Friday, April 6, 2018

[The Blue Canvas] ७

कभी कभी तुम इतने छोटे हो जाते हो कि एक छोटी कविता में भी समा जाते हो और कभी कभी इतने बृहद की प्रोज भी कम पड़ते हैं.
जब कभी सिकुड़ के मुझमें समाते हो तुम तो इतने छोटे लगते हो की किस नवजात को हाथों में उठाया हो.
और जब कभी तुम्हारे सीने पे सिर टिका मैं ढूंढ़ता हूं सुकून तो लगता है जैसे तुम यकायक से किसी बड़ी सी बिल्डिंग से विशाल हो गए हो कि खुद में समा लोगे मेरे आंसू और खुद मुझे ही!
तुम्हें मेरी हथेलियों बेहद कोमल लगती हैं और मुझे पूरे तुम.
तुम्हारे हाथों को थाम सड़क पार करता हूं तो उतना ही सेफ महसूस करता हूं जितना अपनी मां के हाथ थामे.
और जब तुम दोनों हाथ थाम एकटक देखती रहती हो मुझे तो लगता है कुछ कुछ थम सा गया है वक़्त.
ये अजीब है कि तुम सपनों में नहीं आते... शायद वहां भी हकीकत बन जाते हो.
तुम्हारी फैंटेसी के जैसे तुम्हें कान और गर्दन के बीच चूमते आंखों उग आई महक देखना चाहता हूं जो कभी देख ही नहीं पाया.
तुम्हारी पीठ पर पता नहीं क्या क्या लिख देता हूं मैं जो समझ नहीं आता तुम्हें.
इस बार तुम्हारी पीठ पर अपनी सबसे अच्छी पेंटिंग बनाना चाहता हूं जिसमें उगा देना चाहता हूं पंख और फिर आसमानों में तुम्हें उड़ते देखना चाहता हूं.
तुम ना कहते हो मुझपर लिखो सिर्फ मेरा हो... सच कहूं तो जो भी लिखता हूं सब तुम्हारा हो जाता है.
तुम ना कहते हो कि जाना बस इतने दूर की आखिरी ख़त लिख मिलना चाहूं तो आ पाओ... सच तो ये है वो आखिरी ख़त मैं कभी नहीं देखना चाहता... और ना ही दूर जाना चाहता हूं...