ामोशी.
                             सुना था कुछ लोग आरक्षण के खिलाफ हैं.......लेकिन जातिवाद के? ......पूछना पड़ेगा. मिडिल क्लास की नैतिकताएं भी तो, परिस्तिथियों के साथ बदलती हैं.

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तू जॉब छोड़ दे अगर तुझे लगता है तो, वो जोर देकर कहता है......मेरा बेस्ट फ्रेंड है, कई दिन हमने फोकटियाई में चाय पीते गुजारे हैं....आज फिर हम वहीं बैठे हैं....वो अर्न-लीव पर है और मैं लोस-ऑफ़-पे पर........ 'सल्ले, मैं छोड़ तो दूंगा लेकिन मेरा खर्च क्या तू उठाएगा'....... वो एक बार लम्बी आँखों से देखता है,फिर हौले से कहता है, 'हाँ'......बेटा इत्ता पैसा लायेगा कहाँ से कि अपने-मेरे खर्च उठा सके. ......' साल्ले गर्लफ्रेंड छोड़ दूंगा' और फिर  वही पुरानी हंसी. खुदा ने कुछ रिश्ते खून के अलावा भी बनाए हैं......उफ्फ़!!! समझदार खुदा.

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वो एक कोचिंग सेंटर के सामने टकरा गये....रिलेटिव हैं, ज्यादा दूर के नहीं, दिल से ज्यादा पास के नहीं. 'बेटे को आई ई टी कि कोचिंग करानी है, तुम्हे तो पता होगा कौन सी अच्छी है.'......मैं गौर से लड़के को देखता हूँ, 'कौन सी क्लास में हो?' .....'भैया, नाइंथ.' ........' हाँ, यही बाली अच्छी है, ज्वाइन करा दीजिये.' .......कह के मैं निकल लेता हूँ.  वक़्त बदल जायेगा लेकिन मिडिल क्लास कि ख्वाइशे बदस्तूर जारी हैं. मैंने सुना था कोई बीस वरस पहले उनका भी सपना आई आई टी ही था. मैं अपनी उम्र आंकता हूँ, चलो मुझे तो फिर से वही सपने पालने में बीस वर्ष का वक़्त है. कमबख्त वक़्त बदलता गया, आपकी गाडी वहीं है, ये रफ़्तार भी किस्मतों संग बदलती है.

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अपने दरवाजे से ऑफिस तक बेहिसाब भागते लोग और चाय कि दूकान के पास आठ साल की वो दो साल के भाई को लटकाए पैसे मांगती है.......दोनों अलग-अलग अहसास देते हैं. कुछ बच्चों के पास फ़ुटबाल है, और उसके हाथ में वो नन्हा.....'ये सब पैसों का खेल नहीं पिछली पीड़ी कि बेवकूफियों का भी नतीजा है'......वो धीरे से कहता है....'मतलब?'......वो उस गन्दी-सी लड़की की और देखता है, 'इसका बाप शराब पी के डाला होगा कहीं और माँ... माँ को तो शायद इसके बाप ने ही मार दिया होगा.'........फिर नाउम्मीद कि गहरी सांस लेता है..........'और इन फुटबाल बालों का बाप हमारी तरह ज़िन्दगी  दौड़ रहा है की इन्हें फ़ुटबाल दे सके.' ...... कुल बाईस साल का मैं अपने आप को कुछ ज्यादा बड़ा महसूस करने लगता हूँ.
                 
                   उसके दरवाजे भी जरा दस्तक दे ये ज़िन्दगी.....
                   खुदा ने उसे भी मुद्दत से बनाया था.


Tuesday, April 10, 2012

ख़ामोशी में......ऐसे ही




सोचता हूँ, ले जाऊं तुझे  सारे रश्म'ओ-रिवाजों से कहीं दूर,

लेकिन ये अज्म भी तेरे दरवाज़े तक आते-आते ख़त्म हो जाते हैं. 












