आज भी गूंजती है
तुम्हारी आवाज़.
फेफड़ों को छलनी कर जाती है,
हवा संग बह
तुम्हारी खुशबू.
इतनी दूर क्यों गये मुझसे,
कि जेहन में भी
धुंधला गये हो तुम.
आज भी,
सांझ ढले लगता है
जैसे तुम,
जला जाओगे बत्तियां.
कर जाओगे रोशन
हमारा घर,
सपनों का घर.
आज,
हर सपना, हर महल
खंडहर सा लगता है,
तुम्हारे बिना.
खुद में जकड़ा सा,
दर्द में बुझा-बुझा
महसूस करता हूँ.
मैं नहीं करता रोशन
अपना घर,
इतनी हिम्मत ही नही होती मेरी.
तन्हाई में
रोता हूँ मैं,
चंद नवेली साँसों के लिए.
तब लगता है
वैसे ही,
पीछे से आ
तुम थाम लोगे मेरे कंधे.
फिर हाथों में हाथ ले
दिखा दोगे मुझे राह,
बना दोगे सड़कें,
या खुद ही बन जाओगे मंजिल.
क्यों....
क्यों गये हो इतने दूर?
कि पथरा गईं हैं मेरी आँखें,
तुम्हारी बाट जोहते-जोहते.
वो सड़क,
जहाँ हर सुबह
हम उन्मुक्त घुमा करते थे,
वर्षों से वैसे पड़ी है.
अब तो पत्तों ने भी,
झड़-झड़ कर
उसपर मोटी परत बना ली है.
कूड़े का,
लम्बा ढेर लगती है दूर से.
क्यों,
क्यों चले गये इतने दूर?
कि वापसी की
हर राह तुम्हें बिसर गई?
तुम्हें लौटता ना देख,
भूलना चाहता हूँ मैं.
पर उन्मुक्त आस बन,
फिर-फिर आ जाते हो,
मेरे पास.
इतने दूर गये हो तुम,
कि शायद ना आ सको लौटकर.
फिर भी मेरा दिल
यह मानने तैयार नहीं.
तुम जिंदा रहोगे,
हमेशा मेरे मन में,
जेहन में.