अश्क आंखों में कब नहीं आता
लहू आता है जब नहीं आता।
होश जाता नहीं रहा लेकिन
जब वो आता है तब नहीं आता।
दिल से रुखसत हुई कोई ख्वाहिश
गिरिया कुछ बे-सबब नहीं आता।
इश्क का हौसला है शर्त वरना
बात का किस को ढब नहीं आता।
जी में क्या-क्या है अपने ऐ हमदम
हर सुखन ता बा-लब नहीं आता।
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कोफ़्त से जान लब पर आई है
हम ने क्या चोट दिल पे खाई है
लिखते रुक़ा, लिख गए दफ़्तर
शौक़ ने बात क्या बड़ाई है
दीदनी है शिकस्गी दिल की
क्या इमारत ग़मों ने ढाई है
है तसन्ना के लाल हैं वो लब
यानि इक बात सी बबाई है
दिल से नज़दीक और इतना दूर
किस से उसको कुछ आश्नाई है
जिस मर्ज़ में के जान जाती है
दिलबरों ही की वो जुदाई है
याँ हुए ख़ाक से बराबर हम
वाँ वही नाज़-ए-ख़ुदनुमाई है
मर्ग-ए-मजनूँ पे अक़्ल गुम है 'मीर'
क्या दीवाने ने मौत पाई है
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गुल ब बुलबुल बहार में देखा
एक तुझको हज़ार में देखा
जल गया दिल सफ़ेद हैं आखें
यह तो कुछ इंतज़ार में देखा
आबले का भी होना दामनगीर
तेरे कूचे के खार में देखा
जिन बालाओं को 'मीर' सुनते थे
उनको इस रोज़गार में देखा
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दिखाई दिये यूं कि बेख़ुद किया
हमें आप से भी जुदा कर चले
जबीं सजदा करते ही करते गई
हक़-ए-बन्दगी हम अदा कर चले
परस्तिश की यां तक कि अय बुत तुझे
नज़र में सभों की ख़ुदा कर चले
बहुत आरज़ू थी गली की तेरी
सो यां से लहू में नहा कर चले