Pic: Lake View, Bhopal, Oct-Nov 2009

Friday, April 6, 2012

एक छोटा सा दिमाग और कुछ सतरंगी ख्याल

                                                                                                                                                                                            दौड़ की तरह ज़िन्दगी जीते लोग, और उनमे से एक आप......बस एक महीने ही चलते हो और थक जाते हो.....यहाँ सुबह ऑफिस की जद्दोजहद में ये ख्याल ही नहीं रहता की देश की सरकार ने कुछ ट्रेफिक रूल्स बनाए हैं और आप एक पढ़े-लिखे इंसान हैं.........वो पाँव में पट्टी बांधे आये हुए हैं..........क्या हो गया था सर?.........'यार 'कोन' निकलवाया था, तो.........ये सल्ली मेडिकल लीव अप्प्रोव ही नहीं की'........ये साल्ला गम बिकता नहीं है कहीं!!!......बिकता  होता तो पैसे देकर के ही दे आते.......काम से फुरसतें मिलें तो ख़ुशी-गम का एहसास हो लोगों को.......'सर , मैं घर जाना चाहता हूँ, पूरे एक महीने के लिए......'लॉस  ऑफ़ पे' पर.' मैं अपनी बात ख़त्म करता हूँ......वो कुछ नहीं बोलते हैं, चुपचाप छुट्टियाँ अप्प्रोव कर देते हैं........दिल से शायद वो भी कवि रहे होंगे............'उसका' फोन है, 'तुम अपने सारे डिसीजंस क्या दिल से लेते हो?'.......मैं कुछ नहीं बोलता हूँ.........बातें करते-करते वो रो पड़ती है......'अब तो तुम भी नहीं हो यहाँ किससे शेयर करूं'.......मैं कुछ नहीं कह पाता हूँ......ये गम शायद गलीचे में बंधा चलता है, कहीं भी जाओगे.......साथ-साथ चलता रहेगा......और ये इश्क भी इसी उम्र में होना है, और साथ में बहुत से जज्बात. .......मैं समझाते-समझाते रुक जाता हूँ........खैर.
                                        'मैं ये मूवी फ्रेंड्स के साथ देख आऊं?' वो बड़े प्यार से पूछती है.......उसे पता है मुझे अच्छा नहीं लगेगा, उसका जाना लेकिन मैं मना भी नहीं करूँगा........तरकरीबन आधा घंटे बात.......और फिर उसमें हज़ारों नसीहतें.........'अच्छे से पढना, और खाना भी खा लेना.'   दूर रह कर भी मेरा पूरा ख्याल  रखा जाता है तो लगता है चलो ज़िन्दगी में माँ-बाप के अलावा कुछ लोग तो हैं जो तुम्हारे लिए ठहर सकते हैं.....इस शोर के बीच, इस दौड़ के बीच.


                चलते-चलते.............


 जावेद अख्तर साहब की कल नई किताब आई है.....शीर्षक है 'लावा'. इन्दोर के उस ऑडिटोरियम में जावेद साहब बोलते हैं.......'लावा' निकलने में कुल सत्रह साल लग गये'...........'हज्जार से ज्यादा की क्षमता बाला ये हॉल पूरा भरा है, लगता है कविता पसंद करने बाले आज भी जिंदा हैं.'


                            उनकी पहली किताब 'तरकश' से 'उलझन'......



करोडो चेहरे 
और 
उनके पीछे 
करोडो चेहरे
ये रास्ते है की भीड़ है छते 
जमीं जिस्मो से ढक गई है 
कदम तो क्या तिल भी धरने की अब जगह नहीं है 
ये देखता हूँ तो सोचता हूँ 
की अब जहाँ हूँ 
वहीँ सिमट के खड़ा रहूँ मै
मगर करूँ क्या 
की जानता हूँ 
की रुक गया तो 
जो भीड़ पीछे से आ रही है 
वो मुझको पेरों तले कुचल देगी, पीस देगी 
तो अब चलता हूँ मै
तो खुद मेरे पेरों मे आ रहा है 
किसी का सीना 
किसी का बाजू
किसी का चेहरा 
चलूँ 
तो ओरों पे जुल्म ढाऊ
रुकूँ 
तो ओरों के जुल्म झेलूं 
जमीर 
तुझको तो नाज है अपनी मुंसिफी पर
जरा सुनु तो 
की आज क्या तेरा फेसला है