Monday, May 21, 2012

....उफ़!! ये बेख़ौफ़ यादें






                        जब कभी तख्ल ख्वाहिशें पतंगों की तरह कटती हैं  तो दर्द बहुत देती हैं......लगता है जैसे हर टुकड़ा तुम्हें नाशाद कर गया हो! याद का हर लम्हा किसी थके स्कूटर की तरह स्लो चलता है लगता है खुदा ने 'वक़्त' बनाया तो साथ में उसकी बेरहमी बताने 'याद' भी बना दी.


            




1.
किसी  वीरान स्टेशन की
इकलौती ट्रेन कि तरह
जब तुम्हारा नंबर चमकता है
तो यह थका दिन भी हंस देता है.
कभी-कभी लगता है
एक बार पूंछ ही लूं-
'जब भी तुम घर जाते हो
मैं तुममें कितने प्रतिशत बचता हूँ!'


2.
जेहन के फर्श पर
हर लम्हा ये चहलकदमी तुम्हारी!
लगता है 
बेरहम मसअले हो तुम!
हर लम्स में 
हज़ारों तल्खियां भुला
कितने पास आ गये हो तुम!
ज़रा हटो,
थोड़ी सांस तो ले लूं!!!



3.
बादल से निकाल
यादों का इक कतरा 
फिर चूम लिया हमने.
देखो ये मुआ चाँद हमपर हंस रहा है!!

4.
ख्याल कितने हैं जेहन में मेरे
गिने तो इक तू ही निकली!

Wednesday, May 16, 2012

ज़िन्दगी मासूम ही सही......







            हर रात जब नज्में कागज़ पर उतरती हैं तो लगता है, कुछ येसे दिन भी थे जिनका हिसाब नहीं माँगा जा सकता और कुछ येसे दिन थे जिन्हें फिर से जीने कि कवायते तुम अक्सर करते हो. कभी कभी जब पलाश को लफ़्ज़ों में उतारता हूँ तो लगता है, भरी दोपहरी में भी उसकी पीली रंगत लौट आई हो. अक्सर तुम्हारी उम्मीद से बेहतर वही दिन होता है, जो स्वप्न कि तरह आता है और हकीक़त बन निकल जाता है.....


उस सुबह जब तुम
मुस्कुराते जागी थी
लगा सूरज ना उगेगा आज.
सिक्त होंठो पर
वो मीठी मुस्कान
आँखें तुम में भिगोने को काफी थी.
फिर पूरे दिन का ही हिसाब 
ना दिया मैंने किसी को.


दोपहर
जब तुम यूँ सिमटी थी मुझमे
तो लगा सारी धूप ही 
आगोश में ले ली हो मैंने.
सिरहाने रखकर कई ख्वाव 
मैं सो गया धूप में ही.
हर दिन लंच में 
अब वही दोपहर खाता हूँ.


वो शाम कितनी खुशनसीब थी
तीखी नज़रें दिखाती तुम
....और तुम्हारे पीछे भागता मैं
जैसे सूरज रोक रहा चाँद को.
फिर पीछे मुड़
सीने से लगे तुम....
और चांदनी बिखर गई.
झील भी ख़ामोशी से
सब देख रही थी....
अपनी रंगत बदल-बदल.
उस शाम,
 कुछ पल खुदगर्ज़ बनना 
अच्छा लगा था मुझे!

वो रात,
जैसे बारिशों में
कहीं ओट में छिपे हों हम.
चेहरे पर कई सौ रंग लिए आई तुम
लगा पत्थरों को भिगोने
नदी का बहाव काफी नहीं.
कंधे पर सर रख
तुमने जो ख्वाहिशें बुनी थी.
उन्हीं को सिरहाने रख 
हर रात सोता हूँ अब.


उम्मीद को दरिया से निकाल
हर बार टटोलता हूँ
रोज जरा बड़ी हो जाती है....
राह-दर-राह मौसम खुश हैं 
उम्र के संग उन्हें भी भीगना आता है.
....और ये चाँद
मुठ्ठियाँ भर भर चांदनी देता है
भले ही नेकी में खुद बुझ जाए.
लगता है ज़िन्दगी मासूम ही सही,
रंगत का तराना तो है!


Wednesday, May 9, 2012

तू, सत्यमेव जयते, गुलज़ार ....एंड व्हाट द हेल!!!

