Monday, March 1, 2010

अँधेरे की ओर छितराती शाम


उन्नीदे होते हम,
अँधेरे की ओर छितराती ये शाम,
अदभुत! अतुल्य!! सुन्दर!!!

ढलता, पिघलता सूरज
जैसे अस्तित्व भांप रहा हो.
विराग, विहग खगकुल,
राग अपने गा छितरा गया.
समूचा गगन उसमे समा गया.
बचे सूरज की रौशनी समेटते
देहरी पे जलते दिए,
लौटती पन्हारिनें,
बदरंगे बादल,
खुशनुमा मौसम........
 फिर हमारे बीच से निकलती रेल,
जैसे सम्पूर्ण सौंदर्य मंडरा गया हो.

 प्रकृति रंग रंगे हम,
खग विहग गान,
अँधेरे की ओर छितराती शाम,
अदभुत! अतुल्य!! सुन्दर!!!