                                                                                                                                          
         
                      मैं उससे जी भर लड़कर गुस्से से फ़ोन  रखता हूँ, .......मोबाइल!....सीधा स्विच  ऑफ......हमारे बीच  गुस्सा जताने का सबसे बेहतरीन तरीका है........ अपने अन्दर को कुछ  हल्का करने केप्प्री में ही घर से निकल  आता हूँ......कुछ  फलांग  पर मंदिर है...... धीरे-धीरे से मंदिर के अन्दर घुसता हूँ, जैसे यहाँ आना ज़रूरी नहीं था, लेकिन और कोई जगह भी तो इतनी शांत  नहीं होती!! ......भगवान् अब भी वहीं हैं, ज्यूँ के त्यों।.......मूर्तियों की भी अजीब सी आदत  होती है, जहां भी बिठा दो वहीं बैठ जाती हैं, बिना कोई  शिकायत के....... मैं बड़े गौर से देखता हूँ.......फिर मुझे गुलज़ार की 'इक  ज़रा छींक  ही दो तुम, तो यकीन आये की सब देख  रहे हो......' याद आता है। मैं आरती मूर्ति के थोड़ी और पास  ले जाता हूँ, फिर भी भगवान वहीं हैं ज्यों की त्यों. शायद वहां नहीं हैं!! शायद कही नहीं है !!!!
......मंदिर की दीवार पर किसी पोस्टर के नीचे अंग्रेजी में लिखा हुआ  है.......'जैन  इज  द  बेस्ट  रिलीजन।...' ......मुझे कम्युनिटी का सेक्स-रेशिओ याद आता है.......हज़ार पर सात सौ नब्बे लडकियां और इस  हफ्ते का सत्यमेव जयते भी......सुना था जैन  लोग अंडे तक  नहीं खाते!!!!
                            फूहड़ता के बीच सत्यमेव जयते का आना अच्छा है.....पढ़ा-लिखा होना आपके न  तो संवेदनशील  होने की निशानी है, ना ही समझदार होने की, न  ही आपके अच्छे या बुरे होने की।..........किसी ब्लॉग  पे पढ़ा था 'डाक्टर्स  पोलिश्ड कमीनों  की जमात है।......' उनका तो नहीं पता लेकिन संभ्रांत  वर्ग  ज़रूर 'पोलिश्ड कमीनों की ज़मात'  लगता है।
                   .........वो मेरे भाई के नंबर पर कॉल  करती  है, 'तुम्हारा मोबाइल  क्यों बंद था?' फिर वही तीखी नोंक-झोंक .........उसके बाद बहुत सी हंसी! मुझे 'वो' याद आता है, उसने कहा था, तुम्हारी जन्मतिथि 23 अगस्त और उसकी ...**.. ......मतलब यू आर इन  बेटवीन लिओ  एंड विर्गो एंड शी  इज़  विर्गो, लगभग  एक  ही राशि है भाई, कभी बनेगी कभी नहीं।' ........कंप्यूटर पर 'कुंडली' मिलाता हूं...... कुल  उन्नीस गुण! अंग्रेजी में लिखा  है- 'आधे से ज्यादा हैं!! निभेगी! लेकिन ज्यादा मिलते तो अच्छा था'.........व्हाट  द  हेल!!!!

अंत में.....
              'गुलज़ार' साहब....वैसे ही जैसे हैं........सीधे-सीधे बतियाते....


चिपचिपे दूध से नहलाते हैं, आंगन में खड़ा कर के तुम्हें 
शहद भी, तेल भी, हल्दी भी, ना जाने क्या क्या
घोल के सर पे लुढ़काते हैं गिलासियाँ भर के

औरतें गाती हैं जब तीव्र सुरों में मिल कर
पाँव पर पाँव लगाए खड़े रहते हो
इक पथराई सी मुस्कान लिए
बुत नहीं हो तो परेशानी तो होती होगी

जब धुआँ देता, लगातार पुजारी
घी जलाता है कई तरह के छौंके देकर
इक जरा छींक ही दो तुम
तो यकीं आए कि सब देख रहे हो. 

----
                            मैं उसे सत्यमेव जयते देखने को कहता हूँ, वो मना कर देती है।....लगता है समाज  में लडकियां सिर्फ  पेट में ही नहीं मरती!!!!!

Saturday, May 5, 2012

उम्र की टकसाल, एक उलझा ख्याल ....

एसा क्यूँ होता है, कुछ  लोग कहना नहीं चाहते, पर हकीक़त  उन्हें भी पता होती है, की सच उसे भी पता चल  गया होगा, क्यूंकि कोई तुम्हे अनकहे भी पढ़ सकता है, वो लफ्ज़ भी जो  कहे न गये हों, या वो भी जो शब्दों के बीच से निकल के आ रहे हों......

उम्र की टकसाल से निकला दिन,
हमेशा एक सा  नहीं होता,
कुछ होते हैं थोड़े से स्याह,
कुछ  थोड़े से खुश्क,
कुछ  थोड़े से नर्म .
कुछ  पाले  से सफ़ेद,
बर्फ  से शीतल.....
हर एक दिन  नया यहाँ.

आज  मैंने फिर एक  दिन   जी लिया
उम्र  की टकसाल  से निकला 
एक  दिन.......
तुम्हे पता तो है आज का दिन कैसा था.